मोहम्मद यूनुस, न्यु एज इस्लाम
1 अगस्त 2017
(संयुक्त लेखक (अशफाकुल्लाह सैयद), इस्लाम का असल पैग़ाम, आमना पब्लिकेशंज़, अमेरिका, 2009)
इस श्रृंखला की भाग 1 और 2 में, मक्की युग (610-622) में नाज़िल होने वाली आयतें प्रस्तुत किए गए,इस भाग में मदीना युग की आयतें (622-632) प्रस्तुत की जाती है, जब पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मदीना में रहने लगे थे।
“(ऐ रसूल) तुमसे लोग पूछते हैं कि हम ख़ुदा की राह में क्या खर्च करें (तो तुम उन्हें) जवाब दो कि तुम अपनी नेक कमाई से जो कुछ खर्च करो तो (वह तुम्हारे माँ बाप और क़राबतदारों और यतीमों और मोहताजो और परदेसियों का हक़ है और तुम कोई नेक सा काम करो ख़ुदा उसको ज़रुर जानता है”(2:215)
"और जो लोग महज़ लोगों को दिखाने के वास्ते अपने माल ख़र्च करते हैं और न खुदा ही पर ईमान रखते हैं और न रोजे आख़ेरत पर ख़ुदा भी उनके साथ नहीं क्योंकि उनका साथी तो शैतान है और जिसका साथी शैतान हो तो क्या ही बुरा साथी है"(4:38)।
इस आयत में अकरबीन (कुरबा का समानार्थक) शब्द है और इसमें हर वह व्यक्ति शामिल है जिसका हमारे साथ किसी भी प्रकार का करीबी सम्बन्ध है और इसमें घरेलू मददगार कर्मचारी, मित्र और साथी भी शामिल होंगे। शब्द “इब्ने सबील” में अनगिनत बेघर लोग और ऐसे शरणार्थियों को शामिल किया जा सकता है जिनके पास रहने के लिए कोई जगह नहीं है और जो सड़कों के किनारे और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर जीवन यापन करने पर मजबूर हैं।
संदर्भित उपरोक्त आयातों पर साधारण विचार पाठकों के लिए लाभदायक हो सकती है। और विशेष तौर पर उन लोगों के लिए जो कुरआन कि पवित्रता पर इमान रखते हैं और उसके आदेशों को गंभीरता से ले रहे हैं।
आज प्रत्येक मनुष्य अपनी आय के स्तर से नजर बचा कर अपनी जीवन स्तर को ऊँचा करने की इच्छा में डूबा हुआ है। वह सबसे अधिक महंगा मकान किराये पर लेना चाहता है, सबसे बड़ा घर निर्माण करना या खरीदना चाहता है, सबसे अधिक महंगे फर्नीचर, अभी बुनयादी आवाश्यकताओं अतिरिक्त आवश्यकताओं कि वस्तुओं जैसे, कार, एसी, टीवी, मोबाइल, आई फ़ोन, आई पैड में भी लेटेस्ट मॉडल और सभी घरेलू सजावटी चीजें, पलंग, बर्तन, और रसोई के सभी उपकरण और साधन भी खरीदना चाहता है। लेकिन उसके इच्छाओं का अंत यही नहीं है। बल्कि वह छुट्टी मानाने के लिए जहाँ तक हो सके दूर की यात्रा करना, 7-5 स्टार होटलों में रहना, सबसे अधिक विशेष रेस्तरां में खाना और बिज़नेस या फर्स्ट क्लास में यात्रा करना पसंद करता है। और जब वह इन सभी चीजों को प्राप्त कर लेता है जो अपने देश में धन के आधार पर खरीद सकते हैं। तो उसके बाद वह दुनिया के बड़े बड़े राजधानियों में समानांतर घर खरीदना चाहता है, जैसे कराची में एक घर, सिंगापूर में एक कांडू, दुबई में एक बंगला, लन्दन में एक मेंशन और पेरिस में एक शातू, आदि। और जब वह यह सभी चीजें हासिल कर लेता है तो वह विमानों और समुद्री जहाजों को प्राप्त करना चाहता है जो दौलत और विलासिता में दूसरों को पराजित कर सके। कुरआन ऐसे लोगों को चेतावनी देता है कि ऐसे लोगों ने शैतान को अपना दोस्त बना लिया है और वह अल्लाह पाक के अजाब का शिकार होंगे। इस दौर में खर्च की प्रवृत्ति को देखने का एक और तरीका है। जो लोग भारी टैक्स अदा करते हैं वह ऐसे तनाव भरे रोजगार से जुड़े हुए हैं जो उन से समय की मांग करता है, उन्हें अपने जीवन की उर्जा और प्रकाश फिर से प्राप्त करने के लिए अपनी दिनचर्या परिवर्तित करना चाहिए। और वह मनोरंजन और यात्रा के माद्ध्यम से अपनी खोई हुई उर्जा प्राप्त कर सकते हैं। इस्लाम में इनमें से कुछ भी हराम नहीं है। कुरआन केवल अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को पुर्णतः अनदेखी करके धन खर्च करने की पागलों वाली इच्छाओं से रोकता है।
इस प्रकार के लोगों के बारे में कुरआन का फरमान है कि यह लोग खुदा या आखिरत पर ईमान नहीं रखते और इन पर शैतान हावी है।
मुस्लिमों के लिए नसीहत: सभी धनी मुस्लिमों को अपने खर्च का बजट तैयार करना चाहिए और पागलों कि तरह खर्च करके उन्हें शैतान के धोखे का शिकार नहीं होना चाहिए, और उन्हें अपनी आय में अपने समाज के उन लोगों को भी शामिल करना चाहिए जो जरूरतमंद हैं, और इसमें वृद्ध माता-पिता, करीबी रिश्तेदार, अनाथ, विधवा, पुराने कर्मचारी और दुसरे सम्बन्धी भी शामिल हो सकते हैं।
जनाब मोहम्मद यूनुस ने आईआईटी से केमिकल इंजीनियरिंग की शिक्षा हासिल की है और कार्पोरेट एग्जिक्यूटिव के पद से रिटायर हो चुके हैं और 90 के दशक से क़ुरआन के गहन अध्ययन और उसके वास्तविक संदेश को समझने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी किताब 'इस्लाम का असल पैगाम को 2002 में अल अज़हर अल शरीफ, काहिरा की मंज़ूरी प्राप्त हो गयी थी और यूसीएलए के डॉo खालिद अबुल फ़ज़ल का समर्थन भी हासिल है। मोहम्मद यूनुस की किताब 'इस्लाम का असल पैग़ाम' मैरीलैंड, अमेरिका ने 2009 में प्रकाशित किया।
Reflections on Social Justice in Islam (Part-1)
Reflections on Social Justice in Islam (Part 2)
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