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Hindi Section ( 8 Oct 2011, NewAgeIslam.Com)

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This also is a Way of Governance शासन का एक तरीका ये भी

मुफ्ती मोहम्मद ज़ुबैर हक़ नवाज़ (उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)

हज़रत उमर (रज़ि.) ने एक बार हज़रत आमिर बिन रबीआ (रज़ि.) को एक इलाके का गवर्नर बना कर भेजा। कुछ समय बीत जाने के बाद इनके प्रशासन का हाल जानने के लिए लोगों से मालुमात करवाई। आमतौर पर उनकी तारीफ की गयी, लेकिन एक व्यक्ति ने हज़रत उमर (रज़ि.) से उनकी तीन शिकायतें की। एक ये कि ये फज्र की नमाज़ के बाद अपने घर चले जाते हैं, और कुछ देर के बाद ये दरबार में आते हैं, जबकि पिछले अमीर सुबह की नमाज़ के बाद सीधा दरबार में आ जाते थे और लोगों की समस्याएं सुनना शुरु कर देते थे। दूसरी शिकायत ये पेश की, कि ये हर जुमा के दिन फज्र की नमाज़ के बाद घर चले जाते हैं और काफी देर घर में गुज़ारते हैं और इन कई घण्टों के दौरान अगर कोई उनका दरवाज़ा भी खटखटाये तो ये दरवाज़ा नहीं खोलते हैं और न ही बाहर आते हैं। तीसरी शिकायत ये की, कि ये हर दस पन्द्रह दिन के बाद किसी बीमारी या किसी नामालूम वजह के कारण बेहोश हो जाते हैं। इन पर बेहोशी के दौरे पड़ते हैं और ये बेहोशी कई बार कुछ घण्टों और कई बार तो आधे दिन से भी ज़्यादा तक रहती है। इस दौरान ज़ाहिर है कि कोई समस्या सुनने या हल करने की स्थिति में नहीं होते हैं।

हज़रत उमर (रज़ि.) ने उन्हें तलब किया और लोगों के सामने उनसे इन बातों की सफाई मांगी। इस पर उन्होंने कहाः अमीरुल मोमिनीन कुछ मामलात ऐसे होते हैं कि लोगों के सामने उनका ज़िक्र करना मुनासिब नहीं, मैं अकेले में आपसे बात कर लूँगा। हज़रत उमर (रज़ि.) ने इंकार किया और हुक्म दिया कि अभी इसी मजलिस में सबके सामने इन बातों की सफाई पेश करो। इसलिए हज़रत आमिर (रज़ि) ने कहाः अमीरुल मोमिनीन जहाँ तक पहली शिकायत का सम्बंध है कि मैं सुबह की नमाज़ के बाद घर चला जाता हूँ और पिछले अमीर की तरह सीधे दरबार में नहीं आता, उसकी वजह ये है कि मेरी बीवी काफी समय से इतनी बीमार हैं कि वो बिस्तर पर ही होती हैं। वो उठने बैठने की ताक़त नहीं रखती हैं। मेरे घर में खाना पकाने वाला कोई नहीं। मैं सुबह खुद बकरी का दूध दुहता हूँ और अपने और अपनी बीमार बीवी के लिए कुछ खाने का इंतेज़ाम करता हूँ, और इससे फारिग़ होकर दरबार में हाज़िर होता हूँ। दूसरी शिकायत से सम्बंधित सफाई ये है कि अमीरुल मोमिनीन मेरे पास पहनने का सिर्फ यही एक जोड़ा है, जो इस वक्त मैंने पहना हुआ है। मैं जुमा के दिन उतार कर खुद इसे धोता हूँ और फिर इसे सूखने का इंतेज़ार करता हूँ। इसलिए जुमा के दिन फज्र की नमाज़ के बाद कपड़ो के सूखने तक घर में रहना पड़ता है। ज़ाहिर है जब तक ये कपड़े सूखे नहीं होंगे बाहर आना मुमकिन नहीं। जहाँ तक तीसरी शिकायत का सम्बंध है, तो अमीरुल मोमिनीन कुछ दिन गुज़रने के बाद मुझे एक घटना याद आ जाती है, जिसकी वजह से मुझ पर ये कैफियत तारी होती है। वो वाकेआ हज़रत खबीब (रज़ि.) का है उस वक्त मैं काफिर था। जब हज़रत खबीब (रज़ि.) को ज़ंजीरों से जकड़ कर लाया जा रहा था। काफिरों की एक बहुत बड़ी तादाद वहाँ इकट्ठा थी, जो ढोल बजा रही थी और खुशी से तालियाँ बजा रही थी। मैं भी उन काफिरों में शामिल था। इसी हाल में हज़रत खबीब (रज़ि.) को लाया गया, जिन्हें देख कर काफिरों ने खुशी का इज़हार किया और मैं भी उस वक्त उन्हीं में शामिल था। हज़रत खबीब (रज़ि.) को इसी हालत में फांसी दे दी गयी। मुझे जब भी वो दर्दनाक किस्सा याद आता है और अपना काफिरों के साथ मिलकर खुश होना याद आता है, तो मेरे दिलो दिमाग़ की कैफियत बदल जाती है। मेरे दिमाग़ पर इसका ऐसा शदीद किस्म का असर पड़ता है कि फिर मुझे कुछ हो जाता है और मुझे कोई होश नहीं रहता है। हज़रत आमिर (रज़ि.) ये सफाई पेश कर चुके तो उस मजलिस में कई लोगों की आंखों में आंसू थे।

फारूके आज़म (रज़ि.) अपने तरबियत याफ्ता शागिर्द की सफाई सुनकर जज़्बाती हो गये। अल्लाह का शुक्र अदा किया और फरमाया जब तक उमर को ऐसे साथी मयस्सर हैं, इंशाअल्लाह उमर नाकाम न होगा। ये एक गवर्नर का हाल है जिसने नबी की तालीमात से सबक़ सीखा था। ये उस नबी के सच्चे ग़ुलाम थे, जिनके अपने घरों में फाकों की हुक्मरानी थी, जिनके पेट पर दो दो पत्थर बंधें रहते थे। इस्लाम की तारीख इन जैसे आलमी हुक्मरानों से भरी पड़ी है, जिन्होंने हुक्मरानी को गले का फंदा समझा। खुद फारूक़े आज़म (रज़ि.) को शहादत के वक्त जब अपनी औलाद में से किसी को अपना उत्तराधिकारी बनाने का सुझाव दिया गया तो फरमाया कि एक तो मैं उनको इसके योग्य नहीं समझता, दूसरे मैं अपनी औलाद के गले में हमेशा के लिए ये बंधन डालकर नहीं जाना चाहता। पहले खलीफा सिद्दीक़े अकबर (रज़ि.) खलीफ़ा बनने के बाद अपने नियम के मुताबिक कपड़ो की गठरी उठाकर बाज़ार की तरफ चले तो रास्ते में फारूक़े आज़म (रज़ि.) ने उन्हें रोक लिया कि अगर आप ये करेंगे तो शासन कौन चलायेगा?  जिसके बाद फारूक़े आज़म (रज़ि.) के प्रस्ताव पर खिलाफत की मजलिसे शूरा का पहला जलसा बुलाया गया और सिद्दीक़े अकबर (रज़ि.) के लिए ज़रूरत के मुताबिक़ वज़ीफ़ा तय किया गया।

सलाहुद्दीन अय्यूबी से आज कौन वाकिफ नहीं? जो अपने समय के सबसे बड़े इस्लामी प्रशासन के प्रमुख रहे हैं, जिसकी हुकूमत मिस्र की दक्षिण सीमा से लेकर अफ्रीका के तौबा रेगिस्तान तक थी। जिसने अपने ज़माने की सबसे बड़ी फौजी ताक़त को हराया था। उनके साथी इब्ने शदाद ने लिखा हैः वो दुनिया से इस हाल में रुख्सत हुए कि उनके अंतिम संस्कार के लिए सारे सामान का इंतेज़ाम उधार लेकर किया गया। यहाँ तक कि क़ब्र के लिए घास के पोले भी उधार से आये। कफन का इंतेज़ाम भी उनके वज़ीर और कातिब क़ाज़ी फाज़िल ने किसी जायेज़ और हलाल ज़रिए से किया। खुदा की कसम इस्लाम का प्रचार और प्रसार किसी बादशाह के रहमो करम पर नहीं बल्कि इन गुदड़ी के लालों का कारनामा है। सच ये है कि आज हम बुतों के सामने सज्दा नहीं कर रहे हैं। ये सदक़ा नबी के उन सच्चे ग़ुलामों का है। ये इन्हीं लोगों का कारनामा था जो आधी दुनिया मुसलमानों के अधीन हो गयी।

क्या इन जैसे वाकेआत में हमारा प्रशासन चलाने वाले लोगों के लिए कोई सबक़ है, जिनका वजूद प्रोटोकॉल के खोल में पैक रहता है, जिन्हें अपने शीश महलों से बाहर निकलने का समय नहीं मिलता है, जो रोज़ाना अपने सरकारी दफ्तर में अपनी ज़िम्मेदारियाँ अदा करने नहीं बल्कि बिज़नेस करने जाते हैं, जिनके दफ्तर का समय अपने मुनाफे को हासिल करने के नये रास्ते तलाश करने में गुज़र जाते हैं, जिनके सुझाव अपने निजी फायदे को हासिल करने के लिए नये रुख, नये मौके औऱ नये दरवाज़े को खोलना होता है, जिनके ऐश के सामान, रहन सहन और जिनकी सिर्फ लग्ज़री गाड़ियों को देख कर खुद उन देशों का मीडिया हैरान रहता है जिनके सामने मदद के लिए हम हाथ फैलाये रहते हैं। इन देशों के मीडिया का कहना है कि पार्लियमेंट के जलसों में आने वाले इन लीडरों को देखकर कोई ये अंदाज़ा नहीं कर सकता है कि ये किसी गरीब राष्ट्र के नुमाइंदे हैं। क्या गरीब देश के इन अमीर लीडरों और इस्लामी हुकूमत चलाने वालों के लिए चारों खलीफा और उनके ग़ुलामों के प्रशासन चलाने के तरीके में इनके लिए कोई आकर्षण है?  उन्हीं की खिदमत में हाथ जोड़कर गुज़ारिश है कि ज़रा ग़ौर कीजिए, शासन का एक तरीका ये भी है।

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