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Hindi Section ( 26 Nov 2013, NewAgeIslam.Com)

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Pakistan's Integral Relationship With Terrorism आतंकवाद से पाकिस्तान का अटूट रिश्ता?

 

मुबीन डार

22 नवम्बर, 2013

समय समय पर पाकिस्तानी अधिकारी ये प्रतिक्रिया देते रहते हैं कि वो खुद आतंकवाद के खिलाफ हैं और ये कि पाकिस्तान में आतंकवादियों के हाथों जितने लोग मारे गए हैं, उतने किसी और देश में नहीं मारे गये हैं। ये बात तो सही है कि पिछले कुछ बरसों में पाकिस्तानी तालिबान और दूसरे मसलकी (पंथीय) और आतंकवादी संगठनों के हाथों चालीस हज़ार से अधिक नागरिक और पांच हज़ार से अधिक सुरक्षाकर्मी मारे गए लेकिन ये बात बिल्कुल सही नहीं है कि पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ है। इसके लिए किसी सुबूत की ज़रूरत नहीं है बल्कि खुद पाकिस्तानी राजनेता और राजनयिक अक्सर आतंकवादियों के प्रति अपने 'प्यार' को व्यक्त करते रहते हैं। इसकी ताज़ा मिसाल तो यही है कि तहरीके तालिबान पाकिस्तान का कमांडर हाल ही में जब अमेरिकी ड्रोन हमले का शिकार हुआ तो पाकिस्तान ने अत्यंत कड़े शब्दों में इसकी निंदा की और ये तक कह दिया कि तहीरेक तालिबान से बातचीत करने के लिए जब संभावना पैदा हुई तो अमेरिका ने इस प्रक्रिया में जानबूझकर रुकावट डाल दिया ताकि बात आगे न बढ़ने पाए।

कुछ धार्मिक कट्टरपंथी समूहों ने तो हकीमुल्लाह महसूद को शहादत का दर्जा भी प्रदान कर दिया। लेकिन धार्मिक समूहों पर ध्यान दिये बिना खुद सरकार का कहना ये था कि अमेरिका ने हकीमुल्लाह महसूद को मार कर के बातचीत का रास्ता ही बंद कर देना चाहा, क्योंकि जल्द ही धार्मिक विद्वानों का एक प्रतिनिधिमंडल महसूद से मिलकर बातचीत के लिए बुलावे का निमंत्रण देने वाला था। पाकिस्तान के गृह मंत्री चौधरी निसार अली खान तो कुछ इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने ये तक कह दिया कि हकीमुल्लाह महसूद की मौत के बाद अब पाकिस्तान, अमेरिका से आपसी सम्बंधों के सवाल पर नए सिरे से विचार करेगा। यहाँ तक कि सरकार और कुछ राजनेताओं के व्यक्तिगत बयानों से यही अंदाज़ा हुआ कि हकीमुल्ला महसूद की मौत का दुख तो पाकिस्तान को बहुत अधिक है लेकिन उन चालीस हज़ार से ज़्यादा आम नागरिकों की मौत का कोई ग़म नहीं, जो तालिबान और दूसरे आतंकवादी समूहों के हाथों मारे गए।

तहरीके इंसाफ पार्टी के नेता इमरान खान ने तो नाटो सप्लाई का रास्ता बंद करने की धमकी भी दे डाली। अब सवाल ये पैदा होता है कि क्या एक हकीमुल्लाह महसूद की मौत पाकिस्तान के लिए इतना बड़ा हादसा साबित हुआ कि पाकिस्तान अपने चालीस हज़ार आम नागरिक को भूल बैठा और ये भी न सोचा कि इन्हें मारने वाले वही लोग हैं जिनसे बातचीत करने के लिए सरकार बेचैन नज़र आती है?

हकीमुल्लाह महसूद की जगह कुछ दिनों के लिए एक व्यक्ति को अंतरिम प्रमुख बनाया गया लेकिन इसके तुरंत बाद ही ये खबर भी सुनने को मिली कि अब उसकी जगह मुल्ला फज़लुल्लाह को तहरीके तालिबान पाकिस्तान का सुप्रीमो बना दिया गया है। ये मुल्ला फज़लुल्लाह वही है जिसने स्वात घाटी में आम लोगों पर बहुत अत्याचार किये थे। इसने पूरे क्षेत्र पर लगभग क़ब्ज़ा कर लिया था और पाकिस्तान का संविधान और कानून वहाँ पूरे तौर पर दम तोड़ चुका था। लड़कियों के स्कूल बम से उड़ा दिये गए थे और उनकी शिक्षा पर पाबंदी लगा दी गई थी। जो व्यक्ति भी विरोध करता था या तालिबान की विचारधारा से मतभेद करता था, उसे बेदर्दी से क़त्ल कर के पेड़ पर लटका दिया जाता था और सरे आम लोगों को फांसी दी जाती थी।

मुल्ला फज़लुल्लाह का एक रेडियो स्टेशन भी था जिसके माध्यम से वो दिन रात भड़काऊ भाषण दिया करता था। 2009 में स्वात में तालिबान के खिलाफ सैन्य ऑपरेशन हुआ और तब कहीं जाकर इस क्षेत्र में व्यवस्था बहाल हुई। मुल्ला फज़लुल्लाह और उसके कुछ साथी भागकर अफगानिस्तान चले गए और वहां से हमलों की योजना बनाते थे। पिछले साल मलाला युसुफ़जई पर मुल्ला फज़लुल्लाह के गुर्गों ने ही हमला किया था और अब भी वो धमकी देते रहते हैं कि जब कभी मौका मिलेगा वो उस पर फिर जानलेवा हमला करेंगे। अब स्वात का वही कुख्यात आतंकवादी तहरीके तालिबान पाकिस्तान का नया प्रमुख बनाया गया है। पता नहीं अब प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ की क्या योजना है लेकिन जहां तक मुल्ला फज़लुल्लाह का सवाल है तो उसने बड़े ही दो टूक शब्दों में कह दिया कि सरकार से बातचीत की कोई संभावना नहीं है।

वास्तविकता तो ये है कि आतंकवाद और आतंकवादियों के बारे में न तो सरकार का कोई स्पष्ट रुख है और न ही सैन्य प्रतिष्ठान की दलील समझ में आती है। राजनेताओं का हाल ये है कि वो तालिबान और दूसरे आतंकवादी समूहों से इस कदर डरे रहते हैं कि किसी भी क्रूर और अमानवीय हरकत के खिलाफ वो एक शब्द नहीं बोलना चाहते। हद तो ये है कि जिन बर्बर हमलों की ज़िम्मेदारी खुद तालिबान या उससे सम्बंधित कोई समूह स्वीकार करता है। उनकी भी निंदा करने में उन्हें घबराहट होती है। पाकिस्तान के अमेरिका में पूर्व राजदूत रहे हुसैन हक्कानी ने हाल ही में अपनी एक किताब में खुलासा किया है कि 2009 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पाकिस्तान को ये पेशकश की थी कि अगर वो लश्कर तैयबा और तालिबान के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई करने का संकल्प करे तो वो कश्मीर के सवाल पर भारत से बातचीत करने को तैयार हैं। इस तथ्य के बावजूद कि भारत किसी भी हाल में कश्मीर के सवाल पर अमेरिका या किसी तीसरे देश की मध्यस्थता स्वीकार नहीं करता, हुसैन हक्कानी के अनुसार पाकिस्तान सरकार ने राष्ट्रपति ओबामा के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। इसका मतलब तो यही हुआ कि पाकिस्तान सरकार ने व्यवहारिक रूप से यही प्रतिक्रिया दी कि अमेरिका कश्मीर के सवाल पर मध्यस्थ की भूमिका अदा करे या न करे वो लश्करे तैयबा और तालिबान जैसे समूहों से सम्बंध नहीं तोड़ सकता।

क्या इससे ये साबित नहीं होता कि पाकिस्तान और आतंकवाद एक दूसरे के पूरक बनकर रह गए हैं? ये बात पूरी दुनिया को मालूम है कि पाकिस्तान 1950 के दशक से ही अमेरिका से ये अनुरोध करता रहा है कि वो कश्मीर के सवाल पर भारत को अपने रुख में लचीलापन पैदा करने के लिए तैयार करे। अगर हुसैन हक्कानी का ये खुलासा तथ्य पर आधारित है तो पाकिस्तान के लिए ये सुनहरा मौका था कि वो राष्ट्रपति ओबामा की पेशकश को तुरंत स्वीकार कर लेता लेकिन उसने ऐसा इसलिए नहीं किया कि उसे आतंकवादी समूहों से रिश्ता तोड़ना मंज़ूर न था।

एक ताज़ा घटना ये है कि ऑल पाकिस्तान प्राइवेट स्कूल फ़ेडरेशन ने ये फैसला किया है कि मलाला युसुफ़जई की किताब 'मैं मलाला हूँ किसी भी स्कूल में नहीं पढ़ाई जाए और न ही किसी स्कूल की लाइब्रेरी में इसे रखी जाएगी। ध्यान देने योग्य बात ये है कि पाकिस्तान के डेढ़ लाख से ज़्यादा स्कूल इसी फेडरेशन के तहत चल रहे हैं और इनमें देश के सर्वश्रेष्ठ और उच्च मानकों वाले स्कूल शामिल हैं। ये ऐलान ऑल पाकिस्तान प्राइवेट स्कूल फेडरेशन की तरफ से किया गया है जिसके अध्यक्ष मिर्ज़ा काशिफ़ हैं। उनका कहना है कि, मलाला की ये किताब न तो किसी पाठ्यक्रम में शामिल की जाएगी और न ही किसी लाइब्रेरी को ये इजाज़त दी जाएगी कि वो उसे अपनी शेल्फ की शान बनाए। मकसद ये है कि पाकिस्तान के छात्र व छात्राओं को मलाला के विचारों को जानने से वंचित रखा जाए।

ज़ाहिर है फेडरेशन की ये मजाल नहीं कि वो इतना बड़ा फैसला सरकार के इशारे के बिना कर सके। अगर सरकार की मर्ज़ी न होती तो सरकार या उसके शिक्षा मंत्रालय की तरफ से इस फैसले के खिलाफ कदम उठाया जाए। इस किताब पर पाबंदी लगाने की मुख्य वजह यही है कि तालिबान का खौफ हावी है। मुल्ला फज़लुल्लाह के समूह के तालिबानियों ने मलाला पर पिछले साल अक्टूबर महीने में जानलेवा हमला किया था जिसमें वो बच गई थी। उसे इलाज के लिए ब्रिटेन ले जाया गया था जहां उसका सबसे अच्छा इलाज किया गया। तब से वो वहीं हैं और पढ़ाई कर रही है। उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के प्रतीक के रूप में ख्याति मिली लेकिन शिक्षा के दुश्मन तालिबान उसकी प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि से बौखला गए और खुले तौर पर उसे फिर जान से मारने की धमकी दी। इस्लाम के ये स्वयंभू ठेकेदार मलाला को 'इस्लाम दुश्मन' करार दे रहे हैं। हालांकि शिक्षा के काम को बढ़ावा देकर वो सही इस्लामी दायित्व को अंजाम दे रही है। चूंकि तालिबान उसे इस्लाम दुश्मन करार दे रहे हैं इसलिए पाकिस्तान भला तालिबान को नाराज़ कैसे करे? प्राइवेट स्कूल फेडरेशन के इस फैसले को इस पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए।

ऐसे में अगर कोई पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ या राजनयिक ये दावा करे कि हाफिज़ सईद जैसे लोग पाकिस्तान या पाकिस्तानी जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते तो ये दावा बड़ा हास्यास्पद लगता है। हाल ही में भारत में पाकिस्तान के राजदूत सलमान बशीर ने मुंबई में कुछ पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा कि हाफिज़ सईद को अधिक महत्व देने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि उनका प्रभाव क्षेत्र बहुत सीमित है और पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व नहीं करते। उनका दावा शायद ही किसी को संतुष्ट कर सके। जहां सत्ता में शामिल लोगों के डर का आलम ये है कि वो तालिबान के डर से स्कूलों में मलाला की किताब पढ़ाने की इजाज़त नहीं दे सकते, उनसे ये उम्मीद करना व्यर्थ है कि वो आतंकवाद से निपटने की कोई गंभीर कोशिश करेंगे। अगर पाकिस्तान आज आतंकवाद का शिकार है और अब तक वहाँ हज़ारों लोग मारे जा चुके हैं तो इसके ज़िम्मेदार वो लोग खुद हैं जिन्होंने 1980 के दशक में अफगानिस्तान और 90 के दशक में कश्मीर में सरकारी नेतृत्व में तथाकथित मुजाहिदीन को अपने राजनीतिक उद्देश्यों और रणनीति के तहत इस्तेमाल किया। ऐसे में उनका ये रोना हास्यास्पद लगता है कि ''पाकिस्तान खुद आतंकवाद का शिकार है।''

22 नवम्बर, 2013 स्रोत: रोज़नामा जदीद मेल, नई दिल्ली

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