डॉक्टर मोहम्मद नजीब कासमी सम्भली
कोरोना वबाई मर्ज के कारण दुनिया के अन्य देशों की तरह भारत में भी सभी धर्मों की ईबादतगाहों को बंद कर दिया गया था, यहां तक कि रमजान के मुबारक महीने में भी मुसलमानों ने मस्जिद के बजाए घरों में ही रहकर अल्लाह की ईबादत की। ईबादतगाहें और बड़ी बड़ी मसाजिद जुमआ और ईदुल फित्र के अवसर पर खाली रहीं क्योंकि भारत के 25 करोड़ मुसलमानों ने सामान्यतः नमाजें घरों ही में अदा कीं। करीब ढाई माह की अवधि के बाद मसाजिद 8 जून से दोबारा खोली जा रही हैं। सभी मुसलमानों से दरख्वास्त है कि जहाँ हम मसाजिद को आबाद करने की कोशिश करें वहीं इस मर्ज से हिफाज़त के लिए एहतियाती तदाबीर पर अमल पैरा हों। सफाई का विशेष ख्याल रखा जाये। सुन्नतों और नफलों का घरों पर ही एहतमाम कर लिया जाये तो बेहतर है क्योंकि सुन्नतों और नफलों का घरों में पढ़ना अफजल है। दो सफों के बीच और एक ही सफ में दो मुकतदियों के दरमियान फासला रखने की शरीयत में गुंजाइश है। बूढ़े विशेषकर जिन्हें सांस आदि की बीमारी है और छोटे बच्चे घरों ही में रहकर नमाज अदा कर सकते हैं। यद्यपि कि मोहल्ले की मस्जिद में दूसरी जमाअत को मकरूह करार दिया गया है मगर मस्जिद में सटे हुए दालान या मदरसा आदि में एक से अधिक बार जमाअत के साथ नमाज पढ़ी जा सकती है। बाजार, बस स्टाप, रेलवे स्टेशन और राष्ट्रीय मार्ग पर अवस्थित मसाजिद में एक से अधिक बार जमाअत के साथ नमाज अदा की जा सकती है।
धरती के प्रत्येक भाग में अल्लाह तआला को सबसे अधिक महबूब मसाजिद हैं, यह आसमान वालों के लिए ऐसी ही चमकती हैं जैसा कि जमीन वालों के लिये आसमान के सितारे चमकते हैं। इन मसाजिद को नमाज, जिक्र व तिलावत, ता'लीम व तरबीयत, दा'वत व तबलीग और अन्य ईबादतों से आबाद रखने का मुसलमानों को आदेश दिया गया है। आज मुसलमानों में जो दिन बदिन बिगाड़ आता जा रहा है, इसका एक कारण यह भी है कि हमारा सम्बन्ध मसाजिद से कमजोर हो गया है, अतएव हमें चाहिए कि हम अल्लाह के घर अर्थात् मसाजिद से अपना सम्बन्ध मजबूत करें क्योंकि मसाजिद मुसलमानों की ना मात्र प्रशिक्षण संस्थानें हैं बल्किमसाजिद मुस्लिम समाज को प्रतिबिंबित करती हैं। दुनिया में सबसे पहला घर बैतुल्लाह है जो मस्जिदे हराम के बीच में अवस्थित है जिसकी ओर रुख कर के हम ईमान के बाद सबसे महत्वपूर्ण रुक्न अर्थात् नमाज की अदायगी करते हैं। हुजूरे अकरम स० ने मदीना मनौवरा पहुंचने से थोड़ा पहले कुबा बस्ती में "मस्जिदे कुबा" और मदीना मनौवरा पहुंचने के बाद सबसे पहले जिस मस्जिद की बुनियाद रखी वही बाद में मस्जिदे नबवी के नाम से नामित हुई, जो इस्लाम के दुनिया के कोने कोने तक पहुंचने का जरिया बनी। अतएव हम अपना सम्बन्ध मस्जिदों से जोड़ कर इस बात की कोशिश करें कि हमारी मस्जिदें आबाद हों। यदि हमारा सम्बन्ध मस्जिद से जुड़ा हुआ है तो जहाँ अल्लाह शानुहू से कुरबत हासिल होगी और कल कयामत के दिन अल्लाह तआला के (रहमत के) साया में जगह मिलेगी, वहीं इनशाअल्लाह दुशमनाने इस्लाम की तमाम कोशिशें भी बेकार होंगी। मसाजिद से जहाँ मुसलमानों की रूहानी तरबीयत होती है, यानी हम किस तरह मुनकिरात से बच कर अल्लाह तआला के अहकाम के अनुसार नबीए अकरम स० के तरीके पर जिंदगी गुजारें, वहीं समाजी जिंदगी में भी रहनुमाई मिलती है, क्योंकि जब मुसलमान आपस में दिन में पांच बार मस्जिद में मिलता है तो एक दूसरे के मसाएल की जानकारी मिलती है। एक दूसरे को सलाम करता है, जुमआ व ईदैन के अवसर पर बड़ी संख्या में लोगों से मुलाकात होती है, इस कारण बीमार की इयादत करता है, जनाजा में सम्मिलित होते हैं, एक दूसरे के काम आते हैं, मोहताज लोगों की मदद करता है और बन्दों के हुकूक को अदा करने का एहसास पैदा होता है, यह सारे विषय मस्जिदों का समाज सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं। रमजान के महीने में तो हमारी मस्जिदें किसी हद तक आबाद नजर आती हैं, मगर ईद के बाद नमाजियों की संख्या दिन ब दिन कम होती जाती है, हालांकि पांच वक्त की नमाज रमजानुल मुबारक की तरह पूरे साल प्रत्येक दिन फर्ज है और मर्द हजरात को शरई उज्र के बगैर पांचों नमाजें मसाजिद में ही अदा करनी चाहियें।
हिन्दी अनुवाद - जैनुल आबेदीन, कटिहार।
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