मोहम्मद इज़हारुल हक़
1 जुलाई, 2013
जिस रात ऐबटाबाद में अमेरिकी ने ओसामा बिन लादेन ''एक्शन'' लिया, उससे अगले दिन एक टीवी चैनल ने जनता का सर्वे किया और इस घटना के बारे में आम पाकिस्तानियों की राय जानने की कोशिश की। बहुमत ने इसे अमेरिकी साज़िश करार दिया। कुछ ने ओसामा बिन लादेन की तारीफ की। कुछ लोगों ने ये भी कहा कि सब कुछ पाकिस्तान सरकार की मर्ज़ी से हो रहा है। वहीं एक विदेशी भी था। उससे राय मांगी गई तो उसने कहाः अभी मैं कुछ नहीं कह सकता, मेरे पास कोई सुबूत नहीं कि ये अमेरिकी साज़िश है, अमेरिकियों ने ओसामा बिन लादेन की लाश भी नहीं दिखाई, इसलिए मैं ये नहीं कह सकता कि उसे वास्तव में क़त्ल किया गया है या नहीं!
ये है एक झलक उस फर्क की जो हमारे दृष्टिकोण और बाकी दुनिया के दृष्टिकोण में आ चुका है और जो बदकिस्मती से दिन बदिन ज़्यादा होता जा रहा है। आप इसे माइण्ड सेट कह लीजिए या सोच, या कोई और नाम दे दीजिए लेकिन ये हमारा राष्ट्रीय ट्रेडमार्क बन गया है। हम सुबूत मांगते हैं न गवाही, जो राय हमें अच्छी लगती है हम वो मान लेते हैं। शोध या जांच को ज़रूरी नहीं समझते। फिर वो राय को दूसरों पर थोपना शुरू कर देते हैं। इससे मतभेद रखने वाला देश का गद्दार हो सकता है और काफिर भी। फिर ये सिलसिला और आगे बढ़ता है और हम मतभेद करने वालों को गर्दन उड़ा देने के काबिल समझते हैं। आखिरकार उसकी गर्दन मार दी जाती है।
हमारे इस दृष्टिकोण का उल्लेख हमारे दुश्मन ही नहीं, दोस्त भी करने लगे हैं। मध्य पूर्व के सबसे बड़े अंग्रेज़ी अखबार 'अरब न्यूज़' ने हाल ही में एक विस्तृत लेख प्रकाशित किया है जिसमें हमारे सोचने के इस अंदाज़ को हमारी समस्याओं का मूल कारण बताया गया है।
सऊदी अरब से प्रकाशित होने वाला दैनिक 'अरब न्यूज़' एक साथ जेद्दा, रियाद और दम्माम से निकलता है। ये कारोबारी दुनिया, कूटनीतिक क्षेत्रों और अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के उच्च शिक्षित लोगों में बेहद लोकप्रिय है। मध्य पूर्व के कई बड़े संस्थान ''सऊदी रिसर्च एण्ड मार्केटिंग ग्रुप (SRMG)' के तीस के लगभग अखबारों और पत्रिकाओं में अरब न्यूज़ प्रमुख स्थान हासिल है और संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत, बहरीन, क़तर, ओमान, उत्तरी अफ्रीका और अमेरिका में पढ़ा जाता है। यहाँ इस बात का ज़िक्र ज़रूरी है कि उपरोक्त वर्णित SRMG को सऊदी अरब की सरकार के बहुत क़रीब समझा जाता है।
इस लेख में बताया गया है कि सऊदी अरब दो देशों को बहुत अहमियत देता है। पूर्व में पाकिस्तान और उत्तर पश्चिम में मिस्र को। इसी दर्शन पर सऊदी अरब की रक्षा और सुरक्षा निर्भर है। ये दो देश सऊदी अरब के दो हाथ हैं। मिस्र में हाल में हुए परिवर्तन के बाद जो ठहराव आ गया है उससे सऊदी अरब को इत्मिनान हासिल हुआ है, लेकिन असली समस्या सऊदी अरब के पूर्वी बाज़ू यानी पाकिस्तान के हर वक्त बिगड़ते हुए हालात हैं।
इन बिगड़ते हुए हालात का मूल्यांकन करते हुए अरब न्यूज़ कहता है कि पाकिस्तान की समस्या वित्तीय समस्या नहीं है। क्योंकि जितना पैसा पाकिस्तान को दिया जाएगा, सारे का सारा व्यर्थ हो जाएगा। अखबार अमेरिका की मिसाल देता है कि पिछले कुछ बरसों से अमेरिका पाकिस्तान को दो अरब डॉलर की सहायता दे रहा है लेकिन कोई चमत्कार पैदा नहीं हुआ और हिंसा, गरीबी, भ्रष्टाचार और लगातार नाकामी का मनहूस दायरा लगातार घूम रहा है। मिस्र में उम्मीद की किरण दिखाई दे रही है लेकिन ऐसी किसी किरण पाकिस्तान में दूर दूर तक कोई निशान नहीं है। अगर कुछ रौशनी है भी तो उस आग की है जो आत्मघाती हमलावर लगाते फिरते हैं और जिसके शोले चारों तरफ फैल रहे हैं।
अखबार लिखता है कि असली समस्या पाकिस्तानियों के मन की स्थिति यानी माइंड सेट है। फिर वो उन दोस्तों से माफी माँगता है जो इस बात को नापसंद करेंगे और ''साज़िश'' के सिद्धांत पर कड़ाई से यक़ीन करते हैं। मिसाल के तौर पर पाकिस्तानियों में आयोडीन की गंभीर कमी है लेकिन वो आयोडीन का इस्तेमाल इसलिए नहीं करते कि ये मुसलमानों के खिलाफ़ पश्चिमी देशों और भारत की संयुक्त साज़िश है। दूसरी ओर पाकिस्तानी स्वास्थ्य मंत्रालय और संयुक्त राष्ट्र स्वास्थ्य संगठन के शोध ये बताते हैं कि आयोडीन की कमी से पाकिस्तानियों की बड़ी संख्या कई बीमारियों का सामना कर रही है। गर्भपात, मानसिक अस्थिरता स्वास्थ्य और थायराएड की बीमारी इनमें प्रमुख है। मानसिक और शारीरिक क्षमता में कमी और आलस्य भी आयोडीन की कमी का दुष्परिणाम और आर्थिक परिस्थितियों में दिनों दिन खराबी का भी ये एक कारण है।
फिर अखबार पोलियो का ज़िक्र करता है कि धार्मिक समूह पोलियो के उन्मूलन अभियान को नाकाम करने के लिए खून खराबे पर उतर आए हैं। सऊदी अरब, मिस्र और दूसरे कई मुस्लिम देशों में पोलियो उन्मूलन अभियान सफल हो चुका है, लेकिन पाकिस्तान में पोलियो का उन्मूलन तो क्या होता, दिन बदिन तेजी से इसमें इज़ाफा हो रहा है। पोलियो कार्यकर्ताओं की हत्या के बाद अभियान को रोक दिया गया है।
सऊदी अखबार लिखता है कि कई लोग इस स्थिति के कारण को जनरल ज़ियाउल हक़ पर थोपते हैं जिसने कट्टरपंथी और जिहादी विचारधारा को प्रोत्साहित किया। दुनिया भर से जेहादी आकर अफगान सीमा पर अबाद हो गए और जिहाद में शामिल हुए। अखबार के अनुसार फिर ये 'अनुभव कश्मीर में दोहराया गया। सऊदी सरकार के करीबी समझे जाने वाले इस अखबार का लेखक ये भी लिखता है कि उसने नब्बे के दशक के अंत में 'कश्मीरियों का एक प्रशिक्षण शिविर खुद देखा।
अखबार का मानना है कि पाकिस्तान की सबसे बड़ी त्रासदी उग्रवाद है जो हद से ज़्यादा बढ़ चुका है। दुनिया के किसी भी मुसलमान मुल्क की तुलना में ये (उग्रवाद) तार्किक और व्यावहारिक दृष्टि से, इस देश में सबसे ज़्यादा फैल चुका है।'' इराक को छोड़कर आत्मघाती ऑपरेशन सबसे ज़्यादा यहीं हो रहे हैं। ये आत्मघाती कार्रवाईयाँ मस्जिदों, बाज़ारों और सार्वजनिक स्थानों पर की जा रही हैं और ये सिर्फ सैनिकों के खिलाफ नहीं हैं! अखबार के अनुसार ''तालिबान के मुफ्ती के अनुसार इसमें कोई बात नहीं कि एक युवा बाज़ार या किसी सार्वजनिक स्थान पर, यहां तक कि मस्जिद में, अपने आपको उड़ा कर खुदकुशी कर ले ताकि अपने टार्गेट को मार सके।'' इस असाधारण लेख के अंतिम पैराग्राफ इस काबिल है कि इसका सार नहीं, बल्कि पूरा पूरा अनुवाद पेश किया जाए: ...
''पाकिस्तानी उलमा (इस बारे में) कुछ करने की क्षमता नहीं रखते। जो आवाज़ बुलंद करते हैं और तालिबान की आलोचना करते हैं, मार दिए जाते हैं। उलेमा का एक और बड़ा समूह अवसरवादी है और धर्म को राजनीति में इस्तेमाल करता है। ये उलेमा तालिबान के अपराधों के बारे में खामोश रहते हैं ताकि सरकार के साथ अपने झगड़े में उन्हें इस्तेमाल करें। एक तीसरा समूह भी है। उसने आराम को चुना है और खामोशी को अपनाये हुए है''.......
ये ज़रूरी नहीं कि हम सऊदी दैनिक के इस लेख से पूरी तरह सहमत हों। हमें इससे असहमत होने का अधिकार है। लेकिन इस लेख की असल अहमियत ये है कि ये किसी पश्चिमी, भारतीय या इजरायली पत्रिका में नहीं बल्कि जेद्दा और रियाद से प्रकाशित हुआ और उस अखबार में प्रकाशित हुआ है जो सऊदी सरकार के करीब है। फिर ये अखबार पूरे मध्य पूर्व, मिस्र और अमेरिका में पढ़ा जाता है। हमें ये तथ्य भी ध्यान में रखना होगा कि साऊदी लोगों की नई पीढ़ी बड़ी संख्या में यूरोप और अमेरिका से शिक्षा हासिल कर चुकी है और अब अरब न्यूज जैसे अंग्रेज़ी अखबारों का महत्व बहुत अधिक हो चुका है।
स्रोत: http://columns.izharulhaq.net/2013_01_01_archive.html
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