मोहम्मद इज़हारुल हक़
19 जून, 2013
(उर्दू से अनुवाद- न्यु एज इस्लाम)
हज़रत उमर फ़ारूक़ रज़ियल्लाहू अन्हू ने अपनी ज़िंदगी का अंतिम हज किया और मदीना वापस तशरीफ ले आए। बाज़ार का गश्त करने निकले तो मोगीरा बिन शोबा का ईरानी गुलाम अबु लोलो फ़िरोज़ मिला। अमीरुल मोमिनीन! मुझे मोगीरा बिन शोबा से बचाइए। खिराज (आय का वो हिस्सा जो गुलाम मालिक को अदा करता था) बहुत ज़्यादा अधिक है। पूछा कितना खिराज अदा कर रहे हो। जवाब दिया दो दिरहम रोज़ाना। और काम क्या करते हो? अबु लोलो ने बताया। बढ़ई का काम करता हूँ और लोहार का। नक़्क़ाशी भी करता हूँ। अमीरुल मोमिनीन ने जवाब दिया, तुम्हारे पेशों को देखते हुए खिराज की रक़म ज्यादा नहीं मालूम हो रही।
मैंने सुना है तुम हवा से चलने वाली चक्की बनाने का दावा करते हो, फ़िरोज़ ने कहा, 'जी हाँ' बना सकता हूँ। तो फिर मुझे एक चक्की बना दो। ईसाई ग़ुलाम ने जवाब दिया। अगर मैं ज़िदा रहा तो आपके लिए ऐसी चक्की बनाऊँगा जिसकी चर्चा पूर्व से पश्चिम तक होगी। ये कहा और चल दिया। अमीरुल मोमिनीन ने कहा ''इस ग़ुलाम ने मुझे अभी अभी धमकी दी है।'' इसके तीन दिन बाद अबु लोलो ने उन पर हमला किया और वो शहीद हो गए लेकिन विषय उनकी शहादत नहीं गुलामों के साथ उनका इंसाफ है। अबु लोलो के पेश अच्छे थे। अगर न होते तो, अमीरुल मोमिनीन खिराज की रक़म कम कर देते। इस क्षेत्र से, जिसे आज हम मध्य पूर्व कहते हैं, गुलामी को बिल्कुल खत्म करना उनके बस में नहीं था लेकिन जिस कदर कम हो सकती थी, दूसरे खलीफा ने की। हज़ारों गुलाम आज़ाद कराए। संधि के समझौतों में लिखवाया कि लोगों के जान व माल से मतलब नहीं होगा। ये भी कि गिरफ्तार हो कर लौण्डी ग़ुलाम नहीं बनाये जाऐंगें। अबु मूसा अशअरी को फरमान भेजा कि किसी काश्तकार या पेशेवर को गुलाम नहीं बनाया जाए। ये आप ही थे कि नियम निर्धारित कर दिया गया, जिस लौण्डी से औलाद हो जाए वो खरीदी जाएगी, न बेची जाएगी। यानी गुलाम नहीं रहेगी। फिर मकातेबा लागू किया। यानी गुलाम एक अनुबंध लिख दे कि इतनी अवधि में इतनी राशि अदा करूँगा। फिर जब ये रक़म अदा हो जाती थी तो वो आज़ाद हो जाता था। जंगे बदर के मुजाहिदीन के वेतन निर्धारित किये तो उनके गुलामों के वेतन भी बराबर रखें। गुलामों की देखभाल न करने वाले अधिकारियों को बर्खास्त कर देते थे। कितने भाग्यशाली थे उस ज़माने के गुलाम! अफसोस! आज इस क्षेत्र में उमर फ़ारूक़ रज़ियल्लाहू अन्हू होते तो अब्दुल करीम के साथ ज़रूर इंसाफ़ करते।
मार्च की शुरुआत थी जब अब्दुल करीम की बीवी मध्य पूर्व के एक देश से पाकिस्तान वापस आई। मियां वहीं रहा कि कारोबार कर रहा था। औरत बच्चों को शिक्षा दिलवाने आई थी कि तेल से छलकते इन देशों में बारहवीं के बाद पाकिस्तानी छात्र या तो पश्चिम देशों का रुख करते हैं या वापस पाकिस्तान का। बीमार वो पहले से ही थी। लेकिन वक्त आ चुका था। ज़िंदगी और मौत के बीच आखरी फास्ला ही क्या है। एक मद्धम लकीर, जो एक पल के हज़ारवें हिस्से में मिट सकती है। क़यामत के बारे में बताया गया है कि लुक़्मा हाथ में होगा और मुंह में डालने से पहले आ जाएगी। अप्रैल के तीसरे हफ्ते में अब्दुल करीम की बीवी अपने पार्थिव शरीर को रावलपिंडी के एक अस्पताल में छोड़ कर खुद उस जहान को चली गयी, जिसकी वास्तविक प्रकृति के बारे किसी को कुछ पता नहीं। हां ये बात तय है कि हर किसा को इस जहान में जाना है। उस कफील को भी जिसके क़ब्ज़े में अब्दुल करीम का पासपोर्ट था!
अब्दुल करीम की बीवी, उसके पांच बच्चों की मां का पार्थिव शरीर रावलपिंडी में था। अब्दुल करीम ने उछलकर बाहर आते दिल को सीने में सँभाला और कफ़ील के दरवाज़े पर हाज़िर हुआ। कफ़ील मौजूद नहीं है। उसे बताया गया। वो कहाँ है? वो देश से बाहर गया हुआ है! कहाँ? कब आएगा? यूरोप गया है या अमेरिका पता नहीं। ये भी कोई नहीं बता सकता कि वापस कब आएगा।'' मुझे पासपोर्ट चाहिए। मुझे अपनी बीवी के जनाज़े पर पहुंचना है।'' पासपोर्ट तो उसी के पास है, किसी और को नहीं मालूम कि कहाँ पड़ा है और उसके अलावा कोई नहीं दे सकता। अब्दुल करीम ने पाकिस्तान फोन किया। मृतक के आसपास बैठे भाई- बहनों को, अपनी बेटी और बेटे रोते सिसकते बिलकते हुए बताया कि मैं नहीं आ सकता। नहीं मालूम कफील कब आएगा और कब पासपोर्ट मिलेगा। उसने कोशिश की कि कफील का फोन नंबर मिले, और वो जहां भी है, उससे विनती करे, लेकिन या तो कफील से किसी का भी सम्पर्क नहीं था या कोई भी टेलीफोन नंबर देने के लिए तैयार नहीं था!
अनगिनत अब्दुल करीम हैं जिनके साथ ये बर्ताव हो रहा है। गुलाम का नाम नहीं इस्तेमाल हो रहा है लेकिन पूरी दुनिया इस व्यवस्था, इस सिस्टम को गुलामी का नाम देती है। ज़ंजीरें नज़र नहीं आतीं लेकिन आदमी क़ैद हैं। उमर फ़ारूक़ रज़ियल्लाहू अन्हू ने इंसाफ किया था कि ख़िराज पेशे के आधार पर ज़्यादा नहीं है और मोगीरा बिन शोबा इस गुलाम के खिराज पर निर्भर भी नहीं करते थे लेकिन मध्य पूर्व में काम करने वाले अब्दुल करीम जो खिराज अपने कफील को देते हैं उसमें कोई इंसाफ नहीं हो सकता। अब्दुल करीम का कारोबार चलता है या नहीं, उसे आमदनी हो रही है या नुक़सान' कफ़ील को निर्धारित राशि ज़रूर चुकानी है। इसलिए कि अब्दुल करीम के अपने नाम पर कारोबार है न दुकान, टैक्सी है न बैंक खाता" ये सब कुछ तो कफ़ील के नाम पर है।
कफ़ील एक मिनट के अंदर अंदर उसे देश से निकलवा सकता है, गिरफ्तार करा सकता है, कारोबार ठप करा सकता है, खिराज की रक़म दोगुनी कर सकता है। अब्दुल करीम न विरोध कर सकता है, न इनकार। वो चुप रह कर 'खून के घूंट पीकर' सिर झुका कर काम करता रहता है। पलट कर देखता है तो अपने देश में उसे आतंकवाद दिख रहा है और भ्रष्टाचारी मगरमच्छ जो शासकों के रूप में सब कुछ हड़प किए जा रहे हैं और पुलिस जो शरीफों, चौधरियों, ज़रदारियों और परवेज़ मुशर्रफों की सुरक्षा पर तैनात है और फिरौती के लिए अपहरण की अनगिनत घटनाएं ... अब्दुल करीम कानों को हाथ लगाता है और नज़र न आने वाली ज़ंजीरें पहने 'कारोबार जारी रखता है। खिराज देता रहता है, कारोबार जारी रखने के लिए उसे अक़ामा चाहिए। अक़ामा कफ़ील ही दे सकता है। हर काम के लिए 'हर कानूनी कार्रवाई के लिए, कफ़ील के दस्तख़तों की ज़रूरत है। ज़रा सी ग़लतफ़हमी, मामूली सी गल्ती, अब्दुल करीम को देश से निकलवा सकता है। मज़दूरी 'रिहाइश' माहौल या किसी भी सिलसिले में शिकायत करने का मतलब है कि किफ़ालत वापस ले ली जाएगी।
एक अनुमान के मुताबिक़ 2010 में मध्य पूर्व के मुस्लिम देशों में ढ़ाई करोड़ वर्कर काम कर रहे थे। इनमें तीन चौथाई का सम्बंध एशियाई देशों से है। क्या ये एशियाई देश कफ़ील सिस्टम को बदलवाने या नरम कराने की कोशिश नहीं कर सकते? अफसोस! इसका जवाब न में है। पंजाब का मुहावरा है कि ज़बरदस्त के सौ में बीस पांच बार नहीं, छह बार होता है। 2011 में इंडोनेशिया और फिलीपींस की सरकारों ने कोशिश की कि मध्य पूर्व के एक प्रसिद्ध देश में काम करने वाले घरेलू नौकरों का न्यूनतम वेतन निर्धारित कर दिया जाए। इसका नतीजा ये निकला कि इस देश ने इंडोनेशिया और फिलीपींस से और ज्यादा भर्ती करना बंद कर दिया।
लेकिन इस किस्से को छोड़िए। आइए हम इन देशों की निंदा जारी रखें जो काफिरों के हैं, जहां चार करोड़ से अधिक मुसलमान उतने ही नागरिक अधिकार रखते हैं जितने स्थानीय लोग। जहां संपत्तियां, व्यापार, कम्पनियों सब कुछ आप्रवासियों के नाम पर हैं। जहां कफ़ील कोई नहीं, सिर्फ दलील से काम निकलता है। जहां वो पार्लियमेंट में बैठे हैं। मंत्रालयों पर आसीन हैं।
अदालत में किसी स्थानीय के ख़िलाफ़ भी, चाहे वो कितना ही बड़ा क्यों न हो, अपना मुक़दमा पेश कर सकते हैं और इंसाफ हासिल कर सकते हैं।''ताक़तवर मुसलमान देशों में पैदा होने वाले ''विदेशी मुसलमान, वहां रहते रहते बूढ़े हो जाएंगे तब भी नागरिकता हासिल नहीं कर सकते। उन अधिकारों के बारे में सोच भी नहीं सकते जो कि ''मूल'' नागरिकों को हासिल हैं!
ये हम भी कैसे मसले में उलझ गए 'आइए' लोकतंत्र के खिलाफ़ प्रकाशित होने वाला ताज़ा कालम पढ़ें।
स्रोत: http://columns.izharulhaq.net/2013_04_01_archive.html
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