New Age Islam
Mon Mar 20 2023, 07:10 PM

Hindi Section ( 5 Jun 2014, NewAgeIslam.Com)

Comment | Comment

Cultural Narcissism - Part 2 तहज़ीबी नर्गिसियत भाग (2)


मुबारक हैदर

तहज़ीबी नर्गिसियत

बम धमाकों और आत्मघाती हमलों के द्वारा तबाही और नरसंहार उस आंदोलन का हिस्सा है जो पिछले तीन दशकों के दौरान फलता फूलता रहा है। उन वैचारिक आंदोलनों का व्यावहारिक रूप है जिसे इसके विरोधी आतंकवाद कहते हैं।  कुछ समय से इस विचार को प्रकट किया जा रहा था कि राजनीतिक अमल की बहाली से आतंकवाद का अमल कमज़ोर पड़ जाएगा। शायद वो आंदोलन जिसे आतंकवाद कहा जा रहा है उसका नेतृत्व भी ''लोकतांत्रिक चाल' के संभावित प्रभावों को नज़रअंदाज़ नहीं करती।

इसलिए समय रहते उपाय के माध्यम से आंदोलन के नेताओं ने राजनीतिक प्रक्रिया को निशाने पर रख लिया है। विश्लेषण की दृष्टि से देखा जाए तो अब ये बात स्पष्ट दिखाई देती है कि देश में राजनीतिक प्रक्रिया से जो वातावरण बनाने की कोशिश की जा रही है उसकी इजाज़त नहीं दी जाएगी यानि जो कदम 27 दिसम्बर, 2007 को रावलपिंडी में उठाया गया था, वैसे ही कदम बार बार उठाए जाएंगे लेकिन इसका निशाना एक विशिष्ट पक्ष होगा, सभी नहीं। विशिष्ट पक्ष वही है जिसके प्रतिनिधियों में श्रीमती बेनज़ीर शहीद भी थीं। इस पक्ष में सब वो ताक़तें शामिल हैं जो वैश्विक इस्लामी आंदोलन से डरे हैं। ये विचार करने लायक है कि इस नरसंहार और श्रीमती भुट्टों की शहादत पर विरोध उन्हीं देशों की सरकारों ने किया जो खुद इस आंदोलन का निशाना बन रही हैं या बनने वाली हैं। यानि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, भारत, चीन, इंडोनेशिया, अफगानिस्तान और मिस्र की सरकारें। ये वो सरकारें हैं जिन्हें इस आंदोलन से गंभीर मतभेद है और शायद डर भी।

ये आंदोलन क्या है? हम सभी जानते हैं हालांकि इसे खुले तौर पर स्वीकार करने से बचते रहे हैं। पाकिस्तान में धार्मिक दलों, राजनेताओं, बुद्धिजीवियों, व्यापारी वर्ग और जनता की एक बड़ी संख्या के अलावा पाकिस्तान की सत्ता के कई तत्व इसके समर्थक हैं। सिर्फ खुल्लम खुल्ला समर्थन व्यक्त करने यानि आन रिकॉर्ड आने से बचा जाता है। क्योंकि सरकार का एक तत्व जो वैश्विक राय के अनुसार रणनीति पर अग्रसर है, अभी कुछ हद तक प्रभावी है। ये इस्लाम के प्रभुत्व का आंदोलन है जिससे देश के सभी मुसलमान सैद्धांतिक रूप से किसी न किसी हद तक सहमत हैं, और इसके लक्ष्य स्पष्ट हैं, अर्थात् चरणबंद्ध तरीके से सारी दुनिया में इस्लाम का प्रभुत्व और प्रवर्तन। इन चरणों का विवरण कुछ इस तरह है।

पहला चरण - इस चरण पर पाकिस्तान और अफगानिस्तान में एक सच्ची इस्लामी सरकार की स्थापना मंतव्य है जो खिलाफत के दौर का व्यावहारिक रूप होगा और दोनों देशों की सीमाओं को जिन्हें इस्लाम स्वीकार नहीं करता, खत्म करके सैन्य आधार पर एक मज़बूत खिलाफते इस्लामिया की स्थापना होगी, जिसकी दारुल खिलाफत (राजधानी) शायद उत्तरी क्षेत्रों में होगी या सम्भव है कि सफलता के अगले चरणों में हरमैन शरीफ़ैन के पास किसी जगह पर हो।  लेकिन ये तब सम्भव होगा जब मध्य पूर्व में कुछ रुकावटें दूर हो जाएंगी। यानि ईरान की मौजूद व्यवस्था, जो यद्यपि इस समय आंदोलन के लिए ताक़त का कारण है लेकिन अंततः इसे खत्म करना ज़रूरी होगा, क्योंकि ये केंद्रीय खिलाफ़त के रास्ते में रुकावट बन सकता है।

खिलाफत के इस आंदोलन का व्यावहारिक अनुभव पिछली सदी के अंतिम वर्षों में किया जा चुका है। हालांकि अमेरिका की ताक़त ने इस क्षेत्र में अपने सहयोगियों की मदद से तालिबान सरकार को खत्म कर दिया लेकिन ये खात्मा न तो स्वाभाविक था न ही पूरा, यानि वो ताक़तवर बुनियाद जिस पर तालिबान सरकार स्थापित हुई थी, केवल खत्म नहीं हुई बल्कि और मज़बूत हुई। यानि अफगान और पाकिस्तानी जनता के वो विश्वास और मजबूत हो गए जिन पर इस्लाम के प्रभुत्व की विचारधारा का आधार है। इसलिए तालिबान सरकार का अंत स्वाभाविक नहीं था। जबकि अधूरा इस तरह था कि तालिबान पूरी अफगान क़ौम में पाकिस्तान के उत्तरी क्षेत्रों में, पाकिस्तान के अनगिनत मदरसों और धार्मिक संस्थानों में और पाकिस्तान के सशस्त्र बलों, सत्ता संस्थानों और प्रभावशाली वर्गों में मौजूद थे, जिन्हें खत्म नहीं किया जा सकता था। क्योंकि ये लोग हमारे उन विश्वासों के प्रतिनिधि थे जिन्हें लंबे समय से हर स्तर पर सुदृढ़ किया गया था। इसलिए अस्वाभाविक और अधूरे कदम से तालिबान को सिर्फ सामयिक और आंशिक नुकसान हुआ।

दूसरा चरण – पाक-अफगान क्षेत्रों में खिलाफत की स्थापना के पहले चरण के पूरा होने के तुरंत बाद आंदोलन के सामने जो चरण होगा वो उन वादों को पूरा करने का होगा जो इस्लामी सरकार के गठन के आधार हैं। यानि जनता की समस्याओं का समाधान और अच्छे और गुणों से परिपूर्ण समाज की स्थापना। अगर ये वादे पूरे नहीं होते तो इस्लामी क्रांति से लोगों के निराश होने का गंभीर खतरा मौजूद होगा। अनगिनत परिवार जिनके नौजवान बेटों ने आत्मघाती हमलों में शहादत को गले लगाया और जनता की विशाल संख्या जिनके दैनिक जीवन में महरूमियाँ (वंचित) हैं जिनका विश्वास इस बात पर सुदृढ़ किया गया था कि इस्लाम ही सभी समस्याओं का समाधान है, जिसके लागू होने से अल्लाह की रहमतों फौरन नाज़िल होगी, अब खिलाफत की स्थापना के बाद नतीजों के लिए बेचैन होंगे।

ईरान में इस्लामी क्रांति को इतनी उलझनों का सामना नहीं था कि ये देश तेल से मालामाल और शाह के लंबे शासनकाल से समृद्ध था, केवल धार्मिक और सामाजिक समस्याएं थीं, जो कुछ हज़ार लोगों को फांसियाँ देने या लाख दो लाख लोगों की कैद और निर्वासन या फिर महिलाओं को हिजाब का पाबंद करने से काफी हद तक हल हो गये। वहाँ की शिया क्रांति को एक और आसानी ये थी कि न्यायशास्त्र के विचारों को अपनाकर उलमा ने इज्तेहाद के ऐसे रास्ते खोल लिए जिनसे आधुनिक दौर के अक्सर वैचारिक और भौतिक सिद्धांत अपरिवर्तित प्रचलित रखे जा सकते थे। मिसाल के तौर पर बाहरी हुलिया ही ले लें। शेव करने और आधुनिक परिधान (टाई छोड़कर) पहनने पर कोई पाबंदी नहीं लगाई गई, महिलाओं को उच्च शिक्षा और नौकरी से रोका नहीं गया, सरकारी संस्थान, लोकतांत्रिक संस्थान पूरे पश्चिमी ढंग से जारी हैं। ये आसानी इमामत की व्यवस्था में सम्भव है जिसके शिया लोग मानने वाले हैं। जबकि खिलाफत की स्थापना के बाद पाक- अफगान इस्लामी समाज को भारी वित्तीय, आर्थिक, प्रशासनिक और सामाजिक समस्याओं का सामना होगा। हालांकि प्रोत्साहन और प्रचार या शरई कानून और अनुशासन से जनता को सरल जीवन का इस्लामिक सिद्धांत अपनाने पर राज़ी किया जाएगा। और इसकी उम्मीद अधिक है कि वो सांसारिक समृद्धि के आधुनिक काफ़िराना विचारों को मन से निकाल देंगे।  

अफगान तालिबान के दौर में जीवन को सरल करके इस्लाम के शुरुआती दौर के अरब समाज के करीब लाने का प्रयोग सफल रहा था। मुस्लिम जनता इस्लाम के लिए हर कुर्बानी देने के लिए तैयार रहती है। और हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के दौर की सादगी तो वो खुशी है जिसे हासिल करके हमारी मुस्लिम जनता धन्य हो जाती है, चाहे ग़रीब हों या अमीर। सुबूत के रूप में देखें कि समृद्ध मिडिल क्लास के पुरुषों के हुलियों की तब्दीली और उनकी औरतों का बढ़ता हुआ हिजाब और हर पाबंदी का खुशी से स्वागत। इसलिए कुछ समय बुनियादी समाज सुधार पर खर्च होगा। यानि इस्लाम के इन विरोधी तत्वों का शरई हुक्म के अनुसार खात्मा किया जाएगा जिन्होंने खिलाफत आंदोलन का विरोध किया, यहूदियों  व ईसाईयों का समर्थन किया या उनसे मदद ली और आंदोलन को आतंकवाद का नाम देकर रोकने की कोशिश की। (याद रहे कि किसी राजनीतिक पार्टी का नेतृत्व या जनता दोनों की हत्या इसी सिद्धांत से उचित करार पाती है और सभी आत्मघाती हमलों में इसी सिद्धांत के तहत इन लोगों की हत्या की जा रही है जो किसी न किसी तरीके से आंदोलन का विरोध करते हैं या विरोधियों का समर्थन करते हैं या चुप रहकर आंदोलन के दुश्मनों की अप्रत्यक्ष मदद करते हैं। इनमें सरकार के अधिकारी और काम में लगी हुई जनता बराबर के दोषी हैं)

औरतों को चादर और चारदिवारी में भेजने का काम पूरा किया जाएगा, नमाज़ पढ़ने की व्यवस्था स्थापित की जाएगी, यहाँ तक कि अफगान क़ौम के पिछले सभी अनुभवों से फायदा हासिल करते हुए पाकिस्तान में भी इस्लाम को लागू करने के चरणों को तेज़ी से पूरा किया जाएगा।  ये सब दूसरे चरण का पहला हिस्सा होगा।

इस चरण की असल चुनौती बहरहाल जनता के लिए खुशहाली उपलब्ध कराना होगा। समृद्धि के लिए संसाधनों की आवश्यकता होगी जो कि दोनों देशों में मौजूद नहीं है। समृद्ध वर्ग की ज़मीन व दौलत छीन कर जनता में बाँटने की कल्पना साझेदारी है और ये इस्लाम की स्पष्ट शिक्षाओं के खिलाफ है, इसलिए गैर इस्लामी और क्रूर प्रक्रिया से काम नहीं लिया जा सकता। जबकि आधुनिक उद्योग और कृषि के लिए इस्लामी समाज अधिक इंतेज़ार नहीं कर सकता। इस्लाम के प्रभुत्व के लिए कुफ़्फ़ार के समृद्ध देशों को जीतने का हुक्म इस्लाम ने स्पष्ट रूप से दिया है। इन समृद्ध देशों की वो दौलत जो उन्होंने पिछली सदियों में मुसलमानों की सरकारें खत्म करके लूट ली थीं, दरअसल मुसलमानों की दौलत है, जिस पर उनका स्वाभाविक अधिकार है। इसके अलावा अमीरुल मोमिनीन के सर्वोच्च कर्तव्यों में से ये है कि पूरी दुनिया में इस्लाम धर्म की दावत और इस्लाम के प्रभुत्व का प्रबंध करे। लेकिन इस महान मिशन को पूरा करने के लिए इस्लामी दुनिया की एकजुटता की ज़रूरत है।

इसलिए सभी मुस्लिम देशों को अमीरुल मोमिनीन का ये हुक्म पहुँचाया जायेगा कि वो दुनिया में अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की सरकार स्थापित करने और जाहिलियत की हर व्यवस्था को नेस्तनाबूद करने के लिए इस्लामी खिलाफत के आदेशों का पालन करें। आशंका है कि मुसलमान क़ौमों के वर्तमान शासक इस आदेश को नहीं मानेंगे। इसलिए उनके गैर इस्लामी और जाहिलयत वाली राज्य व्यवस्था को खत्म करने के लिए आत्मघाती हमलों और यदि सम्भव हुआ तो बाकायदा जैशे भेजने का आयोजन किया जाएगा। क्रांति के इस आंदोलन के लिए जनता को तैयार किया जाएगा और शहादत के दर्जें से पूरी तरह अवगत कराया जाएगा। हर मुस्लिम देश में चूंकि इस्लामी व्यवस्था को स्थापित करने के लिए जनता का दिल व दिमाग तैयार है इसलिए जाहिलियत की समर्थक सरकारों के खिलाफ बग़ावत मुश्किल नहीं होगी।

तीसरा चरण - ये तभी सम्भव होगा जब ईरान सहित मध्य पूर्व के सभी मुस्लिम देश केंद्रीय इस्लामी नेतृत्व की प्रभुसत्ता को स्वीकार करके इस्लामी मिशन को पूरा करने के लिए डट कर खड़े हो जाएंगे। ये वो पल होगा जब मध्य पूर्व के पचास करोड़ मुसलमान इस सपने को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध खड़े होंगे जो इस्लाम धर्म को सभी धर्मों पर प्रभुत्व दिलाने और दुनिया से जाहिलियत की हर छाप को मिटाने के लिए हर महान मुस्लिम विचारक ने देखा और जो हर मुस्लिम के मानस में गुंथा हुआ है, वो सपना जिसे इकबाल ने अपने जोशील कलाम से आधुनिक दौर के मुसलमानों की आत्मा में ताज़ा किया, जिसे सैय्यद मोदूदी और सैय्यद क़ुतुब ने अपने ईमान से भरे लेखन से रौशन किया और जिसे ज़ियाउल हक़ शहीद ने व्यवहारिक रूप से सम्भव बना दिया।

इस चरण पर भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम की श्रेष्ठता की बहाली के लिए भारत को वो विकल्प दिया जाएगा जो अमीरुल मोमिनीन हज़रत उमर फ़ारूक़ रज़ियल्लाहू अन्हू ने रोम को दिया था यानि (1) इस्लाम क़ुबूल कर लो इस तरह तुम हमारे भाई बन जाओगे, (2) आज्ञाकारिता स्वीकार कर के जज़िया अदा करो तुम हमारी रिआया बनकर अमन में आ जाओगे, (3) अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जाओ, तलवार हमारे बीच फैसला करेगी।

ज़ाहिर है इस युद्ध में कामयाबी इस्लाम का मोक़द्दर है, इसलिए भारत में इस्लाम का परचम लहरा दिया जाएगा। इस तरह भारत और बांग्लादेश के चालीस करोड़ मुसलमान भी इस्लामी लश्कर की ताक़त बन जाएंगे और जज़िये के नतीजे में मूल्यवान संसाधन भी राज्य को प्राप्त हो जाएंगे।

अगले चरण में चीन की बारी होगी। भारत से जो व्यापक संसाधन प्राप्त होंगे उनकी मदद से और उस ईमानी जज़्बे की बदौलत जो हर मुस्लिम को शहादत के फलसफे से प्राप्त होता है, पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि इस्लामी लश्कर को चीन की नास्तिक व्यवस्था पर जीत हासिल होगी, जैसे रूस पर हुई थी। रूस और भारत की तबाही के बाद चीन पर जीत इस्लामी दुनिया का तीसरा बड़ा कारनामा होगा। इस्लामी लश्कर और इस्लामी अर्थव्यवस्था भारत, चीन और सुदूर पूर्व की समृद्धि काफ़िराना अर्थव्यवस्थाओं से लूट के रूप में जो लाभ होगा वो गाज़ियों की सामयिक थकान और माली तकलीफों को दूर कर देगा।

अंतिम चरण में यूरोप और अमेरीका को जीता जाएगा, अफ्रीका ऑस्ट्रेलिया आदि को क़रीब के गवर्नर जीत कर सारी दुनिया में इस्लामी राज्य का प्रभुत्व स्थापित कर देंगे। इस तरह अल्लाह का वो वादा पूरा हो जाएगा जो उसने ''लेयुज़हरा अला दीने कुल्लेहि' में किया था।

ये है वो वैचारिक आंदोलन जिसके व्यावहारिक उपायों को कुछ मुसलमान आतंकवाद समझते हैं। अगर ये भी मान लिया जाए कि कुछ लोग नहीं बल्कि करोड़ों मुसलमान इसे आतंकवाद कहते हैं, फिर भी ये साबित नहीं होता कि ये आंदोलन गैर इस्लामी है क्योंकि जिन सिद्धांतों पर इस आंदोलन की बुनियाद है उन्हें कभी चैलेंज नहीं किया गया। आज तक ऐसा कोई वैचारिक आंदोलन, इस्लामी दुनिया में या हमारे इस क्षेत्र में नहीं उभरा जिसने ये कहने की कोशिश की हो कि ये विचारधारा इस्लामी नहीं। और ये तो और भी अकल्पनीय है कि किसी ने इस देश के किसी भी क्षेत्र में कभी ये कहने का साहस किया हो कि ये विचारधारा चाहे इस्लामी है फिर भी अव्यवहार्य है। वो इस्लामी विचारधारा जिन पर इस आंदोलन की बुनियाद है और जिन्हें चैलेंज नहीं किया जाता, वो हर मुसलमान की दृष्टि में ईमान (विश्वास) का हिस्सा हैं। जो लोग आंदोलन का विरोध करते हैं, वो भी इन विचारों के इस्लामी होने से इंकार नहीं करते, बस इतना कहते हैं कि इस्लाम शांति का धर्म है, इस्लाम हिंसा नहीं सिखाताए, इस्लाम तो बड़ा संतुलित धर्म है, इस्लाम तो धैर्य और उदारता सिखाता है। लेकिन धैर्य के इन विचार के समर्थन में इस्लामी पाठ्यक्रम से कुछ पेश नहीं किया जाता, यानि कोई वैचारिक तर्क इस मामले में मुसलमानों के मन को बदलने के लिए पेश नहीं किया जाता। न ही उदार इस्लाम के समर्थक मुसलमान धर्म के ज्ञान में ऐसी दक्षता रखते हैं जो उलमा को लाजवाब कर दें या इस आंदोलन के परवानों को सोचने पर मजबूर कर दें कि उनकी नज़र में जो इस्लाम की खिदमत है दरअसल इस्लाम ने तो इसका हुक्म ही नहीं दिया। कुछ लोग इस्लाम को संतुलित या उदारता दिखा कर के इस्लाम को दुनिया के लिए स्वीकार्य बनाने की कोशिश करते हैं।

ऐसे लोगों पर मौलाना मौदूदी और सैयद क़ुतुब का कहना ये है कि पश्चिम के नास्तिक और जाहिलाना विचार ने उनके मन को इतना प्रभावित कर दिया है कि वो इस्लाम को पश्चिमी मानकों पर फिट करने की कोशिश करते हैं। सैयद कुतुब ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि जो लोग जिहाद को प्रतिरक्षा युद्ध तक सीमित करना चाहते हैं वो दरअसल पश्चिमी देशों से प्रभावित हो कर या अपनी कायरता की वजह से इस्लाम की स्पष्ट शिक्षाओं को विकृत करते हैं जबकि इस्लाम ने बिना क्षमा के स्पष्ट रूप से आदेश दिया है कि दुनिया में हर व्यवस्था को तलवार के ज़ोर से खत्म कर दिया जाए।

ये भी सच नहीं कि मुस्लिम जनता ''आतंकवाद'' के इस आंदोलन के खिलाफ हैं जिसका एक खुला केंद्र जामिया हफ्सा के रूप में सामने आया। सभी जानते हैं कि राज्य के कानूनों के अनुसार उक्त जामिया के कदम का समर्थन करना भी गंभीर अपराध बनता था, जामिया हफ्सा के प्रशासन और छात्रों ने राज्य के कानून के अनुसार बग़ावत की थी जो कि अपराधों में सबसे गंभीर अपराध है। लेकिन दुनिया ने देखा कि जनता और उलमा ही नहीं बल्कि बुद्धिजीवियों और मीडिया के लोगों ने, यहां तक ​​कि देश की सर्वोच्च अदालत ने सरकार के इस कदम की खुलेआम निंदा की जो इस बग़ावत को कुचलने के लिए किया गया, हालांकि सरकार ने कदम बेहद असमंजस और लगातार बातचीत की हालत में उठाया।

इसके विपरीत जामिया हफ्सा की बग़ावत को बग़ावत कहने का साहस कम लोगों का हुआ और जिन लोगों ने ऐसा साहस किया उन्हें धमकियां मिलीं और फिर अठारह अक्टूबर की घटना और बाद में श्रीमती बेनज़ीर की शहादत इसी का सिलसिला है, इन्हीं दिनों इस्लामाबाद के होटल में धमाका हुआ। कुछ दिन बाद मस्जिद के सरकारी इमाम को निकालकर जिन लोगों ने लाल मस्जिद पर दोबारा क़ब्ज़ा किया, उनके लिए मीडिया और जनता में समर्थन साफ दिखाई दिया। मौलाना अब्दुल अज़ीज़ के अपमान की व्यापक पैमाने पर निंदा की गई। चुनाव में जनता की प्रतिनिधि सरकार को लगातार नफ़रत और अपमान का सामना इसीलिए है।

क़बायली क्षेत्रों में होने वाली सरकारी कार्रवाई को तीव्र विरोध का सामना है जो खुल्लमखुल्ला की जा रही है, जिसको किसी ढके छिपे ढंग से कहने की ज़रूरत महसूस नहीं की जाती। पाकिस्तानी सेना और कानून प्रवर्तन करने वाली एजेंसी  पर हमले सामान्य बात बन गई है। स्वात में खुले तौर पर एक अलग राज्य के अंदाज़ से सरकार के खिलाफ हथियार उठाये गये। इसके बावजूद पाकिस्तान के किसी बड़े शहर में लोगों की निजी महफिलों में कोई व्यक्ति साहस नहीं कर सकता कि सरकार के किसी कदम का समर्थन करे या बग़ावत करने वालों के खिलाफ नफरत का इज़हार करे। ये सब इस्लामी प्रभुत्व के आंदोलन के सार्वजनिक समर्थन के सुबूत हैं।

पाकिस्तान के दूर दराज़ इलाक़ों में समृद्ध, शिक्षित वर्गों में इस्लामी विधि और विशिष्ट हुलिया व लिबास की लोकप्रियता जिस रफ्तार से बढ़ रही है, उससे आँखें बन्द करने वालों की मानसिक स्थिति पर शुतुरमुर्ग की मिसाल याद आती है। कुछ लड़कियों और लड़कों का गिटार बजाना या विज्ञापनों में लड़कियों का वाहियात तरीके से 'आज़ादी' का इज़हार करना कुछ भी साबित नहीं करता और लगभग सौ फीसद विश्वास से कहा जा सकता है कि अगर आप इन लड़कों और लड़कियों को ज़रा सा कुरेदें तो ऊपर की पतली झिल्ली के नीचे वही कट्टरपंथी मुसलमान मिलेगा जिसका ईमान (विश्वास) है कि इस्लाम ही दुनिया की सभी समस्याओं का समाधान है, इस्लाम ही सबसे पूर्ण और अच्छी व्यवस्था है और मुसलमान ही दुनिया पर प्रभुत्व रखने का अधिकार रखते हैं।

अमेरिका से नफरत के मनोविज्ञान का अध्ययन करें तो उसकी नींव न तो राष्ट्रीय स्वतंत्रता की भावनाओं में मिलेंगी न ही इंसानी हमदर्दीद या न्याय की आवश्यकताओं में। इस नफरत की जड़ें इस्लामी पहचान में हैं। अफगानिस्तान या इराक में अमेरिकी कार्रवाई के विरोध को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए याद करें वो प्रतिक्रिया जो उसी इराक पर उसी अमेरिका के 1990 ई. वाले हमले में था। जब इराक़ ने कुवैत पर क़ब्ज़ा किया था तब अमेरिका के खिलाफ कोई भी विरोध इसलिए अनावश्यक था क्योंकि अमेरिका एक अधिक इस्लामी देश (कुवैत जहां शेख शासक था) को एक कम इस्लामी देश (इराक जहां एक आधुनिक शैली के तानाशाह का शासन था) के क़ब्ज़े से मुक्त करा रहा था। इससे पहले भुट्टो ने अपनी सरकार के खिलाफ अमेरिका के क़दमों पर स्पष्ट सबूत पेश किए तो हमारे उलमा और धर्म के प्रभुत्व के समर्थक अमेरिका के बजाय भुट्टो के खिलाफ डटे रहे क्योंकि भुट्टो उनके महान मिशन की राह में रुकावट था। भुट्टो के उन सभी उपायों के बावजूद जो इस्लामी देशों को एकजुट करने के लिए उसने उठाये, कट्टरपंथी इस्लामी ताक़तों को विश्वास था कि भुट्टो की आधुनिकता वास्तविक इस्लाम की राह में रुकावट है इसलिए अगर अमेरिका भुट्टो को खत्म करता है तो अमेरिका का ये कदम सराहनीय है। इसी तरह अफगान युद्ध में रूस के खिलाफ अमेरिका हमारी जनता और खास लोगों का हीरो था क्योंकि वो एक इस्लामी देश को नास्तिकों के चंगुल से आज़ाद करा कर इस्लाम की खिदमत कर रहा था। इसी सिद्धांत से अमेरिका पचास बरसों तक हमारा प्रिय सहयोगी रहा।

यहां तक ​​कि तालिबान सरकार के दौरान भी देर तक मुस्लिम विवेक पर अमेरिका कोई बोझ नहीं बना क्योंकि उसे हमारे कट्टरपंथ पर कोई आपत्ति नहीं थी। अमेरिका ने साठ साल में दुनिया की बीसियों लोकप्रिय सरकारों के तख्ते उल्टाए हैं जिनमें मसदक और सुकर्णों की सरकारें भी शामिल हैं।  वियतनाम में 25 साल युद्ध के दौरान करोड़ों टन बम बरसाए हैं लेकिन मुस्लिम विवेक बोझिल नहीं हुआ। ये हक़ीक़त है कि इस्लाम ही वो एकमात्र सच्चाई है जिसका समर्थन या विरोध हमारे लिए कोई महत्व रखता है। गैर मुस्लिम ज़ालिम हो लेकिन इस्लाम का समर्थन करे तो क़ुबूल, गैर मुस्लिम पीड़ित हो लेकिन इस्लाम विरोधी हो तो हमारा ध्यान पाने के योग्य नहीं। दुनिया की विभिन्न संस्कृतियों ने अपने दौर में अन्य संस्कृतियों और राष्ट्रों को जीता, उनके क्षेत्रों पर अत्याचार किए, हर जीत पराजित की नज़र में क्रूरता होती है। रोम ने गुलामों पर अत्याचार किए, ईरान के खुसरो ने भी विजित क्षेत्रों और गुलामों पर अत्याचार किए। उपमहाद्वीप में आर्य विजेताओं ने द्रविड़ सभ्यता को तबाह करके नई संस्कृति स्थापित की। मंगोलों और तातारियों ने दुनिया को तबाह किया, यूरोपीय देशों ने औपनिवेशिक व्यवस्था की स्थापना की तो राष्ट्रों पर उत्पीड़न और शोषण के माध्यम से किया।

आज कॉर्पोरेट अमेरिका एक शक्तिशाली डाईनोसार की तरह महाद्वीपों को कुचलता फिर रहा है तो कुचले जाने वालों को यातना होती है। जीत के इस पहलू पर दुनिया की हर संस्कृति के लोग आलोचना करते हैं। अगर सभ्यता के चरम के दिनों में ऐसा नहीं होता तो ये आलोचना आने वाली पीढ़ियां ज़रूर करती आई हैं। खुद विजेताओं के अपने लोगों में से विरोध की आवाज़ें सुनाई देती रही हैं। लेकिन इस्लामी इतिहास को देखें तो चौदह सौ साल में कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी मुस्लिम विचारक या आलिम ने मुसलमानों की जीत की प्रक्रिया पर आपत्ति की हो क्योंकि ये मुस्लिम विश्वास का हिस्सा बना दिया गया है कि हर वो चीज़ जो इस्लाम के नाम पर की जाए वो सच्चाई है।

URL for Urdu Part 2https://newageislam.com/urdu-section/cultural-narcissism-part-2/d/87236

URL for Part 1: https://newageislam.com/hindi-section/cultural-narcissism-part-1-/d/87259

URL for this part: https://newageislam.com/hindi-section/cultural-narcissism-part-2-/d/87386


 

Loading..

Loading..