असद मुफ्ती (उर्दू से हिंदी अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
कनाडा में रहने वाली एक पाकिस्तानी मूल की लड़की ने हिजाब (नक़ाब) पहनने से इंकार कर दिया तो उसका बाप, जो बदकिस्मती से पाकिस्तानी ही था, इस मासूम लड़की का गला घोंट कर ‘जन्नत का हक़दार’ हो गया। दिल दहला देने वाली ये घटना टोरण्टों के करीब मिसी साओ में हुई। कनाडा से फैलने वाली इस खबर में बताया गया कि 57 साल के मोहम्मद परवेज़ नाम के एक शख्स ने अपनी 16 साल की बेटी अक़्सा परवेज़ का गला घोंट दिया। लड़की को फौरन नज़दीक के अस्पताल ले जाया गया, उसको वेंटिलेशन पर रखा गया लेकिन ज़ालिम बाप के ताक़तवर हाथों ने ये इलाज कारगर न होने दिया और ये लड़की उसी रात ‘शांति के मज़हब’ की भेंट चढ़ गयी। बाद में परवेज़ को गिरफ्तार कर लिया गया।
खबर पढ़ कर मैं सोचने लगा कि इस्लाम के आने से पहले और बाद में क्या फर्क रह गया है? तब भी लोग अपनी बेटियों को ज़िंदा दफ्न कर देते थे और अब भी अपने हाथों से गला घोंट देते हैं। अक़्सा परवेज़ एपल वूड हाई सेकेण्डरी स्कूल में पढ़ती थी। उसके साथ पढ़ने वाली लड़कियों ने बताया कि अक़्सा का कुछ दिनों से अपने परिवार से विवाद चल रहा था। परिवार में कुछ समस्याएं थीं क्योंकि उसने हिजाब पहनने से इंकार कर दिया था। इस स्कूल की कोई लड़की हिजाब नहीं पहनती थी। इन छात्राओं ने बताया कि अक़्सा परवेज़ अपने पिता के बार बार कहने पर घर से निकलते वक्त हिजाब पहन लेती थी और स्कूल आने के बाद आधुनिक कपड़े पहन लेती थी। इन लड़कियों को अच्छी तरह याद था कि वो स्कूल आने के बाद किस तेज़ी से दौड़ कर वाशरूम में दाखिल होती थी और अपना कपड़ा बदलती थी, ताकि वो हम सब की तरह लगे। क़त्ल की इस वारदात ने कनाडा जैसे शांतिपूर्ण देश में भी सदमें की लहर दौड़ा दी।
अखबार वालों ने टोरण्टों में काफी अर्से से रह रही एक महिला का इण्टरव्यु किया तो उसने कहा “हिजाब कभी भी पाकिस्तानी समाज का हिस्सा नहीं रहा, ये अरब से आया है और अरब की संस्कृति पाकिस्तान से अलग है।” इस महिला सोनिया खातून ने पत्रकारों को बताया कि वो शख्स (मोहम्मद परवेज़) अब ये समझता होगा कि उसने सही क़दम उठाया है, और वो सीधा जन्नत में जायेगा। जहाँ 70 हूरें उसका इंतेज़ार कर रही होंगी। उस महिला ने बताया कि “हम पाकिस्तानी जुनूनी एशियाई बाशिंदे हैं और दक्षिण एशिया के लोगों की संस्कृति अलग है”। एक और महिला ‘मुस्लिम गर्ल’ की चीफ एडिटर आस्मा खान ने पत्रकारों को बताया कि पूर्व तानाशाह ज़ियाउल हक़ ने अपने शासनकाल में अरब से वहाबी उलमा और लड़ाकों को अपने यहाँ बुलाया, जिन्होंने रूस के खिलाफ जिहाद के अलावा पाकिस्तानी महिलाओं से शादियाँ कीं और इन महिलाओं ने शौहरों के कहने पर हिजाब की परम्परा को पाकिस्तान में शुरु किया। ज़ियाउल हक़ से पहले पाकिस्तान में हिजाब की कोई मिसाल नहीं मिलती।
मुस्लिम गर्ल की एडिटर इन चीफ ने नौजवान लड़कियों पर मां-बाप की मर्ज़ी थोपे जाने का कड़ा विरोध किया। औरत पर ज़ुल्म क्यों किया जाता है? ये वो सवाल हैं जिस पर आज अपनों और दूसरों की उंगलियाँ उठ रही हैं। मेरे हिसाब से इस सावल का जवाब बहुत सीधा साधा और आम सा है। एक बात तो सबको मालूम है कि सामंती रस्मों रिवाज और समाज से हम बाहर नहीं निकल सके हैं, लेकिन इसके साथ ही साथ दूसरी अहम सच्चाई हमें मुँह चिढ़ा रही है और वो है हमारा इस्लामी न्याय शास्त्र से सम्बंधित लिटरेचर (साहित्य)। इस सिलसिले में मुझे कुछ ज़्यादा नहीं कहना है कि इसमें बहुस से ‘पर्दा-नशीनों’ के नाम भी आते हैं मगर इस फिक़ही इल्म में औरत से अच्छा सुलूक नहीं किया गया। इस्लाम के आने के सदियों बाद आने वाले फुक़हा (इस्लामी धर्मशास्त्रों के जानकार) ने औरत को जो मुक़ाम दिया है वो खासा विवादास्पद है। ये बात कहे बगैर कोई चारा नहीं है कि औरत के बारे में हमारी दीनी समझ घटिया, पुरानी, सामंती और बदले व भेदभाव पर आधारित है। यही वजह है कि इस फिक़ही लिटरेचर के ज़ेरे साया पाकिस्तानी समाज में औरत के बारे में एक ताक़तवर लेकिन घटिया सोच पैदा की गयी है। और ये घटिया सोच न सिर्फ पाकिस्तान में अपना घर बना चुकी है बल्कि इसकी सरहदों से बाहर पश्चिम में भी अपना रंग दिखा रही है। हम जहाँ जाते हैं इस घटिया सोच की गठरियाँ अपने सिर पर उठाये लिये जाते हैं।
अब यही देखिये पश्चिम एक लोकतांत्रिक समाज है। यहाँ हर एक को अपनी बात कहने की पूरी आज़ादी हासिल है। क्या यहाँ औरत की गवाही एक मर्द के बराबर नहीं होती? ब्रिटेन या कनाडा, हालैण्ड या अमेरिका किसी एक नस्ल या संस्कृति के मुल्क नहीं रहे हैं बल्कि पश्चिम कई संस्कृतियों वाला भूभाग है, लेकिन इस बहुसांस्कृतिक समाज का ये अर्थ बिल्कुल नहीं है कि वहाँ सदियों पुराने मूल्यों और संस्कृति पर कोई और संस्कृति थोप दी जाये।
जैसा कि सब जानते हैं कि इस भूभाग की संस्कृति लगभग एक जैसी है, लेकिन क्या ये हक़ीक़त नहीं कि हिंदुस्तान से आकर यहाँ बसने वालों ने इस पश्चिमी संस्कृति की अहमियत का न सिर्फ एहसास कर लिया है बल्कि इसे क़ुबूल भी कर लिया है और अजीब बात ये है कि इसमें न सिर्फ हिंदू और सिख शामिल हैं बल्कि हिंदुस्तानी मुसलमान भी उनसे कांधे से कांधा मिला रहे हैं। मेरे हिसाब से पाकिस्तान से प्रवासियों की पहली नस्ल तक अपने अपने संप्रदाय के विश्वास और अपना समुदाय लेकर ही विदेश गये थे। अभी मौलवियों और उलमा का आना जाना शुरु नहीं हुआ था, फिर हुआ ये कि दूसरी तीसरी नस्ल तक पहुँचते पहुँचते पश्चिमी देशों की हर गली मोहल्लों में उलमा के साथ उन के संप्रदाय, विश्वास और समुदाय भी पहुँच गये। इन लोगों ने पाकिस्तान की धरती की तरह पश्चिम में भी संप्रदायिक और तंग-नज़री (संकीर्णता) की ढोल पीटना शुरु कर दिया, सिर्फ यही नहीं बल्कि इस समाज को कुफ्रिस्तान बताते हुए इस समाज की बुराईयाँ गिना गिना कर नौजवान नस्ल को ऐसा पैग़ाम दिया कि इसमें मोहम्मद परवेज़ जैसे लोग पैदा होने लगे। कनाडा में रहने वाला मोहम्मद परवेज़ दरअसल इस समाज का कभी भी हिस्सा नहीं रहा, कभी भी हिस्सा नहीं बन सकता, तो क्या ये बेहतर नहीं है कि मोहम्मद परवेज़ वापस अपने लोगों में पलट कर आ जाये?
स्रोतः आजकल, पाकिस्तान
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