मौलाना वहीदुद्दीन खान
3 अक्टूबर, 2013
सही मुस्लिम में एक हदीस है कि खुदा नरमी और मेहरबानी के बदले में हमें वो नेमत देता है जो सख्ती के बदले में नहीं देता। ये हदीस इस बात की तरफ इशारा करती है कि शांतिपूर्ण तरीक़ा अपनाना हिंसा का रास्ता चुनने से बेहतर है।
इस हदीस का पैग़ाम रहस्यमय नहीं है। बल्कि ये स्पष्ट है और जीवन की एक अच्छी तरह से मालूम हक़ीक़त है। हिंसा और युद्ध केवल विरोधियों के बीच नफरत को बढ़ावा ही देता है। ये कई लोगों की जान लेने के अलावा बड़े पैमाने पर संसाधनों के विनाश का कारण बनता है। इससे पूरा समाज नकारात्मक सोच का शिकार हो जाता है। ज़ाहिर है ऐसे माहौल में सकारात्मक और रचनात्मक गतिविधियों की कोई सम्भावना बची नहीं रह जाती। हिंसा और युद्ध से कोई सकारात्मक परिणाम प्राप्त नहीं हो सकता।
दूसरी तरफ शांति के माहौल में लोग एक दूसरे के साथ दोस्ताना सम्बंन्ध कायम कर सकते हैं। दोस्ती और मोहब्बत बढ़ावा पा सकते हैं। सकारात्मक और रचनात्मक गतिविधियों को बढ़ावा दिया जा सकता है, और संसाधन को सही तरीक़े से इस्तेमाल कर सकते हैं। ऐसा माहौल सकारात्मक सोच के लिए अनुकूल है।
हिंसा और युद्ध से होने वाला सबसे बड़ा नुक़सान ये है कि ये अवसरों को खत्म करते हैं। दूसरी तरफ शांति का सबसे बड़ा फायदा ये है की ये अधिकतम सम्भव सीमा तक अवसरों के दरवाज़े खोलता है। युध्द हमेशा अतिरिक्त तबाही पैदा करते हैं जब कि शांति अनिवार्य रूप से सभी को अतिरिक्त लाभ की तरफ ले जाती है। यही वजह है कि अगर इस्लाम को सही तरीके से समझा जाए तो ये अधिकतम सम्भव सीमा तक टकराव और युद्ध से बचने की शिक्षा देता है, और हर कीमत पर शांति स्थापित करने और इसे बनाए रखने की कोशिश करता है।
एक गलतफहमी का स्पष्टीकरण
क़ुरान मजीद में ऐसी कुछ आयतें हैं जिनके बारे में काफी गलतफहमियाँ पाई जाती हैं। मिसाल के तौर पर वो आयत जिसका हुक्म ये है कि, उन्हें जहाँ कहीं भी पाओ कत्ल कर दो (2- 191)। इस तरह की आयतों के बुनियाद पर कुछ लोगों ने इस्लाम के बारे में ये धारणा विकसित कर ली है कि इस्लाम युध्द का धर्म है। हालांकि ये एक बे-बुनियाद बात है। इस तरह की आयतों का इस्तेमाल सीमित है और इनका सम्बंन्ध सिर्फ उन लोगों से है जो मुसलमानों पर एक तरफा हमला कर सकते हैं। ये आम इस्लामी आदेश नहीं है जो सभी गैर-मुस्लिमों पर लागू होता हो।
इस बात को तभी बेहतर तरीके से समझा जा सकता है, जब इस हक़ीक़त को ध्यान में रख जाय कि क़ुरान एक किताब के रूप में एक बार में, एक साथ नहीं उतारा गया था। क़ुरान किश्तों में और 23 साल की अवधि में उतारा गया। अगर 23 साल की इस अवधि को उस वक्त प्रभावी हालात के मुताबिक़ बाँटा जाए तो उनमें से लगभग 20 साल शांति के थे और युध्द का समय सिर्फ 3 साल की अवधि का था। युध्द के बारे में क़ुरानी आयतें सिर्फ 3 साल की इस अवधि में उतारी गयीं थीं। इन आयतों के अलावा 20 साल की अवधि में जो दूसरी आयतें उतारी उन सबका सम्बंन्ध शांति की शिक्षाओं से है, जैसे खुदा का ज़िक्र, इबादत, नैतिकता और इंसाफ आदि।
क़ुरानी आदेशों का इस तरह वर्गीकरण करना स्वाभाविक है। इस तरह का वर्गीकरण दूसरे धर्मों के धर्मग्रंथों के हवाले से भी किया जा सकता है। मिसाल के तौर पर हिन्दू धर्म की पवित्र किताब भागवत गीता को ही ले लें। गीता में बहुत सी शिक्षाएं ऐसी है जिनका सम्बंन्ध ज्ञान और नैतिकता से है। इसके अलावा गीता में युध्द के बारे में भी बात की गई है। गीता में कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि आगे बढ़ो और युध्द में हिस्सा लो। निश्चित रूप से इसका मतलब ये नहीं है कि जो लोग गीता पर विश्वास करते हैं वो हर समय युध्द लड़ते होंगे। वास्तव में महात्मा गाँधी ने अहिंसा का अपना दर्शन गीता से ही लिया है। ये इसलिए सम्भव था कि गीता में युध्द का वर्णन सिर्फ एक अपवाद है, ये एक ऐसी चीज़ है जिसका सहारा सिर्फ असाधारण परिस्थितियों में ही लिया जाना चाहिए। दूसरी तरफ गीता सामान्य स्थिति में शांति के माहौल का आदर्श पेश करती है। और महात्मा गाँधी ने अहिंसा के अपने दर्शन को विकसित करने के लिए इसी से प्रेरणा हासिल की थी।
बिल्कुल इसी तरह न्यु टेस्टामेंट (मैथ्यू 10: 34) में हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने कहा कि, ये मत सोचो कि मैं ज़मीन पर शांति भेजने के लिए आया हूँ, मैं शांती के लिए नहीं बल्कि तलवार के लिए आया हूँ। इन शब्दों से ये मानना बिल्कुल गलत होगा कि ईसा मसीह का धर्म युध्द और खून खराबा था। हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की शिक्षाओं में इस तरह के शब्द सिर्फ एक अपवाद हैं और ये किसी खास स्थिति से जुड़े हैं। जहाँ तक आम जीवन का सम्बंन्ध है तो ईसा मसीह ने हमेशा मोहब्बत और शांति पर ज़ोर दिया है।
बिल्कुल यही मामला क़ुरान के साथ भी है। जब नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वस्सलम ने मक्का से मदीना हिजरत की तो बहुदेववादियों ने उनके खिलाफ आक्रामक अभियान शुरु कर दिया। लेकिन नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने हर बार उन हमलों को धैर्य के साथ टालने और युध्द से बचने की कोशिश की। हालांकि कुछ स्थितियों में इन हमलों का जवाब देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था। यही वजह है कि इस तरह की स्थितियों में नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने रक्षात्मक युद्ध के रूप में जवाब दिया। इन्हीं परिस्थितियों में युध्द के बारे में क़ुरानी आयतें उतरी थीं। ये निश्चित रूप से सिर्फ असाधारण परिस्थितियों के लिए थीं और प्रकृति में अस्थायी थीं। निश्चित रूप से इन्हें ऐसे आदेश में नहीं शामिल किया जाना चाहिए जिनका प्रयोग हर दौर में हो सकता है। इसीलिए क़ुरान में नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहि वस्सलम को रहमतुल लिल-आलमीन, पूरी दुनिया के लिए रहमत का दर्जा दिया गया है। (21- 107)
(उर्दू से अनुवादः न्यु एज इस्लाम)
मौलाना वहीदुद्दीन खान, नई दिल्ली में सेंटर फॉर पीस एण्ड इस्पिरिचुआलिटी के प्रमुख हैं।
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