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Hindi Section ( 13 March 2014, NewAgeIslam.Com)

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Dialogue and Dawah संवाद और धर्म की दावत

 

 

 

 

मौलाना वहीदुद्दीन खान

4 फरवरी, 2014

संवाद का इस्लाम से अटूट रिश्ता है। इस्लाम एक दावती मिशन है। और दावती मिशन अपने आप में खुद एक संवाद है। दावती मिशन में लोगों के साथ बातचीत की ज़रूरत होती है और इसमें चर्चा करने की आवश्यकता है। दावती मिशन में दूसरे लोगों के बारे में सोचना आवश्यक है। बिना दावती मिशन के आप एक अकेले इंसान हैं। लेकिन जब आप दावत को अपना मिशन बना लेते हैं तो कई लोगों के संपर्क में आने का मौक़ा मिलता है और जब कई लोग एक साथ इकट्ठा हों तो ये  स्वाभाविक है कि उनमें बातचीत होगी।  

कुरान ने संवाद के लिए बहुत ही व्यावहारिक तरीका बताया है-  दोनों पक्षों के बीच साझा बातें तलाश करने की कोशिश करें और इसे ही संवाद के शुरआती बिंदु बनाएँ। क़ुरान में इस सिद्धांत को इन शब्दों में बताया गया है: '' कहो, "ऐ किताब वालो! आओ एक ऐसी बात की ओर जिसे हमारे और तुम्हारे बीच समान मान्यता प्राप्त है; यह कि हम अल्लाह के अतिरिक्त किसी की बन्दगी न करें और न उसके साथ किसी चीज़ को साझी ठहराएँ और न परस्पर हममें से कोई एक- दूसरे को अल्लाह से हटकर रब बनाए।" (3: 64)

इस्लाम के इतिहास के आरंभिक दौर में हमें संवाद का व्यावहारिक रूप मिलता है। इस संवाद का आयोजन पैग़म्बर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के ज़माने में किया गया था। मदीना की मस्जिद में आयोजित होने वाले इस संवाद में तीन धर्मों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। ये प्रतिनिधि मुसलमान, ईसाई और यहूदी थे। दरअसल ये त्रिकोणीय संवाद था।

संवाद का मकसद लोगों का धर्म परिवर्तन करना नहीं है बल्कि संवाद व्यवहारिक प्रक्रिया है। हर आदमी इस विश्वास के साथ जीवन जीता है कि वो सच्चे रास्ते पर है। संवाद का मकसद धार्मिक सहअस्तित्व या धार्मिक सहिष्णुता के तरीके तलाश करना है। संवाद का मकसद मतभेदों को खत्म करना या ऐसे समाज का निर्माण करना नहीं है जहां कोई मतभेद न हों। जो मतभेदों को पूरी तरह खत्म करना चाहते हैं वो एक काल्पनिक दुनिया बनाने में लगे हैं। काल्पनिक दुनिया का अस्तित्व केवल मन में हो सकता है असली दुनिया में नहीं सकता है। मतभेद स्वाभाव का हिस्सा है। उन्हें खत्म करना बिल्कुल नामुमकिन है।

संवाद का मकसद एक दूसरे से कुछ सीखना है या यही मकसद होना चाहिए। संवाद विभिन्न धर्मों के मानने वालों के बीच सामाजिक सम्बंधों को बेहतर करने, सामूहिक रूप से समाज में शांति और सद्भाव को बढ़ावा देने और एक दूसरे के धर्मों को अच्छे तरीके से समझने का महत्वपूर्ण स्रोत है। संवाद दावत के लिए भी ज़रूरी है। दूसरों के साथ दोस्ताना सम्बंध  के द्वारा ही हम अपने धर्म की शिक्षाओं को स्पष्ठ कर सकते हैं। लेकिन इसका मकसद दूसरों का धर्म परिवर्तन या समरूपता पैदा करना नहीं है।

एक बार किसी ने मुझसे पूछा कि, ''कुछ लोगों का ये दावा हो सकता है, चूंकि इस्लाम एक मिशनरी धर्म है और मुसलमानों को लोगों को दावत देने का हुक्म दिया गया है, इसलिए मुसलमान स्वाभाविक रूप से संवाद में संलग्न नहीं हो सकते हैं। उन्होंने दावे से कहा कि अगर मुसलमानों का मानना ​​है कि दूसरे धर्म गलत या भ्रष्ट हैं तो वो दूसरे धर्मों के मानने वालों के साथ सद्भावपूर्वक नहीं रह सकते हैं। इस बारे में आपकी क्या राय है?

मेरा जवाब ये है कि हर इंसान का एक मिशन है। यहाँ तक कि सेकुलर लोगों का भी एक मिशन है। ये इंसानों की विशेषता है। ये भी इंसान की विशेषता है कि हर आदमी मानता है कि वो सही रास्ते पर है। इस विश्वास के बिना इस दुनिया में जीना असंभव है। ये लोगों में विश्वास के स्तर को बढ़ता है और इस दृढ़ विश्वास के बिना कोई भी अपनी पूरी ऊर्जा के साथ कुछ नहीं कर सकता। लेकिन दावत और संवाद के बीच कोई विरोधाभास नहीं है। दावत भी एक संवाद है जबकि किसी विशेष धर्म का पालन करना लोगों का अपना फैसला है। धर्म परिवर्तन संवाद के मकसद के लिए सही शब्द नहीं है।

संवाद का मकसद लोगों को अपने धर्म में परिवर्तित करना नहीं होना चाहिए। संवाद अगर ये बहस न हो तो हमेशा इससे बौद्धिक विकास होता है। साथ ही ये सहिष्णुता की भावना को बढ़ावा देता है। ये संवाद की आत्मा है। संवाद का मकसद दुनिया को बदलना नहीं है बल्कि एक दूसरे से सीखना है। और एक दूसरे से सीखना हर स्थिति में सम्भव है, यहाँ तक कि अगर मतभेद हों तब भी।

इस्लामी दृष्टिकोण से किसी दूसरे धर्म का सम्मान करने का मतलब उनके धर्म की सच्चाई की पुष्टि करना नहीं है। दूसरे धर्मों का सम्मान करना व्यावहारिक ज्ञान की बात है। ये एक तथ्य है कि इस दुनिया में धार्मिक और सेकुलर दोनों मामलों में समरूपता असम्भव है। ऐसी स्थिति में बस एक ही सम्भव विकल्प ये है कि विभिन्न धर्मों के बीच संवाद को स्थापित करना जारी रखा जाए और साथ ही एक दूसरे को सम्मान देने का तरीका भी अपनाया जाए।

जब हम दूसरे धर्मों के सम्मान की बात करते हैं तो इसका क्या मतलब है? क्या इसका मतलब इन धर्मों का सम्मान करना है या इन धर्मों के मानने वालों के अपने धर्म पालन के अधिकार का सम्मान करना है या अल्लाह के द्वारा पैदा किये गये प्राणियों के रूप में इन धर्मों के मानने वालों का सम्मान करना है?

दूसरों का सम्मान करना धार्मिक मामला नहीं है बल्कि ये एक नैतिक मामला है। यहां तक ​​कि एक ही धर्म के भीतर कई तरह के मतभेद होते हैं। सहिष्णुता और एक दूसरे के सम्मान के बिना एक ही धर्म के मानने वालों के बीच सामंजस्य स्थापित करना असंभव है। इसलिए ये सिर्फ अंतर-धार्मिक सम्बंधों का ही सवाल नहीं है। बल्कि ये एक ऐसा सवाल है जिसका सम्बंध एक धर्म के आंतरिक सम्बंधों से है। इन दोनों मामलों में अलग विचार रखने वाले लोगों को बराबर सम्मान दिया जाना चाहिए।

सच्चे संवाद के लिए सांप्रदायिक सोच से छुटकारा पाना ज़रूरी है। अगर आप सांप्रदायिकता या साम्प्रदायिक सर्वश्रेष्ठतावादी सोच से अज़ाद हैं तभी आप किसी संवाद में शामिल होने के सही भागीदार हैं।

मौलाना वहीदुद्दीन खान नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पीस एंड स्पिरिचुआलिटी के प्रमुख हैं।

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