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Hindi Section ( 14 Jul 2012, NewAgeIslam.Com)

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Madrasas Need Reform, Not Committees मदरसों में सुधार की जरूरत है कमेटियों की नहीं


अरशद आलम, न्यु एज इस्लाम

10 जुलाई, 2012

(अंग्रेजी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)

हाल ही में सरकार ने एक पैनल पैनल गठित करना प्रारम्भ किया है जो मदरसों को राष्ट्रीय मुख्य धारा से जोड़ने और उनके आधुनिकीकरण के तरीके की सिफारिश करेगा। इरादा काबिले तारीफ है क्योंकि हिंदुस्तान में यक़ीनन मदरसा शिक्षा के आधुनिकीकरण की तुरंत जरूरत है। लेकिन, पिछले तजुर्बों पर ग़ौर करें तो सरकार की वर्तमान गतिविधि से बहुत अधिक उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। बहरहाल, सरकार के मदरसों के आधुनिकीकरण कार्यक्रम कई वर्षों से चल रहे हैं लेकिन अभा तक  इच्छित परिणाम हासिल नहीं हुए हैं। हालात अब भी ये  है कि सरकार के पास अब भी एक व्यापक माप करने वाला सर्वेक्षण नहीं है जो हमें मदरसों के आधुनिकीकरण कार्यक्रम के प्रभाव को बता सके। अपनी दशकों पुरानी नीति को मजबूत बनाने के बजाय, एक और कमेटी की स्थापना पर सरकार क्यों तुली हुई है? ये पिछली सरकारों की पुरानी चाल की तरह दिखाई देता है कमेटियों का गठन ये आभास कराता है कि कुछ हो रहा है जबकि सच्चाई की ज़मीन पर कुछ भी पर्याप्त नहीं होता है।

एक के बाद एक रिपोर्ट ने दलील दी है कि मुसलमान शिक्षा तक पहुँच के मामले में पीछे हैं और मुसलमानों के शैक्षिक पिछड़ेपन पर काबू पाने की कुंजी प्राथमिक शिक्षा को मजबूत करना है। इस संबंध में ये समझना महत्वपूर्ण है कि मदरसों की शिक्षा, एक समानांतर धारा है जो सरकारों की शिक्षा प्रणाली के साथ साथ चलता है। इस तरह से उत्तर भारत जहां मदरसों की संख्या सबसे अधिक है, और वहाँ  अगर कोई बच्चा मदरसा जा रहा है तो ये समझना चाहिए कि उसके पास स्कूल जाने का मौका नहीं है। अगर एक बच्चा मदरसे में अपना पंजीकरण कराने के कुछ बरसों के बाद सरकारी स्कूल तक पहुंच हासिल करता है तो उसकी नींव और समझ इतनी कमजोर होती है कि वो दूसरे बच्चों के साथ मुकाबला करने में सक्षम नहीं होता हैं। इसलिए शिक्षा की ये प्रणाली मुस्लिम वर्ग के हितों के लिए हानिकारक है। प्राथमिक शिक्षा में एक ठोस आधार के बिना, उच्च शिक्षा और उसके परिणामस्वरूप जॉब मार्केट में प्रतिनिधित्व की उम्मीद नहीं की जा सकती है।

ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल शायद ये है कि इस समय मदरसा शिक्षा की उपयोगिता क्या है। मदरसों में आज जो पढ़ाते हैं वो पूरी तरह असम्बद्ध और समय के साथ साम्य नहीं रखता है। इसका पाठ्यक्रम प्राचीन है और समकालीन स्थिति में जिसे शिक्षा कहा जाता है इसके पाठ्यक्रम में सम्मिलित नहीं है। वास्तव में पाठ्यक्रम में धर्म की बहुलता है और ऐसा लगता है जैसे एक मुसलमान के लिए अपने धर्म से अलग कुछ भी शोध करने के लिए नहीं है। इस्लामी सिद्धांतों के साथ इस जुनून का मतलब है कि मदरसों में शिक्षा प्राप्त करने वाले मुस्लिम बच्चों को अपने देश, समाज और राजनीति के बारे में लगभग कोई जानकारी नहीं होती है और न ही उस शानदार रफ्तार से जिससे दुनिया विकास कर रही है। कोई भी ज़ोर देकर कह सकता है मदरसे इस्लाम की सेवा करने के बजाय आज धर्म को नुक्सान पहुंचा रहे हैं।

जब कभी मदरसों के आधुनिकीकरण की मांग उठती है तो मुस्लिम धार्मिक नेता इसके खिलाफ हाय तौबा मचाना शुरू कर देते हैं। इस्लाम खतरे में है, का नारा मस्जिदों और बड़े मदरसों से उठना शुरू हो जाता है और इनके नुमाइंदे कोशिश करने लगते हैं कि सुधार की किसी भी कोशिश को किसी तरह रोका जाए। मदरसों को मुस्लिम पहचान का विषय बनाना मुस्लिम वर्ग को सिर्फ शैक्षिक नुक्सान पहुंचा सकता है। इसी भावना के तहत मुसलमानों के एक वर्ग  ने खुद ही मदरसों के पाठ्यक्रम में बदलाव की मांग शुरू कर दी है ताकि उसे समकालीन आवश्यकताओं के अनुसार बनाया जा सके। अफसोस की बात है कि इन लोगों के प्रयासों का कोई नतीजा सामने नहीं आया है क्योंकि सरकारें इन सुधारवादी मुसलमानों को वोट बैंक नहीं मानती हैं, और हुकूमतें पुराने विचारों वाले उलमा के प्रतिक्रियावादी मांगों के सामने झुकती रही हैं। अब मुसलमानों के बीच शिक्षा को लेकर प्यास पैदा हुई है और अगर चुनने का मौका दिया जाए तो मुसलमान माता पिता अपने बच्चों को मदरसे की बजाय स्कूल में भेजेंगे। ये मुसलमान वर्ग का धार्मिक नेतृत्व है जो उनके किसी भी विकास को रोक रहा है। विडम्बना ये है कि सरकारें गलत तौर से मानती हैं कि उलेमा मुस्लिम वर्ग के प्रतिनिधि हैं और उन्हें सरकार का समर्थन भी प्राप्त होता है।

दी नेशनल काउंसिल ऑफ माइनारिटी एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन (NCMEI) ने सरकार को पेश एक रिपोर्ट में दलील देते हुए कहा है कि देश में मदरसा शिक्षा में सुधार की फौरन आवश्यकता है। इसने चरणबद्ध तरीके से सुधार को लागू करने का सुझाव दिया है और पहले कदम के रूप में आल इंडिया मदरसा बोर्ड की स्थापना का प्रस्ताव दिया है जो सुधारों को लागू कर सके। भारत सरकार के किसी कार्यालय में इस रिपोर्ट पर धूल जम रही होगी। मदरसों के आधुनिकीकरण की समीक्षा के लिए एक नई कमेटी को बनाने के बजाय वर्तमान सरकार अपने विभागों (NCMEI) में से एक के द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट पर नज़र डालकर स्थिति को बेहतर कर सकती है।

अरशद आलम एक लेखक और स्तम्भकार हैं, फिलहाल जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली से संबद्ध हैं। वो न्यु एज इस्लाम के लिए कभी कभी कॉलम लिखते हैं।

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