कृष्णदत्त पालीवाल
16, अक्तूबर, 2014
जनसत्ता 16 अक्तूबर, 2014: एक नया मोदी-युग शुरू हुआ है। यह एक तरह से युगांतर है। आकस्मिक नहीं है कि नेहरू युगीन विकास की योजनाएं और नवउदारवाद के रुतबे अपनी ठसक खो बैठे हैं। हां, भारतीय अर्थतंत्र साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण के चक्र में फंसा हुआ है। लोगों में तमाम आशाएं जगी हैं। गांधीजी का ‘दरिद्र नारायण’ मंत्र अपने आप जाग गया। नदियां जो ब्रह्म-पुरुष की नाड़ियां हैं- उन्हें स्वच्छ करने का संकल्प लिया गया। देखना है कि संकट के इस दौर में क्या हो पाता है। देश पर अभूतपूर्व संकट मंडरा रहा है और भूमंडलीकरण की संस्कृति में लिपटा भारत नव-औपनिवेशिक आधुनिकता में प्रगति के सपने देख रहा है।
इस देश के संकट के बारे में कई दृष्टियां हैं। एक स्वर से सत्तापक्ष कह रहा है कि घबराने की जरूरत नहीं है- हम समाधान खोजने को निकल पड़े हैं। इसलिए संकट में नवनिर्माण की गंूज सुननी चाहिए। अंतवाद के इस युग में सेक्युलर संस्कृति की पश्चिमी परंपरा से हर हालत में दूर रहना है।
नवउदारवाद की योजनाएं विकास में बाधक सिद्ध हो चुकी हैं। इतिहास-विधाता का रथ अब नई दिशा में चल पड़ा है, जिसमें सभी को मिला कर सबके लिए गांधी-विनोबा भाव से सोचा जाएगा। कहते हैं कि अब गांधीजी मोदी चिंतन में प्रवेश कर गए हैं, कोई करिश्माई काम होगा।
भूमंडलीकरण के इस युग में एक राजनीतिक पार्टी की सरकार में प्रगति की अपार संभावनाएं दिखाई दे रही हैं। जनता अधिक लोकतांत्रिक सरकार की उम्मीद लगाए हुए है। संकट के ये क्षण जनता के लिए चिर प्रतीक्षित आशाओं के पूरा होने के क्षण हैं। मगर विचित्र है कि रामललावादी ‘लुंपेन’ किस्म के प्राणी एकत्रित हो रहे हैं। लेखक-विचारक, वामपंथी बौद्धिक भीड़भाड़ से दूर चिंतन साधना का व्रत लिए बैठे हैं- उनके चिंतन को कोई पूछता नहीं है। सबसे ज्यादा अपमानित-उपेक्षित यही साहित्यिक-बौद्धिक हैं।
यही वे लोग हैं, जो पश्चिमवाद के पिछलग्गू हैं, लेकिन जो अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता के गीत गाते हैं। इस समय इनसे ज्यादा हिंदू कोई नहीं है- जो स्त्री-विमर्श, आदिवासी-विमर्श और दलित-विमर्श के पहरुए बने हुए हैं। इन हिंदुओं का सबसे ज्यादा रोब उन हिंदुओं पर है, जो आदि शंकराचार्यों के चक्कर में आ गए हैं। दूर से देखने पर ये सभी वामपंथी दिखाई देते हैं- भीतर से देखने पर इनके समाजशास्त्र की पोल खुल जाती है। ये लोग चिंता करेंगे संस्कृति पर- लेकिन इसके मूल में जाति-धर्म होगा।
वास्तविकता यह है कि तमाम तरह के संकटों के केंद्र में ‘धर्म’ है। यह धर्म-संकट ही स्वामी स्वरूपानंद और उमा भारती का रूप धारण करता है। संघ परिवार का यह एक ऐसा ‘हिंदुत्व’ है, जिसे समझ पाना असंभव है। इनका उद्देश्य हिंदू राष्ट्र की स्थापना नहीं है- हिंदू धर्म की ठेकेदारी करना है। डॉ लोहिया कहते थे- धर्म एक दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति एक अल्पकालीन धर्म। यह धर्म अव्याख्येय है और अपरिभाषित भी। अब डॉ लोहिया, जयप्रकाश नारायण का जमाना तो रहा नहीं कि ‘बहस’ से सत्य कमाने का दम-खम दिखाया जाए। इस दिशा में किए गए प्रयास ही वर्तमान संकट की जड़ हैं।
हमारे देश में संकटों का पार नहीं है। यहां सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता और जाति-धर्म-वंश-वर्ण के संकट विकट रूप धारण कर उभरते रहे हैं। स्वाधीनता संग्राम का संघर्ष जब अपने चरम पर था तो हिंदुत्ववादी, इस्लामवादी लोग एक किस्म की घटिया राजनीति में गर्क थे। मिस्टर जिन्ना कदम-कदम पर हिंदू अन्याय का पुराण पढ़ कर गांधी को सुनाते थे कि उनके साथ घोर अन्याय हो रहा है। इस अन्याय में मुसलमानों का दम घुट रहा है। जिन्ना के इस अलगाववादी नाटक ने भारत के टुकड़े कर ही चैन लिया। लेकिन चैन कहां मिला? कश्मीर संकट खड़ा हो गया। इस संकट ने न जाने कितने लोगों की जानें ली हैं और ले रहा है। अभी इस संकट का कोई अंत दिखाई नहीं देता।
आजाद भारत में फिर शुरू हुआ अंगरेजियत और अंगरेजों से सहयोग। इस सहयोग ने देश में गुलामी की औपनिवेशिक दासता को दृढ़ किया और अंगरेजी को लाकर भारतीय भाषाओं का जीना दूभर कर दिया। अंगरेजी मोह ने राममनोहर लोहिया को विवश किया कि वे हिंदी लाओ-देश बचाओ आंदोलन शुरू करें। हमने पाया कि अंगरेजी के नाम पर अंगरेजियत को पाला-पोसा गया और भारतीय भाषाओं में संघर्ष शुरू करा दिया। आज हालत यह है कि देश में सबसे ज्यादा बोली-समझी जाने वाली हिंदी के नाम पर राजनीति का अखाड़ा सजाया जाता है। भारत में हिंदी और हिंदी माध्यम के विद्यार्थी आइएएस की परीक्षाओं में दबाए-सताए जाते हैं। वे आंदोलन करते घूमते हैं- लेकिन उन्हें न्याय नहीं मिलता। समय आ गया है कि इस संकट के निवारण का स्थायी समाधान खोजा जाए। आजादी के आंदोलन में गांधीजी ने हिंदी-उर्दू हिंदुस्तानी का नारा दिया और माना कि भाषा में खुलेपन का विस्तार रहना चाहिए।
गांधीजी का ‘हिंदुस्तानी’ का एजेंडा अपनी जगह था। विभाजन के बाद एक बार फिर संकट के बादल छाने लगे। भारत को हिंदूराज बनाने की राजनीति जोर पकड़ने लगी। विचित्र है कि इसकी शुरुआत कांग्रेस के हिंदूवादी चिंतन से ही हुई। कांग्रेस ऊपर से सेक्युलर और भीतर से घोर हिंदूवादी पार्टी रही और वोट के लिए मुसलमानों की आंखों में धूल झोंक कर सत्ता पर लंबे समय तक काबिज रही।
कभी-कभार कांग्रेस ने छल-कपट से हिंदू मन को अपनी ओर खींचने का योजनाबद्ध कार्य किया। 23-24 दिसंबर, 1949 की रात में एक चमत्कार का सहारा लिया गया। बाबरी मस्जिद के अंदर अचानक रामलला की मूर्ति प्रकट हुई। यह अवतार अपूर्व था और सभी को श्रद्धाभाव से रामलला को हृदय से लगाना आनंद की रसानुभूति के साथ सुखद लगा। शयद इसी से प्रेरणा लेकर 1991 में लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ को पकड़ा। सोमनाथ मंदिर से अयोध्या तक रथयात्रा को चल पड़े। लेकिन बीच में ही रथ रोक लिया गया। इस यात्रा को खंडित देख कर हिंदूमन बहुत कल्लाहट में डूब गया।
आडवाणी गद्दी तक पहुंचने ही वाले थे कि उनका सेक्युलर ढोंगवाद उन्हें जिन्ना की समाधि पर सिर झुकाने को ले गया। इस बार उनका सिर ऐसा झुका कि झुका ही रह गया। इसलिए इस बार के मोदीवाद में सत्ता से उनका पत्ता साफ हो गया। हिंदुस्तानी राजनीति के तमाम बूढ़े केंद्र से किनारे पर धकेल दिए गए।
कांग्रेसी सरदार वल्लभभाई पटेल हिंदूवाद की छोटी-खोटी राजनीति से दूर थे। हालांकि यह बात सरदार पटेल को लेकर वामपंथियों के गले नहीं उतरती है। गांधीजी ने सरदार पटेल के बारे में हिंदू-मुसलमानों को सुनने के बाद कहा कि ‘कई मुसलमान दोस्तों ने शिकायत की थी कि सरदार का रुख मुसलमानों के खिलाफ है। मैंने कुछ दुख से उनकी बात सुनी। मगर कोई सफाई पेश नहीं की। उपवास शुरू होने के बाद मैंने अपने ऊपर जो रोकथाम लगाई हुई थी वह चली गई। इसलिए मैंने टीकाकारों को कहा कि सरदार को मुझसे पंडित नेहरू से अलग करके और मुझे और पंडित नेहरू को खामखा आसमान पर चढ़ा कर गलती न करें।’
सरदार पटेल तो गांधीजी जो कहते थे उसे निष्ठा से करते थे और नेहरू प्राय: गांधीजी को अनसुना करने में मजा पाते थे। यहां तक कि गांधीजी के ‘हिंद स्वराज’ से नेहरूजी कभी सहमत नहीं हो सके। लोहिया कहा करते थे कि नेहरू तो सरकारी गांधीवादी थे- उनका गांधी के अहिंसा दर्शन से कुछ लेना-देना न था। लेकिन लालकृष्ण आडवाणी तो अपने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के अंतरंग सखा थे, उन्हें जिन्ना-नमन करने की क्या आवश्यकता थी? क्या उनके इस पाठ से मुसलमान उन पर खोया भरोसा वापस ला सकता था? कभी नहीं।
यहां सवाल लोक और शास्त्र, वेद, कुरान और बाइबिल की लोकतांत्रिक मंशा को लेकर उठता है। हर तरफ से मामला श्रद्धा और संस्कृति के प्रतीकों का बनता है। इन सभी के साथ है- लोक-संस्कृति और जातीय अस्मिता। राम मंदिर बने या न बने, लेकिन हिंदू-मुसलमान नीति के पाठ का नया भाष्य जरूरी है- क्योंकि जब-तब भारत में मुजफ्फरनगर जैसे कांड हो जाते हैं और पूरा देश कराहता रह जाता है।
आज समय का तकाजा यही है कि शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र ऐसा कुछ न करें, जिसमें हिंदुत्ववाद का स्वर प्रबल हो। समभाव से सभी को देखें। शिक्षा-संस्कृति की शुद्धता खत्म करने में ही बहुलतावादी संस्कृति के इस देश का भला है। शिक्षा-संस्कृति का क्षेत्र न ‘धर्म-क्षेत्र’ है न ‘कुरुक्षेत्र’। इसे ज्ञान क्षेत्र ही बनाने की राह पकड़नी चाहिए। मिश्रित संस्कृति के इस देश को ‘संस्कृति’ के नाम पर रणांगन नहीं बनना है- तभी हम भूमंडलीकरण की चुनौतियों का डट कर मुकाबला कर सकेंगे।
हमारी चिंता यह है कि आधुनिकता ने छोटे गांवों-कस्बों को विस्थापित करके नरकाते महानगर बसाए, जिनमें पड़ोसी तक अजनबी बनने लगे। हर कोई अकेला पड़ गया। वोट की राजनीति भी उसे जोड़ नहीं पाई। वह दलों की दलदल में फंस गया। ऐसा इसलिए भी हुआ कि ग्लोबल संस्कृति ने उसे अपसंस्कृति में जीने को विवश किया। पुरानी पड़ोसीजन्य आत्मीयता ने सूख कर बेशरम क्रूरता का चेहरा धारण कर लिया। आधुनिकता ने ऐसा खेल खेला कि वैयक्तिकता रंग लाई और रिश्तेदारों तक से हम कटते गए। ग्लोबल मीडिया हमारे दिमाग पर हावी हो गया और हम ग्लोबल सिटीजन बन गए।
इस दौर ने हमें परंपरागत मूल्यों से काट कर मनोरोगी बना दिया। हम अन्य को बर्दाश्त करने की स्थिति में भी नहीं रहे। मनोविश्लेषण की शरण में जाने पर पता चला कि असुरक्षा की भावना के कारण व्यक्तित्व दरक रहा है। यह दरका व्यक्तित्व फिल्मी सितारों की गपशप में डूबने लगा। मीडिया क्रांति ने बनारस की गंगा में मोदी और केजरीवाल को सार्वजनिक बना कर साधारण गंगा-भक्त बना दिया। इस तरह सभी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति गंगा की लपेट में आ गए।
नया दक्षिणपंथ नई पीढ़ी को ब्रह्मचर्य की ओर ले जाने का पक्षधर है। वह मुक्तमंडी संस्कृति का विरोधी है। मगर सर्वेक्षणों से पता चलता है कि भारत का मीडिया हर सांस में सेक्स परोस रहा है और युवती के अधखुले शरीर को विज्ञापन में घुमा रहा है। यह पूरा समाज जैसे मान गया है कि सेक्स से बड़ा कोई सुख नहीं है। अविवाहित युवतियां मां बन कर जीने को विवश हैं और कुछ हैं, जो बिना बच्चा पैदा किए सेक्स भोगने की संस्कृति लाने पर आमादा हैं। हमने ‘माडर्न’ होने के लिए गांधी के चिंतन को पूरी तरह नकार दिया है और अब एक नई अमेरिकी संस्कृति की गाथा हम गा उठे हैं। नई सरकार इसे कैसे संतुलित-नियंत्रित करती है, देखने की बात है।
स्रोतः http://www.jansatta.com/politics/editorial-politics-of-culture-in-crisis/#sthash.6YBvJQov.dpuf
URL: https://newageislam.com/hindi-section/cultural-crisis-indian-politics-/d/99545