खामा बग़ोश मदज़िल्लहू, न्यु एज इस्लाम
25 मार्च, 2013
अब्बास टाउन कराची में हुए बम धमाके में बच्चों के मारे जाने के बाद पाकिस्तान के हिंसक साम्प्रदायिक और उनके समर्थकों ने ये बहस छेड़ दी है कि दुश्मन का बच्चा ऐसा ही है जैसे सांप का बच्चा, जो हालांकि बच्चा होता है लेकिन उसे मारना जायज़ है। सोशल मीडिया पर हाथ में तलवार लिए हिंसक जिहादी इस बात पर अड़े हैं कि शिया लोगों के बच्चों को मारना न सिर्फ जायज़ है बल्कि सवाब (पुण्य) का काम भी है। बच्चों को क़त्ल करने के समर्थक अपने दावे की दलील में हज़रत ख़िज़्र से संबंधित एक रवायत का सहारा लेते हैं कि उन्होंने एक बच्चे के क़त्ल की इजाज़त दे दी थी, जिसके भविष्य के बारे में वो जानते थे कि वो बड़ा होकर काफ़िर और ज़ालिम बनेगा। यहाँ तक कि इस बच्चे के माँ बाप बहुत दीनदार थे। कुछ समय पहले पाकिस्तान के प्रमुख धार्मिक स्कालर और पाकिस्तान में खिलाफत आंदोलन के संस्थापक मरहूम डॉ. इसरार अहमद ने फतवा जारी किया था कि अहमदियों (कादियानियों) के बारे में पाकिस्तान की नेशनल असेंबली ने कुफ्र का जो फैसला दिया था, वो अधूरा फैसला था। इस फैसले में अहमदियों को काफ़िर करार दिया गया था। डॉक्टर इसरार अहमद के अनुसार ये फैसला इसलिए अधूरा था कि इसमें सिर्फ अहमदियों को काफ़िर करार किया गया बल्कि अहमदी सिर्फ काफ़िर नहीं मुर्तद (अपना धर्म त्याग करने वाले) भी हैं और मुर्तद की सज़ा इस्लाम में क़त्ल है। डॉक्टर इसरार अहमद ने स्पष्ट रूप से पाकिस्तान के टेलीविज़न पर कहा कि अहमदियों का क़त्ल वाजिब (अनिवार्य) है। उन्नीस सौ चौहत्तर का नेशनल असेम्बली का फैसला अधूरा है, उसे पूरा तभी किया जा सकता है कि सभी मुर्तदियों को क़त्ल कर दिया जाए। पूरे देश में एक भी आवाज़ डॉक्टर इसरार की इस खराब बात की निंदा में नहीं उठी और न ही आज तालिबान और लशकरे झंगवी और इस तरह के संगठनों के इन समर्थकों की निंदा करने वाला कोई मौजूद है। हालांकि पैगम्बरे इस्लाम ने कई मौक़ो पर विशेष निर्देश जारी किया कि वो बच्चों, औरतों और बुज़ुर्गों पर हाथ न उठाएं लेकिन कुछ रवायतों में रसूलुल्लाह की तरफ से सशर्त इजाज़त मिल जाती है, जैसे मुस्लिम शरीफ़ के अध्याय किताबुल जिहाद की हदीस नम्बर 4457 में है कि उन बच्चों को न मारा जाए जिनके बारे में ये मालूम न हो कि वो बड़े होकर क्या बनेंगे। लेकिन ऐसी रवायतों भी मिल जाती हैं कि शब खून के दौरान औरतों और बच्चों को मारा जा सकता है। इस्लाम के इतिहास खासकर फतेह मक्का के बाद, में इस हवाले से बहुत परस्पर विरोधी सामग्री मिलती है। कहीं इस तरह के क़त्ल से मना किया गया है और कहीं इसकी इजाज़त दी गई है।
फतेह मक्का के बाद कअब बिन अशरफ और खासकर उम्मे कुर्फ़ा जैसी बुज़ुर्ग और प्रतिष्ठित औरत का बेदर्दी से क़त्ल इस बात की स्पष्ट दलील है कि इस्लाम के प्रभुत्व के साथ ही ऐसे पुराने विरोधियों को क़त्ल किया गया जिन्होंने किसी वक्त में रसूलुल्लाह के पैग़ाम का विरोध किया था। फतेह मक्का के बाद कुछ ऐसे लोगों को भी क़त्ल किया गया, जिनको क़त्ल करने की इजाज़त रसूलुल्लाह ने खुद दी थी। उम्मे कुर्फ़ा की दोनों टाँगें दो ऊंट जो विपरीत दिशा में दोड़ाए गए थे उनकी मदद से चीर दी गईं। लेकिन ये भी देखा गया कि कअब बिन अशरफ और उम्मे कुर्फ़ा से कहीं ज़्यादा इस्लाम दुश्मनों और ऐसे लोगों को न सिर्फ माफ़ कर दिया गया बल्कि उन्हें नए राज्य में आदर भी मिला, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी इस्लाम की दुश्मनी में गुज़ार दी थी। बाद में ज़माने ने देखा कि सहाबा में से कुछ ने उस दौर के मुसलमानों को क़त्ल किया। मालिक बिन नवेरह का क़त्ल इसकी स्पष्ट मिसाल है जिसको हज़रत खालिद बिन वलीद ने न सिर्फ क़त्ल किया बल्कि बिना इद्दत (वो अवधि जिसके अंदर एक मुसलमान महिला अपने पति की मौत के बाद दूसरे व्यक्ति से शादी नहीं कर सकती) पूरी किए उसकी विधवा के साथ तत्काल शादी भी कर ली। इस्लाम के इतिहास में क़त्ल इसका एक अनिवार्य हिस्से की हैसियत रखता है और रसूलुल्लाह के वेसाल (मृत्यु) के तुरंत बाद सहाबा के बीच मतभेद पैदा हो गये और फिर लोगों ने देखा कि न सिर्फ बुज़ुर्ग सहाबा को क़त्ल कर दिया गया बल्कि काबा तक के सम्मान का भी अनादर किया गया। चौथे ख़लीफा हज़रत अली रज़ियल्लाहू अन्हू और सीरिया के अमीर मुआविया बिन सुफ़ियान के बीच होने वाली खूनी जंगों में सहाबा की एक बड़ी तादाद क़त्ल हुई। इससे पहले रसूलुल्लाह की पत्नी हज़रत आइशा रज़ियल्लाहू अन्हा और दामाद अली रज़ियल्लाहू अन्हू के बीच होने वाली जंगे जमल में सहाबा की बड़ी तादाद एक दूसरे के हाथों क़त्ल हुई। इसके बाद बनु उम्मैय्या और बनू अब्बास ने मुसलमानों के खून से खूब हाथ रंगे और ये सिलसिला आज तक पूरी ताक़त के साथ जारी है। जो लोग ये कहते हैं कि कोई मुसलमान दूसरे मुसलमान को बिना वजह क़त्ल नहीं कर सकता, वो इस्लाम के इतिहास को उठाकर देखें कि जितने ध्यान और रुचि के साथ एक ज़बरदस्त मुसलमान ने दूसरे ज़बरदस्त मुसलमान को क़त्ल किया है किसी गैर मज़हब वाले ने ऐसा नहीं किया। सैकड़ों ऐसी किताबे आज मौजूद हैं जिनमें एक मुसलमान पंथ या समुदाय ने दूसरे मुसलमान समुदाय या पंथ की निंदा की है और एक दूसरे के खून को जायज़ बताती हैं। जब मुसलमान दूसरे मुसलमान को क़त्ल करने से नहीं कतराता तो ये कैसे मुमकिन है कि एक ज़बरदस्त मुसलमान किसी धर्म से सम्बंध रखने वाले के लिए रहम का कोई जज़्बा अपने दिल में रखे?
ये पूरी तरह स्पष्ट है कि आज इस्लाम की विभिन्न विचारधाराओं में जारी खूनी जंग के लिए औचित्य इस्लाम के दामन से ही हासिल किया जाता है। सिपाहे सहाबा और लश्करे झंगवी का रवैय्या इस संबंध में बहुत स्पष्ट है कि चूंकि शिया लोगों ने रसूलुल्लाह के सहाबा और रसूलुल्लाह की पत्नियों की शान में गस्ताखी की है इसलिए उन्हें जान से मारना जायज़ और सवाब का काम है। दूसरी तरफ तालिबान जो इस्लाम के लिए अपना और दूसरों का खून बहा रहे हैं, स्पष्ट रूप से सभी ऐसे लोगों की जान और माल को जायज़ बताते हैं जो मुसलमान नहीं और अगर मुसलमान हैं तो तालिबान के जैसे विश्वास पर अमल नहीं करते। स्वात से कराची तक सैकड़ों ऐसे मुसलमानों को तालिबान ने क़त्ल किया है जो उनके जैसे विश्वास नहीं रखते थे और आज भी वो ऐसे मुसलमानों को मुसलमान नहीं मानते और उनके क़त्ल पर अड़े हुए हैं।
ये साबित करना आसान है कि इस्लाम के दामन में हत्या व मारकाट की की न सिर्फ लाखों मिसाले मौजूद हैं बल्कि अनगिनत ऐसे प्रोत्साहन भी स्पष्ट रूप से मौजूद हैं जिनका उद्देशय गैर मुस्लिमों और भटके हुए मुसलमानों को जान से मार देना है। मुसलमानों की हत्या को जायज़ करार देने के लिए इर्तेदाद (स्व धर्म त्याग) का औचित्य तैय्यार किया गया जबकि गैर मुस्लिमों के लिए किसी औचित्य की ज़रूरत भी महसूस नहीं की गई। पाकिस्तान के सांप्रदायिक संगठनों ने हत्या और मार काट की शुरुआत भारत के शहर लखनऊ के देवबन्दी आलिमे दीन मौलाना मंज़ूर अहमद नोमानी के फतवा के प्रकाशन के बाद किया, जो एक किताब के रूप में कराची से प्रकाशित हुआ। जिसमें शिया के इर्तेदाद को साबित किया गया था। मौलाना मंज़ूर अहमद नोमानी ने ईरानी क्रांति के नेता अयातुल्लाह खुमैनी को काफ़िर घोषित किया और फिर शिया लोगों के इर्तेदाद को साबित करने के बाद उनके क़त्ल की राह हमवार कर दी। ऐसा ही फतवा एक दूसरे देवबन्दी आलिम डॉक्टर इसरार ने जारी किया जिसमें पाकिस्तान के अहमदियों के कुफ़्र के फैसले को अधूरा बताया गया था और उसका पूरा होना इस बात के अधीन था कि चूंकि अहमदी मुर्तद हो चुके हैं इसलिए उनकी हत्या जायज़ है, और इस्लाम में इर्तेदाद की सज़ा सिर्फ हत्या है। दोनों फतवा देने वाले लोगों के पास औचित्य इस्लाम के इतिहास और हदीस के संग्रह का प्रदान किया हुआ था और उन्होंने वही कहा जो इस्लाम की मन्शा है।
खामा बग़ोश मदज़िल्लहू का परिचयः दुविधा में पड़ा एक मुसलमान जो ये समझने में असमर्थ है कि मुसलमान की असल परिभाषा क्या है? क्या मुसलमान वास्तव में सलामती के पक्षधर हैं या अपने ही सहधर्मियों की सलामती के दुश्मन? इस्लाम के मूल सिद्धांत, इतिहास, संस्कृति और विश्व की कल्पना क्या है? और क्यों आज मुसलमान न सिर्फ सभी धर्मों बल्कि संस्कृतियों के साथ भी संघर्षरत हैं? क्या इस्लाम की विजय होने वाली है या अपने ही अनुयायियों के हाथों पराजित हो चुका है, मैं इन्हीं विषयों का छात्र हूँ और न्यु एज इस्लाम के पन्नों पर आप दोस्तों के साथ चर्चा करने की कोशिश करूंगा।
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