इस्लाम कृपा एंव दया का धर्म
लेखक
ख़ालिद अबू सालेह
अनुवाद
जावेद अहमद
सन्शोधन
अताउर्रहमान ज़ियाउल्लाह
शफीकुर्रहमान ज़ियाउल्लाह मदनी
1428-2007
بسم اللہ الرحمٰن الرحیم
आल्लाह के नाम से आरम्भ करता हूँ जो अति मेहरबान और दयालु है।
सभी प्रशंसायें अल्लाह रब्बुल आलमीन के लिए हैं और दरुद व सलाम हो हमारे नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु आलैहि वसल्लम पर जिन को पूरी दुनिया के लिए रहमत बनाकर भेजा गया, और उनकी संतान और उनके सभी साथियों पर।
सन्देष्टा हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को क्यों भेजा गया?
क्या उन को मानवता को यातना देने के लिए भेजा गया?
क्या उन को मानवता को नष्ट करने के लिए भेजा गया?
क्या लोगों से उन के अविश्वास तथा शत्रुता का बदला लेने के लिये भेजा गया?
इन सारे प्रश्नों का उत्तर अल्लाह तआला का कथन दे रहा हैः
(وَمَا أَرْسَلْنَاكَ إِلَّا رَحْمَةً لِّلْعَالَمِينَ)
“तथा हम ने आप को पूरी दुनिया के लिए रहमत बना कर भेजा है।” सूरतुल अंबियाः 107)
यही दूतत्व का उद्देश्य तथा अवतरण का अभिप्राय तथा नुबुव्वत का मक़सद है।
निःसन्देह मुहम्मद सल्लल्लाहु आलैहि वसल्लम अल्लाह की ओर से पथ भ्रष्ट तथा आश्चार्य चकित मानवता के लिए अनुकम्पा हैं।
अल्लाह तआला का कथन हैः
(فَبِمَا رَحْمَةٍ مِّنَ اللَّهِ لِنتَ لَهُمْ ۖ وَلَوْ كُنتَ فَظًّا غَلِيظَ الْقَلْبِ لَانفَضُّوا مِنْ حَوْلِكَ)
“अल्लाह की रहमत के कारण आप उन पर नरम दिल हैं, यदि आप बद ज़ुबान और सख्त दिल होते तो यह सब आप के पास से छट जाते” (सूरत आल-इम्रानः 159)
यदि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम कठोर हृदय वाले होते तो अल्लाह तआला का संदेश पहुँचाने के लिए अनुचित होते और जब हम ने आप को संदेश्वाहक बनाया तो सन्देष्टा के लिए अनिवार्य है कि वह कृपालू, दयावान, विशाल हृदय वाला, सहनशील तथा बहुत धैर्यवान और संतोषी हो।
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
“ऐ लोगो मैं रहमत तथा दया बनाकर भेजा गया हूँ।” (इब्ने सअद ने इस का वर्णन किया है और अल्लामा अलबानी ने इस के शवाहिद के आधार पर इसे हसन क़रार दिया है।)
तथा इतिहास लेखकों ने आप सल्लल्लाहु आलैहि व सल्लम की विशेषताओं के विषय में लिखा है किः
आप बीवी बच्चों के संबंध में लोगों में सब से बढ़ कर दयालू थे। (सहीहुल जामे)
आप दयालू थे, आप के पास जो भी आता था उस के वायदा कतरते थे (यदि आप के पास वह चीज़ नहीं होती) और अगर वह वस्तु आप के पास होती तो आप उसे आप पूरा करते थे।(सहीहुल जामे)
कृपा का प्रलोभन
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने लोगों को अल्लाह की सृष्टि के साथ कृपा व दया करने पर लोगों को उभारा है, वह छोटे हों या बड़े, नर हों या नारी, चाहे वह मुसलमान हो या नास्तिक, तथा इस संबंध में बहुत सारे तर्क नर्णित हैः
जरीर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लहु अन्हु द्वारा वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
“जो व्यक्ति लोगों के ऊपर दया नहीं करता अल्लाह उसके ऊपर दया नहीं करता।” (बुखारी व मुस्लिम)
तथा हज़रत अबू मूसा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्हों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फरमाते हुए सुना किः
“तुम मोमिन नहीं हो सकते यहाँ तक कि आपस में एक दूसरे के ऊपर दया व कृपा करने लगो।”
उन्हों ने कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल। हम में का हर व्यक्ति दयालू है।
आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया किः
“दया यह नहीं कि तुम में से कोई अपने साथी के साथ करे, परन्तु दया यह है कि साधारण जनता के साथ करो।” (इसे तबरानी ने बयान किया है और अलबानी ने हसन कहा है)
यह इस बात का तर्क है कि दया सब जनता के साथ होना चाहिए, जिस को आप जानते हों तथा जिस को ना जानते हों,(सब के साथ दया करें)।
तथा अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस रज़ियल्लाहु अन्हुमा द्वारा वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
舵“दया करने वालों के ऊपर अल्लाह तआला दया करता है, धरती पर बसने वालों के ऊपर दया करो आकाश वाला तुम्हारे ऊपर दया करेगा।”
(अबू दाऊद और त्रिमिज़ी ने इसे बयान किया है और त्रिमिज़ी ने कहा है कि यह हदीश हसन-सहीह है)
आप नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के इस फरमान कि “धरती पर बसने वालों को ऊपर दया करो” के अर्थ में मनन चिन्तन करें तो आप इस धर्म की महानता को समझ जायेंगें जो पूरी मानव जाति के लिए कृपा (रहमत) बन कर उतरा है, अतः इस धर्ति पर बसने वाले हर व्यक्ति इस्लाम धर्म में दया का पात्र है।
चाहे वह अनीश्वरवादी ही हो?
जी हाँ, चाहे वह ग़ैर मुस्लिम ही क्यों न हो।
फिर इस्लाम में धर्म-युद्ध का आदेश क्यों दिया?
इस्लाम ने धर्म-युद्ध का आदेश अल्लाह की कृपा तथा लोगों के बीच रोड़ा बनने वाले व्यक्ति को हटाने के लिए दिया, अल्लाह तआला का फरमान हैः
(كُنتُمْ خَيْرَ أُمَّةٍ أُخْرِجَتْ لِلنَّاسِ)
“तुम बेहतरीन उम्मत हो जो लोगों के लिए पैदा की गई है।”
हज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि तुम लोगों में लोगों के लिए सब से उत्तम हो, तुम उन को बेड़ियों में इस लिए जकड़ कर लाते हो ताकि तुम उन को स्वर्ग में ले जा सको।
इस्लाम का द्धेष तथा कीना कपट से कोई संबंध नहीं, जिस ने जीवन के अनेक भागों में मानवता को विनाश के घाट उतारा।
निःसंदेह कठोर हृदय जिस में कृपा व दया न हो वह सच्चे विश्वासियों (मोमिनों) के हृदय नहीं, इसी लिए नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया किः
“कृपा केवल दुःशील से उठा ली जाती है।” (इसे अबू दाऊद ने बयान किया है और अलबानी ने इसे हसन कहा है)
इस में कोई शक नहीं कि दूसरे विश्व युद्ध में 60 मिलियन जनता मारी गई, कबरें अपने मदफूनों से तंग हो गयीं तथा शव की बदबू संसार के कोने कोने में फैल गयी और मानवता खून तथा खोपड़ियों और शवों के टुक़ड़ों के समुद्र में डूब गयी तथा युद्ध नेताओं ने चाहा कि अपने शत्रुओं की टोलियों में नागरिकों की सब से बड़ी संख्या को मौत के घाट उतार दें, तथा बस्तियों को नष्ट करने, निशाने राह को मिटाने और जीवन के हर दस्तूर का सफाया करने के लिए सब से बड़ी स्म्भाविक ताक़त का प्रयोग करना चाहा।
तो यह लोग विश्व को किस प्रकार की स्वतंत्रता दे सकते हैं?
तथा मानव जाति को कौन सा आज़ादी दिला सकते हैं?
यह युद्ध क्यों हुआ? इस के क्या कारण थे? इस के नैतिक कारण क्या थे? इस के परिणाम क्या निकले? इस में होने वाली तबाही का ज़िम्मेदार कौन है? इन सब पर किसी ने नहीं सोचा तथा इच्छाओं, कठोरता और कीना कपट को अधिकार प्राप्त रहा तथा युद्ध नेताओं को बाल-शक्ति का घमंड चढ़ा रहा, अन्ततः इस भयानक विश्व-संघर्ष का परिणाम यही निकला।
आश्चर्य की बात यह है कि जिन लोगों ने इस घिनावने नर-हत्या का कांड किया वही लोग आज इस्लाम तथा मुसलमानों पर कठोरता और सख्ती का आरोप लगाते हैं, और समझते है कि इस्लाम कठोरता पर उभारने वाला धर्म है तथा नष्ट, विनाश और सार्वजनिक हत्या की और बुलाता है।
परन्तु यह तो सफेद झूठ है जिस का तर्क न तो इतिहास से मिलता है और न ही मौजूता सूरते हाल से मिलता है।
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जब हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को ख़ैबर के यहूदियों की ओर भेजा तो हज़रत अली ने आप से प्रश्न किया कि ऐ अल्लाह के संदेष्टा। क्या मैं उन से युद्ध करता रहूँगा यहाँ तक कि वह हमारी तरह हो जायें(मुसलमान हो जायें) अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
“इतमिनान से रवाना हो जाओ यहाँ तक कि ख़ैबर के मैदान में पहुँच जाओ फिर सब से पहले उन को इस्लाम धर्म की ओर बुलाओ और उनके ऊपर अल्लाह के जो अधिकार (हुकूक़ हैं उन को बताओ, अल्लाह की सौगंध। यदि अल्लाह तुम्हारे ज़रिया से एक व्यक्ति को हिदायत दे दे तो तुम्हारे लिए यह लाल रंग के ऊँटो से बेहतर है।” (बुख़ारी व मुस्लिम)
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने एक कमांडर को यह आदेश दे रहे है जिस के अन्दर हत्या करने और खून बहाने की कोई बात नहीं, अपितु आप के आदेश में यह संकेत है कि इन लोगों का हिदायत पा जाना तथा सत्य (इस्लाम) को स्वीकार कर लेना उन को कुफ्र की स्थिति में मारने से बेहतर है।
और युद्ध में इस्लाम में इस्लाम की कृपा के विषय में हज़रत अनस बिन मालिक रज़िअल्लाहु अन्हु वर्णन करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया किः
“रसूलुल्लाह के धर्म पर रहते हुये अल्लाह के वास्ते अल्लाह का नाम लेकर निकल जाओ, किसी कमज़ोर बूढ़े को मत मारो और न ही किसी छोटे बच्चे को और न ही नारी को और माले ग़नीमत में ख़यानत न करो और माले ग़नीमत समेट लो और संधि से काम लो और भलाई करो, निःसंदेह अल्लाह भलाई करने वाले को चाहता है।” (अबू दाऊद)
आप के इस आदेश से उन लोगों का क्या संबंध है जिन्हों ने बस्तियों को नष्ट किया तथा बस्तियों में बसने वालों को तबाह किया और विश्व आधार पर वर्जित हर प्रकार के हथियारों का प्रयोग कर के औरतों, बच्चों, बूढ़ो, खेत के किसानों और गिरजाघरों के पादरियों को क़त्ल किया?
जिन युद्धों में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने नेतृत्व किया या जो युद्ध आप के युग में हुए उन में नास्तिकता के कोई सैंकड़ों नेता मारे गये जिन्हों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को कष्ट दिया था, आप के साथियों को शहीद किया था तथा इस्लाम और मुसलमानों पर हर जगह तंगियां कीं तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों ने कष्ट देते हुये तथा कारादण्ड देते हुये उन को अन्य देशों की ओर जिला वतन को जाने तथा उनको अपने मालों और घरों को छोड़ देने पर मज़बूर नहीं किया। जब कि केवल सलीबी युद्ध के अन्दर लाखों मुसलमान खत्म कर दिये गये तथा लाखों लोग अनेक प्रकार की घिनावनी यातनाओं से पीड़ित हुये।
तो तुम्हारी वह दया कहाँ है जिस के तुम दावे करते हो?
तथा आज तक इन लोगों ने इस घिनावने कारतूतों से क्षमा क्यों नहीं मांगी?
जोस्टेफ लोफन – जो कि एक बड़ा मुस्तशिरक़ (पूर्व देशीय भषाओं और उलूम का ज्ञान रखने वाला पश्चिमी विचारक) है- कहता है किः“ सत्य तो यह है कि लोगों ने अरबों जैसी दया व रहम करने वाले विजेता नहीं देखे, इस्लाम धर्म ने ही मुसलमानों को यह कृपा तथा दया प्रदान की,तथा हम ने अनेक युद्ध देखे हैं जैसे अफयून का युद्ध तथा उस से कठोर आज की स्तेमारी जंगें और इस से भी कठोर सहयूनियों की कठोरत तथा अत्यचार है, विनाशकारी तथा खून बहाने से इन सहयूनियों को लगाव है।” (रहमतुल इस्लाम पृष्ट 167-168)
यह तो मुसलमानों की दया है और यह इन शत्रुओं की कठोरता है, तो फिर कौन से गरोह पर कठोरता, हत्या तथा आतंक का आरोप लगाया जा सकता है?
शैख़ अब्दुर्रहमान सअदी कहते हैः “इस धर्म की कृपा, बेहतर मामलात और भलाई की दावत तथा इस के विपरीत वस्तुओं से मनाही ने ही इस धर्म को अत्याचार, दुर्व्यवहार तथा अनातरता के अन्धकार में ज्योति तथा प्रकाश वाला बना दिया और इसी विशेषता ने कठोर शत्रुओं के हृदयों को खींच लिया यहाँ तक कि उन्हों ने इस्लाम धर्म के साये में पनाह ली और इस धर्म ने अपने मानने वालों के ऊपर दया की यहाँ तक कि रहम-क्षमा और दया (एहमान) उनके दिलों से छलक कर उनके कथन और कामों पर प्रकट होने लगे, और यह एहसान उनके शत्रुओं तक जा पहुँचा, यहाँ तक कि यह इस धर्म के महान मित्र बन गये, कुछ तो शौक़ और बेहतर सूझ-बूझ से इस के अन्दर दाखिल हो गये और कुछ इस धर्म के आगे झुक गये तथा (उन के दिलों में) इस (इस्लाम) के आदेशों में उल्लास पैदा हो गया और उन्हों ने न्याय और कृपा के आधार पर इस्लाम धर्म को अपने धर्म के आदेशों पर प्राथमिकता दी। (अद्दुर्रतुल-मुख्तसरह पृष्ट 10-11)