(अंतिम किस्त)
कनीज़ फातिमा, न्यु एज इस्लाम
जमाने के हालात के बदलने से मसाएल में बदलाव
महिलाओं को नमाज़ बा जमाअत से मना करना किताब व सुन्नत के अनुसार होने के साथ साथ अहकाम की तब्दीली के उसूलों की रौशनी में भी जायज़ व मुबाह हैl
इसलिए कि जिन अहकाम में तब्दीली जायज़ है, उनहीं हुक्मों में से महिलाओं का मस्जिदों में नमाज़ बा जमाअत पढ़ने का भी हुक्म हैl यह इस लिए बताना पड़ा की हर मसले में परिवर्तन नहीं कर सकते, उलेमा उनहीं अहकाम में परिवर्तन करते हैं जो रिसालत के जमाने व सहाबा के जमाने के बाद इज्तेहादी और गैर इज्माई हो, वह अहकाम ख़ास मुद्दत गुज़र जानें की वजह से ना हो, जैसा कि रिसालत के ज़माने में नाफ़िज़ करदा अहकाम के साथ हुआ, और इल्मे इलाही और इल्मे रसूल में एक ख़ास मुद्दत तक के लिए नाफ़िज़ हुए थेl इसलिए जब वह मुद्दत पुरी हो गई तो हुक्म बदल गया इस प्रकार की तब्दीली को नस्ख और बदले हुए हुक्म को मनसुख कहते हैंl और जिस हुक्मे जदीद से तब्दीली हुई हो उसे नासिख कहा जाता हैl जिसको कुरआन हकीम नें इस प्रकार बयान फरमाया हैl “ماننسخ من اٰیۃ او ننسھانات بخیر منھا او مثلھا” जब कोई आयत हम मनसुख फरमाएं या भुला दें इससे बेहतर या इस जैसी ले आएं गेl (۱۰۶؍البقرہ ۔ ۲)
विपरीत इसके रिसालत व सहाबा के ज़माने के अहकाम में परिवर्तन का मामला जो कि इज्तेहादी और गैर इजमाई हो वह इस वजह से है कि जिस आधार पर वह कायम थे, वह बुनियाद ज़माने के हालात के बदलने से बदल गई इस लिए उन पर आधारित अहकाम भी बदल गएl और इस तरह बदलने के अनेक कारण हैंl जैसे:
(1) ज़रूरत (2) हाजत (3) उमुमे बलवा (4) उर्फ़ (5) तआमूल (6) दीनी ज़रूरत मसलेहत की तहसील (7) किसी मौजूद फसाद या मजनून बज़न ग़ालिब का इजालाl
बल्कि रिसालत व सहाबा के जमाने के बहुत से अहकाम जो शरई बुनियादों में से किसी पर कायम हैं वह भी उन सातों बुनियादों पर बदल सकते हैं बल्कि बहुत से अहकाम बदल भी चुके हैंl जैसा कि पहले चेहरे का पर्दा वाजिब ना था लेकिन अब वाजिब हैl
इसके बदलने में वजह यह बताई गई कि हुजुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ज़माना बड़े तकवा और खौफे खुदा का था, आम तौर पर लोग गुनाहों से बचते थे मगर जब ज़माने के हालात बदल गए और लोग बड़े गुनाह को भी मामूली समझ कर करने लगे तो इस पर उलेमा ने इस हुक्म को बदल कर चेहरा छिपाने का वजुबी हुक्म सादिर फरमायाl
इसके अलावा भी बहुत से अहकाम ऐसे हैं जो रिसालत और सहाबा के ज़माने में थे लेकिन जमाने के हालात बदलने के साथ साथ उन अहकाम को भी बदल दिया गया जिनका बदलना कोई ना जायज व हराम और बिदअत व गुमराही नहीं बल्कि इस तरीके की तब्दीली की गवाही खुद साहबे शरह, रसूले कायनात, सरवरे दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम दे रहे हैंl
जिसमें हुजुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तरफ से इल्म के वारिसों के लिए यह हिदायत भी मजकुर है कि अच्छे ज़माने के लोगों के अहकाम को सामने रख खराब और बुरे ज़माने के लोगों पर अहकाम मत सादिर करनाl
अंबिया के वारिसों ने इसी हदीस मुबारक पर अमल करते हुए और मौजूदा ज़माने में गफलत के इर्तेका को मलहुज़ राखते हुए बहुत सरे अहकाम में परिवर्तन किया जैसे नमाज़ तर्क करने वाला जो रिसालत व सहाबा के ज़माने में काफिर शुमार होता था आज वह ना हमारे बीच काफिर शुमार किया जाता है और ना ही उनके नजदीक जो इस बात की रट लगाते हैं कि जब हुजुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ऐसा नहीं किया तो औरों का क्या हक़ बनता हैl
इस तरह यह हुजुर के ज़माने में तो लोग आम तौर से जूता पहन कर नमाज़ पढ़ते बल्कि खुद हुजुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सहाबा को इसका हुक्म दियाl और इरशाद फरमाया कि यहूदी मोजा जूता पहन कर नमाज़ नहीं पढ़ते तो तुम उनकी मुखालिफत करोl
लेकिन आज जूते में नमाज़ पढ़ना तो बड़ी बात है अगर किसी गैर मुकल्लिद की हिम्मत हो तो जूता पहन कर मस्जिद में घुस जाए, या फर्श पर ही जूता पहन कर टहलने लगे और अगर कोई टोके तो उनहें ललकारे कि हुजुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने तो जूता पहन कर नमाज़ पढ़ाई और इसका हुक्म दिया, तुम लोगों को रोकने का क्या हक़ है? तो मुसलमान उसके पैर में क्या पुरे सर पर जूतों की बौछार कर देंगेl
इसलिए जब यह काम आज के ज़माने में रिसालत के ज़माने के खिलाफ हो रहे हैं, और उनको इसी तरह अदा करना मुसलमान सवाब का काम समझते हैं, और खुद गैर मुकल्लिद भी मस्जिद में किसी जानवर का घुसना और नमाज़ की जगह जूता पहन कर चलना या जूता समेत नमाज़ पढ़ना अदब के खिलाफ समझते हैं, तो उस गैर मुकल्लिद को इसका क्या हक़ पहुंचता है कि वह इमाम बरहक़ दुसरे खलीफा रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नायब हज़रत फारुक आदिल बैनुल हक़ व बातिल पर इस तरह जुबान तान दराज़ करेंl خذلھم اللہ
असल बात यह है कि बहुत ऐसे अहकाम हैं जो वक्त और ज़माने के परिवर्तन और उर्फ़ व आदत के इख्तिलाफ से बदल जाते हैंl
लेकिन इसके बावजूद भी गुस्ताख गैर मुकल्लेदीन का यह कहना कि हज़रत फारुक आज़म को इसका क्या हक़ कि औरतों को मस्जिदों में आने से मना करें और उनके हुजुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अता किये हुए हक़ को छीने जो आपने औरतों के संबंध में फरमाया था لاتمنعوا اماء اللہ مساجد اللہ
इन गुस्ताखों को यह नहीं मालूम कि आका सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने आप रदिअल्लाहु अन्हु को कई जगह कई तरीके से हक़ अता फरमायाl किसी जगह आपने उमुमन हक़ अता करते हुए इरशाद फरमाया कि “मेरे सहाबा सितारों की तरह हैं उनमें से तुम जिसकी पैरवी करो गे हिदायत पाओ गे”l (رواہ رزین بحوالہ مشکوٰۃ ۵۵۴)
इस हदीस मुबारक में मुख्तारे दो जहां ने सभी सहाबा की इकतेदा को निजात का जरिया बना दिया हैl इसलिए जब सभी सहाबा की पैरवी का इख़्तियार हमें सरकार की तरफ से अता हो चुका है तो जो सहाबा के सरदार हैं हमने उनकी पैरवी कर ली तो क्या अजब कियाl हालांकि उनके बारे में सरकार नें यहाँ तक फरमाया है कि अगर मेरे बाद कोई नबी होता तो वह उमर फारुक होताl
पस जिनका मर्तबा इतना बुलंद हो उनकी जानिब से हक़तलफी का शक भी किया जा सकता है नहीं हरगिज़ नहींl
इसी तरह आप रदिअल्लाहु अन्हु को इख़्तियार की दूसरी सनद देते हुए आका सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम यूँ इरशाद फरमाते हैं जो ख़ास तौर पर चारों खलीफा के संबंध में हैl
“तुम मेरे तरीके को लाज़िम पकड़ने के साथ साथ मेरे चारो खलीफा के तरीके को भी लाज़िम पकड़ो”l
तो क्या चारो खलीफा में हज़रत उमर फारुक रदिअल्लाहु अन्हु नहीं हैं जो उन्होंने उनके हक़ की बात की और इस किस्म के नाज़ेबा अलफ़ाज़ इस्तेमाल कियेl
हालांकि सरकार ने तो चारों खलीफा में से भी ख़ास करके उनके और सिद्दीक अकबर के बारे में इरशाद फरमायाl “कि क्या मालूम मैं कब तक तुममें रहूँ इसलिए मेरे बाद रहने वाले अबुबकर व उमर की पैरवी करना”
इसलिए जब सरकार ने आपको बहुत सारे इख़्तियार अता फरमा कर मुख्तार बना दिया और फरमाया कि मेरे बाद रहने वाले को जो हुक्म अबू बकर व उमर दें वही हक़ और हुक्मे मुस्तफा हैl
औरतों की इमामत व जमाअत:
۱۔ عن عائشۃان رسول اللہ ﷺ قال لا خیر فی جماعۃ النساء الا فی المسجد او جنازۃ قتیل۔ (مجمع الزوائد ص ۳۳ ج۲
हज़रत आयशा से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि औरतों की जमाअत में ज़र्रा बराबर भी खैर नहीं मगर यह कि मस्जिद में या शहीद के जनाज़े मेंl (مجمع الزوائد ص ۳۳ ج۲)
इस हदीस में आका सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने साफ़ साफ़ फरमा दिया कि औरतों की जमाअत में कोई भलाई नहीं है मगर इसके बावजूद भी अगर कोई औरतों की नमाज़ बा जमाअत को जायज करार दे तो वह खुद औरतों का कितना बड़ा तालीफ़ हक़ साबित होगाl अल्लाह पाक हम औरतों को उन जालिमों से महफूज़ रख कर आखिरी दम तक फरमाने रिसालत सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर अमल के साथ साथ ईमान व अकीदे के हिफाज़त की तौफिक अता फरमाएl आमीन
यह तो जमाअत से मना करने की हदीस थी अब निम्न में इमामत से मना करने की हदीस मुलाहेज़ा करेंl
चौथे खलीफा हज़रत अली रादिअल्लाहु अन्हु फरमाते हैं لاتؤم المراۃ(المدونۃ الکبریٰ ص ۸۲ ج۱ مصنف ابن ابی شیبہ ص ۵۳۷ ج۱) कि औरत इमामत ना करेl
2- हज़रत इब्ने औन फरमाते हैं कि मैंने हज़रत नाफेअ को लिखा और उनसे औरत की इमामत का मसला पूछा तो आपने जवाब दिया لااعلم المراۃ تؤم النساء (مصنف ابن ابی شیبہ ص ۵۳۷ ج۱) अनुवाद: मैं नहीं जनता कि कोई औरत औरतों की इमामत करती होl
इससे यह बात साफ़ है कि खैर के ज़माने में कोई जानता भी नहीं था कि औरत औरतों की इमामत करे, तो आज हम औरतों को खैरुल कुरून की औरतों से आगे बढ़ने की हिम्मत बिलकुल नहीं करनी चाहिए बल्कि उनहीं पाक बाज़ औरतों की सीरत को अपनाने की कोशिश करनी चाहिएl
कहने का मतलब यह कि वक्त व हालात के फ़ितनों को देखते हुए औरतों को मस्जिद में जाने की हरगिज़ हरगिज़ अनुमति ना दी जाए जो लोग इस पर अड़े हैं वह दीन में फितना का दरवाज़ा खोल कर अजमते इस्लाम को दागदार करना चाहते हैंl
واللہ اعلم بالصواب
URL for Part-1: https://www.newageislam.com/urdu-section/ruling-women-going-masjid-part-1/d/113882
URL for Part-2: https://www.newageislam.com/urdu-section/ruling-women-going-masjid-part-2/d/113909
URL for Urdu article: https://www.newageislam.com/urdu-section/ruling-women-going-masjid-concluding-part-3/d/113937
URL: