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Journalism in the Digital Age: Spectacle or Mirror of Reality? डिजिटल दौर में पत्रकारिता: तमाशा या सच्चाई का आईना?

कनीज़ फ़ातिमा, न्यू एज इस्लाम

21 अक्टूबर 2025

"वो जो ख्वाब थे मेरे ज़हन में,

ना मैं लिख सका, ना मैं पढ़ सका,

जब ज़ुबान मिली तो कटी हुई,

जब क़लम मिला तो बिका हुआ।"

इक़बाल अशर

....

जब से इंसान ने बोलना शुरू किया, सच्चाई की तलाश उसकी फितरत बन गई। यही तलाश पत्रकारिता की बुनियाद बनी। पत्रकारिता सिर्फ़ खबर पहुंचाने का काम नहीं है, बल्कि ये सच, इंसाफ और लोकतांत्रिक मूल्यों की हिफाज़त करने वाली जिम्मेदारी है।

मगर आज के डिजिटल दौर में, पत्रकारिता की असली रूह ज़ख्मी हो चुकी है। उसका चेहरा ही बदल गया है।

सोशल मीडिया: आज़ादी या अफवाहों की आंधी?

सोशल मीडिया ने लोगों को बोलने की आज़ादी दी है। हर इंसान के पास आज एक प्लेटफॉर्म है। हर फोन एक कैमरा है, हर स्मार्टफोन एक संभावित न्यूज़ रूम बन चुका है।Facebook, YouTube, X (पहले Twitter), Instagram जैसे प्लेटफॉर्म ने लोगों को जोड़ने का तरीका बदल दिया है। लेकिन इस आज़ादी का एक काला पहलू भी है। बिना पुष्टि की गई, सनसनीखेज और अफवाहों से भरी खबरों की भरमार।

आज खबरें सच्चाई दिखाने के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ़ ध्यान खींचने और लोकप्रियता बटोरने के लिए बनाई जाती हैं। कभी जो पत्रकारिता कमजोरों की आवाज़ थी, आज वो कॉर्पोरेट हितों की गुलाम बन चुकी है। सच बोलने का हौसला दबाया जा रहा है। खबरें सोचने पर मजबूर करने की बजाय, अब सिर्फ तमाशा बन गई हैं।

यह केवल तकनीकी नहीं, बल्कि एक गहरी नैतिक और मानसिक गिरावट की निशानी है।

एक समय था जब खबरें जांच परख के बाद, संपादकों की निगरानी में और नैतिकता के साथ प्रकाशित होती थीं। अब "ब्रेकिंग न्यूज़" की दौड़ में सच्चाई, गंभीरता और ईमानदारी दम तोड़ रही है।

सच की क़ीमत: जब पत्रकारिता जान की बाज़ी बन जाए

Reporters Without Borders की रिपोर्ट बताती है कि साल 2024 में दुनिया भर में 54 पत्रकारों की हत्या सिर्फ उनके काम की वजह से हुई, जिनमें से एक तिहाई को इज़रायली फौज ने मारा। इसके अलावा करीब 550 पत्रकार जेल में हैं, सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्होंने सच को ताक़त के आगे झुकने नहीं दिया।

नोबेल पुरस्कार विजेता पत्रकार मारिया रेसा कहती हैं:

“Without facts, you can't have truth. Without truth, you can't have trust. Without trust, we have no shared reality.”

(बिना तथ्यों के सच नहीं, बिना सच के भरोसा नहीं, और बिना भरोसे के कोई साझा समाज नहीं बनता।)

आज के समय में जो कुछ पत्रकारिता के नाम पर हो रहा है, वो अकसर उसके असली मकसद के खिलाफ है।

बहुत से लोग बिना ट्रेनिंग या रिसर्च के खुद को पत्रकार कहते हैं। सोशल मीडिया पर झूठी और भड़काऊ खबरें फैल रही हैं जो समाज में डर, नफरत और बंटवारे को बढ़ावा देती हैं।

किसी आलोचक ने सही कहा है: जब पत्रकारिता बेकाबू धंधा बन जाए, तो वो अपना ज़मीर खो बैठती है।

इसके बावजूद उम्मीद बाकी है। आज भी कुछ नौजवान हैं जो पत्रकारिता को एक मिशन मानते हैं। वे सच्चाई, रिसर्च और इंसानी भलाई को अपना मकसद बनाते हैं। लेकिन जब वे ज़मीनी हकीकत में उतरते हैं, तो उन्हें आर्थिक असुरक्षा, नैतिक दबाव और सच बोलने पर ज़ुल्म का सामना करना पड़ता है।

धर्मों की नज़र में सच्ची पत्रकारिता की अहमियत

पत्रकारिता की असली ताकत उसकी निष्पक्षता, सच बोलने की हिम्मत और समाज के प्रति ज़िम्मेदारी में है।हर धर्म, हर सभ्यता, हर समाज ने सच बोलने को एक नैतिक कर्तव्य बताया है।

इस्लाम: कुरान कहता है:

"और जब भी बात करो तो इंसाफ के साथ करो।"(सूरह अनआम: 152)

इस्लाम में सच और इंसाफ को सबसे ज़रूरी नैतिक मूल्यों में माना गया है। बात चाहे कितनी भी मुश्किल हो, इंसान को सच बोलना चाहिए और झूठ, धोखे व ज़ुल्म से बचना चाहिए। ज़ुबान को एक ताक़तवर हथियार समझा गया है, जिसका इस्तेमाल सोच-समझ कर करना हर मुस्लिम का फर्ज है।

ईसाई धर्म: बाइबल में है:

"You will know the truth, and the truth will set you free." (John 8:32)

यह बताता है कि सच्चाई एक ऐसी रोशनी है जो आत्मा को आज़ाद करती है। ईसाई धर्म में सच बोलना एक आध्यात्मिक ज़रूरत है। झूठ से सख्त मना किया गया है।

बौद्ध धर्म:

बौद्ध धर्म में "Right Speech" यानी सही बोलचाल, आठ मुख्य नियमों में एक है। इसका मतलब है कि बोलते वक्त सच बोलें, किसी को चोट पहुंचाने वाले शब्दों से बचें और करुणा, समझदारी से बात करें।

हिंदू धर्म:

हिंदू धर्म में सत्य (सच) को सबसे ऊँचा नैतिक सिद्धांत माना गया है। महाभारत जैसे ग्रंथों में बार-बार कहा गया है कि सत्य ही धर्म की नींव है, और उसी से समाज में शांति और समृद्धि आती है।

सच्ची पत्रकारिता की ज़िम्मेदारी हम सबकी है

यह ज़िम्मेदारी सिर्फ पत्रकारों की नहीं है, बल्कि समाज के हर व्यक्ति, हर संस्था और हर वर्ग की है कि वे सच्ची और ईमानदार पत्रकारिता का समर्थन करें।

पत्रकारों की सुरक्षा सिर्फ कागजों में नहीं, ज़मीनी हकीकत में भी दिखनी चाहिए। मीडिया संस्थानों को नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए और उन्हें पेशेवर नियमों का सख्ती से पालन करने पर मजबूर किया जाना चाहिए।

सोशल मीडिया पर फैलती झूठी खबरों के खिलाफ कड़े और वैज्ञानिक कदम उठाए जाने चाहिए, और यह बिना किसी धर्म या जाति के भेदभाव के हो।

साथ ही, आम लोगों में “मीडिया साक्षरता” यानी खबरों को समझने, परखने और सोचने की क्षमता को बढ़ाना ज़रूरी है।

अंत में...हालांकि आज पत्रकारिता कई चुनौतियों और दबावों से जूझ रही है, लेकिन सच की रोशनी कभी बुझती नहीं है।

जब तक एक भी पत्रकार अपने ज़मीर के साथ खड़ा है,

जब तक एक भी पाठक सच की क़द्र करता है,

और जब तक एक भी नौजवान इसे अपना मक़सद समझता है,

तब तक पत्रकारिता ज़िंदा रहेगी और इंसानियत की आवाज़ भी बनी रहेगी।

अगर क़लम झुक जाए तो ज़मीर की जागरूकता ज़रूरी है,

और अगर क़लम बिक जाए तो पाठक का फर्ज़ है कि उसे ठुकरा दे।

क्योंकि जहाँ सच की आवाज़ को दबाया जाता है,

वहाँ ज़ुल्म की गूंज तेज़ होती है।

और जहाँ पत्रकारिता बिक जाती है,

वहाँ समाज की बुनियाद हिल जाती है।

इसीलिए, पत्रकारिता की आज़ादी और ईमानदारी सिर्फ एक प्रोफेशनल ज़रूरत नहीं, बल्कि इंसानी इज़्ज़त और सामाजिक न्याय की बुनियाद है।

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कनीज़ फातिमा एक इस्लामी विद्वान और 'न्यू एज इस्लाम' की नियमित कॉलम लेखिका हैं।

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Urdu Article: Journalism in the Digital Age: Spectacle or Mirror of Reality? ڈیجیٹل دور میں صحافت: تماشہ یا حقیقت کا آئینہ؟

URL: https://newageislam.com/hindi-section/journalism-digital-age-spectacle-reality/d/137327

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