जावेद चौधरी (उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
मैंने कल के कई अखबारों में एक दिलचस्प तस्वीर देखी। तस्वीर में प्रधानमंत्री यूसुफ रज़ा गीलानी गाड़ी की ड्राईविंग सीट पर थे। उनके साथ वाली सीट पर मुख्यमंत्री मियां शहबाज़ शरीफ बैठे थे, और तस्वीर के नीचे कैप्शन लगा था, प्रधानमंत्री यूसुफ रज़ा गीलानी मुख्यमंत्री मियां शहबाज़ शरीफ के साथ अपनी गाड़ी खुद चलाते हुए मुल्तान के रमज़ान बाज़ार पहुँचे। इस तस्वीर और कैप्शन के नीचे तीन कालम की खबर छपी थी, जिसमें तफ्सील से बताया गया था कि प्रधानमंत्री ने प्रोटोकाल के बगैर अपनी गाड़ी चलाई। वो मुल्तान के रमज़ान बाज़ारों के दौर पर गये और उन्होंने खाद्य पदार्थों का मुआइना किया और आम लोगों की शिकायतें सुनी वगैरह वगैरह। इस तस्वीर, इस कैप्शन और इस खबर से महसूस होता है कि प्रधानमंत्री का ये कदम असाधारण है और उन्होंने ये कदम उठाकर पूरी दुनिया को हैरान कर दिया, जबकि मैं ये तस्वीर देख कर पानी पानी हो गया। हम लोग हीन भावना और छोटे पन के किस कदर शिकार हो गये हैं कि हम आज इक्कीसवीं सदी में भी प्रधानमंत्री के गाड़ी चलाने के कदम को असाधारण कहते हैं। हम आज भी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का हाथ किसी आम नागरिक की ओर बढ़ता देख कर तालियाँ बज़ाते हैं, और किसी वीवीआईपी के आम लोगों में घुलने मिलने को चमत्कार समझते हैं। हम बड़े दिलचस्प लोग हैं। हम नमाज़ पढ़ने और रिश्वत न लेने और रोज़े रखने वालों को ईमानदार और दीनदार समझते हैं, जबकि रोज़ा, नमाज़ और साफ सुथरी ज़िंदगी हर मुसलमान का फर्ज़ होता है और जिस तरह रोज़ा नमाज़ हर मुसलमान का फर्ज़ होता है, बिल्कुल उसी तरह राज्य के चीफ इक्ज़ीक्युटिव को अपनी गाड़ी खुद चलानी चाहिए और उन्हें रमज़ान बाज़ारों और आम लोगों की जगहों के दौरे भी करने चाहिए। ये उनके फर्ज़ भी हैं और ज़िम्मेदारी भी। ये ज़िम्मेदारी और ये फर्ज़ अमेरिका ,कनाडा, पूरे यूरोप, पूर्वी को छोड़कर सेंट्रल एशिया के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति रोज़ान करते हैं और उन्हें कोई हैरत और अचम्भे से नहीं देखता है। राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने राष्ट्रपति पद की शपथ लेने से एक दिन पहले वाशिंगटन के बेघर लोगों के एक सेंटर में अपने हाथ से रंगाई पुताई की थी और सारा दिन सेंटर की दीवार रंगते रहे थे। वो आज भी अपनी बच्चियों को स्कूल छोड़ने जाते हैं और अध्यापकों के बुलावे पर स्कूल पहुँच कर डांट भी खाते हैं। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन और उनकी पत्नी अक्सर ट्रेन से सफर करते हैं। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री शाम के पक्त अपनी गाड़ी भी खुद चलाते हैं औऱ शापिंग सेंटरों से खरीदारी भी खुद करते हैं। मैंने पिछले दिनों ब्रिटेन की संसद के एक सदस्य के इंटरव्यु में पढ़ा कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन की पत्नी एक पुरानी कार में उन्हें मिलने आयीं, वो अपनी गाड़ी खुद चला कर आयीं थीं। संसद सदस्य ने वजह पूछी तो उन्होंने बताया कि शाम के वक्त उनकी सरकारी सहूलतें स्थगित हो जाती हैं, इसलिए वो अपनी निजी कार इस्तेमाल करती हैं और खुद चलाती हैं। ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर अपने दौर के समय की बात का खुलासा किया था कि वो 15 बरसों से एक ही जूता इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्होंने दोबारा इस जूते का तलवा बदलवाया था। मैंने अपनी आंखों से नार्वे के शाही खानदान को ओस्लो के फुटपाथ पर अपने कुत्तों को नहलाते देखा। दुबई के अमीर मोहम्मद बिन अरशद भी अक्सर अपनी गाड़ी खुद चलाते हैं औऱ दुबई के किसी अखबार में उनकी तस्वीर नहीं छपती है। मलेशिया के महातिर मोहम्मद जब प्रधानमंत्री थे तब वो गाड़ी से खुद सब्ज़ी, फल और गोश्त खरीदते थे। हेल्मेट कोल जब जर्मनी के चांसलर थे, उनके दौर में बर्लिन की दीवार गिरी थी और पूर्वी व पश्चिमी जर्मनी का विलय हुआ था। इसके बाद कोल ने देश की राजधानी बोन से बर्लिन स्थानांतरित करने का ऐलान किया था। राजधानी के स्थानानंतरण में बहुत संसाधन खर्च हुआ था, इसलिए कोल ने चांसलर हाउस का निर्माण रुकवा दिया था और वो चार बरसे तक दो कमरे के फ्लैट में रहे थे। उनका कहना था कि जब तक बर्लिन के सभी सरकारी मुलाज़िम समायोजित (एडजस्ट) न हो जाये तब तक मेरा चांसलर हाउस में जाकर रहना ज़्यादती होगी। कोल की एक गर्ल फ्रेंड भी थी, लेकिन उन्होंने कभी उसे अपने सरकारी निवास में नहीं ठहराया। उनका कहना था कि वो गैरसरकारी सदस्य हैं, इसलिए उन्हें सरकारी सहूलतें नहीं दी जा सकती हैं। हेल्मेट कौल को लोगों ने चांसलर हाउस के सामने पब्लिक बूथ से फोन करते हुआ भी देखा था, वो निजी काल के लिए सरकारी फोन इस्तेमाल नहीं किया करते थे। फ्रांस के राष्ट्रपति सारकोज़ी छुट्टियों के दौरान अपनी गाड़ी, निजी घर और अपने खाते का इस्तेमाल करते हैं। इज़राईल के राष्ट्रपति मूसा कसाब के घर की बिजली कट गयी थी, क्योंकि उन्होंने वक्त पर बिजली नहीं जमा करायी थी। मैंने एक बार स्विटज़रलैण्ड के राष्ट्रपति को शापिंग सेंटर में खरीदारों की लाइन में खड़ा देखा था, इटली के प्रधानमंत्री सिलवियो बर्लुस्कोनी दो महीने पहले मिलान में अपनी निजी कार चला रहे थे और मोटर वे पर उनका चालान हुआ था। कनाडा के प्रधानमंत्री को शाम पांच बजे के बाद सरकारी सहूलतें नहीं दी जाती हैं, वो सिर्फ सरकारी डिनर के लिए ड्राइवर और सेक्रेटरी इस्तेमाल कर सकते हैं। आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री के घर से रात के वक्त गार्ड्स हटा दिये जाते हैं और वो रात आठ बजे के बाद आम नागरिक बन जाते हैं। और आप हिंदुस्तान की भी मिसाल ले लीजिए। हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री 23 जनवरी को दिल के इलाज के लिए अस्पताल गये थे। वो अस्पताल से जब वापस लौटे तो अखबारों में उनकी तस्वीर छपी थी, वो सरकारी गाड़ी से उतर रहे थे। मैं गाड़ी देख कर हैरान रह गया। ये हिंदुस्तान की बनी एक पुरानी और छोटी सी कार थी और इस कार पर दो झण्डे लगे थे। हिंदुस्तानी प्रधानमंत्री की ये कार और आधुनिक दुनिया के सभी काफिर प्रमुखों की ड्राइविंग किसी देश में कभी गर्व करने लायक खबर कभी नहीं बनी, जबकि इसके मुकाबले में अहले ईमान परवेज़ मुशर्रफ हों, शौकत अज़ीज़ हों, राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी या पिर सैय्यद यूसुफ रज़ा गीलानी हों, ये लोग अगर ड्राइनिंग सीट पर बैठ जाएं या किसी मासूम बच्चे के सिर पर हाथ फेर दें, या फिर किसी आम शहरी को अपना हाथ चूमने का मौका दे दें, तो सत्ता के गलियारों का पूरा मीडिया मैनेजमेंट ग्रुप सक्रिय हो जाता है और हर तरफ से वाह वाह के नारे लगने लगते हैं।
पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ भी सैय्यद हैं और यूसुफ़ रज़ा गीलानी भी हज़रत अली की औलाद में से हैं, लेकिन इन दोनों ने कभी एक लम्हे के लिए नहीं सोचा कि उनके दादा परदादा हजरत अली का लाइफ स्टाइल क्या था? क्या हज़रत अली ने सरकारी घोड़े रखे हुए थे, क्या उनके पास सरकारी घोड़ों के साइस थे, क्या वो अमीरुल मोमिनीन हाउस में रहते थे, क्या उनके पास हज़ार हज़ार गार्ड्स का सुराक्षा दस्ता था और क्या वो अवाम में घुलने मिलने और रमज़ान बाज़ारों के मुआइने की खबरों को निजी तौर पर मशहूर होने का माध्यम बनाते थे। उनके दादा परदादा उस वक्त भी जौ की रोटी पानी में भिगो कर खाते थे, जब मदीना के नागरिक पांच पांच सौ सिक्कों के मालिक थे और पूरे शहर में कोई भी गरीब और लाचार नहीं था और जब उन पर कातिलाना हमला हुआ तो उस वक्त भी आपके साथ सिक्योरिटी गार्ड्स नहीं थे। अफसोस आज यूरोप, अमेरिका, कनाडा और पश्चिम के कई देशों के प्रमुख हजरत अली की सुन्नत पर अमल कर रहे हैं, जबकि हज़रत अली की औलाद एक गरीब, कर्ज़दार और भीख पर ज़िंदगी गुज़ारने वाले इस्लामी देश में चालीस चालीस गाड़ियों के काफिले में सफर करते हैं और अगर कभी ड्राइविंग सीट पर बैठ जाते हैं, आम आदमी की तरफ हाथ बढ़ा देते हैं, किसी के सलाम का जवाब देते हैं या रमज़ान बाज़ार में अनाज का दाम पूछ लेते हैं तो ये खबर बन जाती है। हमारी विडम्बना ये है कि हम न इस्लाम से कुछ सीख रहे हैं और न ही आधुनिक विश्व के शासकों से। हम उन्हें काफिर समझते हैं और इस्लाम को चौदह सौ साल पुरानी बात। हमारे वैचारिक विरोधाभास का ये आलम है कि हम इस्लाम इस्लाम का नारा लगाते हैं लेकिन इस इस्लाम को निजी ज़िंदगी से हज़ारों मील दूर रखते हैं। मुझे अक्सर यूरोप के एक बुद्धिजीवी का वक्तव्य याद आता है, उसने कहा था, ‘यूरोप में इस्लाम है लेकिन मुसलमान नहीं हैं, जबकि इस्लामी दुनिया में मुसलमान हैं लेकिन इस्लाम नहीं’। मैं दूसरे 58 इस्लामी देशों के बारे में ज़्यादा तो नहीं जानता लेकिन जहां तक इस्लामी लोकतंत्र पाकिस्तान का सवाल है तो, मैं दावे से कह सकता हूँ कि पाकिस्तान में इस्लाम है, लोकतंत्र है औऱ न ही पाकिस्तानियत है। ये एक ऐसा गुलाम देश है जिसमें नाम, हुनर की जगह देशी गोरों ने ले ली है और वायसरायों की जगह प्रधानमंत्री औऱ राष्ट्रपति आ गये हैं, जिसमें शासक कल्में पढ़ते हैं, रोज़े रखते हैं और नमाज़े अदा करते हैं, लेकिन उनकी जीवन पद्धति दो हज़ार साल पुराने बादशाहों जैसी है औऱ जिसमें शासक अवाम से हाथ मिलाने को सखावत और रहमदिली करार देते हैं। हम मुसलमान हैं लेकिन हमें काफिरों की मुसलमानी जीवन पद्धति तक पहुँचने के लिए कई सदियों की आवश्यकता होगी।
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