कुरआन करीम की आयत 9:28 के हवाले से मुशरिकीन के नजिस होने के संबंध में संदेह
का इज़ाला
प्रमुख बिंदु:
आयत का इरशाद की मुशरिक नापाक हैं, इससे मुराद मक्का के मुशरिकीन
हैं।
कुरआन में मज़कूर “मुशरिक नापाक हैं” का संबंध, मुशरिकीने मक्का के शिर्क,
उनकी गद्दारी,
उनके ज़रीये अमन के वादों
की खिलाफ वर्जी और इस्लाम कुबूल करने वाले मुसलमानों पर उनके ज़ुल्म व सितम से है।
मुशरिकों के नजिस होने के संबंध से हनफी, शाफई, मालकी और हंबली उलमा ने अलग अलग
व्याख्या पेश की हैं।
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कनीज़ फातमा, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
30 मार्च 2022
हम बात कर रहे थे कि कुछ शर पसंद तत्व कुरआन करीम की आयतों का गलत इस्तेमाल करते हैं। कुरआन करीम को हुस्ने नियत के साथ समझने की बजाए यह लोग हमेशा मौके की तलाश में होते हैं कि कोई आयत ऐसी मिल जाए जिन्हें इस्लाम विरोधी एजेंडे के लिए इस्तेमाल कर लिया जाए। अपनी भरपूर कोशिश से उन्होंने छब्बीस आयतें निकालीं और उन्हें तथ्यों से अलग कर के पेश करने की कोशिश की गई ताकि सादा अवाम उनके भड़कावे में आकर देश की साल्मियत को खतरा पहुंचाने का इमकान पैदा कर सकें। लेकिन अलहम्दुलिल्लाह, देश की साल्मियत अब भी बड़े पैमाने पर बरकार है। इसp सिसिले को आगे बढाते हुए अब हम सुरह तौबा की आयत नंबर 28 का जायज़ा पेश करेंगे।
शर पसंद तत्व इस्लाम के खिलाफ लोगों के जज़्बात भड़काने के लिए सुरह तौबा की आयत 28 को भी पेश करते हैं, जिसका उर्दू अनुवाद इस तरह से है: “ऐ ईमान वालों! बेशक मुशरिक बिलकुल नापाक हैं वह इस साल के बाद मस्जिदे हराम के पास भी न फटकने पाएं अगर तुम्हें मुफलिसी का खौफ है तो अल्लाह तुम्हें दौलत मंद कर देगा अपने फज़ल से अगर चाहे अल्लाह इल्म व हिकमत वाला है।“ (9:28)
मजकुरा बाला आयत के हवाले से कई सवाल पैदा होते हैं। इस आयत में मुशरिकीन से मुराद कौन हैं? इस आयत में मुशरिकीन को नापाक क्यों करार दिया गया है? क्या वह जिस्मानी या रूहानी तौर पर नापाक हैं? या वह केवल अपने शिर्किया और कुफ्रिया अकीदों की वजह से नापाक हैं? क्या मुशरिकीन के लिए मस्जिदे हराम या पुरी दुनिया की तमाम मस्जिदों में दाखिल होना हराम है? क्या उनके लिए मस्जिदे हराम में केवल हज और उमरा के दिनों में जायज़ है या दुसरे दिनों में भी? यह वह सवालात हैं जिनके जवाबात पेश करने से पहले मैंने दस्तियाब मवाद की तरफ रुजूअ किया, और फिर इस लेख में कोई भी बात मैंने अपनी तरफ से नहीं बल्कि लेख में मजकुर अक्वाल मुरव्वजा कुरआन की तफसीरों से माखूज़ हैं।
इस आयत में ख़ास तौर पर जिन मुशरिकीन का ज़िक्र किया गया है वह कौन हैं? वह मक्का के मुशरिकीन हैं जिन्होंने अपने मुआहेदे को बरकरार नहीं रखा जैसा कि पिछले हिस्से में बयान कर दिया गया है।
इस आयत में मुशरिकीन को नापाक क्यों करार दिया गया है? क्या वह जिस्मानी या रूहानी तौर पर नापाक हैं? या वह केवल अपने शिर्किया और कुफ्रिया अकीदों की वजह से नापाक हैं? अगर आप इन सवालों के जवाब दरियाफ्त करने के लिए अलग अलग तफसीरों का जायज़ा लें तो यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि खुदा के इस एलान से कि “मुशरिक नापाक हैं” उनका शिर्क, अमन मुआहेदों की खिलाफवर्जी और मज़हबी ज़ुल्म व सितम मुराद है।
क्या मुशरिकीन के लिए मस्जिद ए हराम या पुरी दुनिया की तमाम मस्जिदों में जाना हराम है? क्या उनके लिए मस्जिदे हराम में केवल हज और उमरा के दिनों में जाना जायज़ है या दुसरे दिनों में भी? हाँ, मुशरिकीन के लिए मस्जिदे हराम में दाखिल होना निषेध था। इस निशेधता की तौजीह अलग अलग तरीकों से की गई है। इमाम अबू हनीफा रहमतुल्लाह अलैह के नज़दीक इसका मकसद उन्हें हज और उमरा करने से रोकना और साथ ही हुदूदे हरम के अंदर जाहिलियत की रस्में अदा करने से भी रोकना है। ताहम इमाम शाफई का मानना है कि उन्हें किसी भी वजह से मस्जिदे हराम में दाखिल होना मना है। इमाम मालिक के मुताबिक़ उन्हें न केवल मस्जिदे हराम बल्कि दुनिया की किसी भी मस्जिद में दाखला मना है। बाद में जिक्र किये गए दृष्टी कों को जम्हूर उलमा और फुकहा ने स्वीकार नहीं किया।
मुफ़्ती बदरूद्दुजा रिज़वी ने छब्बीस आयतों [पर बहुत शानदार मकाला लिखा है जिसे न्यू एज इस्लाम वेब साईट पर तीनों भाषाओं में प्रकाशित किया गया। वह विभिन्न उलमा ए इस्लाम का हवाला देते हुए उपर्युक्त आउट के संबंध में लिखते हैं:
इस आयत में निजासत से इसका समानार्थक मफहूम बोल व बराज (पेशाब, पाखाना) मुराद नहीं है जैसा कि इस्लाम दुश्मन तत्व समझ रहे हैं बल्कि इससे उनका वह शिर्क मुराद है जो निजासत की मंजिल में है या उन्हें इस आयत में नजिस इस लिए करार दिया गया है कि वह सहीह तरह से पाकी और गुस्ल आदि नहीं करते हैं और निजासत से नहीं बचते हैं जैसा कि आम तौर पर देखा जाता है कि यह खड़े खड़े पेशाब करते हैं और पेशाब की छींटों से नहीं बचते हैं, एक लोटा पानी से इजाबत करते हैं इन असबाब व वजूहात की बिना पर उन पर निजासत का इतलाक किया गया है। इस आयत का अटलब यह नहीं है कि यह बोल व बराज की तरह ऐन नजिस हैं जैसा कि तफसीर अबी सऊद में है: وصفوا بالمصدر مبالغۃ کانھم عین النجاسۃ أو ھم ذو نجس لخبثِ باطنھم او لان معھم الشرک الذی ھو بمنزلۃ النجس او لانھم لا یتطھرون ولایغتسلون ولا یجتنبون النجاسات فھی ملابسۃ لھم۔ (تفسیر ابی سعود ج: 4، ص: 57)
बल्कि अल्लामा इमाम अबू ज़करिया बिन शरफ नौवी दमिश्की रहमतुल्लाह अलैह सहीह मुस्लिम बाबुल दलील अला इन्नल मुस्लिमु ला यंजस के तहत फरमाते हैं: तहारत व निजासत में काफिर का वही हुक्म है जो मुस्लिम का हुक्म है यही शवाफे और जम्हूर सलफ व खलफ का भी मज़हब है और आयत मुबारका की “इन्नमल मुशरिकुना नजिस” से कुफ्फार व मुशरिकीन के एतेकाद की निजासत मुराद है यह मुराद नहीं है कि बोल व बराज और उनके इम्साल की तरह उनके अंग नजिस हैं।
امام نووی رحمۃ اللہ علیہ فرماتے ہیں
: و اما الکافر فحکمہ فی الطھارۃ و النجاسۃ حکم المسلم ھذا مذھبنا و مذھب الجماھیر
من السلف و الخلف و أما قول اللہ عزو جل: "اِنَّمَا المُشرِکُونَ نَجَسٌ"
فالمراد نجاسۃ الاعتقاد و الاستقذار و لیس المراد ان اعضاءھم نجسۃ کنجاسۃ البول و الغائط
و نحوھما" ( شرح مسلم للنووی، کتاب الطھارۃ/ باب الدلیل علی ان المسلم لا ینجس،
ص162: مجلس برکات جامعہ اشرفیہ مبارک پور)
فَلَا يَقْرَبُوا الْمَسْجِدَ الْحَرَامَ
بَعْدَ عَامِهِمْ هَٰذَا
तो इस बरस के बाद वह मस्जिदे हराम के पास न आने पाएं (कंज़ुल ईमान)
इस आयत में मुसलमानों को यह आदेश दिया गया है कि वह कुफ्फार व मुशरिकीन को मस्जिदे हराम के करीब आने से रोकें।
इमाम नौवी शाफई दमिश्की फरमाते हैं: हरम के अलावा बाकी मस्जिदों में मुसलमानों की इजाज़त से काफिर का दाखिल होना जायज़ है (चाहे वह ज़िम्मी हो या मुस्तामन बुत परस्त हो या अहले किताब) इसलिए कि सकीफ का एक वफद रमज़ान के महीने में हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास आया आपने उनके लिए मस्जिद में खेमा नसब किया जब वह इस्लाम ले आए तो उन्होंने रोज़े रखे इस हदीस को तबरानी ने अपनी सनद के साथ बयान किया है। और हज़रत अबू हुरैरा रज़ीअल्लाहु अन्हु से मरवी वह रिवायत भी है जिसमें समामा बिन असाल को गिरफ्तार कर के मस्जिद के खम्भे से बाँधने का ज़िक्र है इस वजह से इमाम शाफई ने हुक्म लगाया है कि मुसलमान की इजाज़त से काफिर का मस्जिद में दाखिल होना जायज़ है चाहे वह गैर अहले किताब हो बल्कि मक्का की मस्जिदों और हरम में किसी काफिर का दाखिल होना नाजायज़ नहीं है। अल्लामा नौवी ने “मजमुअ” में लिखा है कि हमारे असहाब यह कहते हैं कि हरम में किसी काफिर को न दाखिल होने दिया जाए और गैर हरम की हर मस्जिद में काफिर का दाखिल होना जायज़ है और मुसलमानों की इजाज़त से वह रात को मस्जिद में रह सकता है। (तक्मिला शरह तहज़ीब जिल्द 9 पेज 436, 437 मतबूआ दारुल फ़िक्र बैरुत)
अह्नाफ के नज़दीक गैर मुआहिद (जिनसे मुसलमानों का मुआहेदा न हुआ हो) मुशरिकीन को हरम और इसी तरह बाकी मस्जिदों में दाखिल होने से मना किया जाएगा और अहले ज़िम्मा को हरम और इसी तरह बाकी मस्जिदों में दाखिल होने से मना नहीं किया जाएगा। इमाम मोहम्मद रहमतुल्लाह अलैह सैर कबीर में फरमाते हैं: و ذکر عن الزھری ان ابا سفیان بن حرب کان یدخل المسجد فی الھدنۃ وھو کافر غیر ان ذلک لا یحل فی المسجد الحرام قال اللہ تعالی: إِنَّمَا الْمُشْرِكُونَ نَجَسٌ فَلَا يَقْرَبُوا الْمَسْجِدَ الْحَرَامَ (سیر کبیر مع شرحہ ج :1، ص 134 مطبوعہ المکتبۃ للثورۃ الاسلامیہ افغانستان )
ज़हरी से रिवायत है कि मुआहेदा हुदैबिया के दिनों में अबू सुफियान मस्जिद में आते थे हालांकि उस समय वह काफिर थे अलबत्ता यह मस्जिदे हराम में जायज़ नहीं है क्योंकि अल्लाह पाक फरमाता है: मुशरिकीन नजिस हैं वह मस्जिदे हराम के करीब न आएं।
इमाम मोहम्मद के इस कौल से मुतबादर होता है कि मुतलक मुशरिकीन को मस्जिदे हराम में दाखिल होने से रोक दिया जाए गा लेकिन जामेअ सगीर में उन्होंने इसकी सराहत की है कि अहले ज़िम्मा के हरम में दाखिल होने में कोई हरज नहीं है। फरमाते हैं: ولا باس بان یدخل اھل الذمۃ المسجد الحرام" (جامع صغیر ص : 153 مطبوعہ مصطفائی ہند)
इमाम मोहम्मद की सराहत के पेशे नज़र फुकहा ए अह्नाफ का नजरिया यह है कि अहले ज़िम्मा को काबा शरीफ और बाकी मस्जिदों में दाखिल होने से मना नहीं किया जाएगा यह मनाही केवल मुशरिकीन गैर मुआहिद के लिए है।
आलमगीरी में है:
لا باس بدخولِ اھل الذمۃ المسجد الحرام و سائر
المساجد و ھو الصحیح کذا فی المحیط للسرخسی [ فتاویٰ عالمگیری، ج: 5، ص: 346، مطبوعہ
مطبع کبریٰ امیریہ بولاق مصر(
यहाँ पर “वहुवल सहीह” से इस तरफ इशारा है कि अल्लामा सर्खसी ने शरह सैर कबीर में जो यह लिखा है कि मस्जिदे हराम और बाकी मस्जिदों में हर्बी और ज़िम्मी दोनों के दाखिल होने की मनाही नहीं है यह सहीह नहीं है।
इमाम मालिक के नज़दीक किसी भी किस्म के गैर मुस्लिम को किसी भी मसजिद में दाखिल होने की इजाज़त नहीं है चाहे वह मस्जिदे हरम हो या गैर हरम की मस्जिद।
इमाम अहमद बिन हंबल के नज़दीक मुतलकन हरम (मक्का मुकर्रमा का वह हिस्सा जो हरम में दाखिल है) में मुशरिकीन का दाखला मना है इसमें मस्जिदे हराम की कोई तख्सीस नहीं है और गैर हरम की मस्जिदों में उनके दो कौल हैं।
यह तमाम हवाले जिसा कि मुफ़्ती बदरूद्दुजा रिज़वी ने कहा है कि अल्लामा गुलाम रसूल सईदी रहमतुल्लाह अलैह की शरह सहीह मुस्लिम जिल्द:3 पेज 681, 682, 683 से लिए हैं।
(जारी)
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English Article: Debunking Islamophobic and Jihadi Myths about 26
Wartime Verses: Part 1 on Verse 9:5
English Article: Debunking Islamophobic and Jihadi Myths About 26
Wartime Verses Of Quran Considered Militant And Exclusivist: Part 2 On Verse
9:28
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