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The Role of Islamic Heritage in Contemporary Intellectual Discourse आज के विचारों और ज्ञान की दुनिया में इस्लामी विरासत की भूमिका

डॉ. ज़फ़र दारिक क़ासमी, न्यू एज इस्लाम

10 अक्टूबर 2025

यह इतिहास बहुत पुराना है कि दुनिया की कौन-कौन सी क़ौमें उभरीं और फिर गिर गईं। सबूत और हक़ीक़त साफ़ दिखाते हैं कि वही क़ौमें ज़िंदा रहती हैं और तरक़्क़ी करती हैं जिनके काम सकारात्मक, रचनात्मक और इंसानियत की भलाई के लिए होते हैं। जो समाज ज़माने की माँग के साथ कदम मिलाते हैं, अपने शोध और सोच को आधुनिक तरीक़े से ढालते हैं, और अपने धार्मिक व सांस्कृतिक विरसे को समय की रूह के मुताबिक़ पेश करते हैं वही समाज हमेशा ज़िंदा रहते हैं, और उनका लिखा हुआ साहित्य लोगों के दिलों और दिमाग़ पर असर डालता है।

ऐसा साहित्य अपने आप में लोगों को आकर्षित करता है, दिमाग़ को सोचने पर मजबूर करता है और दिल को छू जाता है। आज हमारे सामने सबसे अहम सवाल यह है कि इस्लामी साहित्य को तैयार करने और पेश करने का सही तरीका क्या होना चाहिए।

हालाँकि इस्लामी अध्ययन के हर क्षेत्र में क़ुरआन, हदीस, सीरत, फ़िक़्ह, इस्लामी इतिहास और मुस्लिम सभ्यता अनगिनत किताबें लिखी गई हैं, लेकिन हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या मौजूदा इस्लामी साहित्य वाक़ई हमारे दौर की ज़रूरतों को पूरा करता है?

हमारी धार्मिक और बौद्धिक विरासत में ऐसे अनगिनत सबूत और दलीलें मौजूद हैं जो आधुनिक चुनौतियों का सकारात्मक हल पेश कर सकती हैं। इसलिए अब ज़रूरी हो गया है कि हम उन मुद्दों पर बात करें जो आज की ज़रूरतों को पूरा करें और नई पीढ़ी को सही राह दिखाएँ।

अफ़सोस की बात यह है कि हमने ख़ुद अपनी तारीख़, तहज़ीब और रौशन विरसे को धुंधला कर दिया है। आज का बहुत सारा इस्लामी लेखन इस्लाम जो कि असल में एक सार्वभौमिक और सबको गले लगाने वाला धर्म है को एक तंग दायरे में पेश करता है। कुछ सीरत और इतिहास की किताबें ऐसा एहसास देती हैं कि इस्लाम सिर्फ़ जंग के लिए आया था।

असलियत यह है कि ऐसे तसव्वुर इस्लाम की गलत तस्वीर पेश करते हैं और दुनिया में ग़लतफ़हमियाँ बढ़ाते हैं। हमें इन रुझानों से बचना चाहिए। मुस्लिम लेखकों, शोधकर्ताओं और उलमा को चाहिए कि वो ऐसे तरीक़े और ख़याल पेश करें जो समाज में मेल-मिलाप, साथ-रहने और बर्दाश्त की भावना को बढ़ाएँ।

इस्लाम एक मुकम्मल निज़ाम रखता है जो इंसाफ़, बराबरी, आपसी इज़्ज़त और अमन से रहने की राह दिखाता है। इस्लाम हुकूमत और जनता, दोनों को संतुलित और मुनासिब तरीके से जीने की सीख देता है। यह इंसानी हक़ूक़, सामाजिक तआवुन (सहयोग) और बहु-संस्कृति समाज में अमन के साथ रहने की अहमियत बताता है।

फिर भी हमारे रवैये में एक कमी बाक़ी है हमें इंसानों के रिश्ते मज़बूत करने और इंसानियत की भलाई के लिए मिल-जुलकर काम करने की ज़रूरत है।

यह भी हक़ीक़त है कि आज की चुनौतियाँ बीते ज़माने से अलग हैं, और आने वाले वक़्त की चुनौतियाँ आज से और अलग होंगी। इसलिए हमें इल्मी और अक़ली तौर पर मज़बूत होने के साथ-साथ अपने इस्लामी साहित्य से ऐसे ख़यालों को सामने लाना होगा जो इस्लाम पर उठाए गए सवालों का अक़ली और असरदार जवाब दे सकें, और साथ ही आधुनिक ज़रूरतों को भी पूरा करें।

जब हम इतिहास पर नज़र डालते हैं तो मालूम होता है कि हर दौर के सवाल और मसले अपने मायनों में अलग होते हैं। समझदार क़ौमें हक़ीक़तों से मुँह नहीं मोड़तीं। उनका तरीक़ा यह होता है कि जो चीज़ फ़ायदेमंद है उसे अपनाएँ और जो ग़लत है उसका जवाब अक़्ल और सबूत से दें। हक़ीक़त का सामना करना और सच्चाई की दिफ़ा करना हमारी ज़िम्मेदारी है।

मुस्लिम उम्मत के पास पहले से ऐसे उसूल और परंपराएँ मौजूद हैं जो समाज को आत्मविश्वासी और पुरअमन बना सकती हैं। अब जब पूरी दुनिया एक "ग्लोबल विलेज" बन चुकी है, तो ज़रूरी है कि उलमा, दाई (प्रचारक), लेखक और फ़िक्र करने वाले लोग हालात को समझदारी से समझें और होशियारी से आगे बढ़ें।

कोई भी तक़रीर करने से पहले, कोई लेख लिखने से पहले, या कोई राय देने से पहले सोच-विचार करना चाहिए, ताकि अनजाने में ऐसा कुछ न कहा जाए जिससे समाज में नफ़रत या अफ़रातफरी फैल जाए। अफ़सोस, आज बहुत से लेख और भाषण ऐसे हैं जो समाज पर नकारात्मक असर डालते हैं।

याद रखिए, समाज को सिर्फ़ गुनहगार या बदक़िरदार लोग ही नुक़सान नहीं पहुँचाते, बल्कि ग़ैरज़िम्मेदाराना लिखाई और बोल भी समाज को तबाह कर सकती है।

इसलिए यह ज़रूरी है कि हमारे स्कूलों, कॉलेजों और रिसर्च सेंटर्स में जो इस्लामी या धार्मिक नाम से साहित्य लिखा जा रहा है, और जो ख़ुतबे (भाषण) दिए जा रहे हैं उनका जायज़ा लिया जाए कि क्या वो सच में समाज की ज़रूरतों को पूरा कर रहे हैं या हम अभी भी अपनी असली ज़िम्मेदारी से दूर हैं।

अगर जवाब हाँ में है तो इस काम को और बेहतर बनाना चाहिए। और अगर जवाब ना में है, तो ज़रूरी है कि हम अपने तरीक़े को वक़्त की ज़रूरतों के मुताबिक़ ढालें।

आज का असली काम यह है कि हम समाज को सकारात्मक सोच की तरफ़ ले जाएँ और लोगों के ज़ेहन में उठने वाले उलझे सवालों के वाज़ेह (स्पष्ट) जवाब दें। हर लिखी हुई चीज़ की अहमियत होती है चाहे वो अच्छा असर डाले या बुरा लेकिन वही साहित्य स्थायी और असरदार है जो सोच की ग़लतफ़हमियाँ दूर करे और इंसानियत को सही राह पर लाए।

जो लोग इस्लामी इल्म और हिकमत लिखते, बोलते या समझाते हैं, उन्हें हर शब्द सोच-समझकर इस्तेमाल करना चाहिए।

इन सारी बातों की रोशनी में कहा जा सकता है कि इस्लामी विरासत सिर्फ़ गुज़रे हुए वक़्त की याद नहीं, बल्कि इंसानी ज़िंदगी के हर पहलू के लिए एक ज़िंदा रहनुमाई (मार्गदर्शन) का स्रोत है। इस्लाम ने शुरू से ही इल्म, अक़्ल, इंसाफ़, बर्दाश्त, शोध और बातचीत पर ज़ोर दिया इन्हीं उसूलों पर दुनिया की सबसे रौशन सभ्यता की बुनियाद पड़ी।

इस्लामी विरासत की सबसे ख़ास बात उसका "अक़्ल और वह़ी" (तर्क और ईश्वरीय मार्गदर्शन) के बीच संतुलन है। इमाम ग़ज़ाली, इब्ने रुश्द, अल-फ़ाराबी और इब्ने खल्दून जैसे विद्वानों ने ईमान को विज्ञान, अक़्ल को रूहानियत और दीन को दुनियावी इल्म के साथ जोड़ दिया। इसी तालमेल ने सदियों तक इस्लामी सभ्यता को तरक़्क़ी का मरकज़ बनाए रखा।

बाद के ज़मानों में जब इस्लामी दुनिया कमजोर हुई और पश्चिम विज्ञान व उद्योग के ज़रिए आगे बढ़ा, तब भी इस्लामी विरासत में आज के दौर की चुनौतियों का जवाब देने की पूरी क़ाबिलियत मौजूद है बस ज़रूरत है कि हम इसे नए हालात में फिर से समझें और लागू करें।

आज की डिजिटल और ग्लोबल दुनिया में धर्म, इंसाफ़, इंसानी हक़, आज़ादी, बराबरी, जेंडर, सहअस्तित्व और पर्यावरण जैसे मसले अहम हैं। इस्लामी तालीमात इन सबके लिए एक मुकम्मल और अमली ढांचा पेश करती हैं। इंसानी इज़्ज़त, बराबरी और इंसाफ़ जैसे उसूल, जो क़ुरआन ने बहुत पहले बताए, आज भी दुनिया के नैतिक बहसों में अहम योगदान दे सकते हैं। "मदीना चार्टर" इसका बेहतरीन उदाहरण है, जो अमन और मज़हबी समझदारी की पहली मिसाल है।

इस्लामी विरासत का एक और अहम हिस्सा है "इज्तेहाद" (अक़्ली सोच) और "तजदीद" (नवीनीकरण) की रूह। इस्लाम अक़्ल और तजुर्बे का इस्तेमाल कर नए मसलों के हल निकालने की हिम्मत देता है। अगर हम इस रूह को ज़िंदा करें, तो दीन और साइंस, अक़्ल और वह़ी के बीच का फ़ासला मिटाया जा सकता है।

इसके अलावा, इस्लामी विरासत हमें बातचीत, सोच की विविधता और मतभेद की इज़्ज़त सिखाती है। यह बताती है कि इख़्तिलाफ़ (मतभेद) दुश्मनी नहीं, बल्कि बौद्धिक दौलत है। जब दुनिया इंतिहा-पसंदी और नैतिक गिरावट से जूझ रही है, तब इस्लाम का रास्ता एतिदाल (मध्यमता), इंसाफ़ और इंसानी इज़्ज़त इंसानियत के लिए बेहतरीन राह दिखाता है।

आख़िर में कहा जा सकता है कि इस्लामी विरासत एक अमर और रोशन स्रोत है। जब इसे समझदारी से पेश किया जाए और वक़्त की ज़बान में बयान किया जाए, तो यह इंसानियत को अमन, इंसाफ़ और नैतिक तरक़्क़ी की ओर ले जा सकती है अतीत की महानता को भविष्य की ज़रूरतों से जोड़ते हुए।

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