इस्लाम वेब
20 मार्च, 2014
अल्लाह का फरमान (जिसका मतलब) है, "अल्लाह ही की है आकाशों और धरती की बादशाही। वो जो चाहता है पैदा करता है, जिसे चाहता है लड़कियाँ देता है और जिसे चाहता है लड़के देता है। या उन्हें लड़के और लड़कियाँ मिला-जुलाकर देता है और जिसे चाहता है निस्संतान रखता है। निश्चय ही वो सर्वज्ञ, सामर्थ्यवान है।" (42: 49- 50) अल्लाह एक है और अपने परम ज्ञान के आधार पर जिसे चाहता है बेटा और बेटियाँ देता है, वो केवल उन्हें बेटा देता है जिसे वो चाहता है और वो केवल उन्हें ही बेटियां देता है जिसे वो चाहता है और वो जिसे चाहता है बांझ रखता है।
उपरोक्त आयत में हमने नोटिस किया कि इन आयतों में बेटियों का ज़िक्र बेटों से पहले आया है और धार्मिक विद्वानों ने इस पर ये टिप्पणी की है: "ये बेटियों को प्रोत्साहित करने के लिए है और उनके प्रति अच्छे व्यवहार को बढ़ावा देने के लिए है क्योंकि कई अभिभावक बेटी के जन्म को बोझ महसूस करते हैं। इस्लाम से पहले के दौर में लोगों का ये आम दृष्टिकोण था कि वो बेटी के जन्म से इतनी नफरत करते थे कि उन्हें ज़िंदा दफन कर देते थे इसलिए इस आयत में अल्लाह लोगों से ये कह रहा है किः "तुम्हारी नज़र में कमतर इस बच्ची का मर्तबा अल्लाह की बारगाह में बहुत बुलंद है। अल्लाह ने आयत में बेटियों का ज़िक्र सबसे पहले उनकी कमज़ोरी की तरफ इशारा करने के लिए है और ये बताने के लिए कि वो तुम्हारी देखभाल और ध्यान की अधिक हकदार हैं।"
बेटियों को इस तरह का सम्मान देना पूरी तरह से इस्लाम से पहले के उस दौर के विपरीत है जिस तरह के व्यवहार करने के वो आदी थे और वो औरतों का अपमान करते थे और उन्हें अपने धन दौलत का एक हिस्सा समझते थे और अगर इनमें से किसी को भी बच्ची के जन्म की खबर मिलती तो उन्हें इतना बुरा लगता था कि जैसे उनके ऊपर बिजली गिर पड़ी हो। इस सम्बंध में अल्लाह का फरमान है: "और जब उनमें से किसी को बेटी की शुभ सूचना मिलती है तो उसके चहरे पर कलौंस छा जाती है और वह घुटा-घुटा रहता है। जो शुभ सूचना उसे दी गई वह (उसकी दृष्टि में) ऐसी बुराई की बात हुई जो उसके कारण वह लोगों से छिपता फिरता है कि अपमान सहन करके उसे रहने दे या उसे मिट्टी में दबा दे। देखो, कितना बुरा फ़ैसला है जो वे करते है! " (16: 58-59)
ऐसा कहा जाता है कि इस्लाम से पहले के एक अरब क़ैस इब्ने आसिम अलतमीमी के कुछ दुश्मनों ने उनके घर पर हमला किया और उनकी बेटी को कैद कर लिया। बाद में उनके दुश्मनों में से किसी एक ने ही उनकी बेटी से शादी कर ली। कुछ समय के बाद क़ैस और उसके दुश्मन के क़बीले में सुलह हो गई तो उन्होंने उसकी बेटी को इस बात की आज़ादी दी कि वो चाहे तो अपने पिता के पास वापस चली जाए और अगर चाहे तो वो अपने पति के साथ भी रह सकती है और उसने अपने पति के साथ रहने को प्राथमिकता दी। उसी समय क़ैस ने खुद से एक संकल्प किया कि अब अगर कोई भी बेटी पैदा होती है तो वो उसे ज़िंदा दफन कर देगा और उसके बाद पूरा अरब इसी रास्ते पर चल पड़ा। इसलिए क़ैस ही वो पहला व्यक्ति था जिसने इस बुरी परम्परा को अरब समाज से परिचित कराया और इस तरह उसके अपने इस बुरे काम का गुनाह तो उसके कंधों पर है ही, साथ ही उन लोगों के गुनाह का भी बोझ उसके कंधों पर है जिन्होंने इस परम्परा को जीवित रखा।
एक सहाबी जिन्होंने इस्लाम से पहले अपनी बेटी को ज़िंदा दफन कर दिया था वो अपनी कहानी इस तरह बयान करते हैं: "हम इस्लाम के आगमन से पहले मूर्तियों की पूजा करते थे और अपनी बेटियों की हत्या करते थे। मेरी एक बेटी थी जब वो बड़ी और समझदार हो गई तो वो जब भी मुझे देखती खुश होती और जब मैं उसे आवाज़ देता तो वो तुरंत जवाब देती। एक दिन मैंने उसे बुलाया और उसे मेरे पीछे आने को कहा, वो मेरे पीछे पीछे आती रही यहाँ तक कि हम अपने क़बीले के एक कुएं के पास पहुंचे। फिर मैंने उसका हाथ पकड़ा और कुएँ में फेंक दिया और जब मैंने आखरी बार उसकी आवाज़ सुनी तो वो रो रही थी, ''ऐ मेरे पिता! ऐ मेरे पिता!''
इस्लाम के आगमन से पहले दो तरीके से लोग अपनी बेटियों की हत्या करते थे:
1. बच्चे के जन्म के समय मर्द अपनी बीवी को ये हुक्म देता था कि वो ज़मीन में खोदे गए गड्ढे के पास बच्चे को जन्म दे और अगर वो नवजात लड़का होता तो मां उसे अपने साथ घर ले जाती, अन्यथा वो इस नवजात को गड्ढे में डाल देते और उसे ज़िंदा दफन कर देते, या
2. बेटी की उम्र जब छः साल की हो जाती तो मर्द अपनी बीवी को ये कहता है कि वो उसकी बेटी को सजा सँवार कर खुश्बू लगा दे और जब उसे तैयार कर दिया जाता तो वो अपनी बेटी को रेगिस्तान में एक कुएं की तरफ लेकर चल पड़ता और वहां पहुंचकर वो अपनी बेटी को इस कुएं में झांकने के लिए कहता और जब वो ऐसा करती तो उसे पीछे से धक्का देकर इस कुएं में गिरा देता।
ऐसे भी कुछ मर्द थे जो लोगों को इस काम से मना करते थे और उन्हें में से एक इब्न नाजिया अलतमीमी थे, जो बेटियों की हत्या करने की कोशिश करने वालों के पास जाते और उनकी ज़िंदगी बख्शने के लिए धन पेश करते थे।
आजकल भी कुछ लोगों में इस्लाम के पहले के यही विश्वास और विचार पाये जाते हैं इसलिए कि अगर उनके घर में लड़की का ही जन्म हो, जो कि वास्तव में अल्लाह के फैसले से ही है, तो वो नाराज़, दुखी हो जाते हैं और उन्हें असंतोष हो जाता है।
इस्लाम के आगमन के साथ ही उस दौर के अंधेरे खत्म हो गये और अल्लाह ने लड़कियों के लिए दया, प्रेम और सहानुभूति को ज़रूरी करार दिया। लड़कियों की अच्छी देखभाल और उनकी परवरिश की प्रक्रिया में उन पर विशेष ध्यान देने के लिए प्रोत्साहित किया गया था। दरअसल इस्लाम ने बेटियों की परवरिश पर एक विशेष इनाम निर्धारित किया है कि जो कि बेटों की परवरिश पर नहीं है। अनस रज़ियल्लाहू अन्हू ने कहा कि नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फरमाया किः " यौवन तक पहुँचने तक जो दो बेटियों की अच्छी तरह परवरिश करता है वो इस तरह जन्नत में मेरे साथ होगा" और निकटता को लोगों को प्रदर्शित करने के लिए आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने अपने हाथ की दो उंगलियों को दिखाया।" (मुस्लिम)
आयशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) से रवायत है कि: "जमीला नाम की एक महिला अपनी दो बेटियों के साथ मेरे पास आई। उसने मुझसे सदक़ा (दान) मांगा लेकिन मेरे पास एक खजूर के सिवा कुछ भी नहीं था, जो मैंने उसे दे दिया। और उस औरत ने अपनी दो बेटियों के बीच इस खजूर को बाँट दिया और खुद कुछ नहीं लिया। इसके बाद वो उठकर चली गई। इसके बाद अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम आये तो मैंने सारी कहानी उनसे बयान की। इस पर उन्होंने फरमायाः "जिस व्यक्ति ने बेटियों की परवरिश का ज़िम्मा उठा रखा है और उनकी परवरिश में उदारता से काम लेता है तो बेटियाँ उसके लिए जहन्नम के खिलाफ घेरे का कारण बनेंगी।" (बुखारी और मुस्लिम) इस घटना की एक और रवायत में आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा ने कहा किः "एक गरीब औरत अपनी दो बेटियों के साथ मेरे पास आई। मैंने उसे तीन खजूरें दीं, वो उनमें से एक एक खजूर दोनों बेटियों को दी और वो तीसरा खजूर खाने ही वाली थी कि उसकी बेटियों ने उस औरत से तीसरे खजूर को मांग लिया तो उसने इस खजूर को भी अपनी दोनों बेटियों के बीच बाँट दिया और खुद कुछ भी नहीं खाया और उसने जो किया वो मुझे अच्छा लगा। इसके बाद अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम तशरीफ लाए तो ये सारा माजरा उनसे कहा तो आपने फरमाया, 'अल्लाह ने उस खजूर की वजह से उसके लिए जन्नत अनिवार्य कर दिया और उसे जहन्नम से आज़ाद कर दिया।" (मुस्लिम)
निम्नलिखित परम्परा के शब्दों को पूरे ध्यान के साथ पढ़ें: पैगम्बर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि "जिस किसी को भी बेटियों के माँ बाप होने के तजुर्बे से आज़माया गया... " इस परम्परा में पैगम्बर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने शब्द "... आज़माया गया .." क्यों इस्तेमाल किया है? इस परम्परा में रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने शब्द "... आज़माया गया ... " इसलिए कहा है कि उनकी परवरिश करना एक ज़िम्मेदारी है और अल्लाह की तरफ से एक इम्तेहान भी कि बंदा अपनी ज़िम्मेदारी कैसे निभाता हैः क्या वो उनके साथ मेहरबानी भरा व्यवहार करेगा? क्या वो सही तरीके से उनकी परवरिश करेगा?
इस ज़िम्मेदारी की प्रकृति को दूसरी परंपराओं में इस तरह और अधिक स्पष्ट किया गया है: "अगर वो धैर्यपूर्वक उन्हें खाना खिलाते हैं और उन्हें अच्छे कपड़े उपलब्ध कराते हैं.." (इब्ने माजा) और "...उनकी शादी कर देते हैं.." (तिबरानी) और ".... उनकी ठीक से देखभाल करते हैं और वो उनके साथ पेश आने के तरीके में अल्लाह से डरते हैं।"(तिरमिज़ी)
बेटियों के साथ व्यवहार करने में दयालुता से पेश आने की ज़रूरत है जिसके परिणामस्वरूप अल्लाह ने स्वर्ग का वादा किया है जैसा कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने कहा कि जिस किसी को भी अल्लाह ने दो बेटियाँ दी हैं वो उनके साथ दयालुता से पेश आता है तो यही उनके लिए स्वर्ग में प्रवेश का कारण होगा। और "जिसे अल्लाह ने तीन बेटियाँ दी हैं और वो उनकी परवरिश करने में डटा रहता है तो क़यामत के दिन उनका यही काम उनके लिए जहन्नम से बचने के लिए एक ढाल बनेगा।"
बेटी अल्लाह की तरफ से प्रदान किया गया इनाम और सम्मान है। इमाम हसन ने कहा है कि: "बेटियाँ इनाम का स्रोत हैं और बेटे वरदान हैं। क़यामत के दिन ईनाम लोगों के पक्ष में हैं जबकि नेमतों के लिए इस दिन लोगों को जवाब देना होगा।"
इसलिए ये मानना कि अल्लाह ने किसी को बेटी दे कर अपमानित किया है, सरासर गलत है बल्कि ये अल्लाह का इनाम और सम्मान है और जन्नत की तरफ ले जाने वाला एक दरवाज़ा हैं। बेटियों की परवरिश एक बड़ी ज़िम्मेदारी है और उनकी परवरिश में खर्चे भी अधिक हैं, और इनके सही तरीके से देखभाल करने पर बेटों से अधिक इनाम अल्लाह की तरफ से है।
एक बार मोमिनों के एक लीडर में से कोई लोगों से बात कर रहे थे तभी उस कमरे में एक छोटी सी बच्ची आई तो उस लीडर ने उसे चूम लिया। सभा में एक बद्दू भी मौजूद था और जब उसने ये देखा तो उसने बहुत बुरे तरीके से बेटियों का ज़िक्र किया। वहाँ एक बुद्धिमान व्यक्ति भी मौजूद था जो ये सब कुछ देख रहा था, उसने कहा: "ऐ मोमिनों के लीडर! इसकी बात न सुनें। अल्लाह की क़सम ये लड़कियां ही हैं जो परिवार में बीमार लोगों की देखभाल करती हैं, बुज़ुर्गों के साथ दया भाव रखती हैं और मुश्किल समय में अपने मर्दों का साथ देती हैं।"
एक व्यक्ति के घर एक बच्ची का जन्म हुआ तो तो उसने ग़ुस्सा होकर, लंबे समय तक के लिए अपनी पत्नी से अलग हो गया और कुछ महीनों के बाद उसने अपनी बीवी को ये आयत पढ़ते सुना (जिसका अर्थ है): "... बहुत सम्भव है कि कोई चीज़ तुम्हें अप्रिय हो और वह तुम्हारे लिए अच्छी हो। और बहुत सम्भव है कि कोई चीज़ तुम्हें प्रिय हो और वह तुम्हारे लिए बुरी हो।"(2: 216)
कितनी लड़कियां अपने माँ बाप के लिए अपने भाइयों के मुक़ाबले अधिक दयालु और उपयोगी हैं? कितनी बार ऐसा हुआ है कि लड़के अपने माँ बाप के लिए दुख का स्रोत बनें हैं और वो भी इस हद तक कि वो कामना करते हैं कि वो पैदा ही न हुआ होता?
हम इस विषय को अभी क्यों उठा रहे हैं? ये 'महिलाओं के अधिकारों' की रक्षा के बहाने मुसलमानों पर शातिर हमलों के जवाब में है जो दरअसल महिलाओं की भावनाओं के साथ खेलने की शैतानी कोशिश है ताकि वो अपने पिता और पति के प्रति विद्रोही हो जाएं और इसका मकसद उन्हें अपने घरों को छोड़ने और अपनी 'आज़ादी' की मांग करने के लिए प्रेरित करना है। ये बुराई और अनैतिकता की तरफ ले जाने वाला रास्ता है जो धीरे धीरे महिलाओं को आकर्षित करता है और फिर उन्हें निषेध बातों के जाल में फंसाता है। लड़कियों के इसका शिकार होने की वजह ये है कि लोग बेटियों की अनदेखी कर रहे हैं और उनके अधिकारों का उल्लंघन कर रहे हैं जिसकी वजह से वो आसानी के साथ इन पाखंडी लेखकों और स्तंभकारों (मर्द व औरत) की शिकार बन जाती हैं और जो भ्रष्टाचार को प्रबल होता हुआ देखना चाहते हैं।
लड़कियों के लिए इतना सम्मान ही पर्याप्त है कि नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के भी बेटियाँ थीं और हमारे प्यारे पैगंबर सल्ल्लाहू अलैहि वसल्लम के अधिकांश बच्चे बेटियां ही थीं, जिनके नाम ज़ैनब, रोक़ैय्या, उम्मे कुलसूम और फातिमा था।
स्रोत: http://www.islamweb.net/emainpage/index.php?id=140381&page=articles
URL for English article: https://newageislam.com/islam-women-feminism/daughters-islam/d/66238
URL for Urdu article: https://newageislam.com/urdu-section/daughters-islam-/d/66376
URL for this article: https://newageislam.com/hindi-section/daughters-islam-/d/66536