मौलाना खालिद सैफुल्लाह रहमानी
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
9 अक्टूबर, 2020
इल्म मनुष्य की महानता और श्रेष्ठता का सरमाया है और इल्म से
वंचित होना ईमान के बाद सबसे बड़ी महरूमी और नामुरादी है। इल्म ही की वजह से मनुष्य
ऊँचे मर्तबे का हामिल होता है। “और जिन को इल्म बख्शा गया है।
अल्लाह उनको ऊँचे दर्जे अता फरमाए गा।“ (अल मुजादला:11) कुरआन कहता है कि “इल्म वाले और बिना इल्म वाले बराबर नहीं हो सकते।“ (अल ज़म्र: 9) “अंधा और देखने वाला बराबर नहीं हैं। n अन्धेरा और उजाला बराबर
हैं। न ठंडी छावं और धुप की तपिश एक जैसी है।“ (फातिर: 19 से 21)
इंसान को जो भी इल्म हासिल है वह अल्लाह ही का अता किया हुआ
है और अगर इंसान ने बजाहिर इल्म के हिमालय फतह कर लिए हैं फिर भी उसका इल्म उसके जहल
के मुकाबले और उसकी जानी हुई बातें अंजानी हकीकतों के मुकाबले बहुत कम हैं: “और तुम्हें बहुत ही थोड़ा सा इल्म दिया गया है।“ (अल इसरा:85) इल्म एक वही का माध्यम है, अर्थात अल्लाह पाक अपने पैगंबरों
पर अपनी आयतें और अहकाम उतारते हैं और उनके वास्ते से यह अल्लाह के बंदों तक पहुंचता
है। हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर नबूवत का सिलसिला ख़त्म हो चुका। इल्म
का यह जरिया मासूम है, अर्थात इसमें गलती और भूल चुक
का कोइ इमकान नहीं। इल्म दुसरा इंसानी जरिया अक्ल और उसका तजुर्बाती सफर है। यह अक्ल
भी अल्लाह पाक की अता फरमाई हुई है, लेकिन यह मासूम नहीं। अक्ल ठोकर
कहा सकती है और खाती है, तजुर्बात गलत हो सकते हैं और
होते हैं, हो सकता है इंसान जिस चीज को कीमती सोना समझे वह एक
कम कीमत पीतल हो और इंसान जिस चीज को हीरा ख्याल करे वह कोई बे कीमत चमकने वाली चीज
हो, लेकिन अक्ल और तजुर्बे के जरिये इंसान जिन सच्चाइयों
को हासिल करता है और जिन तथ्यों और अविष्कारों से अपना दामने मुराद भरता है, उसमें भी इंसान के जाति कमालात का दखल नहीं, बल्कि वह भी अल्लाह का
अतिया हैं।
इसलिए कोई भी इल्म जो इंसानियत के लिए फायदेमंद हो, इस्लाम उसे पसंदीदगी की नजर से देखता है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम
ने इसी लिए हिकमत को मोमिन का खोया हुआ माल करार दिया है। आज जिस शिक्षा को हम असरी
या आधुनिक शिक्षा कहते हैं, वह इसी हिकमत का मिसदाक है, हालांकि कुरआन व हदीस से अधिक असरी कोई इल्म नहीं हो सकता, क्योंकि यह हर जमाने और अस्र से सद्भाव रखने वाला इल्म है। इस्लामी शिक्षा से बढ़
कर आधुनिक कोई और शिक्षा नहीं हो सकती क्योंकि इंसान के बनाए हुए सिद्धांत तो दस बीस
साल में साथ छोड़ देते हैं लेकिन यह ज़िंदा व पाएदार और सदा बहार हैं, लेकिन धार्मिक शिक्षा और आम शिक्षा के बीच अंतर करने के लिए इस ताबीर के इस्तेमाल
करने में कुछ हर्ज नहीं।
यह असरी उलूम न मज़हब से टकराते हैं और न मज़हब की रहनुमाई से
बेनियाज़। कुछ लोगों के ज़ेहन में यह वहम है कि इस्लाम और आधुनिक विज्ञान और तकनीक दो
विरोधाभासी चीजें हैं, और अगर इस्लाम इसका विरोधी नहीं
तो कम से कम इस्लाम के उलमा इसके विरोधी हैं। लेकिन यह दोनों ही बातें हकीकत के खिलाफ
हैं। विज्ञान व तकनीक का काम साधन और माध्यम पैदा करना है और इस्लाम साधन को उपयोग
करने का तरीका बताता है और मकासिद की रहनुमाई करता है। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि इस्लाम
आधुनिक ज्ञान के लिए सहायक और रहनुमा है, जैसे ट्रैफिक पुलिस अहलकार
की रहनुमाई करते हैं और सफर की दिशा बताते हैं। इसी तरह धर्म विज्ञान को रास्ता भटकने
से रोकता है। ऐसी स्थिति में टक्कर और तसादुम का क्या सवाल है; 238; और जो चीज इस्लाम के खिलाफ न हो, उलमा की तरफ से उसकी मुखालिफत का कोई अर्थ नहीं।
लेकिन यह भी एक हकीकत है कि आज जो छात्र असरी दर्सगाहों में
पढ़ कर निकलते हैं। उनमें एक बड़ी संख्या दीन से बेबहरा लोगों की है और एक लिहाज़ के काबिल
संख्या तो दीन से बेज़ार लोगों की होती है। इसमें कुछ जिम्मेदारी उलमा पर भी आयद होती
है। यह एक हकीकत है कि आज भी मुस्लिम समाज पर उलमा की जो पकड़ है उसकी कोई मिसाल नहीं
मिलती, मस्जिदों का निज़ाम उलमा के हाथ में है, मदरसों की बहार उनके दम से कायम है, बहुत से दीनी जमातों
और संगठनों में वह किबला नुमा का दर्जा रखते हैं लेकिन यह बात हकीकत है कि माडर्न एजुकेशन
और तकनीकी शिक्षा की तरफ उन्होंने ध्यान नहीं दिया। अगर वह ऐसे शैक्षणिक संस्थान कायम
करे तो इन संस्थाओं की कुछ और ही शान होती और उनका लाभ भुत अधिक होता। इस सिलसिले में
कम से कम दो बातें तो बिलकुल ज़ाहिर व बाहिर हैं:
एक यह कि इन दर्सगाहों में आधुनिक शिक्षा और सरकारी निसाब की
रिआयत के साथ साथ बुनियादी दीनी शिक्षा निसाब का हिस्सा होती और पुरी अहमियत के साथ
दीनी शिक्षा का नज़्म होता। इंसानी फ़िक्र पर शिक्षा के साथ साथ माहौल का बड़ा गहरा अस्र
पड़ता है। बल्कि कभी कभी माहौल का प्रभाव शिक्षा से भी बढ़ जाता है। अगर उलमा और अहले
दीन ऐसे इदारे कायम करते तो उनमें बेहतर मेयार तालीम के साथ साथ उच्च नैतिक इस्लामी
तरबियत का नज़्म भी हो सकता था। ऐसे इदारों से फारिग होने वाले छात्र भविष्य में दीनदार
डॉक्टर, दीनदार इंजिनियर, दीनदार वकील और विभिन्न
क्षेत्रों में इस्लामी फ़िक्र और अमल के प्रवक्ता और नकीब होते और समाज पर उनकी गहरी
छाप होती। आप किसी ऐसे समाज की कल्पना कीजिये जिस में मस्जिद के इमाम से ले कर इलेक्ट्रिसियन और पलम्बर
तक हर पेशा का आदमी दीन से आगाह, दीन शनास और दीनदार हो, तो वह समाज कितना साफ़ सुथरा पाकीज़ा होगा!
दुसरा बड़ा फायदा यह होता कि शिक्षा सस्ती होती उलमा ने मदरसों
की सुरत में जो निज़ाम कायम किया, उसकी असास इस पर है कि कौम के
असहाब व सरवत से पैसे वसूल किये जाएं। चाहे इसके लिए उनकी खुशामद करनी पड़े और तह्कीर
व तजलील से दोचार होना पड़े, और इन पैसों से कौम के गरीब लोगों
को झोपड़ियों तक इल्म की रौशनी पहुंचाई जाए। जो दीनी उलूम आज कल दीनी मदरसों में दिए
जा रहे हैं, एक ज़माने में यह शिक्षा नवाबों के महलों और जागीरदारों
की कोठियों में हुआ करती थी और आम मुसलमानों की पहुँच से बाहर थी, लेकिन अल्लाह जजाए खैर दे हाजी सनाउल्लाह महाजिर मक्की के खुलेफा को कि उन्होंने
मदरसों के निज़ाम को कायम किया और आम से आम आदमी पर भी इल्म के दरवाज़े खोल दिए। अगर
उलमा ने आधुनिक शिक्षा को अपने हाथ में लिया होता तो मुझे यकीन है कि यह एक खिदमत होती
न कि तिजारत, और समाज के गरीब व बेकस लोग भी अपने बच्चों को शिक्षा
से बहरावर कर सकते थे। अफ़सोस कि इस वक्त जिन मुसलामानों ने असरी तालीमी इदारे कायम
कर रखे हैं, कुछ को छोड़ कर सभी का मकसद तिजारत बन गया है।
हर मुसलमान पर यह बात वाजिब है कि वह पुरी उम्मत का खैरख्वाह
हो। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कुछ सहाबा ;230; से हैं पर बैत ली वह तमाम मुसलमानों के साथ खैर ख्वाही का मामला
करेंगे।“ (बुखारी: 58 मुस्लिम:56) हमने एक प्रतिशत या इससे
कम छात्र जो धार्मिक शिक्षा हासिल करते हों। उनकी खैरख्वाही के लिए बड़ी बड़ी जामियात
और अजीमुश्शान दारुल उलूम कायम कर रखे हैं, और निन्यानवे प्रतिशत
बल्कि इससे अधिक कौम के बच्चे जो असरी तालीम के शोबों में हैं, क्या उनकी खैरख्वाही हम पर वाजिब नहीं ;238; और क्या इससे भी बढ़ कर
खैरख्वाही हो सकती है कि हम मुसलमान बाकी रहने में इन बच्चों की मदद करें ;238;
इसलिए जरूरत इस बात की है कि उलमा दीनी दर्सगाहों के साथ साथ
आधुनिक और तकनिकी इदारे भी कायम करें जिनमें शिक्षा उच्च स्तर की हो और तरबियत के लिए
इस्लामी माहौल भी प्रदान हो।
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