अब्दुर्रहमान हमज़ा, न्यू एज इस्लाम
15 June 2020
क्या कुरआन खुदा का कलाम है या किसी महान सुधारक के कथनों का संग्रह है? इल्मे कुरआन पर मोतबर और मुस्तनद तरीन किताबों, हदीसों और इमाम अहमद बिन हम्बल, इमाम सुयूती, इब्ने कसीर की तफसीरों का अध्ययन
“दुनिया के हर मदरसे में यह पढ़ाया जाता है कि कुरआन खुदा की तरह ही गैर तखलीक शुदा है। इसका नतीजा यह है कि कुरआन की किसी भी आयत की सार्वभौमिकता पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता। और अबद तक इनका इत्तेबा जरुरी है। और हर हिदायत का मुसलमानों पर हमेशा के लिए इतलाक होगा। अब इस फहम के अनुसार कोई भी व्यक्ति जिहादियों की नियत पर सवाल कैसे उठा सकता है जब वह सुरह तौबा, सुरह अनफ़ाल और दोसरे सूरतों में से जंग के दौरान नाज़िल होने वाली आयतों का हवाला देते हैं।“
“ यह अंश जनाब सुलतान शाहीन की तकरीर का है जो उन्होंने १९ नवंबर २०१९ को जेनेवा में संयुक्त राष्ट्र संगठन की मानवाधिकार कमीशन की तरफ से आयोजित की जाने वाली कांफ्रेंस में पेश की जिसका शीर्षक था, भारतीय मुस्लिम उलेमा आइएसआइएस प्रोपेगेंदे का तोड़ करेंगे। लेकिन उन्हें लफ्ज़ी शोब्दे बाजियों से उपर उठ कर एक सहीह जवाबी बयानिये की तशकील देनी होगी जो रिवायती इस्लामी फिकह पर आधारित जिहादियत का रद्द करे।“
मैं मुसलमानों को अपमान के गर्त से निकालने और एक बेहतर भविष्य की तरफ बढ़ने की गरज से उनके व्यवहार में एक तरक्की पसंदाना परिवर्तन लाने के लिए सुलतान शाहीन की अनथक मेहनत की प्रशंसा करता हूँ फिर भी कुरआन के एक गहरे अध्ययन के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि अगर हम इमानदारी और संजीदगी से मुस्लिम तर्ज़ ए फ़िक्र में कोई अर्थपूर्ण लाना चाहते हैं तो हमें कुरआन की मख्लुकियत या गैर मख्लुकियत की बहस से भी आगे निकलना होगा।
सबसे पहले हमें इस सवाल पर गौर करना होगा कि क्या कुरआन वाकई खुदा का कलाम है हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने इस्लाही मिशन पर अमल दरामद के लिए वही का इस्तेमाल किया जो उनके ख़याल में गैर मुहज्ज़ब अरब समाज की सुधार के लिए आवश्यक था। वह जिस दौर और जिस माहौल में रह रहे थे उसमें वही का दावा शायद चौदा सौ साल पहले केरेगिस्तान में गुज़र बसर करने वाले अनपढ़ बद्दुओं के दिल व दिमाग को प्रभावित करने का ताकतवर तरीन वसीला था। जब तक हकाम इस बुनियादी मसले कोसबसे पहले बहस व तम्हीस के जरिये हल ना कर लें तब तक मुसलमानों के दृष्टिकोण में किसी भी प्रकार की इस्लाह संभव मालुम नहीं होती। अगर हम हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अपने समय का एक अज़ीम सुधारक स्वीकार कर लें तो कुरआन की मख्लुकियत और गैर मख्लुकियत का मसला खुद बखुद हल हो जाएगा।
हमें कुरआन में ऐसी कई मिसालें मिलती हैं जिनसे पता चलता है कि कुरआन की वह आयतें किसी घटना से पैदा होने वाले स्थिति के जवाब में नाजिल हुईं। यह नहीं कहा जा सकता कि वह आयतें लौहे महफूज़ में ब्रह्मांड के निर्माण से पहले से लिखी हुई थीं जैसा कि मुसलमानों की अक्सरियत का अकीदा है। जैसे कुछ आयतें अपने विरोधियों से लाफ्ज़ी जंग के दौरान हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बयान हैं तो कुछ आयतें उनके करीबी सहाबियों और उनकी पाकीज़ा बीवियों की ख्वाहिशात, ताजावीज़ और बयानात हैं जिन पर अल्लाह (या हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) नेमुहर तस्दीक सबत कर दी। कुछ मिसालें पेश खिदमत हैं।
नोट- इन तमाम आयतों के नुज़ूल के मवाके का ज़िक्र कुरआन के जैल में पढ़ाई जाने वाली ज़्यादातर मुसतनद किताबों में मौजूद है जिसे अल इत्कान फी उलूमिल कुरआन अज़ अल्लामा जलालुद्दीन सुयूती, तफसीर इब्ने कसीर इत्यादि। दिलचस्प बात यह है कि मौलाना मौदूदी, मौलाना शब्बीर उस्मानी और दोसरे मुफ़स्सेरीन ने कुरआन पर बहस व तमहीस के दौरान उनके ज़िक्र से पूरी तरह एह्तिराज़ किया है। इसके असबाब का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
पहली मिसाल: अल बकरा: १२५
وَاتَّخِذُوا مِن مَّقَامِ إِبْرَاهِيمَ مُصَلًّى
“औरमकामेइब्राहिमकोक़िबलाकीजगहबनालो।“अर्थात यहाँ बार बार आओ।
उमर बिन ख़त्ताब ने फरमाया “मैंने तीन बातों में अल्लाह से इत्तेफ़ाक किया या मेरे अल्लाह ने मुझसे इत्तेफ़ाक किया। मैंने कहा, “या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मेरी ख्वाहिश है कि आप मकामे इब्राहीम को किबले की जगह बना लें इस पर “यह आयत “मकामे इब्राहीम को किबले की जगह बना लो।“ नाजिल हुई। फिर मैंने कहा, “ या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम नेक व बाद सभी आपके घर में दाखिल होते हैं मैं चाहता हूँ कि आप उम्माहातुल मोमिनीन को हिजाब का हुक्म दें। अल्लाह ने वह आयत नाजिल की जिसमें हिजाब का हुक्म दिया गया था। और जब मुझे मालूम हुआ कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अपनी बीवियों से नाराज़ हैं तो मैं उनके पास गया और बोला” तुम जो कर रही हो वह ना करो वरना रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अल्लाह तुमसे बेहतर बीवियां अता करेगा”। मैंने आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की एक बीवी को सल्लाह दी तो उन्होंने कहा “ऐ उमर क्या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को मालुम नहीं है कि वह अपनी बीवियों को क्या मशवरा दें कि आपको उनकी जगह यह काम करना पड़ रहा है।“ तब अल्लाह ने यह आयत नाज़िल की।“
عَسَىٰ رَبُّهُ إِن طَلَّقَكُنَّ أَن يُبْدِلَهُ أَزْوَاجًا خَيْرًا مِّنكُنَّ مُسْلِمَاتٍ مُّؤْمِنَاتٍ قَانِتَاتٍ تَائِبَاتٍ عَابِدَاتٍ سَائِحَاتٍ ثَيِّبَاتٍ وَأَبْكَارًا
“अगर वह तुम्हें तलाक दे दें तो उनको खुदा तुमसे बेहतर बीवियां अता करे गा।“ (५:६६)
तफसीर इब्ने कसीर में मजीद लिखा है। उस वक्त उमर ने कहा। मैंने कहा या रसूलुल्लाह आप को अपनी बीवियों से क्या तकलीफ है अगर आप उन्हें तलाक दे दें तो अल्लाह आप के साथ उसके फ़रिश्ते, जिब्राइल, मीकाइल, मैं, अबुबकर और तमाम मोमिनीन आपके साथ हैं।“ अक्सर जब मैं बोलता था अलहम्दुलिल्लाह मुझे उम्मीद होती थी कि अल्लाह मेरी बातों की ताईद करेगा। और फिर मुतबादिल वाली आयत नाजिल हुई। अल्लाह ने फरमाया “अगर वह तुम्हें तलाक दे दें तो उनका खुदा तुमसे बेहतर बीवियां अता करेगा। और अगर तुम उनके खिलाफ एक दोसरे की मददगार बनोगी तो अल्लाह उनका मुहाफ़िज़ है और जिब्राइल, मीकाइल, और मोमिनीन में सेनेक और परहेज़गार लोग और उनके बाद फरिश्ते उनके मददगार हैं।
यह आयतें मारिया किब्तिया के वाकये से सम्बन्ध रखती हैं।
दोसरी मिसाल: (३३:३५)
إِنَّ الْمُسْلِمِينَ وَالْمُسْلِمَاتِ وَالْمُؤْمِنِينَ وَالْمُؤْمِنَاتِ وَالْقَانِتِينَ وَالْقَانِتَاتِ وَالصَّادِقِينَ وَالصَّادِقَاتِ وَالصَّابِرِينَ وَالصَّابِرَاتِ وَالْخَاشِعِينَ وَالْخَاشِعَاتِ وَالْمُتَصَدِّقِينَ وَالْمُتَصَدِّقَاتِ وَالصَّائِمِينَ وَالصَّائِمَاتِ وَالْحَافِظِينَ فُرُوجَهُمْ وَالْحَافِظَاتِ وَالذَّاكِرِينَ اللَّـهَ كَثِيرًا وَالذَّاكِرَاتِ أَعَدَّ اللَّـهُ لَهُم مَّغْفِرَةً وَأَجْرًا عَظِيمًا
मुसलमान मर्द और मुसलमान औरतें, इमानदार मर्द और इमानदार औरतें, फरमाबरदारी करने वाले मर्द और फरमाबरदारी करने वाले मर्द और फर्माबरदार औरतें, रास्तबाज़मर्द और रास्तबाज़ औरतें, सब्र करने वाले मर्द और सब्र करने वाली औरतें, आजज़ी करने वाले मर्द और आजज़ी करने वाली औरतें, खैरात करने वाले मर्द और खैरात करने वाली औरतें, रोज़े रखने वाले मर्द और रोज़े रखने वाली औरतें, अपने नफस की निगहबानी करने वाले मर्द और और निगहबानी करने वाली औरतें, कसरत से अल्लाह का ज़िक्र करने वाले और ज़िक्र करने वालियां उन सब के लिए अल्लाह ने वसीअ मगफिरत और बड़ा सवाब तैयार कर रखा है। (३३:३५)
शाने नुज़ूल
औरतों के लिए खुसूसी आयत: उम्मुल मोमिनीन हज़रत उम्मे सलमा रज़िअल्लहु अन्हा ने एक बार रसूलुल्लाह की खिदमत में अर्ज़ किया कि आखिर इसकी क्या वजह है कि मर्दों का ज़िक्र तो कुरआन मेंआता रहता है लेकिन औरतों का तो ज़िक्र ही नहीं किया जाता फिर एक दिन जबकि मैं अपने बालों में कंघा कर रही थी कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मिम्बर से खिताब कर रहे थे। मैंने बालों का जुड़ा बांधा और अपने कमरे में गई और बाहर कान लगा कर सुनने लगी। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मिम्बर से फरमा रहे थे।
“ऐ लोगों बेशक अल्लाह पाक फरमाते हैं:
“मुसलमान मर्द और मुसलमान औरतें, मोमिन मर्द और मोमिन औरतें, परहेज़गार मर्द और औरतें, सादिक मर्द और औरतें, साबिर मर्द और औरतें, आजिज़ी करने वाले मर्द और औरतें, खैरात करने वाले मर्द और औरतें, रोज़ा रखने वाले मर्द और औरतें और अपनी शर्मगाहों की हिफाज़त करने वाले मर्द और औरतें उनके लिए अल्लाह ने तैयार रखी है मुआफी और अज़ीम अज्र।“ (३३:३५)
तीसरी मिसाल: (अल बकरा: ९७-९८)
قُلْ مَن كَانَ عَدُوًّا لِّجِبْرِيلَ فَإِنَّهُ نَزَّلَهُ عَلَىٰ قَلْبِكَ بِإِذْنِ اللَّـهِ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ وَهُدًى وَبُشْرَىٰ لِلْمُؤْمِنِينَ مَن كَانَ عَدُوًّا لِّلَّـهِ وَمَلَائِكَتِهِ وَرُسُلِهِ وَجِبْرِيلَ وَمِيكَالَ فَإِنَّ اللَّـهَ عَدُوٌّ لِّلْكَافِرِينَ
“ कह दीजिये ऐ मोहम्मद जो कोई भी जिब्राइल का दुश्मन है बेशक उसने (जिब्राइल ने) उसको तुम्हारे साइन में उतारा है अल्लाह के हुक्म से तस्दीक करने वाली है जो इससे पहले उतरी और हिदायत और खुशखबरी ईमान लाने वालों के लिए। जो कोई भी अल्लाह का, उसके फरिश्तों का, उसके पैगम्बरों का, जिब्राइल और मीकाइल का दुश्मन है तो बेशक अल्लाह उन काफिरों का दुश्मन है।“ (अल बकरा: ९७-९८)
शाने नुज़ूल
इमाम अबू जाफर बिन जरीर अल तबरी ने फरमाया “मुफ़स्सेरीन का इस पर इत्तेफ़ाक है कि यह आयत (अल बकरा: ९७-९८) यहूदियों के इस दावे के जवाब में नाजिल हुई कि जिब्राइल यहूदियों के दुश्मन और मीकाइल उनके दोस्त हैं।“
बुखारी फरमाते हैं: अल्लाह कहता है ऐ मोहम्मद कह दीजिये जो कोई भी, अल्लाह का दुश्मन है उसके फरिश्तों का उसके रसूलों का जिब्राइल और मीकाइल का तो बेशक अल्लाह काफिरों का दुश्मन है।“
अल्लामा जलालुद्दीन सुयूती अल इत्कान फी उलूमिल कुरआन में लिखते हैं कि यह रिवायत की गई है कि अब्दुर्रहमान बिन अबी लैला ने कहा कि एक दिन एक यहूदी उमर बिन ख़त्ताब से मिला और बोला।“ जिब्राइल जिस का ज़िक्र तुम्हारा दोस्त अक्सर करता है हमारा दुश्मन है।“ उमर ने जवाब दिया। “जो कोई भी अल्लाह का दुश्मन है, उसकेफरिश्तों का उसके रसूलों का, जिब्राइल और मीकाइल का दुश्मन है बेशक अल्लाह काफिरों का दुश्मन है।“ अब्दुर्रहमान कहते हैं कि उमर के अलफ़ाज़ की ताईद अल्लाह ने कर दी और यह आयत नाजिल हुई।
अल्लामा सुयूती ने बहुत सी आयतों का ज़िक्र किया हो जो असल में सहाबा की जुबान से अदा हुई थीं और बाद में अल्लाह की तरफ से उनकी ताईद हुई और वह कुरआन का हिस्सा बन गई। इसके अलावा कई मिसालें हैं जहां वही के ज़रिये हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को एक या दोसरी परेशानी या उलझन से राहत दे दी गई ऐसे ही एक मौके पर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की अज़ीज़ तरीन ज़ौजा हज़रत आइशा ने एक बार कहा था, “मुझेमहसूस होता है कि आपके खुदा को आपकी ख्वाहिशात और तमन्नाओं को पूरा करने की बहुत जल्दी रहती है।“
चौथी मिसाल (अल बकरा: १९६)
وَأَتِمُّوا الْحَجَّ وَالْعُمْرَةَ لِلَّـهِ ۚ فَإِنْ أُحْصِرْتُمْ فَمَا اسْتَيْسَرَ مِنَ الْهَدْيِ ۖ وَلَا تَحْلِقُوا رُءُوسَكُمْ حَتَّىٰ يَبْلُغَ الْهَدْيُ مَحِلَّهُ ۚ فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوْ بِهِ أَذًى مِّن رَّأْسِهِ فَفِدْيَةٌ مِّن صِيَامٍ أَوْ صَدَقَةٍ أَوْ نُسُكٍ
और अल्लाह जके लिए हज और उमरा मुकम्मल करो और अगर तुम्हें रोका जाए तो एक हदी कुर्बानी करो जिसकी तुममें इस्तिताअत हो। और अपने सर तब तक मत मुंडवाओ जब तक तुम्हारी हदी कुर्बानी की जगह ना पहुँच जाए। और तुममें से जो भी बीमार हो, या सर में कोई तकलीफ हो (और सर मुंडवाना आवश्यक हो) तो उसे चाहिए कि वह रोज़े या सदके या कुर्बानी का फिदया दे दे।“
शाने नुज़ूल:
बुखारीने रिवायत की कि अब्दुर्रहमान बिन अस्बहानी ने कहा कि उन्होंने अब्दुल्लाह बिन मोअकिल को कहते सूना कि वह काअब बिन उजरह के साथ कुफा (ईराक) की मस्जिद में बैठे थे। फिर उन्होंने रोज़े के फिद्ये के बारे में पूछा। काअब ने कहा “यह खुसूसी तौर पर मेरे मामले में नाजिल हुई लेकिन उमूमी तौर पर यह तुम्हारे लिए भी है। मुझे रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास इस हालत में ले जाया गया कि जुएँ मेरे चेहरे पर बड़ी संख्या में गिर रही थीं। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया। “मुझे जरा भी अंदाजा नहीं था कि तुम्हारी बिमारी इस हद तक पहुँच चुकी है। क्या तुम कुर्बानी करने की इस्तिताअत रखते हो? मैंने नफ़ी में जवाब दिया। इस पर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया।
“तीन दिन रोज़े रखो, या छः इंसानों को खाना खिलाओ हर एक को एक साअ खाना खिलाओ और अपना सर मुंडवा लो।“
इसलिए, यह एक ख़ास मामले से अख्ज़ किया गया उमूमी फैसला है।
पांचवीं मिसाल:
لَّا يَسْتَوِي الْقَاعِدُونَ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ غَيْرُ أُولِي الضَّرَرِ وَالْمُجَاهِدُونَ فِي سَبِيلِ اللَّـهِ بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنفُسِهِمْ ۚ
“मोमिनों में से वह जो बैठे रहते हैं (घरों में) “सिवाए उनके जो माज़ूर हैं” उनके बराबर मनहिं हो सकते जो जिहाद करते हैं अल्लाह की राह में अपनी जान और माल से।“ (४:९५)
हमेंबारवक्त वही की बेशुमार मिसालें कुरआन में मिलती हैं। उपर्युक्त आयत उन्हीं में से एक आयत है जिसमें वही के जरिये रसूलुल्लाह को एक उलझन से निकाला गया है।
बुखारी में इस आयत की तशरीह इस तरह है:
البراء نے روایت کی: یہ آیت نازل ہوئی “لَا يَسْتَوِي الْقَاعِدُونَ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ وَالْمُجَاهِدُونَ فِي سَبِيلِ اللَّهِ بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنْفُسِهِمْ ۚ”
“मोमिनों में से वह जो बैठे रहते हैं (घरों में) उनके बराबर नहीं हो सकते जो जिहाद करते हैं अल्लाह की राह में अपनी जान और माल से।“ (४:९५)
यह आयत तिलावत करने के बाद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया “ज़ैद को बुलाओ और उससे कहो कि तख्ती और दवात और कलम ले कर आए। फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया- “लिखो, वह मोमिन जो बैठे रहते हैं----“ और उसी वक्त उमर बिन उम्मे मक्तूम जो नाबीना थे और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पीछे बैठे थे। उन्होंने कहा “या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, मेरे संबंध में आपका क्या हुक्म है (इस आयत के संदर्भ में) क्योंकि मैं तो अंधा हूँ। इसलिए, उपर्युक्त आयत की जगह निम्नलिखित आयत नाज़िल हुई। “لَا يَسْتَوِي الْقَاعِدُونَ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ” غَيْرُ أُولِي الضَّرَرِ” وَالْمُجَاهِدُونَ فِي سَبِيلِ اللَّهِ بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنْفُسِهِمْ” मोमिनों में से जो लोग बैठे रहते हैं” सिवाए उनके जो माज़ूर हैं” उनके बराबर नहीं हो सकते जो अल्लाह की राह में जिहाद करते हैं (सहीह बुखारी:६: ६१: ५११)
मजकुरा हदीस में वाकियात की तरतीब पर गौर करें:
हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर एक वही नाजिल होती है। जो ४:९५ का हिस्सा है। हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इस आयत को सहाबा के सामने तिलावत करते हैं इसमें बाद में शामिल किया जाने वाला एक छोटा सा हिस्सा “غَيْرُ أُولِي الضَّرَرِ” (सिवाए उनके जो माज़ूर हैं) मौजूद नहीं था। फिर वह ज़ैद को वही की किताबत के लिए बुलाते हैं। और ज़ैद के सामने इस आयत की किरात शुरू करते हैं। “एक नाबीना” शख्स पूछता है कि इस आयत का इतलाक उस पर कैसे हो सकता है जबकि वह अंधा है। हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर फिर बरवक्त एक वही नाज़िल होती है जिसमें माज़ूर और नाबीना अफराद को जिहाद से मुस्तस्ना करार दे दिया जाता है।
मशहूर पाकिस्तानी आलिम मुफ़्ती मोहम्मद तकी उस्मानी जो मौलाना अशरफ अली थानवी के खलीफा मुफ़्ती शफीअ उस्मानी के बेटे हैं अपनी किताब “कुरआन की वही की तरतीब और पसमंजर” में लिखते हैं कि कुरआन का सबसे छोटा हिस्सा “غَيْرُ أُولِي الضَّرَرِ” (सिवाए उनके जो माज़ूर हैं) (अल निसा:९४) है जो एक तवील आयत का हिस्सा है।
इन तमाम वाक़ियात की रौशनी में यह फैसला करना मुश्किल है कि कुरआन में कौन सी आयत असल (आसमानी) है कौन सी आयत alteredहै और कौन सी आयत इंसानी इज़ाफा है।
इस से पहले कि हम किसी हतमी नतीजे तक पहुंचें, मुनासिब होगा कि हम कुछ ऐसे इस्लामी अहकाम पर निगाह डाल लें जिसमें मानवाधिकार की खुली खिलाफवर्जी होती है लेकिन इस्लाम ने कुछ चीजों को ठीक उसी तरह और कुछ को मामूली तबदीली के साथ बाकी रखा क्योंकि यह चीज इस्लाम से पहले अरब के बद्दू कबीलों में राइज थीं और उन्हें मायूब नहीं समझा जाता था। कुछ मिसालें मुलाहेज़ा हों:
(१) जिना की सज़ा: पहले कुरआन ने औरतों को अरब समाज के मुताबिक़ ता हयात घर में कैद कर देने का हुक्म दिया (४:१५) बाद में दुसरे हुक्म के अनुसार उन्हें संगसार करने का आदेश दियाजो कि तौरात की सज़ा थी।
(२) चोरी की सज़ा हाथ काटना।
(३) औरतों के साथ हिंसा: कुरआन बीवी की तरफ से नाफ़रमानी और जुबानदराज़ी करनेपर शौहर को उसकी ज़दो कोब की इजाज़त देता है हालांकि जर्बे शदीद अर्थात ऐसी पिटाई जिससे ज़ख़्म या चोट आ जाए इससे मना करता है शौहर को पिटाई की इजाज़त बीवी को इताअत पर मजबूर करने के लिए है।हवाला: मजमुआ कवानीनइस्लामी शाया करदा मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड पृष्ठ १५० दफा २१४
(४) बाप दादा के जरिये नाबालिगा की तय की हुई शादी: अगर बाप या दादा ने अपनी सवाबदीद पर खैर ख्वाही के साथ नाबालिगा का निकाह ऐसी जगह कर दिया जो मुआशरत में उसके हम पल्ला ना हो जैसे शौहर अन पढ़ गंवार या जाहिल हो जब कि लड़की मुहज्ज़ब और पढ़े लिखे घराने से हो तो यह निकाह मुनाकिद भी होगा और लाजिम भी होगा और लाज़िम भी रहेगा। ऐसीस्थिति में बालिग़ होने पर भी लड़की को निकाह फस्ख कराने का हक़ नहीं होगा। लेकिन अगर वह लड़की निकाह फस्ख कराने पर बज़िद हो तो उसे क़ाज़ी के सामने शौहर की ज़ुल्म व ज्यादती साबित करना होगी तब क़ाज़ी अपनी सवाबदीद हर फैसला करेगा क्योंकि इस्लाम में निकाह औरत की गुलामी है और निकाह के बाद शौहर बीवी के जिस्म का मालिक हो जाता है जैसे कि बांदी उसकी मिलकियत होती है। इसी लिए महर को इस्लाम में माल बज़अ कहा गया है अर्थात औरत की शर्मगाह की कीमत। मजमुआ कवानीन इस्लामी सफहा २३८ मअ अरबी हाशिया। (औरत के जिस्म को खरीदने का रिवाज इस्लाम आने से पहल;इ अरब समाज में मौजूद था।)
(५) अगर मर्द पहली बीवी की मर्ज़ी के बिना दोसरी शादी कर ले और पहली बीवी इस सदमे को बर्दाश्त ना कर सके और वह केवल खुला का मुतालबा करे तो इस बुनियाद पर औरत को खुला का हक़ हासिल नहीं है।
(६) इस्लामी कानून किसास के मामले में कहता है कि अगर किसी मुसलमान ने किसी काफिर को क़त्ल कर दिया तो बदले में उस मुसलमान को क़त्ल नहीं जाए गा बल्कि मकतूल के वारिसों को दियत लेने पर मजबूर किया जाएगा। और दियत की रकम में भी बहुत तफरीक राखी गई है जैसे सऊदी अरब जहां इस्लामी कानून नाफ़िज़ है वहाँ मुख्तलिफ मज़ाहिब से संबंध रखने वाले मकतूल हज़रात की दियत इस तरह है।
मुसलमान मकतूल की दीयत १००००० रियाल
मुसलमान औरत और इसाई मर्द की दीयत ५०००० रियाल
इसाई औरत की दीयत २५००० रियाल
हिन्दू मर्द की दीयत ६६६६ रियाल
हिन्दू औरत की दीयत ३३३३ रियाल
(७) मुर्ताद की सज़ा क़त्ल या उम्र कैद। एक शख्स एक मुसलमान घर में पैदा होता है इसलिए वह मुसलमान कहलाता है इसमें उसके चेतना का कोई दखल नहीं होता। सचेत होने पर वह पूरी दयानत दारी से इस्लाम का मुताला करता है, अपने ही बुजुर्गों की लिखी हुई किताबों को पढ़ता है और वह इस मज़हब से मुतमईन नहीं होता तो तीन दिन तक तौबा का मौक़ा देने के बाद अगर वह फिर भी मुतमईन नहीं होता तो उसे कत्ल या उम्र कैद की सज़ा दी जाती है। यह अमल आज की दुनिया में आज़ादी ए मज़हब और ज़मीर की आज़ादी के खिलाफ माना जाता है।
(८) अगर किसी नाबालिग़ लड़की का बाप मर गया और दादा भी नहीं है तो उसका चचा या चचा का बेटा उसका वली बन जाता है अब अगर उस नाबालिग़ लड़की के निकाह की मज़बूरी पेश आ जाए तो उसकी मां जिसने उसे पैदा किया वह लड़की के शौहर के इंतेखाब का हक़ नहीं रखती बल्कि उसके चचा या चचा के ना होने की स्थिति में च्चन के बेटे को यह हक़ हासिल होगा।
(९) नाबालिग़ बच्ची की शादी: इस्लाम में नाबालिग़ बच्ची की शादी जायज है। यहाँ तक कि तीन चार साल की बच्ची का निकाह भी हो सकता है। उलेमा मशवरा देते हैं कि बालिग़ होने से पहले इससे मुबाशरत ना की जाए लेकिन अगर शौहर ने ऐसा कर लिया और इसके नतीजे में बच्ची ज़ख़्मी हो गई या उसे जिस्मानी नुक्सान पहुँच गया तो शौहर उसके इलाज व मुआलजे का ज़िम्मेदार तो होगा लेकिन ना उसे दुनिया में कोई सज़ा मिले गी ना वह खुदा की निगाह में गुनाहगार होगा।
(१०) अगर बाप अपने बेटे या बेटी को कत्ल कर दे तो बाप से किसास नहीं लिया जाएगा चाहे मकतूल बेटे या बेटी की मां इसका मुतालबा भी करे।
(११) हालांकि अब गुलामी ख़त्म हो चुकी है लेकिन यह जानना दिलचस्पी से खाली नहीं है कि अगर आका अपने गुलाम को कत्ल कर दे तो आका को किसास में कत्ल नहीं किया जाएगा। इस्लाम आने से पहले भी अरब समाज में यही रिवाज था जिसे इस्लाम ने बाकी रखा।
(१२) इकदामी जिहाद: आइएस आइएस, बोको हराम और विभिन्न इस्लामी संगठनों की तरफ से जो जिहाद की तहरीक चल रही है असल में यही इस्लाम की असल तालीम है चाहे हमारे उलेमा लाख इसके खिलाफ फतवे सादिर करें या उनके इस तरीके को गैर इस्लामी करार दें। मौलाना अबुल आला मौदूदी, मिस्र के सैयद क़ुतुब, पाकिस्तान के मुफ़्ती शफी उस्मानी और अल्लामा इब्ने कसीर की तफसीरों के मुताले के बाद यह बात स्पष्ट हो जाती है की सुरह बकरा की आयत नंबर १९३ सारे मुसलमानों से इस बात का मुतालबा करती है कि वह एअला ए कलिमतुल हक़ अर्थात इस्लाम के गलबे के लिए कयामत तक जिहाद करते रहें। अलबत्ता फिकह इस्लामी यह गुंजाइश रखती है कि जहां मुसलमान जंग की ताकत नहीं रखते वहाँ गैर मुस्लिमों कि तरफ दोस्ती का हाथ बढाएं लेकिन अन्दर अन्दर खुद को मजबूत करने की कोशिश करें और जब किसी खित्ते में उन्हें जंग में फतह का यकीन हो जाए तो गैर मुस्लिमों की तरफ से दोस्ती की पेशकश को ठुकराते हुए जिहाद करें और शरीअत नाफ़िज़ करने की जद्दोजिहद करें। इस इकदामी जिहाद को फर्ज़ किफाया करार दिया गया है। आइएस आइएस और बोको हराम वगैरा इसी पर अमल कर रही हैं। यह संगठने अपनी तहरीक के इस्लामी होने के सुबूत में कुरआन और हदीस का ही हवाला दे रही हैं।
मजकुरा बाला अक्सर उमूर वह हैं जो अरब समाज में पहले से रायज थे। हज़रत मोहम्मद ने जिस समाज में आँख खोली वह अनपढ़ बद्दू कबीलों पर मुश्तमिल एक कबाइली समाज था। ज़ाहिर सी बात है कि ऐसे समाज को सुधारने के लिए उसी समाजी ढाँचे के हुदूद में रह कर ही उनकी इस्लाह मुमकिन थी। इसके लिए जरुरी था की उनके मिजाज़, एतेकादात और आदात का लिहाज़ रखा जाता। शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी अपनी मशहूर किताब हुज्जतुल बालिगा में लिखते हैं “जिस तरह पिछले उमूर का असर हालात पर पड़ता है, इसी तरह शरीअतों में कौम के पास मख्जून व मौजूद उलूम, इन में मख्फी एतिकादात व आदात जो उनमें ऐसे सरायत कर जाते हैं जैसे की मर्ज़ कल्ब सरायत कर जाता है, इन सबका भी लिहाज़ रखा जाता है: हवाला: हुज्जतुल्लाह अल बालिगा, जिल्द अव्वल सफहा २२४ बाब ५६”
इनसभी तथ्यों की रौशनी में यह बात बजा तौर पर कही जा सकती है कि इस्लाम के सारे अहकाम अबदी और आफाकी नहीं बल्कि अक्सर अहकाम का संबंध केवलउस समय की मुखातब कौम और एक निश्चित समय तक के लिए हो सकते हैं।
यह हकीकत बहार हाल नाक़ाबिल ए तरदीद है कि कुरआन की अकसर तालीमात इंसानियत के लिए मुफीद और काबिल ए तकलीद हैं। लेकिन हमें इस बात का भी इदराक करना होगा कि हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अरब मुआशरे में जो तब्दीलियाँ लाए वह उस इलाके और मुआशरे के लिए केवल एक सुधार की हैसियत रखती हैं। उनके दौर और उनकी नस्ल में हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम एक समाजी मुस्लेह थे। उन्होंने समाजी तहफ्फुज़ का नया निजाम और कुम्बा की सिनाख्त की तशकील की जो गुज़िश्ता निजाम में सुधार लाया। हम इसमें से अच्छी बातों को कुबूल कर सकते हैं और जो बातें इकीसवी शाताब्द्दी में हमारे लिए हानिकारक हैं जैसे इकदामी जिहाद, नाबालिग़ बच्ची की शादी, औरत पर तशद्दुद वगैरा इन्हें छोड़ सकते हैं।
इसलिए ज़मान व मकान की तब्दीली इस बात का तकाज़ा करती है कि फिकह इस्लामी में नज़र सानी करके अज़ सरे नौ तरामीम की जाएं ताकि वह इकीसवी शताब्दी के तकाजों को पूरा कर सकें।
मजकुरा बाला आयात की रौशनी में कुछ लोग यह नतीजा अख्ज़ करने में हक़ बजानिब होंगे कि हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम एक अज़ीम समाजी मुस्लेह थी और उन्होंने अपनी गैर मुहज्ज़ब कौम की इस्लाह के लिए वही तरीका इख्तियार किया जो उस वक्त सबसे ज्यादा मुनासिब था। ऐसा मालुम होता है कि शायद वह अपने बारे में यह एहसास रखते थे कि उन्हें अल्लाह ने इस काम केलिए चुना है। यह बात इस लिए भी करीन ए कयास मालुम होती है क्योंकि हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और हज़रत मरियम को हज़रत जिब्राइल का नज़र आना और हज़रत मोहम्मद का मेराज पे जाना और कुछ इसी तरहके दोसरे वाकियात का ज़िक्र करने के बाद शाह वलीउल्लाह साहब ने लिखा है कि हम उन तमाम बातों को वजूद ए हिसी भी मां सकते हैं जिसका मतलब यह है कि साहब मामला (अर्थात हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को महज़ इसका एहसास हुआ जैसा कि नींद की हालत या बिमारी में होता है जब कि खारिज में अर्थात हकीकी दुनिया में इसका कोई वजूद नहीं था।
अब सवाल यह पैदा होता है कि हमारे बुजुर्गों की ही लिखी हुई तसानीफ़ में यह तमाम मालूमात मौजूद हैं। अल्लामा सुयूती की अल इत्कान तमाम मदारिस ए इस्लामिया में खारजी मुताले के लिए मौजूद है और जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अली गढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी वगैरा में इस्लामिक स्टडीज के निसाब में शामिल है। हुज्जतुल्लाही अल बालिगा तो दारुल उलूम देवबंद में फरागत के बाद ताखस्सुसके निसाब में पढ़ाई जा रही है। उसी अल इत्कान में लिखा है कि कुरआन की बहुत साड़ी आयतें जिनमें आयत ए रज्म और सुरह अहज़ाब की बहुत सारीपत्तोंपर लिखी आयतें तकिया के निचे राखी थीं और बकौल हज़रत आइशा रज़िअल्लहु अन्हा के हुजुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इंतकाल के वक्त जब कि सब लोग तजहीज और तक्फीन में मसरूफ थे उस समय घर की बकरी उन्हें खा गई इसलिए कुरआन का काफी हिस्सा अब कुरआन से गायब हो चुका है। अगर ऐसा है तो खुदा की तरफ से कुरआन की हिफाज़त के वादे का क्या हुआ। होना तो यह चाहिए था कि इन किताबों का वजूद ही ना होता या अगर हो गया था तो शुरू ही में उन्हें आग के हवाले कर दिया जाता। इन किताबों का अध्ययन करने के बाद फितरी तौर पर जो सवालात पूछने वाले से केवल यह मुतालबा किया जाता है कि इन सवालों को ज़ेहन में कतई जगह मत दो वरना नबूवत पर से ईमान ख़त्म हो जाएगा। यह कैसे मुमकिन है।
درمیان قعرِ دریا تختہ بندم کردئی ۔۔۔۔ باز می گوئی کہ دامن تر مکن ہشیا ر باش
अनुवाद: “मुझे दरिया के बीचो बीच एक तख्ते से बाँध कर छोड़ दिया गया है और फिर कहा जा रहा है कि देखो दामन तर ना होने पाए, होशियार रहना”
यह कैसे मुमकिन हो सकता है।
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