इक़बाल हैदर नक़वी (उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
मुसलमानों के पिछड़ेपन और पतन के कारणों पर जब भी वाद-विवाद होता है तो शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ेपन का ज़िक्र ज़रूर होता है, क्योंकि मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में आज भी पीछे हैं और उनमें इस क्षेत्र में दिलचस्पी न लेना अभी भी बरकरार है। 1857 के की जंग के खात्मे और मुगल सल्तनत के पतन के बाद हिंदुस्तानी मुसलमानों की हालत बिगड़ चुकी थी, समाज तबाह व बर्बाद हो चुका था। आश्चर्य इस बात पर है कि मुसलमानों को इसका एहसास भी नहीं था वो सिर्फ कबूतर उड़ाने और बटेरों को लड़ाने में लगे हुए थे। कोई भी इसका हल तलाश करने की कोशिश नहीं करता जबकि ये ज़िम्मेदारी उन लोगों पर आती है जो पढ़े लिखे हैं और जिन्हें शिक्षा का महत्व पता है। उनमें चाहे उलमा हज़रात हों या बुद्धिजीवी वर्ग जो कि अच्छी तरह समझते हैं कि अशिक्षित समुदाय की किस्मत में नाकामी, पछतावे और हसरतें ही हुआ करती हैं।
आज का मुसलमान मज़हबी फिरकापरस्ती पर तो ग़ौर करता है लेकिन ये नहीं सोचता कि वक्त की क्या ज़रूरत है। मुसलमानों की समस्याओं का अकेला हल शिक्षा के क्षेत्र में छिपा हुआ है और इस पर छाये हुए गर्द और ग़ुबार को हमें साफ करना है। इन हालात में कुछ बुद्धिजीवी जिनमें सर सैय्यद अहमद खान सबसे आगे हैं, गहरे सोच औऱ विचार के बाद इस नतीजे पर पहुँचे कि मुस्लिम समुदाय की तरक्की और समस्याओं का हल आधुनिक शिक्षा से ही निकाला जा सकता है। उनका कहना था कि सिर पर कुरान, दायें हाथ में दीनी तालीम और बायें हाथ में आधुनिक शिक्षा का परचम लेकर आगे बढ़ते रहो। उनका मकसद था कि भेदभाव, हीनता की भावना, और अशिक्षा का मुस्लिम समाज से खात्मा हो सके। इसलिए उन्होंने शिक्षा को न सिर्फ आम करने की कोशिश की बल्कि उसे सीमित करने का भी विरोध किया और लड़कियों की शिक्षा पर विशेष ज़ोर दिया जिसके नतीजे में न सिर्फ हिंदुस्तान बल्कि इस्लामी दुनिया में क्रांति पैदा हुई। उन्हें काफिर और मुर्तद हो जाने के ताने सुनने पड़े, उनके खिलाफ फतवे जारी हुए, उन्हें ईसाई और ब्रिटिश सरकार के एजेण्ट तक करार दिया गया। लेकिन उन्होंने किसी की परवाह नहीं की और समुदाय के लिए समुदाय के ही हाथों मदरसतुल उलूम स्थापित किया, जो कि अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी की शक्ल में आज भी देश और मुस्लिम समुदाय की विशेष सेवा को अंजाम दे रहा है। ये संस्थान सिर्फ हिंदुस्तान ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मशहूर है।
इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में मुस्लिम समुदाय के कई महान लोगों ने जिनमें डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन, डॉक्टर आबिद हुसैन आदि शामिल हैं। इन लोगों ने 1920 में दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया की बुनियाद रखी जो आज एक युनिवर्सिटी है। इन दोनों संस्थानों ने मुस्लिम समुदाय की तरक्की में बड़ी भूमिका अदा की है। ये दोनों संस्थान सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों के कल्याण के लिए शुरु किये गये थे, लेकिन इनके दरवाज़े दूसरे समुदायों के लिए भी खुले हैं और दूसरे समुदाय इनसे उच्च शिक्षा हासिल करने में फायदा उठा रहे हैं, बल्कि मेडिकल, इंजीनियरिंग और दूसरे कोर्सेज़ में मुसलमानों की तादाद दूसरे समुदाय से कम है। आज भी हमारे लिए आज़माइश का वक्त है। सांप्रदायिक ताकतें पूरी तरह इस कोशिश में हैं कि मुसलमान को हर क्षेत्र में पीछे धकेल सकें। इसलिए ज़रूरी है कि हम शिक्षा हासिल करने के क्षेत्र में प्रयासरत रहें, ताकि समाज को तबाही से बचा सकें। हम जिस दीन के मानने वाले हैं वो मुकम्मल निज़ामें हयात अता करता है, तो क्यों न हम इस्लामी शिक्षा के साथ साथ आधुनिक शिक्षा हासिल करें। कुरान ने कई स्थानों पर इल्म हासिल करने का निर्देश दिया है। रसूलुल्लाह (स.अ.व.) का इरशाद है “इल्म हासिल करो चाहे इसके लिए चीन ही क्यों न जाना पड़े।” एक और जगह आप (स.अ.व.) ने फरमाया “जो तालिबे इल्म की हालत में मरता है, वो शहीद होता है।” लेकिन आज के इस प्रगतिशील समय में मुस्लिम समुदाय में ऐसे लोगों की तादाद कहीं ज़्यादा है जो शिक्षा से दूर हैं। यही वजह है कि आज़ादी के बाद से आज तक हम न तो सियासी ताक़त बन सके और न ही सामाजिक शक्ति, जिसका कारण शिक्षा के क्षेत्र में हमारा पिछड़ापन है।
एक वो दौर था जब मुसलमान शिक्षा के हर क्षेत्र में आगे थे। यूनान की लाइब्रेरियाँ इसकी गवाही देती हैं। हिंदुस्तान में मुसलमानों के शानदार इतिहास के बावजूद शिक्षा के क्षेत्र में हम पीछे हैं। सातवीं सदी के बाद कई सौ सालों तक मुसलमान वैज्ञानिक, साइंस, मेडिकल, दर्शन और तर्कशास्त्र में उस मुकाम पर थे जब यूरोप के लोग साइंस को सूली पर चढ़ा रहे थे और लाइब्रेरियों को आग लगा रहे थे। प्राचीन सिद्धांतों के अनुसार इंसान धर्म के लिए पैदा हुआ है जबकि नवीन विचार के मुताबिक धर्म इंसान के लिए पैदा हुआ है। वर्तमान समय के मुसलमानों में शिक्षा हासिल करने का जज़्बा पैदा हुआ है, लेकिन जितनी तरक्की होना चाहिए थी उतनी नहीं हो सकी है। इसकी एक वजह मुसलमानों का भावनात्मक मुद्दों में उलझना जैसे सांप्रदायिक हिंसा में इंसानियत को शर्मसार करने वाली हरकत, धार्मिक और ऐतिहासिक मामलों पर अपमानजनक अंदाज़ अख्तियार करना वगैरह वगैरह। आज जरूरत इस बात की है कि नई नस्ल को तरक्की करने, शिक्षा हासिल करने और उच्च व्यवसायिक शिक्षा प्राप्त करने के ज़्यादा से ज़्यादा अवसर उपलब्ध करायें जायें ताकि एक मज़बूत, सुसभ्य और खुशहाल समाज की स्थापनी की जा सके।
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