सुहैल अरशद, न्यू एज इस्लाम
19 अप्रैल, 2022
इस्लाम में तौहीद में ईमान रखने के साथ साथ सामाजिक जिम्मेदारियों की अदायगी को भी फर्ज़ किया गया है। मुसलमानों से खुदा यह नहीं कहता कि मेरी वहदानियत पर ईमान रखो और इसके बाद जो चाहे करो। बल्की तौहीद के साथ साथ इस्लाम ने हर मोमिन को यह भी जिम्मेदारी दी है कि वह अच्छाई की तरफ बुलाने और बुराई से रोकने का फरीज़ा शांतिपूर्ण तरीके से अदा करे। एक अच्छे समाज की तशकील के लिए संघर्ष करता रहे और एक नेक समाज वही है जिसमें बराबरी हो, न्याय हो, समाज के लोग रचनात्मक और इस्लाही फिकर रखते हों और रवादारी, रौशन ख्याली और वुसअते नज़री का सुबूत ज़िन्दगी के तमाम मामलों में पेश करते हों।
समाज में अमन व सुकून, बराबरी और इन्साफ तब ही कायम हो सकता है जब समाज के तमाम अफराद माली तौर पर आसूदा हों क्योंकि ज़िन्दगी की तमाम जरूरियात की तकमील के लिए माल अतिआवश्यक है। इसलिए मोमिनों को सदका, ज़कात और खैरात की भी तरगीब देता है।
कुरआन में कई जगहों पर मुस्लिमों को मोहताजों, कुराबत दारों और मुसाफिरों को उनका हक़ देने की तलकीन की गई है। सदका और खैरात कुरआन के मुताबिक़ मोहताजों, कुराबत दारों और जरूरतमंद पड़ोसियों का हक़ है जिसको अदा किये बिना मुसलमान अपने दीनी फ़राइज़ से दस्तबरदार होने का दावा नहीं कर सकता।
कुरआन में कई जगहों पर इन्फाक पर ज़ोर दिया गया है।
सुरह अल बकरा आयत नम्बर 219 में कहा गया है।
“और तुझसे पूछते हैं क्या खर्च करें कह दे जो बचे अपने खर्च से।“
इन्फाक के बिना मुसलमान नेकी में कमाल हासिल नहीं कर सकता। खुदा को यह पसंद नहीं कि बन्दा केवल उसकी इबादत में मसरूफ रहे और उसके मोहताज बन्दे फाका कशी करें और परेशान रहे। इसलिए खुदा सुरह अले इमरान आयत नंबर 92 में कहता है।
“हरगिज़ हासिल ने कर सको गे नेकी में कमाल जब तक खर्च न करो अपनी प्यारी चीज में से कुछ। और जो चीज खर्च करोगे वह अल्लाह को मालुम है।“
इन्फाक दीन ए इब्राहीमी में इतनी अहमियत का हामिल है कि जिस तरह पिछली कौमों पर नमाज़ फर्ज़ की गई उसी तरह ज़कात भी फर्ज़ की गई। खुदा हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से सुरह आराफ आयत नंबर 156 में फरमाता है:
“और तू ही इस दुनिया (फ़ानी) और आख़िरत में हमारे वास्ते भलाई के लिए लिख ले हम तेरी ही तरफ रूझू करते हैं ख़ुदा ने फरमाया जिसको मैं चाहता हूँ (मुस्तहक़ समझकर) अपना अज़ाब पहुँचा देता हूँ और मेरी रहमत हर चीज़ पर छाई हैं मै तो उसे बहुत जल्द ख़ास उन लोगों के लिए लिख दूँगा (जो बुरी बातों से) बचते रहेंगे और ज़कात दिया करेंगे और जो हमारी बातों पर ईमान रखा करेंगें”
रमजान में मुसलमानों पर रोज़ों के साथ इन्फाक को भी फर्ज़ किया गया रोज़ा दरों पर सदका फ़ित्र और साहबे निसाब मुसलमानों पर ज़कात फर्ज़ कर दिया गया ताकि मोमिन रोजा और ज़िक्र व नमाज़ के साथ साथ अपने सामाजिक कर्तव्यों से भी ओहदा बर आ हो। रमजान में रोज़ों के साथ साथ इंसानों की अखलाकी तरबियत के लिए भी उन्हें ख्वाहिशाते नफसानी पर काबू रखने और बेकार बातों से बचने की तलकीन की गई है। इसलिए अपने माल में से कुछ हिस्सा खर्च करने को भी हुकूकुल इबाद में शामिल कर दिया गया है। अपने माल में से मोहताजों और जरूरतमंद कुराबत दारों को कुछ हिस्सा देना नफस पर बार होता है इसलिए नफ्स की तरबियत के लिए भी इन्फाक को इस्लाम में लाज़मी किया गया है। पिछली कौमों ने इन्फाक को तर्क कर दिया था इसलिए वह खुदा के इताब के शिकार हुए। मालदार लोग मोहताजों और गरीबों की मदद करने के बजाए उनके माल को नाजायज़ तरीके से हड़प लेने को जायज़ समझने लगे। इस्लाम के पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफात के बाद तो मदीने और आस पास के कुछ कबीले इस्लाम से केवल इसलिए मुन्हरिफ हो गए थे कि उन्हें ज़कात अदा करना बहुत गिरां गुज़रता था। उन कबीलों के खिलाफ पहले खलीफा को जंग करनी पड़ी थी। इस जंग को इस्लामी इतिहास में जंगे रिदा कहा जाता है
रमजान में सदका फ़ित्र और ज़कात की अदायगी के पीछे हिकमत यह है कि समाज से आर्थिक असमता दूर करने और समानता के निजाम को मजबूत करने का एक सालाना निजाम कायम कर दिया जाए ताकि मुस्लिम समाज में आर्थिक असमता का मसला बाकी न रहे।
इसलिए मुसलमान रमजान के महीने में न केवल यह कि अपनी अख्लाकी तरबियत करता है और खुदा के हुकूक अदा करता है बल्कि अपने समाज को भी आर्थिक तौर पर स्थिरता लाने में अपना किरदार अदा करता है।
Urdu Article: The Importance of Charity in Ramadan رمضان میں انفاق کی اہمیت
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