मोहम्मद नवेद देवबंदी
९ नवंबर, २०१९
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद रहमतुल्लाह अलैहि (मुहियुद्दीन अहमद आज़ाद) का व्यक्तित्व अविस्मरणीय है, आज भारत के जो लहलहाते चमन हमारे सामने हैं उनको अंग्रेजों के चंगुल से आज़ाद कराने में जिन व्यक्तियों ने अपनी तमाम कोशिश भारत के आज़ाद कराने में लगाई उन में से एक नाम मौलना आज़ाद का है, मौलाना आज़ाद ११ नवंबर १८८८ को सऊदी अरब (हिजाज) में पैदा हुए और १० वर्ष तक अरब (हिजाज) में ही रहे, मौलाना रहमतुल्लाह अलैह के पिता भारतीय थे और माता अरबी थीं, फिर १० वर्षों बाद मौलाना अपने पिता के साथ भारत आ गए। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद भारत की आज़ादी और भारत के नव निर्माण के सालारों में से एक थे। यह एक खुबसूरत इत्तेफाक था कि भारत के दो महान मुजाहिद (मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, पंडित जवाहर लाल नेहरु) एक वर्ष के अंतर से पैदा हुए, पंडित जवाहर लाल नेहरु १८८९ में पैदा हुए और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद १८८८ में, और उन दोनों मुजाहिदों की पैदाइश से कुछ वर्ष पहले ही कांग्रेस की स्थापना क्रम में आई थी। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद रहमतुल्लाह अलैह ने कम उमरी ही से फिकरी आज़ादी और ख़याल साजी के शोले भड़काने शुरू कर दिए थे, मौलाना बीसवीं शताब्दी के अर्ध के बीच मुसलमानों के धार्मिक तफ़क्कुर का रौशन तरीन इज्तिहाद का मरकज़ रहे, ऐसे कि इस्लामी इतिहास के ऐवान ए दानिश को उनके लिए एक ख़ास बैठक कायम करनी पड़ी, जिन्होंने उसी समय में आज़ादी के आन्दोलन में नेतृत्व की अहम जगह को बे पनाह काबिलियत के साथ किया और भविष्य की धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक, आधुनिक और समावेशी भारतीय छवि और योजना के लिए अविस्मरणीय बौद्धिक और व्यावहारिक योगदान प्रस्तुत किया। मौलाना आज़ाद एक आलिम, पत्रकार, लेखक, कवि, विचारक, दार्शनिक और अपने समय के सभी महान धार्मिक आलिमों से ऊपर थे। मौलाना आज़ाद भारत के विभिन्न कौमों विशेषकर हिंदू-मुस्लिम एकता के समर्थक थे। मौलाना जीवन भर दो दुश्मनों से लड़ते रहे एक ब्रिटिश शासन और दुसरे भारत के उन लोगों से जो आपसी भाईचारे में इत्तेफाक नहीं रखते थे।
मौलाना आज़ाद रहमतुल्लाह अलैह के अन्दर एक खूबी यह थी कि मौलाना अपनी उम्र से अधिक बड़े काम आसानी से अंजाम देते थे, उन्होंने केवल बारह वर्ष की कम उमरी ही में एक लायब्रेरी, पढ़ने के लिए एक विशेष कमरा (रीडिंग रूम) और बहस के लिए एक सोसाइटी स्थापित की थी। बल्कि मौलाना ने १३ वर्ष से ले कर १८ साल की उम्र में कई रिसालों की नुमाइंदगी भी की और मौलाना पन्द्रह साल की उम्र में अपनी उम्र से दोगुनी उम्र के छात्रों को शिक्षा दिया करते थे। जब मौलाना १६ साल के हुए तब एक रिसाला अपनी इदारत में प्रकाशित करना शुरू किया, १९२३ में जब मौलाना को इन्डियन कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया तो पंडित जवाहर लाल नेहरु ने मौलाना के अध्यक्ष होने पर कहा था कि “मौलाना कांग्रेस के सबसे कम उम्र अध्यक्ष हैं।“ १९०१ में वह कमज़ोर सा नौजवान लेकिन बुलंद हौसला वाला सुलगते दिल लेकिन ठंडे दिमाग वाला, नफासत का आदी लेकिन फैसले का अटल, बला का ज़हन मगर नर्म मिज़ाज, महान भारतीय सिपाहियों की उस फ़ौज में शामिल होने का इरादा रखता था जो कौम की आज़ादी की राह की ओर चल रहा था। मौलाना आज़ाद अपने प्यारे वतन और इसके नागरिकों के लिए हर तरह की तकलीफ बर्दाश्त करने और कुरबानी पेश करने के लिए हर समय तैयार रहा करते थे। १९०४ में लाहौर के लोगों ने (जो मौलाना के लेखों से बहुत प्रभावित थे) मौलाना आज़ाद रहमतुल्लाह अलैह को एक बहुत बड़े जलसे में ख़िताब की दावत दी उनके स्वागत के लिए लाहौर स्टेशन पर हज़ारों लोगों की भीड़ थी, जब एक दुबला पतला, एक गोरा चिट्टा नौजवान जिसके अभी दाढ़ी भी नहीं आई थी ट्रेन से बाहर आया तो लोग हैरत ज़दा रह गए। लेकिन जब इसी १६ वर्षीय नौजवान ने ढाई घंटे की ज़बरदस्त तकरीर की तो ६३ वर्षीय जलसे के अध्यक्ष, शाएर, नक्काद और आलिम मौलाना हाली ने उन्हें गले लगाया और कहा “कि मुझे अपनी आँखों और कानों पर तो बहर हाल यकीन करना पड़ा लेकिन हैरत मुझे अब भी है।“ मौलाना आज़ाद यह अनुभव करते थे, कि १८५७ ई० की जंगे आज़ादी के बाद कुछ कारणवश मुसलमान अपने दुसरे भाइयों से पीछे रह गए थे, उनमें से बहुत से यह समझते थे कि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना बेकार है क्योंकि अब भारत पर हमेशा अंग्रेजों की हुकूमत होगी, मौलाना अपने लेखों के माध्यम से लोगों को ललकारते थे, कि आज़ादी हासिल करना ना केवल एक कौमी तकाजा है बल्कि धार्मिक फरीज़ा भी है। एक बार मौलाना आज़ाद ने एलान किया कि “मुसलमानों के लिए यह आसान है कि वह साँपों और बिच्छुओं के साथ अमन से रहें, पहाड़ों पर जा कर गारों में रहने लगें, जंगली जानवरों के साथ अमन से रहें लेकिन उनके लिए यह संभव नहीं कि वह अंग्रेजों से सुलह की भीक मांगें।“
अपने इस संदेश को लोगों तक पहुंचाने के लिए मौलाना ने १९१२ में अपना प्रसिद्ध साप्ताहिक अखबार “अल हिलाल” प्रकाशित किया, आज भी गौर करें तो आश्चर्य होगा कि “अल हिलाल” भारत और भारत के बाहर कितनी जल्दी कितना स्वीकार्य हो गया था। कुछ महीनों के अंदर “अल हिलाल” की २६ हज़ार कापियां छपने लगीं थीं, लोग जमा हो कर सबक की तरह अखबार के एक एक अक्षर को गौर से सुनते और पढ़ते थे, कम ही समय में अखबार ने लोगों के अन्दर जागरूकता की एक लहर पैदा कर दी, ना केवल मुसलमानों में बल्कि दुसरे लोगों में भी, क्योंकि इस ज़माने में उर्दू से बहुत लोग वाकिफियत रखते थे। इस आश्चर्यजनक स्थिति को देख कर अंग्रेज़ हुकूमत ने मौलाना से पहले ५ हज़ार की जमानत मांगी और ज़ब्त कर ली, फिर १० हज़ार की जमानत मांगी और जब्त कर ली, आखिर में मौलाना आज़ाद रहमतुल्लाह अलैह को सरकार के खिलाफ लिखने की वजह से जिला वतन कर दिया गया। मौलाना आज़ाद रहमतुल्लाह अलैह का शुरू से इस बात पर विश्वास था कि हिन्दू मुस्लिम एकता के बिना भारत के लोग एक संगठित और बड़ी कौम नहीं बन सकते हैं, मौलाना आज़ाद ने अपनी ज़िन्दगी को कौम की एकता के लिए वक्फ कर रखा था, मौलाना आज़ाद ने इंडियन नेशनल कांग्रेस के इजलास में अपने पहले अध्यक्षीय खुतबे में कहा था कि “आज अगर कोई फरिश्ता आसमान से उतर कर दिल्ली के क़ुतुब मिनार की बुलंदी से एलान करे कि भारत को २४ घंटे के अन्दर “स्वराज्य” को स्वीकार नहीं करूँगा, क्योंकि अगर स्वराज्य मिलने में देर हो तो केवल भारत का नुक्सान होगा, लेकिन अगर हिन्दू-मुस्लिम एकता ना हो सका तो पूरी दुनिया की इंसानियत का नुक्सान होगा”।
बहुत से लोग ऐसे भी थे जिन्होंने मौलाना का विरोध किया, और उनको तरह तरह के नाम दिए मौलाना रहमतुल्लाह अलैह का मज़ाक उड़ाया, लेकिन मौलाना आज़ाद रहमतुल्लाह अलैहि साबित कदम रहे और उनके साथ सुलह नहीं की। जब गांधी जी ने हिन्दू-मुस्लिम एकता कायम करने के लिए २१ दिन तक “आमरण अनशन ब्रत” रखा था, मौलाना इस सिलसिले में हर फिरके के पास जा कर आपस में सुलह की तलकीन करते, और गांधी जी से ब्रत खत्म करने की दरख्वास्त करते रहे। इसी तरह मौलाना आज़ाद रहमतुल्लाह अलैह भारत में एकता के लिए बहुत दौड़ धुप करते रहे, असल में अपने वतन और इसके नागरिकों से प्यार और अपने फर्ज़ का यह एहसास ही था कि जिसने एक पढ़ने लिखने वाले व्यक्ति को पुस्तकालय से निकाल कर लाखों लोगों के बीच ला कर खड़ा कर दिया। लेकिन भ्रामक भावुकता की आंधी ने इस सार्वभौमिक और प्राकृतिक सच्चाई पर धूल बिखेर दी। और देश विभाजित हो गया लेकिन इस सामयिक हार के बावजूद मौलाना का संयुक्त कौमियत की अवधारणा आज भी उतना ही हक़ पर आधारित है जितना उस समय था। १५ अगस्त १९४७ ई० को भारत आज़ाद हो गया, सभी बड़े बड़े नेताओं ने इसका दुखे दिल से स्वागत किया क्योंकि उनका संयुक्त भारत का ख्वाब ख्वाब ही रह गया था, भारत का बटवारा हो गया लेकिन मौलाना आज़ाद सुकून का सांस लिए बिना विकास में व्यस्त हो गए। अपनी खराब सेहत और कलम व किताब फिर से उठा लेने की अपनी ख्वाहिश के बावजूद मौलाना आज़ाद ने नई जिम्मेदारियों को स्वीकार किया। भारत के पहले शिक्षा मंत्री की हैसियत से वह एक ऐसी शिक्षा राएज करना चाहते थे जो भारतीयों में एक नया ज़हन पैदा करे, उन्होंने स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटियां कायम करने के अलावा भारत के सभ्यता को नई ज़िन्दगी देने के लिए साहित्य एकेडमी, संगीत नाटक एकेडमी, ललित कला एकेडमी और इन्डियन काउंसिल बराए सांस्कृतिक संबंध जैसे संस्था कायम किये। इसके अलावा मौलाना आखीर तक हिन्दू मुस्लिम एकता को बढ़ावा देते रहे। और २२ फरवरी १९५८ को हमारी कौम का एक उज्ज्वल दीप बुझ गया।
९ नवंबर, २०१४ बशुक्रिया: रोज़नामा सहाफत, दिल्ली
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