न्यू एज इस्लाम
विशेष संवाददाता
३० जनवरी २०२१
२६ जनवरी के ट्रैक्टर रैली के संबंध में
भारत की ‘गोदी मिडिया’ के माध्यम से फैलाई जाने वाली गलत जानकारी, साम्प्रदायिक प्रोपेगेंडा और लाल किले पर निशान साहब के कयाम
से ऐसा लगता है कि यह पाकिस्तानी पत्रकारों से प्रभावित हो चुके हैं।
३० जनवरी, २०२१ को पाकिस्तान के तीन लेखकों ने उर्दू रोज़नामा ‘नवाए वक्त’
में किसानों
के विरोध प्रदर्शन और गणतन्त्र दिवस के ट्रैक्टर परेड पर कॉलम लिखे लेकिन गुमराह कुन
दावे किये और लाल किले की घटना और आन्दोलन के संबंध में पाकिस्तानी पाठकों को गलत जानकारी
दिए। हमेशा की तरह उनकी लेखनी भारत के विरोध में थी। उन्होंने भारत के ‘गोदी मीडिया’
और सोशल
मीडिया के माध्यम से फैलाए गए प्रोपेगेंडे और गलत जानकारी पर भरोसा कर लिया जिस पर
तो भारतीय भी भरोसा नहीं करते हैं।
एक वरिष्ठ स्तंभकार
असर चौहान ने लिखा था:
पिछले कुछ महीनों से किसानों के आन्दोलन
के नाम पर सिखों का एक आन्दोलन चल रहा है। लेकिन २६ जनवरी को भारत के गणतन्त्र दिवस
के मौके पर, सिख किसानों (बल्कि वास्तव में) आज़ाद
खालिस्तान के झंडा वाहकों ने लाल किले से भारतीय झंडा उतारा और खालिस्तानी झंडा लहराया।
यह उनके लिए एक बहुत बड़ी विजय है। “मिस्टर चौहान की
लेखनी का शीर्षक” था “सिखों का खालिस्तान:पाकिस्तान के लिए भी एक खतरा।“
लगता है कि असर चौहान साहब को भारत की
गोदी मीडिया ने गुमराह कर दिया है जिसने यह गलत जानकारी फैलाई कि तिरंगे को खालिस्तानियों
ने हटाया था और उसकी जगह खालिस्तान का झंडा लहराया गया था।
उन्होंने इस खबर की पुष्टि करने की ज़ह्मत
गवारा नहीं की क्योंकि वह केवल सच्चाई की तलाश में थे जिसकी उन्हें आवश्यकता थी। और
हकीकत तो यह है कि कुछ सिखों ने तिरंगे के नीचे निशाँ साहब लगाया था ना कि खालिस्तानी
झंडा लहराया था। भारतीय झंडा नहीं हटाया गया था। वह यह भी लिखते हैं कि किसानों का
आन्दोलन असल में सिखों का आन्दोलन है। इससे अधिक हकीकत से दूर और कोई बात नहीं हो सकती।
हालांकि यह तहरीक पंजाब से शुरू की गई थी,
लेकिन
धीरे धीरे दुसरे राज्यों के किसानों और दुसरे समाज के लोग भी इस आन्दोलन में शामिल
हुए। मिस्टर चौहान इस हकीकत से अनजान है कि बिहार,
यूपी, राजस्थान, उतराखंड और महाराष्ट्र
से हिन्दू और मुस्लिम किसान और पश्चिमी बंगाल से कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियन भी किसानों
के आन्दोलन में शामिल हुए हैं। वह खालिस्तानियों को पाकिस्तान के लिए भी एक खतरा करार
देते हैं लेकिन वह इस हकीकत को भूल जाते हैं कि यही वह पाकिस्तान था जिसने ८० के दशक
में खालिस्तान तहरीक को भडकाया और उसकी सहायता की।
एक और माहिर स्तंभकार वजीहुद्दीन खान
लिखते हैं कि “किसान नेताओं ने एलान किया था कि २६ जनवरी
को वह अपने ट्रैक्टरों के साथ लाल किले की तरफ मार्च करेंगे और उन्होंने ऐसा ही किया।“ हकीकत यह है कि किसानों ने कभी लाल किले
जाने का इरादा नहीं किया था। उन्होंने रिंग रोड के रास्ते ट्रैक्टर रैली निकालने की
योजना बनाई। भीड़ के केवल कुछ ही लोग तय किये गए रस्ते से हटे थे।
एक और शिक्षित
खातून स्तंभकार मुसर्रत कय्यूम लिखती हैं:
“लाल किले पर खालिस्तानी झंडा लहरा कर
सिखों ने स्पष्ट कर दिया कि मोदी सरकार जा रही है और सिख आ रहे हैं।“
वह यह भी लिखती हैं कि पिछले कुछ वर्षों
से सिख सैनिक भारतीय आर्मी को अलविदा कह रहे हैं और खालिस्तान तहरीक में शामिल हो रहे
हैं और उनकी संख्या दिन बदिन बढ़ती जा रही है। वह यह भी लिखती हैं कि ११००० से १३०००
सिख फौजी पहले ही खालिस्तान तहरीक में शामिल हो चुके हैं। उन्होंने जानकारी का हवाला
नहीं दिया, इसलिए उनके दावे की पुष्टि नहीं हो सकती।
इसके विपरीत, रिटायर भारतीय सनिकों की एसोसिएशन भी
किसानो के आन्दोलन का समर्थन करने के लिए आगे आई है और यह कोई राज़ नहीं है।
यह बेखबर पत्रकार और पाकिस्तान के स्तंभकार
पाकिस्तानी पाठकों को गुमराह कर रहे हैं। पाकिस्तान के उर्दू अखबारों को इस तरह की
लेखों को प्रकाशित नहीं करना चाहिए क्योंकि उनकी अपनी साख इस तरह के कट्टरपंथ और झूटे
प्रोपेगेंडे वाले मवाद की वजह से खराब होती है।
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