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Hindi Section ( 26 Feb 2013, NewAgeIslam.Com)

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Imran Khan's Peace March इमरान खान का शांति मार्च


हुसैन अमीर फ़रहाद

फरवरी, 2013

(उर्दू से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)

इमरान खान ने बड़ी हिम्मत से काम लिया मगर अपने लक्ष्य तक पहुंच न सके, उसे वापस आना पड़ा, कारण ये बताया गया कि आगे बढ़ना खतरे से खाली नहीं था। और वज़ीरिस्तान के तालिबान ने ये सूचना भी दी थी कि बेशक इमरान खान का मकसद नेक है, लेकिन इमरान खान सेकुलर हैं और वो भी सत्तारूढ़ हो कर सेकुलर सिस्टम स्थापित करेंगे जो हमें मंज़ूर नहीं। इसलिए हम विरोध करेंगे। लगभग यही बात तो सूफी मोहम्मद साहब ने भी स्पष्ट तौर पर कही थी, सरकार ने उसके सामने घुटने टेक दिए थे और उसके कहने पर देर और आसपास के इलाक़ों में शरीयत कोर्ट को लागू कर दिया था। अब एक तरफ अमेरिका है दूसरी तरफ तालिबान, उनके बीच में हैं पाकिस्तानी जनता और आग, धुआं, खून, लाशें और तबाह हुई आबादी का मलबा है।

पहला पक्ष यानी तालिबान की मंशा का पता पाठकों आपको हो गया कि वो सेकुलरिज़्म के खात्मे और शरीयत लागू करने से कम पर रज़ामंद नहीं हैं। इसे लागू करने के लिए वो दूर दूर से सुबूत और दलीलें लाते हैं। यहां तक ​​कि मलाला युसुफ़ज़ई के बारे मैं मूसा अलैहिस्सलाम और ख्वाजा ख़िज़्र की मिसाल पेश कर रहे हैं। मलाला को मारने वाले जिस घटना का सहारा ले रहे हैं वो दर्ज है।

फिर वो दोनों चले, यहाँ तक कि उनको एक लड़का मिला, और उस व्यक्ति ने उसे क़त्ल कर दिया। मूसा अलैहिस्सलाम ने कहा आपने एक बेगुनाह की जान ले ली, हालांकि उसने किसी का खून नहीं किया था। ये काम तो आपने बहुत ही बुरा किया है (18- 74)

कुरान ने उस लड़के के लिए तुग़ियाना व कुफ्रा के शब्द बयान किये हैं। वो सरकश और बाग़ी था ज़ाहिर है ये गुण बच्चे के नहीं हो सकते। मालूम होता है कि वो फ़रार मुजरिम होने के अलावा ऐसे अपराधों को करने वाला था जिनकी बिना पर सरकार उसको क़त्ल करना चाहती थी, उन बुज़ुर्ग ने उसे क़त्ल कर दिया। क़ुरान से ये भी अंदाज़ा होता है कि ये बुज़ुर्ग सरकार के अधिकारी भी थे और अपराधियों को पकड़ना और उन्हें सज़ा देना उनके ओहदे में था इसलिए उन्होंनें कहा था वमा फअलना अन अमरी (18- 82), मोफस्सरीन (व्याख्या करने वाले) इस आयत का अनुवाद, ये मैंने अख्तियार से नहीं किया,' करते हैं। लेकिन शब्द अमर के साथ जब अन की PREPOSITION आ जाती है तो उसके अर्थ होते हैं कि, जो काम किया है वो अपने अख्तियारात के अंदर किया है। इस आयत ने ये बात बखूबी स्पष्ट कर दी कि उन बुज़ुर्ग ने जो कुछ किया वो अपने अख्तियार में किया और उस पर किसी किस्म की कोई नुक्ता चीनी नहीं हो सकती। (अज़हर अब्बास ख्वाजा)

वअम्मल ग़ुलामो फकाना अबवाहो मोमेनीना फखाशेना एंय यरहेक़ोहोमा तुग़ियाना व कुफ़्रा(18- 80) अलग़ुलामो लफ़्ज़ कुरान ने बयान किये हैं। वो जवान था, शब्दकोश में गुलाम का अनुवाद YOUTH है। तुग़ियाना व कुफ़्रा था, सरकश और बाग़ी था, यरहेक़ोहोमा का अनुवाद है, नाशुक्रा, नाफरमान। ये उसके लिए सज़ा थी जो उसे मिली, बच्चा बाग़ी और नाफरमान कैसे हो सकता है? चलिए ख़िज़्र ही सही हालांकि इस नाम के किसी बुज़ुर्ग का ज़िक्र क़ुरान में नहीं है। ख़िज़्र को तो पता था उसकी बग़ावत और नाशुक्रेपन का और हुक्म मिला था उसे हत्या का, वमा फअलना अन अमरी यानी उन्होंने अपनी मर्ज़ी से हत्या नहीं किया। लेकिन मलाला के बारे में उनके हत्यारों को उसे मारने का हुक्म कहाँ से मिला और उन्हें कैसे पता चला कि वो भी सरकश और बाग़ी है, नाशुक्री और नाफरमान है?

हमारा विषय था अमेरिका का पूरी दुनिया में धर्मनिरपेक्ष प्रणाली की स्थापना और तालिबान की कोशिश इस व्यवस्था का खात्मा करना। और पाकिस्तानी जनता का आग, धुएं, खून, लाशें और बर्बादी के दृश्यों से निजात पाना है। पाकिस्तानी जनता इस वक्त परेशानी का शिकार हैं,  ग्रामीण और गरीब पाकिस्तानी कानून या न्यायपालिका के आगे नहीं ठहर सकते। वित्तीय रूप से आदमी बर्बाद हो जाता है एक मकान का क़ब्ज़ा छुड़ाने के लिए दूसरा मकान बेचना पड़ता है। और नाम रखा है, सस्ता इंसाफ। देखिए खुद लेखक लोग अपने कानून के बारे में क्या कहते हैं?

एक नज़र डालें दो मुख्य न्यायाधीशों की स्वीकारोक्ति पर जो सेवानिवृत्ति के बाद की गयी।

इस्लामाबाद में 29 जून 2005 को मुख्य न्यायाधीश नाज़िम हुसैन सिद्दीकी साहब के सम्मान में दी गई अलविदाई पार्टी में महोदय ने कहा, कि इंसाफ उपलब्ध कराना अकेले जजों का काम नहीं। इंसाफ उपलब्ध कराना एक सपना बन चुका है, 'हमारा फ़र्ज़ है कि जनता को सस्ता इंसाफ उपलब्ध कराएं ....... देखा आपने! इंसाफ की उपलब्धता एक (ख्वाब बन गया है और सस्ता इंसाफ) चीफ जस्टिस मोहम्मद अफ़ज़ल ज़िल्लहू साहब ने कहा था, वर्तमान न्यायिक प्रणाली में इंसाफ मिलना कठिन है। यहाँ जो वकील मौजूद न्यायिक प्रणाली में मामले को बेहतर ढंग से पेश करता है, फैसला उसके पक्ष में होता है, बग़ैर ये पता चलाए कि सच क्या है और झूठ क्या है।

                                            (ब-हवाला रेडियाई तब्सरा, हफ्ता 3 अक्तूबर 1992 ई. टिप्पणी लेखक मतीन फ़िकरी)

पाठकों देखा आपने, यानी मुल्ज़िम को सज़ा मिलना या बरी हो जाना, ये निर्भर है वकील की क़ाबिलियत पर न कि सच्चाई और वास्तविकता पर, इससे बड़ा अत्याचार और क्या होगा कि अभियुक्त की बागडोर एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में हो, जो बहुत पढ़ा लिखा होता है और उसने आरोपी को सज़ा से बचाने के लिए (मुद्दई से) रक़म तय की होती है। तालिबान अगर शरीयत चाहते हैं तो अल्लाह का हुक्म अल्लाह की ताकीद है कि इस्लामी ज़िंदगी सिर्फ इस्लामी व्यवस्था के अधीन ही सम्भव है, हिजरत के फर्ज़ होने के लिए व्यवहारिक रूप से तात्पर्य ये है कि गैर इस्लामी व्यवस्था में रहने से गंभीर रूप से मना किया गया है, अल्लाह का फरमान है- इन्नल लज़ीना तोवफ़्फ़ाहुमुल मलाईकतो ज़ालिमी अनेफोसेहिम क़ालू फ़ीमा कुन्तुम क़ालू कुन्ना मुस्तदएफीना फिल अर्दे क़ालू अलम तकुन अर्दुल्लाहे वासेअतः फतोहाजेरूना फीहा फऊलाएका मा- वाहुम जहन्नमो वसाअत मसीरा (4- 97) बेशक जिन लोगों की रूह को क़ब्ज़ फरिश्तों ने उस वक्त की कि (वो गैर इस्लामी व्यवस्था में पड़े थे) और अपनी जानों पर ज़ुल्म कर रहे थे तो फ़रिश्ते रूह क़ब्ज़ करने के बाद हैरत से कहते हैं कि तुम किस हालते गफलत में थे। या तुम किस हाल में मुब्तेला थे। उन्होंने जवाब दिया हम ज़मीन में कमज़ोर और मजबूर थे। तो फ़रिश्ते कहते हैं कि अल्लाह की ज़मीन व्यापक नहीं थू कि तुम इसमें हिजरत (प्रवास) कर जाते? ये वो लोग हैं जिनका ठिकाना जहन्नम है और वो बहुत ही बुरा ठिकाना है। ये भी तो मुमकिन है कि तालिबान इस बुरे ठिकाने से डर कर सेकुलर के बजाय दीनी और शुरई व्यवस्था के लिए कोशिश कर रहे हों?

अंग्रेजी कानून में कोर्ट रीज़ल्ट का इंतजार धूप में मकई भूनने का इंतेज़ार है। माना कि वो कानूनी अपेक्षाएं पूरी करते हैं, उनकी राह में रुकावटें हैं मगर इतनी देर करना, इसांफ चाहने वाले के साथ ज़्यादती है। हमारे यहाँ सस्ते इंसाफ को ढिंढोरा पीटा जाता है। सस्ता और महंगा यानी इंसाफ बिकाऊ चीज़ तो है। लेकिन महंगा नहीं है सस्ता है। जबकि इस्लाम की तो ये विशेषता है कि इंसाफ तुरंत होगा और मुफ्त होगा। इन्हीं मुसीबतों को देखते और झेलते हुए 'देर' के लोग उठे और सरकार को झुकाया और शरीयत कोर्ट की स्थापना अमल में आयी। अब वज़ीरिस्तान वालों की मांग है कि शरीयत लागू हो और सेकुलर व्यवस्था का अंत हो। शरीयत तो हर मुसलमान का मकसद होना चाहिए। लेकिन ये भी सच है कि तालिबान की शरीयत हमें हज़म नहीं होती क्योंकि जिस शरीयत को वो लागू करना चाहते हैं जैसे हमारे पैरों में वो जूता पहनाना चाहते हैं जो हम छह साल की उम्र में पहनते थे। इस जूते में हम चलते फिरने में असमर्थ और हम उन्हें लंबी हील वाली सैंडल पहनाना चाहते हैं जिसे पहन कर तालिबान हमारा साथ नहीं दे सकते। और हम उनकी शरीयत के नज़ारे भी देख चुके हैं। ज़रूरत इस बात की है कि हमारी अशांत व्यवस्था जो बिखरी हुई है वो एक हो, देश में शांति हो, खून खराबा खत्म हो। आख़िर हम इंसान हैं, गोश्त खाते हैं तो हड्डियों के साथ नहीं खाते, न ही हम मछली रीढ़ की हड्डी और कांटों के साथ खाते हैं। मूंगफली छिलके के साथ नहीं खाते। उपयोगी वस्तु खा लेते हैं और जो हमारी सेहत के लिए नुकसानदेह हो उसे फेंक देते हैं। हमें अरबों की तरह, मलेशियाई लोगों की तरह विभिन्न कानूनों का जायज़ा लेना चाहिए जहां हमें अच्छाई दिखे उसे ले लेना चाहिए। हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम का फरमान है कि, अच्छी बात मुसलमानों की खोई हुई ऊँटनी है जहां नज़र आए मुहार पकड़ कर घर ले आए। निस्संदेह इस्लाम में पेवंदकारी जायज़ नहीं है। लेकिन अच्छी बात प्रत्यारोपण नहीं है, यो तो मुसलमानों की विरासत है। इससे इस्लाम को आघात नहीं पहुँचता। 10 नवंबर 2012 को BBC ने बताया कि भारत ने कानून बनाया, सरे राह औरतों से छेड़छाड़ करने वालों के लिए पासपोर्ट और ड्राइविंग लाइसेंस जारी करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, अंग्रेज़ों ने भारत से ये नहीं पूछा कि ये तुमने क्या किया, किससे पूछकर किया, अगर हम भी अपने क़ानूनों में हालात को देखते हुए थोड़ा बहुत बदलाव कर लिया करें तो उम्मीद है हमें भी कोई कुछ नहीं कहेगा। जैसे सुप्रीम कोर्ट के हुक्म पर सीएनजी की कीमत का कम होना, इसके विरोध में पंपों की लंबी हड़ताल। इसका बेहतरीन इलाज ये था कि पंपों को नीलाम करने का ऐलान कर दिया जाता।

यहाँ हमें अरबों को देखना होगा, उनके यहाँ दो तरह की अदालतें हैं। एक क़ाज़ी कोर्ट दूसरी वकीलों वाली, जिसका जी चाहे जिस अदालत में जाए। इतना ज़रूर है कि क़ाज़ी क़ैद और मौत की सज़ा दे सकता है वह सभी आधुनिक आवश्यकताओं से लैस होता है। इंवेस्टीगेशन सेक्शन होता है जो घटना स्थल पर जाकर आधुनिक यंत्रो से जाँच करते हैं। जैसे पाउडर छिड़क कर फिंगर प्रिंट उठाना, फोटोग्राफ के ज़रिए उसे इंलार्ज  करके अदालत में पेश करना आदि।

लेकिन अमेरिका चाहता है कि, (मैं चमन में चाहे जहां रहूँ मेरा हक़ है फसले बहार पर) पूरी दुनिया में हमारी व्यवस्था हो। हम जहाँ जाएं हमें अलग होने और अजनबी होने का एहसास न हो। जैसे कान्टीनेंटल होटल में ठहरना और खाना एक सा होता है, चाहे अमेरिका में हो या पाकिस्तान में।

प्राचीन मिस्र वालों का विश्वास था कि आत्मा एक मुद्दत तक घूमती रहती है, अगर उसके लिए शरीर सुरक्षित रखा हो तो वो दोबारा शरीर में घुस जाती है। यही वजह है कि फ़्राना की शहज़ादियों के साथ उनकी चहेती बांदियाँ, बिल्लियाँ और तोता आदि की लाशों को भी हनूत कर देते थे ताकि जब राजकुमारी जागें तो वो अकेलापन महसूस न करें। उसे वही माहौल मिले जो वो छोड़ कर गई थीं। अमेरिकी भी किरदार और आदतों में फ़्राना से कम नहीं, वो चमन में चाहे जहां फिरें उन्हें वही माहौल मिले जिसके वो आदी हों जो उनके देश में है। यही कारण है कि वकीलों और न्यायाधीशों के शेल्फ में वही किताबें मिलेंगी जो यूके, अमेरिका, भारत और ऑस्ट्रेलिया में जज और वकील के पास होती हैं। उनका क़ानून भी प्रगति की मंज़िलों को तय करता हुआ यहाँ तक पहुँचा है। हमें उनसे वो चीज़ें ले लेनी चाहिए जो कुरान के खिलाफ न हों। ये अरबों ने भी किया है और मलेशिया आदि में भी हुआ है। ज़िंदा क़ौमें ऐसा करती हैं।

रब का इरशाद है- वअम्मा मा यन्फउन्नासा फयुमकोसो फिल अर्दे (13- 17) ज़मीन पर बक़ा (अस्तित्व) उस अमल को हासिल है जो यन्फउन्नासा हो। जिसमें अल्लाह की मख़लूक़ के लिए फायदा हो। तो फायदा जिस अमल में हुआ उसे अपना लेना चाहिए। हाँ अगर उनका कोई कानून क़ुरान के खिलाफ हो तो छोड़ देना चाहिए। यानी गोश्त खाइए और हड्डी फेंक दीजिए। जैसे ब्रिटेन, कनाडा और हाल ही में दक्षिण अफ्रीका में समलैंगिकता (HOMOSEXUALITY) को कानूनी संरक्षण हासिल है। ज़रूरी तो नहीं कि हम भी इसका पालन करें और अपने यहाँ भी समलैंगिकता को जायज़ करार दें।

यूँ लगता है कि हमने अभी तक अंग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद नहीं हुए हैं या हम आज़ादी के वक्त अंग्रेजों से कोई समझौता किया है कि अगर हमने कभी भी आपके दिए हुए क़ानूनों में उलटफेर की कोशिश की तो बेशक आप आकर हमें फिर से गुलाम बना लें। वो बेशक परिवर्तन करते हैं। जुलाई 2007 के प्रारंभ में ब्रिटेन के पार्लियमेंट में बहस छिड़ी थी कि इस्लामी शरीयत के कुछ क़ानूनों को अपना लेने में कुछ हर्ज नहीं है। माना कि अंग्रेजों ने सैकड़ों साल मेहनत और लगन से अपने लिए क़ानूनों को तैयार किया है लेकिन ज़रूरी नहीं कि वो हमारे लिए सब के सब फायदेमंद और उपयोगी हों। हमें जीवन के मार्ग पर चलने के लिए खुद रास्ते तराशने होंगें। हमारे संविधान में है कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल और मुख्यमंत्री न्यायिक कठघरे में खड़े होने और जवाबदेही से आज़ाद हैं, आख़िर क्यों? कहा ये जाता है कि गुनाह और जुर्म कोई भी कर सकता है, किसी को भी जवाबदेही या सज़ा से मुक्ति की छूट नहीं होना चाहिए।

क़ुरान के मुताबिक सत्ताधारियों के लिए दोगुनी और गंभीर सज़ा का हुक्म है। फरमाया रब ने- या नेसाअन्नबीये मंइयाते मिन्कुन्ना बेफाहेशतिन मोबैय्येनतिन योदाअफ लहल अज़ाबो देफैने (33- 30) राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मंत्री और उनके प्रियजनों के लिए तो दोगुनी सज़ा होनी चाहिए। ज़रूरी बात ये है कि हम अपने लिए कानून बनाये जिसकी धुरी क़ुरान हो। अगर हम अपने देश में अपने खालिक़ (निर्माता) का दिया हुआ कानून भी लागू न कर सकें तो अंग्रेज़ों से आज़ादी क्यों हासिल की थी। अगर हम सेकुलर जीवन व्यवस्था में ज़िंदगी गुज़ारनी थी तो नौशाबा सिद्दीकी साहेबा के मुताबिक़ हमने इतनी क़ुर्बानियाँ क्यों दीं, खून क्यों बहाया गया, हमने हिजरत (प्रवास) क्यों की, भारत भी सेकुलर और हम भी सेकुलर विभाजन की क्या ज़रूरत थी? हम तो दीन स्थापित करना चाहते थे क्योंकि इस्लाम का खूबसूरत पेड़ दुनिया की दूसरी व्यवस्थाओं की छाया में हरा भरा रह ही नहीं सकता। हर क़ौम को हक़ है कि वो अपनी उमंगों के अनुसार व्यवस्था स्थापित करें और जीवन बिताएं। ये नमाज़ रोज़ा और सज्दे तो हम हिंद में भी कर सकते थे। अच्छे और सुरक्षित तरीके से कर सकते थे। यही बात तो हमदर्द वाले हकीम मोहम्मद सईद देहलवी जो नमाज़े फजिर की नमाज़ के लिए घर से निकले और मार डाले गए उनके भाई ने कही थी कि मैं तुम से बड़ा हूँ, दयारे कुफ़्र में रह रहा हूँ और ज़िंदा हूँ तुम दारुल इस्लाम, इस्लाम के किले में रहते हुए मार डाले गए। ये नमाज़ रोज़ा और सज्दे तो हम हिंद में भी कर सकते थे, जब मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने कहा था कौमें औतान से बनती हैं मजहब से नहीं, हमें नेहरू ने पूरी धार्मिक आज़ादी दी है। तो अल्लामा इकबाल ने मृत्यु शैय्या से जवाब दिया था

अजम हनूज़ नदाद रमूज़ दीं वरना

ज़ो देवबंद हुसैन अहमद ईं च बू अल-अजमी अस्त

सरूदे बर सरे मिम्बर कि मिल्लत अज़ वतन अस्त

च बेखबर ज़े मक़ामे मोहम्मद अरबी अस्त

आज़ादी की प्राप्ति, क़ुर्बानियाँ, पलायन और प्रवास हमने इसलिए नहीं की थी कि हमें हिंदुस्तान में सज्दे की जगह नहीं मिल रही है। अल्लामा ने फरमाया था कि,

मुल्ला को जो है हिंद में सज्दे की इजाज़त

नादां ये समझता है कि इस्लाम है आज़ाद

सज्दे की तो इजाज़त थी लेकिन हम दीन की स्थापना करना चाहते थे जिसमें अपना अख्तियार हो अपनी न्यायिक व्यवस्था हो क्योंकि अल्लाह का फरमान है-  लम यहकुम बेमा अनज़लल्लाहे फउलाएका हुमुल काफेरून, और जो कोई नाफिज़ न करे उसके मुताबिक़ जो अल्लाह ने उतारा है, सो वो लोग काफ़िर हैं, ज़ालिम हैं, फ़ासिक हैं (5- 45- 47- 48) हुज़ूर को भी हुक्म हुआ कि फहकुम बैनहुम बेमा अंज़लल्लाह जो अल्लाह ने उतारा है उसके मुताबिक फैसला करो। इन आयतों से ये बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई कि कानून का स्रोत सिर्फ माअनज़लल्लाह है।

स्रोतः फरवरी, 2013 माहनामा सौतुल हक़, कराची

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