मोहम्मद नजीब कासमी संभली, न्यू एज इस्लाम
5 अगस्त 2021
शरियत-ए-इस्लामिया ने हर शख़्स़ (व्यक्ति) को मुकल्लफ़ (ज़िम्मेदार) बनाया है कि वह अल्लाह तआला के ह़ुक़ूक़ (अधिकारों) के साथ ह़ुक़ूक़ुल इबाद यानी इंसानों के ह़ुक़ूक़ (अधिकारों) की पूरे तौर पर अदाएगी करे, दूसरों के ह़ुक़ूक़ की अदाएगी के लिए क़ुरानवह़दीस़ में बहुत ज़्यादा अहमियत (महत्व), ताकीद (ज़ोर) और विशेष शिक्षाएँ आई हैं तथा नबी-ए-अकरम स़ल्लल्लाहु अ़लैहिवसल्लम, स़ह़ाबा-ए-किराम(रज़ियल्लाहुअन्हुम), ताबईनऔरतबअ़-ए-ताबईन ने अपने क़ौलवअ़मल (कार्य) से लोगों के ह़ुक़ूक़ अदा करने की बेशुमार (अनगिनत) मिस़ाल (उदाहरण) पैश किये हैं, वह रहती दुनिया तक पूरी इंसानियत के लिए मार्गदर्शन हैं, मगर आज हम दूसरों के ह़ुक़ूक़ तो अदा नहीं करते, अलबत्ता (फिर भी) अपने ह़ुक़ूक़का झंडा उठाए रहते हैं, दूसरों के ह़ुक़ूक़ की अदाएगी की कोई फ़िक्र नहीं करते, अपने ह़ुक़ूक़को प्राप्त (हासिल) करने के लिए मांग करते रहते हैं, इसीलिए ह़ुक़ूक़ के नाम से यूनियन संगठन बनाए जा रहे हैं, लेकिन दुनिया में ऐसी यूनियन या तहरीकें (आंदोलन) या कोशिशें मौजूद नहीं हैं जिनमें यह शिक्षा दी जाए कि दूसरों के ह़ुक़ूक़ हमारे ज़िम्मे हैं वह हम कैसे अदा करें? शरियत-ए-इस्लामिया की असल मांग यही है कि हम में से हर एक अपनी ज़िम्मेदारीयों यानी दूसरों केह़ुक़ूक़ अदा करने की ज़्यादा कोशिश करें।
आम लोगों के ह़ुक़ूक़ (अधिकार): अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाने वाले शख़्स़ (व्यक्ति) पर ज़रूरी है कि वह सभी लोगों के ह़ुक़ूक़की अदाएगी करे, किसी के माल या जायदाद (संपत्ति) पर अवैध क़ब्ज़ा न करे, किसी को धोका न दे, खाने की चीज़ों में मिलावट न करे, शरियत-ए-इस्लामिया में किसी को नाह़क़ (अवैध) क़त्ल करना तो दरकिनार (अलग) किसी शख़्स़ (व्यक्ति)सेमारपीटकरना या गाली देना या बुरा भला कहना भीजायज़नहीं (अवैध)है, रास्ते (मार्ग) का ह़क़ (अधिकार) अदा किया जाए, ग़रीबों, असहायों, यतीमों और कमज़ोरों का ध्यान रखा जाए, आम लोगों के साथ साथ माँ बाप, पति पत्नी, औलाद, रिश्तेदारों और पड़ोसियों के ह़ुक़ूक़अदा किए जाएँ, ह़ुज़ूर-ए-अकरमस़ल्लल्लाहु अ़लैहिवसल्लमने दूसरों के ह़ुक़ूक़ (अधिकारों)मेंकोताही (कमी) करनेपरआख़िरतमेंसख़्त (कठोर) अज़ाब की ख़बर इस त़रह़ दी: क्या तुम जानते हो कि मुफ़लिस (ग़रीब) कोन है? स़ह़ाबा ने अर्ज़ किया: हमारे नज़दीक (यहाँ) मुफ़लिस (ग़रीब) वह शख़्स़ (व्यक्ति) है जिसके पास कोई पैसा और दुनिया का सामान न हो। आप स़ल्लल्लाहु अ़लैहिवसल्लमने इरशाद फ़रमाया: मेरी उम्मत का मुफ़लिस (ग़रीब) वह शख़्स़ (व्यक्ति) है जो क़यामत के दिन बहुत सी नमाज़, रोज़ा, ज़कात (और दूसरी मक़बूल इबादतें) लेकर आएगा, मगर ह़ाल यह होगा कि उसने किसी को गाली दी होगी, किसी पर इल्ज़ाम (दोष) लगाया होगा, किसी का माल खाया होगा, किसी का ख़ून बहाया होगा या किसी को मारा पीटा होगा तो इसकी नेकियों में से` एक ह़क़ (अधिकार) वाले को (उसके ह़क़ (अधिकार) के बराबर) नेकियाँ दी जाएँगी, ऐसे ही दूसरे ह़क़ (अधिकार) वाले को उसकी नेकियों में से (उसके ह़क़ (अधिकार) के बराबर) नेकियाँ दी जाएँगी, फिर अगर दूसरों के ह़ुक़ूक़ (अधिकार) चुकाए जाने से पहले इसकी सभी नेकियां ख़त्म हो जाएँगी तो (उनके ह़ुक़ूक़ (अधिकार) के बराबर) ह़क़दारों (अधिकार वालों) और मज़लूमों (पीड़ितों) के गुनाह (जो उन्होंने दुनिया में किए होंगे) इन से लेकर उस शख़्स़ (व्यक्ति) पर डाल दिए जाएँगे और फिर उस शख़्स़ (व्यक्ति) को जहन्नम (नरक) में फेंक दिया जाएगा।(मुस्लिम: बाबु तह़रीमिज्ज़ुल्मि)
वालिदैन (माता पिता) के ह़ुक़ूक़ (अधिकार):क़ुरानवह़दीस़ में माँ बाप के साथ अच्छा बर्ताव करने की विशेष (ख़ास) ताकीद (ज़ोर) की गई है, अल्लाह तआला ने कई जगहों पर अपनी इबादत का ह़ुक्म (आदेश) देने के साथ साथ माँ बाप से अच्छा बर्ताव करने का ह़ुक्म (आदेश) दीया है, जिस से माँ बाप की आज्ञापालन (कर्तव्य पालन), उनकी ख़िदमत (सेवा) और उनके अदब (आदर) व ऐह़तराम (सम्मान) की अहमियत (महत्व) स्पष्ट हो जाती है, अह़ादीस़ में भी माँ बाप की आज्ञापालन की विशेष (ख़ास) अहमियत (महत्व) व ताकीद (ज़ोर) और उसकी फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) बयान की गई है, माँ बाप की नाफ़रमानी (अवज्ञकारिता) तो दूर, नाराज़गी व नापसंदीदगी व्यक्त करने और झिड़कने से भी रोका गया है और अदब (इज़्ज़त) के साथ नरम बातचीत का ह़ुक्म (आदेश) दिया गया है, पूरी ज़िन्दगी माँ बाप के लिए दुआ करने का ह़ुक्म (आदेश उनकी अहमियत (महत्व) को बहुत ऊँचा करता है, क़ुरानवह़दीस़ की रोशनी में उलमा-ए-किराम ने वालिदैन (माता पिता) के ह़ुक़ूक़ कुछ इस त़रह़ लिखे हैं, ज़िंदगी के ह़ुक़ूक़: उनके लिए अल्लाह तआला से माफ़ी और रहमत की दुआएँ करना, उनकी अमानत व क़र्ज़ अदा करना, उनकी जाइज़ (वैध) वसीयत का पालन करना, उनकी तरफ़ से ऐसे कार्ये करना जिनका स़वाब (पुण्य) उन तक पहुँचे, उनके रिश्तेदार, दोस्त और मिलने वालों की इज़्ज़त करना, कभी कभी उनकी क़ब्र पर जाना।
औलाद के ह़ुक़ूक़ (अधिकार): नेक औलाद माँ बाप के लिए बहुत बड़ी निअ़मत (उपहार) है और औलाद नेक उस समय होगी जब उनकी परवरिश (पालन पोषण) अल्लाह और उसके रसूल स़ल्लल्लाहु अ़लैहिवसल्लम के सिद्धांतों (न्यायदेशों) के अनुसार किया जाए, अल्लाह के रसूल स़ल्लल्लाहु अ़लैहिवसल्लम ने फ़रमाया: “हर बच्चा अपनी फ़ितरत़(इस्लाम) पर पैदा होता है, उसके माँ बाप उसे यहूदी या मजूसी बना देते हैं”।(बुख़ारी व मुस्लिम)। इस ह़दीस़ से स्पष्ट हो गया कि बच्चे का दिमाग़ कोरे काग़ज़ की त़रह़ होता है, उसके माँ बाप बचपन में उसके दिमाग़ में जो बिठा देते हैं उसका असर आख़िर उम्र तक रहता है, माँ बाप की कुछ ज़िम्मेदारियाँ यानी औलाद के ह़ुक़ूक़ इस त़रह़ है, बच्चे की पैदाइश के समय दाएँ कान में अज़ान और बाएँ कान में तकबीर कहना,तह़नीक यानीखजूर को चबाकर मुंह में डालना और मसूड़ों पर रगड़ना, सातवें दिन अ़क़ीक़ा करना, लड़के का “ख़तना” कराना, सर के बाल काटकर बालों के वज़न के बराबर चाँदी या उसकी क़ीमत सदक़ा करना और अच्छा नाम रखना, अगर किसी वजह से सातवें दिन अ़क़ीक़ा न कर सके तो बाद में भी किया जा सकता है, अपने क्षमता (ह़ैस़ियत) के अनुसार औलाद के सभी ज़रूरी ख़र्चे बर्दाश्त करना, बच्चों की बेहतर तालीम (शिक्षा) व तरबियत (पालन पोषण) करना, माँ बाप के ज़िम्मे यह एक ऐसा ह़क़ है जिसे अगर माँ बाप ने अच्छे तरीक़े से अदा किया तो इसके ज़रिए एक अच्छी नसल की बुनियाद पड़ेगी और अगर इस ह़क़ में थोड़ी से भी कमी और लापरवाही अपनाई गई तो फिर न जाने इसका ख़ामियाज़ा (नुक़सान) आने वाली कई नस्लों को भुगतना पड़ेगा, औलाद की तालीम व तरबियत यक़ीनन एक बड़ा ही नाज़ुक मसअला है जिसे बड़ी ही समझदारी और होशियारी से अंजाम देना चाहिए, औलाद की तालीम व तरबियतमें शुरूआती दिनों में तो माँ का किरदार (भूमिका) सबसे अहम (महत्वपूर्ण) होता है, लेकिन बच्चे की बढ़ती उम्र के साथ साथ वह ज़िम्मेदारी बाप की तरफ़ आनी शुरू हो जाती है, तालीम व तरबियत के बाद माँ बाप के ज़िम्मे औलाद का आख़िरी (अंतिम) और अहम (महत्वपूर्ण) ह़क़ उनकी शादी का रहता है, शादी के बारे में नबी-ए-अकरमस़ल्लल्लाहु अ़लैहिवसल्लम की शिक्षाओं की रोशनी में हमें लड़के और लड़की के इन्तिख़ाब (चुनाव) में दीनदारी और शराफ़त को प्राथमिकतादेनी चाहिए।
पति पत्नी के ह़ुक़ूक़ (अधिकार): दो अजनबी (अंजान) मर्द औरत के बीच पति पत्नी का रिश्ता उसी समय स्थापित हो सकता है जब दोनों के बीच शरई निकाह़ हुआ हो, निकाह़-ए-शरई के बाद दो अजनबी (अंजान) मर्द औरत रफ़ीक़-ए-ह़यात (जीवन साथी) बन जाते हैं, एक दूसरे के ख़ुशी व ग़म, आराम व तकलीफ़ और तंदुरस्ती (स्वास्थ्य) व बीमारी (रोग) यहाँ तक कि जीवन के हर कोने में शरीक बन जाते हैं, निकाह़ की वजह से बेशुमार (अनगिनत) गतिविधि एक दुसरे के लिए ह़लाल हो जाते हैं, यहाँ तक कि अल्लाह तआला ने क़ुरान-ए-करीम में एक दूसरे को “लिबास” (वस्त्र) से वर्णन किया है, यानी पति अपनी पत्नी के लिए और पत्नी अपने पति के लिए “लिबास” (वस्त्र) की त़रह़ है, शरई अह़काम (आदेशों) का पालन करते हुए पति पत्नी का जिस्मानी और रूहानी तौर पर आनंद लेना, तथा एक दूसरे के ह़ुक़ूक़की अदाएगी करना यह सब शरियत-ए-इस्लामिया का अंग हैं और इनपर भी अजर (ईनाम) मिलेगा, इन शा अल्लाह, पत्नी के ह़ुक़ूक़: पूरे मेहर की अदाएगी करना, पत्नी के सभी ख़र्चें उठाना, पत्नी के लिए रहने का व्यवस्था करना और पत्नी के साथ अच्छाई का मामला करना, पति के ह़ुक़ूक़ (अधिकार): पति का आज्ञापालन करना, पति के माल व इज़्ज़त के सुरक्षा करना, घर के अंदरूनी निज़ाम (प्रणाली) को चलाना और बच्चों कीतरबियत (पालन पोषण) करना।
पड़ोसियों के ह़ुक़ूक़ (अधिकार): अल्लाह तआला क़ुरान-ए-करीम में इरशाद फ़रमाता है: “अल्लाह की इबादत करो और उसके साथ किसी को शरीक न ठहराव और माँ बाप के साथ अच्छा बर्ताव करो, तथा रिश्तेदारों, यतीमों (अनाथों), ग़रीबों, पास वाले पड़ोसी, दूर वाले पड़ोसी, साथ बेठे (या साथ खड़े हुए) शख़्स़ (व्यक्ति) और रास्ता चलने वाले के साथ और अपने ग़ुलाम बांदियों (यानी मातह़तों) के साथ भी (अच्छा बर्ताव करो), बेशक अल्लाह किसी इतराने वाले शेखीबाज़ (घमंडी) को पसंद नहीं करता।(सूरह अन्निसा: 36)। इस आयत में अल्लाह तआला ने पड़ोसियों के साथ अच्छा बर्ताव करने की शिक्षा दी है, चाहे वह रिश्तेदार हों या न हों और मुसलमान हों या न हों, बहरह़ालपड़ोसी होने की वजह से हर शख़्स़ (व्यक्ति) का ध्यान रखना हमारी दीनी व अख़लाक़ी ज़िम्मेदारी है, ह़ुज़ूर-ए-अकरम स़ल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम इरशाद फ़रमाते हैं कि ह़ज़रत जिब्राईल अ़लैहिस्सलाम बहुत ज़्यादा पड़ोसियों के बारे में अह़काम (आदेश) लेकर आते थे कि मुझे ख़याल होने लगा कि कहीं पड़ोसी को विरासत में हिस्सेदार न बना दिया जाए।(तिरमिज़ी, अल्बिर्रू वस्सिलतु)। इसीत़रह़ह़ुज़ूर-ए-अकरम स़ल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: जो कोई अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता हो वह अपने पड़ोसी को तकलीफ़ न पहुँचाए, (बुख़ारी), तथा नबी-ए-अकरम स़ल्लल्लाहु अ़लैहिवसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: जो कोई अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता हो वह अपने पड़ोसी काध्यान रखे।(मुस्लिम: बाबुल ह़िस़्स़ि अ़ला इकरामिल जारि)।
रिश्तेदारों के ह़ुक़ूक़ (अधिकार):इस्लाम ने जहाँ आम लोगों के ह़ुक़ूक़ की अदाएगी की बार
बार ताकीद (ज़ोर दिया) की है, वहीँ पड़ोसियों और क़रीबी और दूर के रिश्तेदारों के ह़ुक़ूक़ की अदाएगी यहाँ तक कि
पति पत्नी के भी एक दूसरे के ह़ुक़ूक़की अदाएगी की शिक्षा दी है, शरियत-ए-इस्लामिया में अकेले
ज़िंदगी के साथ समाजी ज़िंदगी के अह़काम (नियम) भी बयान किए गए हैं, ताकि सबकी मिलीजुली कोशिशों से
एक अच्छा समाज बने,लोग एक दूसरे का एह़तराम (सम्मान) करें, एक दूसरे के ख़ुशी व ग़म में शरीक हों और जिसका जो ह़क़है
वह अदा किया जाए, माँ बाप से भी कहा गया कि वह अपनी औलाद के ह़ुक़ूक़ अदा करें, इसी त़रह़ औलाद को भी तालीम
(शिक्षा) दी गई है कि वह अपने माँ बाप के साथ अच्छा बर्ताव करें, पति पत्नी की यह ज़िम्मेदारी है
कि वह अपनी अपनी जिम्मेदारियों की अच्छी त़रह़ अदा करें, ताकि जीवन का पहिया ठीक दिशा में चले, पड़ोसियों का भी पूरा ध्यान रखने
की शिक्षा दी गई है कि पड़ोसियों को तकलीफ़ पहुँचाने वाला शख़्स़ (व्यक्ति) पूरा मोमिन
नहीं हो सकता है, इसीत़रह़ हर शख़्स़ (व्यक्ति) की यह ज़िम्मेदारी है कि अपनी क्षमता के अनुसार सभी
रिश्तेदारों को साथ लेकर चले, आज हमारे समाज में यह बीमारी (रोग) बहुत आम हो गई है कि छोटी छोटी बात पर रिश्तेदारों
से संबंध तोड़ दिया जाता है, ह़ालांकि ज़रूरत है कि हम रिश्तेदारों के साथ अच्छा बर्ताव करें, उनकी ख़ुशी और ग़मी में शरीक होऔर
उनके साथ अह़सान और अच्छा बर्ताव करें, इसीलिए सूरह “नह़ल” आयत: 90 में अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाता है: “बेशक अल्लाह इंसाफ़ का, अह़सान का और रिश्तेदारों को (उनके ह़ुक़ूक़) देने का
ह़ुक्म (आदेश) देता हें और बेह़याई (बेशर्मी), बुराई और ज़ुल्म से रोकता है, वह तुम्हें नस़ीह़त करता है ताकि तुम नस़ीह़त क़ुबूल
करो तथा नबी-ए-अकरम स़ल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: “क़त़अ़रह़मी” (संबंध तोड़ना) करने वाला कोई शख़्स़ (व्यक्ति) जन्नत में दाख़िल नहीं होगा”।(बुख़ारी व मुस्लिम)। दूसरी अन्य अह़ादीस़ की रोशनी में उलमा-ए-किराम ने फ़रमाया
है कि वह अपनी सज़ा काटने के बाद ही जन्नत में दाख़िल हो सकता है, इसी त़रह़ क़ुरान व ह़दीस़ में
रिश्तेदारों के आर्थिकह़ुक़ूक़पर भी ज़ोर दिया है, अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाता है: “आप से पूछते हैं कि (अल्लाह की
राह में) क्या ख़र्च करे? फ़रमा दें जितना भी माल ख़र्च करो (ठीक है) मगर उसके ह़क़दार तुम्हारे माँ बाप हैं
और क़रीबी रिश्तेदार हैं और यतीम (अनाथ) हैं औरज़रूरतमंद हैं और मुसाफ़िर (यात्री) हैं
और जो नेकी भी तुम करते हो बेशक अल्लाह उसे ख़ूब जानने वाला है।(सूरह “अलबक़रा”: 215)। तथा नबी-ए-अकरम स़ल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने ग़रीब रिश्तेदारों पर
ख़र्च को भी स़वाब (पुण्य) का ज़रिया व वसीला (मार्ग) बताया है, और इस से आगे बढ़कर आप स़ल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: “आम ग़रीब पर सदक़ा (दान) करने से तो एक गुना ही स़वाब (पुण्य) पाएगा, लेकिन अगर कोई शख़्स़ (व्यक्ति)ग़रीब
रिश्तेदार को सदक़ा (दान) देता है तो उसको दोगुना स़वाब व अज्र (पुण्य) मिलेगा,
एक अज्र (ईनाम) तो सदक़े (दान)
का, दूसरा स़िलारह़मी (अच्छे
बर्ताव) का, (नसाई)।
Urdu Article: Human Rights in The Light of the Quran and Hadith حقوقِ انسان قرآن وحدیث کی
روشنی میں
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