हारून रशीद
नहीं जनाब रियासतें मसखरे पन के साथ नहीं चलतीं। एक जमात वहाबियों
की, एक देवबंदियों, एक बरेलवियों की। अल्लाह
की किताब कहती है: हमने तुम्हारा नाम मुस्लिम रखा। हमारा जवाब यह है: जी नहीं मुसलमान
नहीं हम बरेलवी, देवबंदी, शिया अहले हदीस हैं।
आम मुसलमान तो बेशक सहिष्णु हैं मगर फिरका परस्त मौलवी की तमाम तर निर्भरता ही नफरत
के बढ़ावे पर है। इधर एक दुसरा अज़ाब है कभी रूस और कभी अमेरिका के लिए कोर्स में गाने
वाले। अदालती फैसला सर आँखों पर। जजों ने छान फटक लिया होगा। वास्तव में उन्होंने इंसाफ
किया होगा सवाल दुसरा है। अगर हाफ़िज़ मोहम्मद सईद जैसे लोग मौजूदा मुसीबत के ज़िम्मेदार
नहीं तो और कौन है। जी चाहता है आदमी अपना गिरेबान चाक कर दे। पाकिस्तानी रियासत के
चलाने वालों ने लगातार ऐसी हौलनाक गैर जिम्मेदारियों का प्रतिबद्ध किया कि खुदा की
पनाह। जिहाद के नाम पर फिरका परस्तों के लश्कर बनाए गए और उनकी कयादत गैर ज़िम्मेदार, गैर तरबियत याफ्ता लोगों को सौंप दी गई। दौलत, इख्तियार और शोहरत। अगर
वह आपे से बाहर होते तो क्या होते। सियासी हरकियात और तारीखी चेतना से बेबहरा लोग।
जब फ़ौज सियासत के फैसले करेगी तो ऐसे ही करेगी। जब राजनीतिज्ञ अमेरीका से पूछ कर बरुए
कार आएँगे तो इसी तरह बरुए कार आएँगे।
सैयद अबुल आला मौदूदी ने सच कहा था कि रियासत जिहाद की ज़िम्मेदारी
कुबूल करे, खुद एलाने जंग करे। हुकूमते पाकिस्तान लिप्त रही मगर
चोरों की तरह। जिहाद जैसा फैसला और झूट के साथ? निजात सच में है झूट
में नहीं। झूट में हलाकत है। आदमी खुद को धोका देता है दूसरों को नहीं। पैहम हिमाकतें
करते हुए आखिर हम वहाँ आ गए जहां खाना जंगी है और व्यवसाय बर्बाद। नफरत का आलम यह है
कि मज़हबी लोग कातिलों की निंदा करने में हाएल हैं। तथाकथित तरक्की पसंद चीख रहे हैं
मार डालो, हर दाढ़ी वाले को मार डालो। मुसीबत में घबराहट और हैजान
का मतलब होता है, मज़ीद मसाइब, मज़ीद मुश्किलात, ढलवान का सफर। निजात का रास्ता
उदारता का रास्ता है। कानून की हुकमरानी का, इदारों का कयाम और जम्हूरियत
का फरोग। यह जो मौलवी हज़रात के बेकाबू गिरोह हैं, बखुदा यह इस्लाम नहीं
चाहते केवल सत्ता चाहते हैं। रसूख और शोहरत, रियासत के अन्दर रियासत, फसाद फिल अर्ज़। इस्लाम चाहते तो उम्मत को एकजुट करते, बांटते नहीं। अगर वह इस्लाम चाहते तो आली जनाब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की राह
पर चलते। आली मर्तबा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का रास्ता दलील का रास्ता है, उन्स, उल्फत, इसार, खैर ख्वाही, रवादारी। ताकत से नहीं हुस्ने किरदार की ज्याफत करते।
उन्हें मस्जिद में कयाम की इजाज़त देते। ख्वातीन बे तकल्लुफी से चली आती थीं। उनमें
से कोई अपने शौहर की शिकायत करती और उसे तलब किया जाता।
मिट्टी के बने अपने छोटे से कमरे में से तनहा निकल कर गली में
वह पैदल चलते और बच्चों से बातें किया करते। राहगीर उन्हें रोक लेते। उनके असहाब में
फ़िक्र व नज़र का मतभेद होता। अल्लाह और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के वह इताअत गुज़ार
थे और सच्चे दिल से मगर एक लश्कर के मानिंद नहीं बल्कि छात्रों की तरह। अर्ज़ किया, या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम, उमर से बख्शी- अपनी साहबजादी
से बरहम हुए थे कि बेशक तुम उम्महातुल मोमिनीन में से एक हो मगर तुम्हारी मजाल क्या
कि आयशा सिद्दीका रज़ीअल्लाहु अन्हा की बराबरी करो। वह अबुबकर की लखते जिगर हैं। उन्हें
हुक्म दिया जाता तो इताअत के सिवा क्या करते मगर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कहा
तो यह कहा “क्या यह नहीं हो सकता कि लोग अबू बकर को मेरे लिए मुआफ
कर दें”। जिसे हुक्म का इख्तियार अल्लाह
ने दिया था, उसका आलम तो यह था कि पैहम तालीम और दायम सब्र व तहम्मुल।
दायम सच्चाई मगर दायम सब्र के साथ, हिकमत और हुस्ने अख़लाक़ के साथ।
हमारे “मुजाहेदीन” क्या हैं? गैज़ व गज़ब के पैकर। हज़रत मौलाना सूफी मोहम्मद ही का
इल्म वाजबी नहीं, उन सब का। फिरका परस्ती के मारे।
क्या उनमें एक भी है जो बेगुनाह मुसलमानों के कत्ल की दिल से निंदा करे। वह कहते हैं, अमेरीका सफ्फाक है। हाँ सफ्फाक है। भारत साज़िशी है। जी हाँ साज़िशी है। काबुल में
रूस और फिर अमेरीका के दर आने से तूफ़ान जागा। बिलकुल बजा इरशाद, मगर इसका मतलब यह कैसे हुआ कि लोग अपने गिरोह बना लें और बेगुनाह इंसानों को क़त्ल
करते फिरें। सिखों से वह जज़िया वसूल करें बल्की मुसलमानों से भी। सैंकड़ों घटना हैं
कि तालिबान ने जबरन शादियाँ कीं। बच्चों को उठा कर ले जाते हैं। लाहौर, इस्लामाबाद और पेशावर के आत्मघाती हमले अलग, क्या किसी को हक़ था कि
न्यूयॉर्क के बेगुनाह नागरिकों को ज़िंदा जला दे। हद हो गई, कोई पूरा सच बोलने वाला नहीं। कोई नहीं कहता कि फ़सादियों के यह गिरोह देश को बर्बाद
कर देंगे, वह दुश्मन के मददगार हैं। नशाआवर चीजें वह बेचते हैं, भत्ता वह लेते हैं। अमेरीका दुश्मन है मगर वह भी तो दुश्मन हैं।
फ़ौजी हुक्मरान मुजरिम थे, आम फ़ौजी तो नहीं। जांबाज़
मकतल में खड़े हैं। आज पुश्त पनाही करनी चाहिए या निंदा। बातें बहुत कड़वी हैं मगर इतनी
ही सच्ची। सफ़ेद झूट है कि स्वात में फ़ौज शहरियों को जानबूझ कर क़त्ल करती है, क्यों करेगी। अपने खिलाफ नफरत फैलाने के लिए? अहले स्वात की तकलीफों
पर दिल दुखता है मगर घटना यह है कि गुंडों को उन्होंने गवारा किया। रियासत जिम्मेदार
थी मगर आम शहरी भी रहे। बदकिरदार राजनीतिज्ञ तो उनका वक्त करीब आ लगा। समझदार आदमी
वह होता है और समझदार कौम वह है जो मुसीबत और संकट में आसाब पे काबू रखे। गौर व फ़िक्र
से काम ले। तदब्बुर और तफ़क्कुर, हेजान और चीख व पुकार नहीं। उन
लोगों पर खुदा रहम करे जो आज भी सस्ती मकबूलियत की तमन्ना में रियाकार हैं, जो आज भी नफरतों के साथ आसूदा मज़हबी जुनूनी रियासत को मानते ही नहीं और रियासत
तो बहर हाल बचानी है कि अमन रियासत में ही संभव होता है, वरना खाना जंगी, वरना अनारकी की, वरना खाकम बदह्न वतन खूंख्वार दुशमन के लिए तर निवाला, पाकिस्तान कमज़ोर नहीं, आपसी फूट इसे कमज़ोर करता है।
इसे संगठित करना है और संगठन सिद्धांतों पर होता है। फसादी गिरोहों से निजात, ताकतवरों की मनमानी से निजात। संविधान की हुकमरानी, जनाब संविधान की हुकमरानी। मुकालमा हुज़ूर, मुकालमा और गौर व फ़िक्र
हर्फे आखिर। बुजुर्गों का इरशाद है कि मैं शैख पा न हूँ और उन्हें मुआफ कर दूँ। अल्लाह
का शुक्र है कि मैं बिलकुल आसूदा हूँ। मैंने उन्हें मुआफ किया। मुअद्देबाना गुजारिश
यह है कि वह खुद भी अपने आपको मुआफ कर दें। आदमी की इज्ज़त का इन्हेसार, उसकी रविश पर होता है।
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