हफ़ीज़ नोमानी (लखनऊ)
18 जुलाई, 2014
दारुलक़ज़ा पर वकीलों के हमले आज से नहीं बरसों से हो रहे हैं। आए दिन कोई न कोई वकील इस मासूम से अमल को अदालतों की समानांतर व्यवस्था के तौर पर पेश कर देता है और अदालतों में सनसनी फैल जाती है। सबसे ज़्यादा आश्चर्य की बात है कि कभी किसी सुब्रमण्यम स्वामी मानसिकता वाले वकील ने किसी दारुलक़ज़ा में जाकर ये जानने की कोशिश नहीं की कि आप लोगों का तरीका क्या है और मुक़दमों के फैसले कैसे करते हैं?
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड बनने से पहले अनेक बरसों से इमारते शरिया बिहार और उड़ीसा के तहत ये सेवा की जा रही थी। ये दोनों राज्य बेहद गरीब होने के कारण ऐसे मामलों का शिकार रहती थीं कि छोटे छोटे मामलों के लिए भी उन्हें इतना खर्च करना पड़ता था कि जिसका मामला हो वो तबाह हो जाता था। इन राज्यों में ज्यादातर मामले ऐसी शादियों के होते थे कि किसी लड़के ने शादी की फिर साल दो साल बाद वो ये कहकर कहीं चला गया कि मुंबई जा रहा है वहां से कमाकर लाया जाएगा या तुम्हें भी बुला लेगा और फिर ऐसा ग़ायब हुआ कि बरसों उसकी कोई खबर ही नहीं मिली। और वो बदनसीब इंतेज़ार करते करते कोई गलत क़दम उठा बैठी या वो भी किसी के साथ भाग गई। इमारते शरिया ने इस पर रोक लगाने के लिए पूरे बिहार और उड़ीसा में हर शहर में एक केंद्र बनाया और गांव गांव ऐलान कराया कि अगर कोई ऐसी घटना हो तो इमारते शरिया के दफ्तर में सूचित किया जाए। इसके बाद वो साप्ताहिक नक़ीब में इसका ऐलान करते थे और पूरे विवरण के बाद लिख देते थे कि अगर छह महीने के अंदर खुद हाज़िर हो कर या अपने किसी अभिभावक के द्वारा या लिखित में अपना बयान नहीं दर्ज कराया तो आपको फरार करार देकर आपका निकाह फस्ख कर दिया जाएगा और आपकी पत्नी का किसी दूसरे के साथ निकाह कर दिया जाएगा।
इमारते शरिया इस सफलता के बाद छोटे तलाक या विरासत के मामलों को भी अपने हाथ में ले लिया और इस तरह दारुलक़ज़ा की बुनियाद पड़ गई। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड क्योंकि राष्ट्रीय स्तर का संगठन है इसलिए इसने जब इसे अपनाया तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक पूरे देश में इसका जाल फैल गया और स्वामी मानसिकता वाले हिंदू वकील ये समझने लगे कि अब मुसलमानों को शायद हमारी ज़रूरत ही न रहे। या और कोई बात हो?
हमें याद नहीं कि कभी किसी मुस्लिम वकील ने किसी हिंदू संगठन को या हिन्दुओं के किसी भी मसले को अदालत में उठाया और न हमारे हिन्दू वकीलों को ये तौफ़ीक़ हुई कि वो हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के सामने जाटों की पंचायतों या खाप पंचायतों का विवरण बयान करते। अदालत ने मुसलमानों से कहा कि आप किसी को उसकी अनुपस्थिति में सज़ा नहीं दे सकते। लेकिन किसी भी शहर या राज्य की खाप पंचायत में जो सज़ाएं दी गयी हैं उस पर न किसी ने आपत्ति की, न उनके पंचों को आजीवन जेल में डालने का हुक्म दिया। दारुलक़ज़ा अधिकतम फरार मान कर उसकी पत्नी को दूसरा विवाह करने की इजाज़त देता है लेकिन खाप पंचायत तो सजाए मौत देती है और उस पर अमल भी कराती है। पूरा देश जानता है कि दर्जनों लड़के और लड़कियों गोली से, तलवार से और लाठियों से मौत के घाट उतार दिए गए और न मारने वालों को सज़ा हुई, न हुक्म देने वाले जाहिल पंचों को। इसी खाप पंचायत ने एक ऐसी भी सज़ा दी है जिसकी पूरी दुनिया की अदालतों में मिसाल नहीं मिल सकती। एक लड़का और उसी गाँव की लड़की घर से भाग गई, मामला पंचायत में आया तो तय किया गया कि जो लड़का भागा है उसकी जवान बहन भागने वाली लड़की के भाई के पास पत्नी के रूप में रहेगी और इस पर अमल भी किया गया लेकिन किसी की ग़ैरत ने जोश नहीं मारा।
बहुत सम्मान के साथ सुप्रीम कोर्ट का हर हुक्म स्वीकार लेकिन ये भी निवेदन करना है कि कभी उसने इस पर भी विचार किया कि दर्जनों लड़कियों और लड़कों की हत्या कर देने वालों, हत्या करा देने वालों और हत्या का हुक्म देने वालों में से किसी एक को भी फांसी या उम्रकैद क्यों नहीं हुई? इसका कारण केवल ये है कि जिस समानांतर न्यायिक प्रणाली का मुसलमानों पर आरोप लगाया जा रहा उससे अधिक शक्तिशाली समानांतर सरकार खाप पंचायत है। हर जोड़े की हत्या की थाने में रिपोर्ट होती है लेकिन गिरफ्तारी इसलिए नहीं होती कि ये बताने वाला कोई नहीं मिलता कि किस किसने हत्या की? और कोई ज़बान इसलिए नहीं खोलता कि जिसने ज़बान खोल दी तो उसका हुक्का पानी बंद यानी वो भूखों मर जाए या आत्महत्या कर ले। ये पंचायतें इतनी शक्तिशाली हैं कि हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश की किसी सरकार या किसी केंद्रीय सरकार की हिम्मत नहीं है कि इसके ऊपर हाथ डाल सके और इसके उजड्ड और जाहिल पंच डंके की चोट पर कहते हैं कि अगर किसी सरकार में दम है तो वो खाप पर हाथ डाल कर दिखाए।
दारुलक़ज़ा को शरई अदालत मुसलमानों ने नहीं कहा इसलिए कि शायद शरई अदालतें केवल सऊदी अरब में हों हिंदुस्तान में तो ये कोशिश गरीब मुसलमानों को छोटे छोटे मामलों के लिए अदालतों में जाकर उनकी हस्ती मिटाने से बचाने के लिए किया गया है। इसमें ज्यादातर तलाक़ और विरासत के मामले आते हैं और इनके बारे में इस्लामी शरीयत में इतनी विवरण दिया गया है कि जो लोग फतवे देने के ज़िम्मेदार बनाए जाते हैं उनके पास बहुत बड़े बड़े मुफ़्तियों के फतवों की नज़ीरों की जिल्दें भी होती हैं जिससे वो ज़रूरत के वक्त मदद लेते हैं। हम जानते हैं कि ये फित्ना और ऐसे फ़ित्ने अब सुब्रमण्यम की तरह की सरकार के बाद और ज़्यादा खड़े किए जाएंगे लेकिन इन सबका जवाब जाटों, गुर्जरों और त्यागियों की पंचायतें व खाप पंचायत है और दो चार नौजवान मुस्लिम वकील अधिक से अधिक जिहालत भरे सज़ाए मौत के फैसले जमा कर के वो अदालतों में पेश कर दें और पूछें कि ऐसे फैसले देने वाली खाप अदालतों पर क्यों रोक नहीं लगाते और सरकारें क्यों बेबस और लाचार हैं? तो शायद हमारी उंगली उठना बंद हो जाए।
14 जुलाई, 2014 सौरतः रोज़नामा जदीद ख़बर, नई दिल्ली
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