लेख "इस्लामिक जिहाद पर मौलाना मौदूदी का स्टैंड" जिसे न्यू एज
इस्लाम में प्रकाशित किया गया था, उसका खंडन
गुलाम गौस, न्यू एज इस्लाम
३१ अगस्त, २०१३
इस्लाम में जिहाद पर जमाते इस्लामी के संस्थापक विचारक मौलाना अबुल आला मौदूदी
का लेख (जैसा कि इस साईट पर प्रकाशित किया गया है, निम्न में दिए गए लिंक पर देखें) इस्लाम को तलवार, हिंसा, अतिवाद और जिहादियत के एक मज़हब के तौर पर पेश करता है। मौलाना मौदूदी ने बुराई
से निमटने के नाम पर गैर मुस्लिमों और दुसरे फिरकों के मुसलमानों के खिलाफ जंग को
हवा देने के लिए कुरआन पाक की असंबंधित आयतों को प्रसंग के खिलाफ पेश किया है जो
कि एक ही समय में कुरआन मजीद की ऐसी दूसरी आयतों से टकराती हैं जो आलमी अमन को
बढ़ावा देती हैं। इसके बाद उन्होंने अपने अवास्तविक एजेंडे के समर्थन के लिए मन गढ़त
तथ्यों का प्रयोग किया है, जो कि पूरी मानवता के लिए हानिकारक है, और जो कि केवल एक पेचीदा विचार है और अब इसने
व्यवहारिक तौर पर दुनिया के सभी भागों में बुराई को फैलाना शुरू कर दिया है।
जिहाद के लिए मौलाना मौदूदी के सिद्धांत का उद्देश्य, जिहाद की वजाहत आक्रामक और असहनीय अंदाज़ में करते हुए
हथियारों की ताकत के जरिये गैर इस्लामी हुकूमत के निज़ाम और अत्याचार को समाप्त
करना है। मौलाना मौदूदी के लेख का शीर्षक पूर्ण रूप से कुरआन की गलत व्याख्या और
मतलब बनाने पर आधारित है, इसलिए उन्होंने अपने मन गढ़त सिद्धांतों का आधार ऐसी आयतों पर रखा है जो कुछ
ख़ास हालात के लिए विशेष हैं। उन्होंने तलवार और जब्र व हिंसा को इस्लाम के प्रचार
में नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और उनके मुकद्दस सहाबा के साथ एक अहम किरदार के
तौर पर जोड़ा है, जिन्हें इस्लाम की पूरी तारीख में ना तो कभी जवाज़ प्रदान किया गया और ना ही
लागू किया गया था।
लेख के रद्द में आगे बढ़ने से पहले संक्षिप्त रूप से दिमाग में यह रखना आवश्यक
है कि मौलाना अबुल आला मौदूदी कौन थे। उन्होंने बटवारे से पहले अविभाजित भारत में
एक इस्लामी जमात, जमाते इस्लामी की बुनियाद रखी जिसमें आज पाकिस्तान और बांग्लादेश शामिल है। यह
जमात मिस्र में इख्वानुल मुस्लिमून की ही तरह थी। उन्होंने एक अखबार के एडिटर के
तौर पर काम किया जिनके पास एक आलिम के तौर पर कोई धार्मिक आधार नहीं थी। चूँकि
इस्लाम पसंद सिद्धांतकारों पर उन्हें एक अहम असर व रसूख हासिल था, जब्र व हिंसा पर आधारित उनके सिद्धांत को तकरीरों, लेखों और पुस्तिकाओं आदि के माध्यम से दावत के बहाने
अब मस्जिदों, मुहल्लों और सार्वजनिक जगहों पर फैलाया जा रहा है।
नतीजे में आम मुसलमान आसानी से उनके विचारों की ओर आकर्षित हो जाते हैं यह
सोचते हुए कि यह खुदा के संदेश और नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की रिवायत हैं। इस
प्रकार के सिद्धांत ने ख़ास तौर पर मुस्लिम युवकों को सख्त प्रभावित किया है और
ज़बरदस्ती इस्लामी निजामे हुकूमत स्थापित करने पर उन्हें भड़काया है। जिसकी वजह से
मुसलमान और गैर मुस्लिम गलत फहमी का शिकार हो जाते हैं और इस हकीकत से परे कि
मुसलमानों की अक्सरियत उदारवादी मुसलमानों पर आधारित है बिना किसी अपवाद के पूरी
उम्मत के खिलाफ बुग्ज़ और हसद रखते हैं। दूसरी तरफ कुछ मुसलमान अतिवादी बन जाते हैं, आत्मघाती हमले करते हैं और औरतों, बच्चों और बूढ़ों और कमज़ोर लोगों सहित बेगुनाह
नागरिकों का बेदरेग कत्ल करते हैं। इस तरह के ख्यालों के हलाक करने वाले परिणाम के
मद्दे नज़र जिन से आज हम दोचार हैं, मुझे इस बात की ज़बरदस्त ख्वाहिश महसूस होती है मैं अपनी सलाहियत के अनुसार
कुरआनी निर्देशों और नबवी कथनों (हदीसों) की रौशनी में इस लेख का रद्द करूंगा।
उनकी शोहरत से पुरी तरह वाकिफ होते हुए जो कि मेरी नज़र में एक बड़े धार्मिक आलिम
हैं, उम्मीद है कि यह रद्द (इंशाअल्लाह)
अतिवाद और निरपेक्ष जिहादवाद का जवाज़ पेश करने वाले हानिकारक विचारों का सद्दे बाब
करने में मददगार होगी। मैं यहाँ इस्लामी जिहाद और रियासत के बारे में मौलाना
मौदूदी के विचारों की तरदीद पेश कर रहा हूँ।
आक्रामक जिहाद के माध्यम से गैर इस्लामी रियासतों की बीख कुनी करने के मौलाना
मौदूदी के सिद्धांत
मौलाना मौदूदी का मानना है कि “इस्लामी रियासत को केवल “इस्लाम का वतन” ही होने तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। यह पूरी दुनिया के लिए है। गैर इस्लामी
सरकारों को खत्म करने और दुनिया भर में इस्लामी रियासत के कयाम के उद्देश्य के लिए
‘जिहाद’ शुरू की जानी चाहिए। वह लिखते हैं कि “वह लोग जो मज़हब की तबलीग करते हैं केवल मुबल्लेगीन
नहीं हैं बल्कि वह अल्लाह के कार्यकर्ता हैं, (ताकि वह लोगों के लिए गवाह बन सकें, और ज़ुल्म व ज़्यादती, फसाद, अनैतिकता, घमंड और गैर कानूनी शोषण को हथियारों की ताकत के जरिये दुनिया से ख़त्म करना
उनकी जिम्मेदारी है। “देवता” और बातिल ‘खुदाओं’ के अफसानों को पाश पाश करना और बुरे की जगह पर अच्छाई को बहाल करना उनका
उद्देश्य है। फिर वह निम्नलिखित में उल्लेखनीय कुरआन मजीद की तीन मुसलसल असंबंधित
आयतों को पेश करते हैं:
(१) “और उन से लड़े जाओ यहाँ तक कि फ़साद बाक़ी न रहे और
सिर्फ ख़ुदा ही का दीन रह जाए फिर अगर वह लोग बाज़ रहे तो उन पर ज्यादती न करो
क्योंकि ज़ालिमों के सिवा किसी पर ज्यादती (अच्छी) नहीं।“ (२:१९३)
(२) “और जो लोग काफ़िर हैं वह भी (बाहम) एक दूसरे के
सरपरस्त हैं अगर तुम (इस तरह) वायदा न करोगे तो रूए ज़मीन पर फ़ितना (फ़साद) बरपा हो
जाएगा और बड़ा फ़साद होगा।“ (८:७३)
(३) “अगरचे कुफ्फ़ार बुरा माना करें वही तो (वह ख़ुदा) है
कि जिसने अपने रसूल (मोहम्मद) को हिदायत और सच्चे दीन के साथ ( मबऊस करके) भेजता
कि उसको तमाम दीनो पर ग़ालिब करे अगरचे मुशरेकीन बुरा माना करे।“ (९:३३)
जमाते इस्लामी के संस्थापक मौलाना मौदूदी इस्लामी जिहाद को एक ही समय में
आक्रामक और रक्षात्मक दोनों मानते हैं। यह साबित करने के लिए उन्होंने कहा कि: “यह वही रणनीति है जिसका निफाज़ रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम) और उनके खुलेफा (रज़ीअल्लाहु अन्हुम अजमईन) के माध्यम से किया गया था
जिन्होंने उनकी नियाबत की थी।“
मौलाना मौदूदी के असंबंधित प्रसंग का रद्द
पहली आयत नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़माने में अरब में काफिरों के बारे
में आयतों के एक सिलसिले के दौरान नाज़िल हुई थी। शायद मौलाना मौदूदी ने जान बुझ कर
आयत (२:१९०) को नज़र कर दिया है जिसमें खुदा केवल उन लोगों से लड़ने का मुसलमानों से
मुतालबा करता है जो उनसे लड़ते हैं और उन्हें किसी भी तरह के विचलन से मना फरमाता
है। कुरआन का फरमान है “अल्लाह ना फरमानों को पसंद नहीं करता”। यह उस समय था जब काफिरों ने अज़ादाना तौर पर
मुसलमानों को अपने धर्म पर अमल करने के इंसानी अधिकारों से वंचित कर दिया था, उन्हें उनके बाप दादा के वतन मक्का से निकाल दिया था, और यहाँ तक कि उन पर उनकी नई पनाहगाह मदीना में भी
हमला किया। शुरू में नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और उनके मुकद्दस सहाबा को उनकी
ज़िन्दगी का बचाव करने की भी अनुमति नहीं थी। उन्हें एक दशक तक आक्रामकता का सामना
करना पड़ा। उनका अत्याचार सभी सीमाओं को पार कर चुका और केवल उनके वजूद की बका के
लिए भी कोई चारा नहीं रहा तो अल्लाह ने काफिरों के साथ रक्षात्मक जंगों की अनुमति
दी। यही वजह है कि हम संबंधित आयत में यह वाक्य पाते हैं कि “उन लोगों से लड़ो जो तुम्हारे खिलाफ जंग करते हैं” और “हद से आगे मत बढ़ो”। अगर यह आयत आने वाले सारे ज़मानों के लिए होती तो खुदा तआला रक्षात्मक जंगों
की सूरत में इसे काफिरों तक ही सीमित नहीं रखता।
वर्तमान समय के काफिरों की तरफ इन आयतों को मंसूब करना पुर्णतः निरर्थक है।
इस्लामी उलेमा, फुकहा और मुफ़स्सेरीन कुरआन की इस आयत का इतलाक आधुनिक युग में रक्षात्मक हालात
में करते हैं इसलिए कि यह आयतें उस समय नाज़िल की गईं थीं जब स्वतंत्र रूप से
इस्लाम पर अमल करने के लिए उम्मीद की कोई किरण बाकी नहीं रह गई थी। यह आयतें आज
मुसलमानों को हिंसा के अमल में शामिल होने की अनुमति नहीं देतीं। जहां तक
रक्षात्मक जंग का सवाल है, अवश्य हर देश और संविधान लोगों को अपनी ज़िन्दगी के हक़ का बचाव करने की अनुमति
देता है।
मौलाना मौदूदी ने सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से इस्लामी रियासत स्थापित करने के
लिए इन तीनों आयतों की गलत व्याख्या की है। जैसा कि वह लेख में बताते हैं, "इसी तरह, सरकार के गैर-इस्लामिक तंत्र के
तहत एक मुसलमान के लिए जीवन के इस्लामी तरीके का पालन करना उसके लक्ष्य में सफल
होना असंभव है।" इस आधार पर, मौदूदी गैर-मुसलमानों के खिलाफ युद्ध की अनुमति देते है जब तक कि एक इस्लामी
सरकार स्थापित नहीं हो जाती। उनके अनुसार, एक मुस्लिम के लिए एक गैर-मुस्लिम
सरकार के तहत इस्लाम का पालन करना असंभव है। हम पाते हैं कि यह सिद्धांत पूरी तरह
से स्थिति के तथ्यों के विपरीत है। हम देखते हैं कि भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका
या यूरोपीय राज्य गैर-इस्लामिक देश हैं, लेकिन इन देशों में मुसलमानों को सऊदी अरब जैसे मुस्लिम-बहुल देशों की तुलना
में अधिक धार्मिक अधिकार और सांस्कृतिक संरक्षण प्राप्त है। उदाहरण के लिए, भारत में, एक मुसलमान पूरी स्वतंत्रता के साथ
सभी इस्लामी संस्कार करता है और इस्लाम के पैगंबर के जन्म का जश्न मनाता है, जिसे उसे सऊदी अरब में अनुमति नहीं
दी जाएगी। इसीलिए मुसलमानों को इस्लामिक राज्य के बारे में सोचने की आवश्यकता नहीं
है क्योंकि उनके पास गैर-मुस्लिम-बहुल देशों में अपने धर्म का पालन करने का पूर्ण
अधिकार और विशेषाधिकार है, जो कि वे मुस्लिम देशों में भी नहीं सोच सकते हैं।
संबंधित आयतों के बारे में मुफ़स्सेरीन की राय:
एक अज़ीम मुफस्सिर इब्ने कसीर आयत २:१९० की व्याख्या में लिखते हैं:
“यह जंग के बारे में मदीना में नाज़िल की गई पहली आयत
थी। जब इस आयत का नुज़ूल हुआ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम केवल उन लोगों से
लड़ते थे जो उनके खिलाफ जंग करते थे और जंग ना करने वालों से बचते थे”।
इसके बाद वह हद से गुजरने (वला तातदु) के अर्थ की वजाहत करते हैं:
हसन बसरी ने कहा कि (इस आयत जिसकी तरफ इशारा मिलता है) इसके अनुसार हद से
गुज़रना “मुरदार के अंग काटना, चोरी, उन औरतों और बच्चों और बूढ़े लोगों की हत्या जो जंग में शामिल नहीं होते, पादरियों और इबादतगाहों के रहने वालों को तबाह करने
और वास्तविक लाभ के बिना पेड़ों को जलाने और जानवरों को हलाक करना” शामिल है।
इब्ने हजर अस्कलानी की लिखी हुई सहीह बुखारी की अत्यंत काबिले कद्र सुन्नी
तफ़सीर फ़तहुल कदीर में इस आयत २:१९० के हवाले से यह बयान किया गया है:
“नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उन लोगों से जंग किया
जिन्होंने आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से जंग की और आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने
उन लोगों से जंग नहीं किया जिन्होंने आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से जंग नहीं किया”
तफसीरे तबरी, तफसीरे बगवी, फ़तहुल कदीर, और तफसीरे कुर्तुबी उन तमाम में हद से गुजरने (ला तातदु) की यही वजाहत है, जैसा कि निम्नलिखित में पेश है:
“हद से आगे ना बढ़ो का मतलब “औरतों, बच्चों, या ना लड़ने वालों को क़त्ल मत करो।“
तबरी ने बयान किया कि: इब्ने अब्बास ने इस आयत की वजाहत इस तरह की:
“औरतों, बच्चों या बूढ़े मर्द को और हर उस इंसान को मत मारो जो तुम्हारे पास अमन के साथ
आए और अपने हाथ को जंग से रोकता हो, इसलिए कि अगर तुम ने ऐसा किया, तो यकीनी तौर पर हद से गुजरने वाले होगे”। (तफसीरे तबरी २:१९०)
इसके अलावा “एक औरत अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की एक जंग में हालाक पाई गई थी
तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने औरतों और बच्चों के कत्ल की निंदा की”। (सहीह सुनन अबू दाउद २६६८)
उपर्युक्त टिप्पणी से स्पष्ट है कि ये आयत गैर-लड़ाकों और शांतिप्रिय लोगों या
निर्दोष लोगों की हत्या का समर्थन नहीं करते हैं। बल्कि, वे केवल जरूरत पड़ने पर रक्षात्मक
युद्ध की अनुमति देते हैं, इसलिए इस्लाम में आक्रामक युद्ध के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए, जो कोई भी इन कुरआनी आयतों के
खिलाफ जाता है, उसे एक अपराधी माना जाएगा।
ज़रा सोचिए कि अगर जमात-ए-इस्लामी ने मौलाना मौदूदी और मुस्लिमों द्वारा
संचालित राज्यों सहित गैर-इस्लामिक राज्यों को नष्ट करना शुरू कर दिया तो क्या
होगा? मामले की विडंबना के अलावा, उन्हें महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों सहित निर्दोष
गैर-मुस्लिमों (गैर-मुस्लिम जिन्हें वे इस्लाम के दायरे से बाहर मानते हैं) को
मारना होगा। ऐसा किए बिना अपने लक्ष्य को हासिल करना उनके लिए असंभव है। उदाहरण के
लिए, भारतीय गैर-मुस्लिम गैर-लड़ाके हैं, लेकिन मौलाना मौदूदी के अनुसार, उनके साथ आक्रामक जिहाद भी आवश्यक
है, तो सोचिए कि ऐसे युद्ध में क्या
होगा? मासूमों की सामूहिक हत्या के अलावा
कुछ नहीं होगा। हालांकि, जमात-ए-इस्लामी के पास युद्ध लड़ने की क्षमता है, लेकिन वह स्पष्ट नहीं करती और ना
ही भविष्य में स्पष्ट करेगी। संभवतः यह सब हो सकता है, और जो हो रहा है, वह यह है कि इसकी शाखाएँ, 'सीमी' और इंडियन मुजाहिदीन की तरह, आतंकवाद में शामिल हो सकती हैं। इस
तथ्य के बावजूद कि इस तरह के अपराध करने वाले लोग सर्वशक्तिमान अल्लाह के समक्ष
जवाबदेह होंगे, ये वही लोग हैं जिन्हें कुरआन अवज्ञाकारी कहता है और स्पष्ट रूप से कहता है कि
अल्लाह उन्हें पसंद नहीं करता है। इसलिए वे सोच सकते हैं कि वे स्वर्ग में अपने
लिए जगह बना रहे हैं, जैसा कि कोई देख सकता है, वास्तव में वे नरक में अपने लिए एक खाई तैयार कर रहे हैं।
कुरआन मजीद की रौशनी में मौलाना मौदूदी के सिद्धांतों का रद्द
उपरोक्त कुरआनी आयतें जो मौलाना मौदूदी ने इस्लामिक राज्य की जबरन स्थापना को
सही ठहराने के लिए उद्धृत किया है और आक्रामक जिहाद अन्य कुरआनी आयतों के साथ
संघर्ष में हैं क्योंकि वे एक अप्रासंगिक विषय से संबंधित हैं। हम उन आयतों का
विश्लेषण करते हैं जो मौदूदी के विचारों का खंडन करते हैं।
कुरआन में बार-बार यह उल्लेख किया गया है कि जब गैर-मुस्लिम लोग निमंत्रण को
स्वीकार नहीं करते हैं और इससे दूर हो जाते हैं, तो स्वयं अल्लाह के रसूल को उन्हें
इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर करने से मना किया जाता है। उन्हें अपने प्यारे
चचा अबू तालिब के मामले में इस्लाम में परिवर्तित होने के लिए असामान्य रूप से
मजबूत तर्कों का उपयोग करने से भी रोक दिया गया था।
अल्लाह पाक नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से फरमाते हैं
“(ऐ मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तुम जिसको दोस्त
रखते हो उसे हिदायत नहीं कर सकते बल्कि खुदा ही जिसको चाहता है हिदायत करता है और
वह हिदायत पाने वालों को खूब जानता है” (२८:५६)
यह आयत उस समय नाज़िल की गई जब अबू तालिब की मौत आ पहुंची। नबी (सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम) अपने चचा से बहुत प्यार करते थे। यही कारण है कि उन्होंने अपने चाचा
से इस्लाम धर्म में परिवर्तित होने के लिए विनती की। लेकिन यहां तक कि इस तरह के
हल्के भावनात्मक दबाव को दावत (इस्लाम के उपदेश, दावह) के काम में मना किया गया था।
रसूल लोगों को हिदायत नहीं देता है, लेकिन अल्लाह जिसे चाहे हिदायत देता है। रसूल का मिशन केवल संदेश पहुंचा देना
है।
खुदा पाक का फरमान है:
“(ऐ रसूल) पस अगर ये लोग तुमसे (ख्वाह मा ख्वाह) हुज्जत
करे तो कह दो मैंने ख़ुदा के आगे अपना सरे तस्लीम ख़म कर दिया है और जो मेरे ताबे है
(उन्होंने) भी) और ऐ रसूल तुम अहले किताब और जाहिलों से पूंछो कि क्या तुम भी
इस्लाम लाए हो (या नही) पस अगर इस्लाम लाए हैं तो बेख़टके राहे रास्त पर आ गए और अगर
मुंह फेरे तो (ऐ रसूल) तुम पर सिर्फ़ पैग़ाम (इस्लाम) पहुंचा देना फ़र्ज़ है (बस) और
ख़ुदा (अपने बन्दों) को देख रहा है।“ (३:२०)
इसके अलावा:
“(हमारे) रसूल पर पैग़ाम पहुँचा देने के सिवा (और) कुछ
(फर्ज़) नहीं और जो कुछ तुम ज़ाहिर बा ज़ाहिर करते हो और जो कुछ तुम छुपा कर करते हो
ख़ुदा सब जानता है” (५:९९)
यह आयतें रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को भी जबरदस्ती इस्लाम की दावत
देने से मना करती हैं, यहाँ तक कि उनके अपने चचा अबू तालिब को भी। इसलिए किस तरह और कोई और धर्म के
मामले में ताकत का प्रयोग कर सकता है?
अल्लाह पाक ने और फरमाया कि:
“दीन (इस्लाम) में कोई जब्र नहीं है” (२:२५६)
“तुम अपने दीन पर मैं अपने दीन पर।“ (१०९:७)
“और (ऐ पैग़म्बर) अगर तेरा परवरदिगार चाहता तो जितने
लोग रुए ज़मीन पर हैं सबके सब ईमान ले आते तो क्या तुम लोगों पर ज़बरदस्ती करना
चाहते हो ताकि सबके सब ईमानदार हो जाएँ हालॉकि किसी शख़्स को ये एख्तेयार नहीं” (कुरआन १०:९९)
“लोगों हमने तो तुम सबको एक मर्द और एक औरत से पैदा
किया और हम ही ने तुम्हारे कबीले और बिरादरियाँ बनायीं ताकि एक दूसरे की शिनाख्त
करे इसमें शक़ नहीं कि ख़ुदा के नज़दीक तुम सबमें बड़ा इज्ज़तदार वही है जो बड़ा
परहेज़गार हो बेशक ख़ुदा बड़ा वाक़िफ़कार ख़बरदार है” (४९:१३)
“और अब तो हमको (क़यामत का)े पूरा पूरा यक़ीन है और
(ख़ुदा फरमाएगा कि) अगर हम चाहते तो दुनिया ही में हर शख़्श को (मजबूर करके) राहे
रास्त पर ले आते मगर मेरी तरफ से (रोजे अज़ा) ये बात क़रार पा चुकी है कि मै जहन्नुम
को जिन्नात और आदमियों से भर दूँगा” (३२:१३)
“और अगर तुम्हारा परवरदिगार चाहता तो बेशक तमाम लोगों
को एक ही (किस्म की) उम्मत बना देता (मगर) उसने न चाहा इसी (वजह से) लोग हमेशा आपस
में फूट डाला करेगें” (११:११८)
“वही तो है जिसने तुम लोगों को पैदा किया कोई तुममें
काफ़िर है और कोई मोमिन और जो कुछ तुम करते हो ख़ुदा उसको देख रहा है” (६४:२)
“और (ऐ रसूल) अगर मुशरिकीन में से कोई तुमसे पनाह
मागें तो उसको पनाह दो यहाँ तक कि वह ख़ुदा का कलाम सुन ले फिर उसे उसकी अमन की
जगह वापस पहुँचा दो ये इस वजह से कि ये लोग नादान हैं” (९:६)
“इसी सबब से तो हमने बनी इसराईल पर वाजिब कर दिया था
कि जो शख्स किसी को न जान के बदले में और न मुल्क में फ़साद फैलाने की सज़ा में
(बल्कि नाहक़) क़त्ल कर डालेगा तो गोया उसने सब लोगों को क़त्ल कर डाला और जिसने एक
आदमी को जिला दिया तो गोया उसने सब लोगों को जिला लिया और उन (बनी इसराईल) के पास
तो हमारे पैग़म्बर (कैसे कैसे) रौशन मौजिज़े लेकर आ चुके हैं (मगर) फिर उसके बाद भी
यक़ीनन उसमें से बहुतेरे ज़मीन पर ज्यादतियॉ करते रहे” (५:३२)
संदर्भ से बाहर प्रस्तुत सभी आयतों में कुरआन के संदेश के बिंदु की कमी है। निम्नलिखित
दो आयतें निश्चित रूप से मौलाना मौदुदी की आक्रामक जिहाद की धारणा का खंडन करते
हैं:
“जो लोग तुमसे तुम्हारे दीन के बारे में नहीं लड़े भिड़े
और न तुम्हें घरों से निकाले उन लोगों के साथ एहसान करने और उनके साथ इन्साफ़ से
पेश आने से ख़ुदा तुम्हें मना नहीं करता बेशक ख़ुदा इन्साफ़ करने वालों को दोस्त रखता
है” (६०:८)
“और अगर ये कुफ्फार सुलह की तरफ माएल हो तो तुम भी
उसकी तरफ माएल हो और ख़ुदा पर भरोसा रखो (क्योंकि) वह बेशक (सब कुछ) सुनता जानता है” (८:६१)
उपरोक्त सभी आयतों ने आक्रामक जिहाद के माध्यम से गैर-इस्लामिक राज्यों को
उखाड़ने की मौदूदी की विचारधारा का स्पष्ट रूप से खंडन किया है। उसी समय, ये आयतें हमें यह सोचने पर मजबूर
कर देती हैं कि इस्लाम बल से नहीं फैला था। कुरआन पढ़ने के बाद, कोई भी जागरूक व्यक्ति यह महसूस कर
सकता है कि जब पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को किसी भी प्रकार के ज़बरदस्ती
के साथ इस्लाम का प्रचार करने से मना किया गया था, तो किस तरह कोई और इस्लाम के
प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए कर सकता था? नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने
और उनके निर्देशित ख़लीफ़ाओं ने आक्रामक के बजाय केवल रक्षात्मक युद्ध लड़े।
गैर मुस्लिम रियासतों में असहिष्णुता के मौलाना मौदूदी के सिद्धांत
अबुल आला मौदूदी के अनुसार, एक विरोधी विचारधारा के तसल्लुत को बर्दाश्त करना एक कमज़ोर और झूटे ईमान की
निशानी है। उनका कहना है: “अगर तुम रियासत में एक विरोधी विचारधारा का तसल्लुत कायम करते हो तो यह इस बात
का सबूत है कि तुम्हारा ईमान कमज़ोर और बातिल है।“
थोड़ी सी बुद्धि वाला आदमी आसानी से मौदूदी की असहिष्णु विचारधारा का विरोध कर
सकता है। अल्लाह ने बार-बार मोमिनों को धर्मनिरपेक्ष और उदारवादी होने और पृथ्वी
पर शांति बनाए रखने की आज्ञा दी है। जैसा कि आयत (28:56), (3:20), (5:99), (2: 256), (109: 7), (10:99), (32:13), (11: 118) , (64: 2), और (9: 6) मुसलमानों को गैर-मुस्लिम बहुल राज्यों में सहिष्णुता की अवधारणा को
प्रस्तुत करते हैं।
इसके अलावा कुरआन कहता है “जो चाहो सो कर लो। जो कुछ तुम करते हो वह उनको देख रहा है।“ (४१:४०) और “जो कार्य तुम किया करते हो उन्ही का तुमको बदला दिया
जाएगा” (६६:७)। इन दोनों आयतों में खुदा ने स्पष्ट तौर पर यह बयान कर दिया कि हर नेक
और बद काम इंसान खुद अंजाम देता है किसी के अच्छे और बुरे कारनामों का जवाबदेह कोई
दुसरा नहीं है। यह एक ऐसी आज़ादी है जिसे खुदा ने बद और नेक कामों से पूरी इंसानियत
को अता किया है। हर व्यक्ति को उसके अपने कर्मों के अनुसार बदला या सज़ा दीया
जाएगा। यह खुदा की मर्ज़ी है कि उसने लोगों की आज़माइश के लिए बुरे और अच्छे दोनों
तरह के कर्मों को पैदा किया और इस वजह से किसी को भी बुराई की बीख कुनी के नाम पर
गैर मुस्लिमों को क़त्ल करने का हक़ नहीं है।
जहां तक एक मोमिन के कमजोर और मजबूत ईमान का संबंध है, यह तकवा और पवित्रता से उत्पन्न
होता है, असहिष्णुता से नहीं। इस प्रकार इसे
समझाया जा सकता है:
इस्लाम के बारे में तीन चीजें बुनियादी हैं। सबसे पहला ईमान है, दुसरा अमल है और तीसरा फ़ज़ीलत व बुज़ुर्गी का आला मरहला
(रूहानी कमाल) है। अकीदे को ईमान के तौर पर जाना जाता है जिसका अर्थ अमन है। अमल
इस्लाम के तौर पर जाना जाता है इसका मतलब भी अमन है। रूहानी फ़ज़ीलत और बरतरी को
एहसान के तौर पर जाना जाता है जिसका अनुवाद अमन और रहमत है।
नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज्जतुल विदाअ (आखरी हज) के मौके पर लोगों से
इस तरह ख़िताब किया “लोगों हमने तो तुम सबको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया और हम ही ने तुम्हारे
कबीले और बिरादरियाँ बनायीं ताकि एक दूसरे की शिनाख्त करे इसमें शक़ नहीं कि ख़ुदा
के नज़दीक तुम सबमें बड़ा इज्ज़तदार वही है जो बड़ा परहेज़गार हो बेशक ख़ुदा बड़ा
वाक़िफ़कार ख़बरदार है” (४९:१३)
नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मजीद फरमाया कि कुरआनी आयत की रौशनी में किसी
अरब को किसी गैर अरब पर कोई बरतरी हासिल नहीं है, और ना ही एक काले पर किसी भी तरह से एक गोरे को या
इसके विपरीत। बड़ाई और इज्ज़त का केवल एक पैमाना तकवा का उन्सुर है। (हज़रत मोहम्मद
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का आखरी खुतबा)
अबू सरीह से मरवी है: नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि:
“खुदा की कसम वह मोमिन नहीं है, वह मोमिन नहीं है, वह मोमिन नहीं है, “किसी ने पूछा या रसूलुल्लाह कौन
मोमिन नहीं है?” आपने फरमाया वह जो अपने [पड़ोसियों को अमन और सुरक्षा प्रदान नहीं कर सका।
(सहीह बुखारी, जिल्द८, नंबर ४५)
इस हदीस में हर तरह के पड़ोसी शामिल हैं चाहे वह मुसलमान हों या गैर मुस्लिम, एक मुसलमान वह है जो उनके मज़हब या रंग से परे तमाम
पड़ोसियों को अमन और सुरक्षा प्रदान करता है। यह हदीस स्पष्ट तौर पर गैर मुस्लिम
रियासतों में असहिष्णुता अपनाने के बारे में मौलाना मौदूदी के सिद्धांतों का रद्द
करती हैं।
परिणाम:
उपरोक्त कुरआन की आयतों और हदीसों का गहराई से अध्ययन करने से कोई भी इंसान ये जान सकता है कि असहिष्णुता, उग्रवाद, आक्रामक जिहाद, गैर-इस्लामिक राज्यों और उन राज्यों को उखाड़ फेंकने से संबंधित जो मौदूदी के
लिए अधिक इस्लामी नहीं हैं, सिद्धांतों को इस्लाम अस्वीकार करता है।
अब हमारे लिए जरूरी है कि अमन व शांति कायम करने के लिए मौलाना मौदूदी के
अनुयायियों और जमात-ए-इस्लामी में समान विचारधारा वाले चरमपंथी लोगों के सामने
अल्लाह पाक के कलाम की सही व्याख्या शुरू करें, अन्यथा, मौलाना मौदूदी के अनुयायियों
द्वारा फैलाए गए तशद्दुद इस्लाम के नाम फैलते रहेंगे। हमें याद रखना चाहिए कि जब
तक हम मुख्य धारा के मुस्लिम इस्लामी शिक्षाओं पर होने वाली हिंसक व्याख्या का
जवाब नहीं देते तब तक दुनिया के हिस्सों मे लोग
तशद्दुद और हिंसा से पीड़ित होते रहेंगे जैसा की हम पाकिस्तान, सीरिया, इराक और मिस्र आदि जैसे मुल्कों मे
देखते रहते हैं। हमे अमन व शांति के रास्तों को बढ़ावा देने की जरूरत है। जाहिर है, एक बुरे और आपराधिक रास्ते पर चलकर
कोई पवित्र लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता। इसी तरह, शांति के लक्ष्यों को क्रूर और
दमनकारी तरीकों से हासिल नहीं किया जा सकता है। इस विषय पर इस्लामी शिक्षाओं को
निम्नलिखित आयतों में संक्षेपित किया जा सकता है।
“करीब है कि ख़ुदा तुम्हारे और उनमें से तुम्हारे
दुश्मनों के दरमियान दोस्ती पैदा कर दे और ख़ुदा तो क़ादिर है और ख़ुदा बड़ा बख्शने
वाला मेहरबान है। (६०:७)
(बेशक, खुदा सबसे बेहतर जानने वाला है)
(उर्दू से अनुवाद: न्यू एज इस्लाम)
हवाला: Maulana Maududi on Jihad in Islam
http://www.newageislam.com/radical-islamism-and-jihad/maulana-maududi-on-jihad-in-islam/d/1268
न्यू एज इस्लाम
के नियमित लेखक, गुलाम गौस सिद्दीकी एक क्लासिकल इस्लामिक स्कॉलर हैं।
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