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Hindi Section ( 29 March 2022, NewAgeIslam.Com)

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Debunking Jihad of ISIS and Its False Theory That ‘Non-Jihadists Can’t Issue Fatwas on Jihad and Mujahid’ - Part 2 आइएसआइएस का स्वयंभू सिद्धांत कि ‘गैर जिहादी जिहाद और मुजाहिद पर फतवा जारी नहीं कर सकते’ का रद्द

गुलाम गौस सिद्दीकी, न्यू एज इस्लाम

उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम

भाग 2

23 नवंबर 2021

आइएसआइएस के इस सिद्धांत का रद्द कि जो व्यक्ति जिहाद से बचता है उसके पास मुजाहिद पर फतवा जारी करने का कोई जवाज़ नहीं है।

प्रमुख बिंदु:

1. मुस्लिम बहुसंख्यक के प्रतिक्रिया के बाद जिहादी संगठनों ने फर्जी सिद्धांत बना लिए।

2. यह फर्जी सिद्धांत कि गैर जिहादियों के पास मुजाहिद पर फतवा देने का कोई जवाज़ नहीं हैइस्लामी कानून स्रोत [फिकही कवाएद] से लिया गया नहीं है बल्कि आइएसआइएस और दुसरे जिहादियों का इजाद किया हुआ सिद्धांत है।

3. मुफ़्ती होने का मेयार, कि जंगजू हो, मुजाहिद हो, या सीमावर्ती क्षेत्रों का नागरिक हो, कभी भी इस्लामी उसुलैन और फुकहा ने निर्धारित नहीं किया है।

4. यह जिहादी जिहाद नहीं कर रहे हैं बल्कि अत्याचार का प्रतिबद्ध कर रहे हैं।

5. कुरआन व सुन्नत ने अपने अनुयायिओं पर स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें जिहाद और जंग सहित विभिन्न क्षेत्रों में ज़्यादती से बाज़ रहना चाहिए।

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(Representational Photo/ISIS)

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दुनिया भर के मुस्लिम उलमा और मुफ्तियाने कराम ने आइएसआइएस की तथाकथित खिलाफतका न केवल बाईकाट किया बल्कि उनके गैर कानूनी व्यवहार और बयानों का अंदाजा लगाने के बाद उन्हें ख्वारिज भी करार दिया। मुस्लिम अक्सरियत के प्रतिक्रिया के बाद, न केवल आइएसआइएस बल्कि दुसरे तथाकथित जिहादी संगठनों ने भी फिकही अहकाम की आड़ में एक फर्जी सिद्धांत बना लिया, जिससे दुनिया को यह बावर कराने का प्रयास किया गया कि जो मुफ़्ती जिहाद में शरीक नहीं है, उसके पास जिहाद और मुजाहिद पर फतवा देने का कोई जवाज़ नहीं है। इसलिए उन्होंने अरबी का यह सिद्धांत बनाया:

"لا يفتي قاعد لمجاهد"

जो शख्स [जिहाद से गुरेज़ कर के] बैठा है वह मुजाहिद पर फतवा देने का मजाज़ नहीं।

इस सिद्धांत का अर्थ यह है कि जो मुफ़्ती जिहाद में मशगूल नहीं है वह जिहाद या मुजाहिद के विषय पर फतवा देने या तब्सेरा करने का अहल नहीं है। अगर कोई मुफ़्ती आइएसआइएस या उसके किसी मुजाहिद के खिलाफ फतवा जारी करता है तो आइएसआइएस के मुताबिक़ उसका फतवा बेकार माना जाएगा। इस सिद्धांत को काम में लाते हुए वह यह भी लोगों को बताते हैं कि जिहाद, मुजाहिद और उम्मत के भविष्य के बारे में बात करने का अधिकार केवल उनके पास है। यह मामूल आइएसआइएस और दुसरे जिहादी संगठनों के दिमाग में इतना पेवस्त हो चूका है कि वह दुनिया भर के इस्लाम के माहिरों की तरफ से पेश किये हुए जवाबी दलीलों को सुनने के लिए भी तैयार नहीं हैं, ताकि अपनी हिंसक कार्यवाहियों से बाज़ आएं।

इस गलत और बेबुनियाद सिद्धांत को अब लगभग हर जिहादी संगठन इस्तेमाल कर रही है, और सीरिया, और मिस्र के कई प्रसिद्ध उलमा और बुद्धिजीवियों ने कई कारणों की बिना पर इसका जवाब दिया है। इस लेख में हम कुछ महत्वपूर्ण कारणों पर बात करेंगे और अपने पाठकों को याद दिलाएंगे कि आइएसआइएस एक इस्लाम विरोधी संगठन है जिसका उद्देश्य इस्लाम की छवि को दागदार करना, मुसलमानों का कत्ले आम करना, मुस्लिम देशों को तबाह करना, और मुसलमानों को अपने घरों से भागने और भूक और तबाही की तरफ हिजरत करने पर मजबूर करना है। यही वह लोग हैं जो गैर मुस्लिम बहुल देशों में रहने वाले मुसलमानों के लिए परेशानी का कारण बन कर गैर मुस्लिमों में संदेह के बीज बो रहे हैं।

यह फर्जी सिद्धांत कि गैर जिहादियों के पास मुजाहिद पर फतवा देने का कोई जवाज़ नहीं हैइस्लामी कानूनी स्रोत [फिकही कवाएद] या उन फिकही सिद्धांतों से लिया गया नहीं जिनसे हकीकत मालुम होती है, और इसकी कुरआन या सुन्नत में कानूनी कोई बुनियाद भी नहीं है। और फुकहा ने इसे हक़ और बातिल के बीच तमीज़ के लिए कभी भी मेयार के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया।

हक़ और बातिल के बीच अंतर को जानना, और फतवा का सहीह होना, जिहाद या इबादत में हिस्सा लेने के बजाए इस्तिम्बात और उसके काम करने के तरीके पर आधारित है। इल्म वालों ने प्रमाणिक तथ्यों के आधार पर मुफ़्ती की शर्तें बयान की हैं और उनमें से कुछ शर्तें निम्नलिखित हैं:

कुरआन, सुन्नत और संबंधित उलूम और सिद्धांत का ज्ञान होना

इज्माअ के सभी शोबों, अकाएद, फिकही मकातिब, और फुकहा के दृष्टिकोण और मतभेद का ज्ञान होना

उसूले फिकह की पुरी समझ, इस्लामी कानूनी स्रोत और उसूल, शरीअत के उद्देश्य, और उन उलूम का हुसूल जो कुरआन व सुन्नत को समझने में मददगार हैं, जैसे नहव व सर्फ़, बलागत और इल्मे बयान व बदीअ आदि

लोगों के हालात, रस्मो रिवाज, ज़माने के हालात, और उसकी पेशरफ्त का इल्म, और उनकी तब्दीली जो कि एक स्वीकार्य रिवाज (उर्फे आम) पर आधारित है जो नस से मुत्सादुम न हो।

नस से शरई अहकाम अख्ज़ करने के लिए आवश्यक फिकही अहलियत का होना।

समकालीन मसाएल जैसे तिब्बी और मुआशी मसाएल को समझने के लिए माहेरीन और तजुर्बा कार अहले इल्म अफराद से मशवरा करना।

एक मुफ़्ती का यह मेयार कि वह जंगजू हो, मुजाहिद हो, या सीमावर्ती क्षेत्रों का रहने वाला हो, इस्लामी उसुलैन और फुकहा ने कभी भी निर्धारित नहीं किया है। बल्कि उन्होंने बुनियादी सिद्धांत निर्धारित किया है कि एक माहिर आलिम का कौल काबिले कुबूल है, जबकि एक जाहिल का कौल काबिले कुबूल नहीं है। अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उस आलिम या जाहिल का संबंध किसी विशेष क्षेत्र, जगह या संगठन से हो या न हो।

चार अज़ीम इमामों समेत बहुत से इमाम और फुकहा फातेहीन नहीं थे। इसके बावजूद जिहाद का बाब, जिस पर उन्होंने फतवा मुरत्तब और जारी किया है, इस्लामी फिकह में एक संगे मील की हैसियत रखता है और हर दौर के उलमा ने इस पर भरोसा भी किया है।

बल्कि फकीह या मुफ़्ती को चाहिए कि वह जिस मसले पर फतवा दे रहा है उसकी पूरी समझ रखता हो और उस महारत को अपने कानूनी फैसले की बुनियाद बनाए। उसे रस्मों और रिवाजों पर आधारित नियमों और फैसलों का इल्म भी होना जरूरी है जो वक्त और जगह के साथ बदल सकते हैं, जैसा कि विभिन्न मकातिब के बड़े बड़े उलमा और फुकहा ने कई शोबों, कवाएद और हालत के संदर्भ में पेश किया है, और विभिन्न शोबों और इलाकों के समकालीन मसलों का हल पेश किया है।

पुरे चौदह सौ साल के इतिहास के कुरआन व सुन्नत या क्लासिकी फिकही किताबों में इस बात का कोई सुबूत नहीं मिलता कि जिहाद का फतवा देने के लिए जिहाद बिल किताल में शामिल होना शर्त है। इसलिए, यह कहना बिलकुल सहीह है कि यह जिहादी सिद्धांत बिलकुल हास्यास्पद और निराधार है, क्योंकि या कुरआन, सुन्नत या किसी इमाम के फतवे के उसूल पर आधारित नहीं है।

इसके अलावा जिहादियों का दावा कि वह जिहाद कर रहें हैं, यह सरासर गलत है वह जिहाद नहीं कर रहे हैं बल्कि अत्याचार कर रहे हैं। अगर आप दुनिया भर में आतंकवादी समूहों की तरफ से अंजाम दिए गए तमाम घिनावानें आतंकवादी हमलों का जाएज़ा लें और अल्लाह पाक की तमाम वाज़ेह हुदूद पर गौर करें तो आप इस ठोस नतीजे पर पहुंचेंगे कि जिहाद और इस्लाम के नाम पर ज़ुल्म ढाने वाले आतंकवादी गिरोह फासिक हैं।

इस्लाम में जिहाद को दो शोबों में बांटा गया है: एक जिहाद बिल किताल और दुसरा जिहाद बिन्नफ्स अर्थात (बातिनी रूहानी संघर्ष)। जिहाद बिन्नफ्स तकवा का एक महत्वपूर्ण तत्व है कहीं भी किया जा सकता है। जिहाद बिल किताल इस्लामी हुकूमतों का फरीज़ा है जैसा कि हमें मालूम है। केवल इस्लामी हुकूमत ही इस सूरते हाल में अपनी सरज़मीन और बाशिंदों बशमूल मुसलमानों और गैर मुस्लिमों के बचाव के लिए और आतंकवाद, हिंसा, जब्र और दुसरे प्रकार के ज़ुल्म व सितम का मुकाबला करने के लिए जिहाद का एलान कर सकती है।

हम आधुनिक लोकतांत्रिक देशों में रहते हैं जहां संविधान के माध्यम से धार्मिक स्वतंत्रता और सुरक्षा की ज़मानत दी गई है और इसे अमली तौर पर यकीनी बनाया जाना चाहिए। ऐसे लोकतांत्रिक देशों में किताल पर आधारित जिहाद नहीं होना चाहिए। हम यहाँ जिहाद बिननफ्सही कर सकते हैं जो व्यक्तिगत बुराइयों, ख्यालात, हिर्स व हवस, ग़ज़ब, झूट, मक्कारी, धोका फ़रेबकारी, तास्सुब, इन्तेहा पसंदी और इन्तेकामी जज़्बे के खिलाफ एक आंतरिक रूहानी संघर्ष है। यकीनन जिहाद बिननफ्स हमें अपने ज़हनों को पुरसुकून रखने के लिए रूहानी ताकत प्रदान करती है और राजनीतिक, धार्मिक या सांसारिक विवादों के गैर इरादी प्रभावों का सामना करने पर हमें सब्र और बर्दाश्त की ताकत अता करती है।

इस्लामी जिहाद का एक और सिद्धांत इस्लामी हुकूमत के एलान पर इस्लामी हुकूमत के झंडे तले मज़हबी हुकूक और जान व माल की हिफाजत के लिए लड़ना है। इस किस्म का जिहाद ज़ुल्म के साथ नहीं लड़ा जा सकता।

कुरआन व सुन्नत ने अपने पैरुकारों पर वाज़ेह कर दिया है कि उन्हें जंग समेत अलग अलग शोबों में ज़्यादती से बाज़ रहना चाहिए। आइए इसके कुछ अहम पहलुओं पर एक गंभीर नज़र डालते हैं।

अल्लाह पाक का इरशाद है, “हद से आगे न बढ़ो, और अल्लाह हद से आगे बढ़ने वालों को पसंद नहीं करता (2:190)

क्लासिकी इस्लामी उलमा की अक्सरियत के मुताबिक़, उपर्युक्त आयत मोहकम है न कि मंसूख। वह इस खुदाई फरमान को इस्तेमाल करते हुए जंग के विशेष सिद्धांतों का जायज़ा लेते हैं, जैसे औरतों, बच्चों, बूढ़ों, राहिबों, हरमतियों, दायमी तौर पर बीमारों और किसानों के क़त्ल की मनाही।

हज़रत इब्ने अब्बास रज़ीअल्लाहु अन्हु ने फरमाया कि हद से न बढ़ोका मफहूम यह है कि औरतों, बच्चों, बूढ़ों, या सुलह करने वालों को क़त्ल न करो और हाथ रोके रखो। अगर तुमने ऐसा किया तो तुम उन पर ज़्यादती करोगे। (जामेउल बयान, जिल्द 2, पेज 110-111, मतबूआ, बैरुत दारुल मआरिफ)

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब भी किसी लश्कर के सिपहसालार को रवाना करते तो उसे ज़ाती तौर पर अल्लाह से डरने की तलकीन करते और ज़ुल्म व ज़्यादती, बच्चों के क़त्ल, बलात्कार और खयानत से मना करते। (तिरमिज़ी, इब्ने माजा, अबू दाउद आदि)

हज़रत अबू बकर सिद्दीक रज़ीअल्लाहु अन्हु फ़ौज के सिपाहियों को तलकीन करते थे कि न किसी बच्चे को क़त्ल करो, न औरत और न किसी बूढ़े को। पेड़ों को कोई नुक्सान न पहुँचाओ और न ही उन्हें आग से जलाओ ख़ास तौर पर जो पेड़ फलदार हों। दुश्मन के रेवड़ में से किसी को न मारो, अपने खाने के लिए बचाओ। संभव है तुम्हारे सामने ऐसे लोग भी पेश हों जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी खानकाही खिदमात के लिए वक्फ़ कर राखी है, उन्हें छोड़ देना।(मौता इमाम मालिक पेज 466)

अब हम मज़ीद कुछ ऐसी आयतों का भी अध्ययन करते हैं जिनमें अल्लाह ने मुसलमानों को ज़ुल्म व ज़्यादती से मना किया है;

और हद से न बढ़ो क्यों कि ख़ुदा हद से बढ़ जाने वालों को हरगिज़ दोस्त नहीं रखता। (5:87)

(लोगों) अपने परवरदिगार से गिड़गिड़ाकर और चुपके - चुपके दुआ करो, वह हद से तजाविज़ करने वालों को हरगिज़ दोस्त नहीं रखता और ज़मीन में असलाह के बाद फसाद न करते फिरो और (अज़ाब) के ख़ौफ से और (रहमत) की आस लगा के ख़ुदा से दुआ मांगो। (7:56)

हम यूंही हद से गुज़र जाने वालों के दिलों पर (गोया) खुद मोहर कर देते हैं। (10:74)

और उन लोगों ने क़हरे खुदा की तरफ पलटा खाया, ये सब इस सबब से हुआ कि वह लोग खुदा की निशानियों से इन्कार करते थे और पैग़म्बरों को नाहक शहीद करते थे, और इस वजह से (भी) कि वह नाफ़रमानी और सरकशी किया करते थे। (2:61)

और अपनी क़ौम से उन लोगों की हालत तो तुम बखूबी जानते हो जो शम्बे (सनीचर) के दिन अपनी हद से गुज़र गए (कि बावजूद मुमानिअत शिकार खेलने निकले) तो हमने उन से कहा कि तुम राइन्दे गए बन्दर बन जाओ (और वह बन्दर हो गए)। (2:65)

ऐ मोमिनों जो लोग (नाहक़) मार डाले जाएँ उनके बदले में तुम को जान के बदले जान लेने का हुक्म दिया जाता है आज़ाद के बदले आज़ाद और ग़ुलाम के बदले ग़ुलाम और औरत के बदले औरत पस जिस (क़ातिल) को उसके ईमानी भाई तालिबे केसास की तरफ से कुछ माफ़ कर दिया जाये तो उसे भी उसके क़दम ब क़दम नेकी करना और ख़ुश मआमलती से (ख़ून बहा) अदा कर देना चाहिए ये तुम्हारे परवरदिगार की तरफ आसानी और मेहरबानी है फिर उसके बाद जो ज्यादती करे तो उस के लिए दर्दनाक अज़ाब है। (2:178)

ये ख़ुदा की मुक़र्रर की हुई हदें हैं बस उन से आगे न बढ़ो और जो ख़ुदा की मुक़र्रर की हुई हदों से आगे बढ़ते हैं वह ही लोग तो ज़ालिम हैं। (2:229)

पूरी आयत तलाक के मसले से सीधे संबंध रखती है, लेकिन दूसरी आयतों की तरह इसका भी एक वसीअ इतलाक है, जिसका मतलब यह है कि किसी भी मामले में अल्लाह की मुकर्रर करदा हद से बाहर नहीं जाना चाहिए।

और जब तुम अपनी बीवियों को तलाक़ दो और उनकी मुद्दत पूरी होने को आए तो अच्छे उनवान से उन को रोक लो या हुस्ने सुलूक से बिल्कुल रुख़सत ही कर दो और उन्हें तकलीफ पहुँचाने के लिए न रोको ताकि (फिर उन पर) ज्यादती करने लगो और जो ऐसा करेगा तो यक़ीनन अपने ही पर जुल्म करेगा और ख़ुदा के एहकाम को कुछ हँसी ठट्टा न समझो और ख़ुदा ने जो तुम्हें नेअमतें दी हैं उन्हें याद करो और जो किताब और अक्ल की बातें तुम पर नाज़िल की उनसे तुम्हारी नसीहत करता है और ख़ुदा से डरते रहो और समझ रखो कि ख़ुदा हर चीज़ को ज़रुर जानता है। (2:231)

और जिस शख्स से ख़ुदा व रसूल की नाफ़रमानी की और उसकी हदों से गुज़र गया तो बस ख़ुदा उसको जहन्नुम में दाख़िल करेगा। (4:14)

और किसी क़बीले की यह अदावत कि तुम्हें उन लोगों ने ख़ानाए काबा (में जाने) से रोका था इस जुर्म में न फॅसवा दे कि तुम उनपर ज्यादती करने लगो और (तुम्हारा तो फ़र्ज यह है कि ) नेकी और परहेज़गारी में एक दूसरे की मदद किया करो और गुनाह और ज्यादती में बाहम किसी की मदद न करो और ख़ुदा से डरते रहो (क्योंकि) ख़ुदा तो यक़ीनन बड़ा सख्त अज़ाब वाला है। (5:2)

आइए यहाँ रुकते हैं और इस इबारत पर और गहराई से गौर करते हैं जो हमें ज़ुल्म और दुश्मनी में मदद से गुरेज़ करते हुए इंसाफ में मदद करने की ताकीद करती हैं। अहले ईमान को हुक्म दिया गया है कि उन लोगों के खिलाफ भी ज़्यादती न करें जो उनके खिलाफ नफरत रखते हैं।

(ऐ रसूल) तुम उनमें से बहुतेरों को देखोगे कि गुनाह और सरकशी और हरामख़ोरी की तरफ़ दौड़ पड़ते हैं जो काम ये लोग करते थे वह यक़ीनन बहुत बुरा है। (5:62)

ऐ ईमानदार जो पाक चीज़े ख़ुदा ने तुम्हारे वास्ते हलाल कर दी हैं उनको अपने ऊपर हराम न करो और हद से न बढ़ो क्यों कि ख़ुदा हद से बढ़ जाने वालों को हरगिज़ दोस्त नहीं रखता। (5:87)

और बहुतेरे तो (ख्वाहमख्वाह) अपनी नफसानी ख्वाहिशों से बे समझे बूझे (लोगों को) बहका देते हैं और तुम्हारा परवरदिगार तो हक़ से तजाविज़ करने वालों से ख़ूब वाक़िफ है। (6:119)

ये लोग किसी मोमिन के बारे में न तो रिश्ता नाता ही कर लिहाज़ करते हैं और न क़ौल का क़रार का और (वाक़ई) यही लोग ज्यादती करते हैं। (9:10)

और ये ख़ुदा की (मुक़र्रर की हुई) हदें हैं और जो ख़ुदा की हदों से तजाउज़ करेगा तो उसने अपने ऊपर आप ज़ुल्म किया। (65:1)

हमने आइएसआइएस और दुसरे आतंकवादी संगठनों की तरफ से कई खौफनाक जंगों और हमलों के नतीजे में बड़े पैमाने पर तबाही और भारी जानी नुक्सान देखा है। यह वह जिहाद नहीं है जिनका ज़िक्र कुरआन व सुन्नत में है, बल्कि वह ज़ुल्म व ज्यादतियां हैं जिनका जवाज़ जिहादीनहीं पेश कर सकते।

English Article:  Refuting ISIS Concept of Caliph and Caliphate [Khalifa and Khilafah] – Part 1

English Article: Debunking Jihad of ISIS and Its False Theory That ‘Non-Jihadists Can’t Issue Fatwas on Jihad and Mujahid’ - Part 2

Urdu Article: Refuting ISIS Concept of Caliph and Caliphate [Khalifa and Khilafah] – Part 1 خلیفہ اور خلافت پر داعش کے تصور کی تردید

Urdu Article: Debunking Jihad of ISIS and Its False Theory That ‘Non-Jihadists Can’t Issue Fatwas on Jihad and Mujahid’ - Part 2 داعش کا خود ساختہ نظریہ کہ 'غیر جہادی جہاد اور مجاہد پر فتویٰ جاری نہیں کر سکتے' کی تردید

Hindi Article: Refuting ISIS Concept of Caliph and Caliphate [Khalifa and Khilafah] – Part 1 खलीफा और खिलाफत पर आइएसआइएस के अवधारणा का रद्द

URL: https://www.newageislam.com/hindi-section/jihad-isis-jihadist-fatwa-mujahid-part-2/d/126675

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