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Hindi Section ( 27 March 2014, NewAgeIslam.Com)

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Fatwas Are Opinions, Not Laws फ़तवा क़ानून नहीं, राय है

 

मौलाना वहीदुद्दीन खान

14 मार्च, 2014

25 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि मुफ़्तियों के द्वारा दिये गए फतवे और कड़े आदेशों को कोई कानूनी मंज़ूरी हासिल नहीं है। दो सदस्यीय बेंच ने ये फैसला दिया है कि, "जिस चीज़ को कानूनी मंज़ूरी हासिल न हो उसका किसी को भी संज्ञान लेने की ज़रूरत नहीं है। मुफ्ती किसी भी मुद्दे को उठा सकते हैं और उस पर फतवा दे सकते हैं। लेकिन ये किसी भी मुद्दे पर किसी आम आदमी की राय के समान ही होगा।" अदालत का ये फैसला शरीयत के अनुसार है।

फोटो: शैलेंद्र पांडे

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शरीयत फतवा और क़ज़ा (आदेश, फैसला) के बीच अंतर करती है। फतवा निजी मामले पर किसी व्यक्ति द्वारा मुफ्ती से ली गयी सलाह पर मुफ्ती द्वारा दी गयी राय होती है। फतवा का शाब्दिक अर्थ राय है और फतवा कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है। ये केवल सम्बंधित व्यक्ति पर लागू होता है और केवल वही इसे स्वीकार करने या अस्वीकार करने का फैसाल कर सकता है। दूसरी तरफ क़ज़ा का मतलब न्यायिक फैसला है। किसी मुफ्ती को क़ज़ा (निर्णय) जारी करने की इजाज़त नहीं है, बल्कि ये सरकार द्वारा अधिकृत अदालत का विशेषाधिकार है और जो सभी पर बाध्यकारी होता है।

भारत एक सेकुलर देश है जहां कानून का शासन प्रचलित है। संसद के द्वारा पारित कानून मुसलमानों और दूसरे समुदायों पर समान रूप से लागू होते हैं। अलग शरई कानून के लिए आग्रह करने का मुसलमानों के पास कोई कारण नहीं है। वो इबादत से सम्बंधित मामलों में शरीयत का पालन करने के लिए आज़ाद हैं, जो कि पूरी तरह निजी मामला है। लेकिन सामाजिक मामलों में उन्हें सभी समुदायों पर लागू होने वाले कानूनों का ही पालन करना ज़रूरी है।  

ब्रिटिश सरकार ने मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) अनुप्रयोग अधिनियम, 1937 को पारित कर मुसलमानों के लिए अलग कानूनी स्थिति की अवधारणा की शुरूआत की। इसलिए ये इस्लामी सिद्धांत नहीं बल्कि ब्रिटिश परम्परा है। कानूनी अलगाववाद की अवधारणा ने ब्रिटिश शासकों के राजनीतिक हितों को पूरा किया। लेकिन आज़ाद भारत में इस नीति को जारी रखने की कोई ज़रूरत नहीं है।

पैगम्बरे इस्लाम सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम 623 ई. में मक्का से हिजरत करके मदीना में बस गए। हालांकि इससे पहले मदीना में कुछ मुसलमान रहते थे और वहां यहूदी कबीले आर्थिक रूप से और शायद संख्या के हिसाब से भी प्रबल थे। वहाँ यहूदी अदालत थी और उस समय के मुसलमान अपनी समस्याएं इसी अदालत में ले जाया करते थे। इन लोगों ने कभी भी अलग अदालत की मांग नहीं की।

इसके बाद जब 632 ई. में नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की मृत्यु हो गयी तो बड़ी संख्या में मुसलमानों ने अरब को छोड़ कर पड़ोसी देशों में जाकर बस गए। इतिहास इस बात का गवाह है कि मुसलमान जिन देशों में बसे उनकी कानूनी व्यवस्था को स्वीकार किया और उन्होंने अलग कानूनी व्यवस्था की मांग नहीं की। ये पैगंबर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के सहाबा (साथियों) के जीवन का एक उदाहरण है। इस्लाम में सहाबा की मिसालें, सही मिसाल हैं। और ये भारतीय संदर्भ में भी लागू करने के लायक हैं।

न ही अलग अदालत की मांग करना उचित है और न ही फतवों के मामले में समानांतर व्यवस्था स्थापित करना सही है। दोनों ही अनुचित हैं। सही रास्ता सिर्फ ये है कि दूसरे समुदायों की तरह मुसलमानों को भी अपने देश के कानून का पालन करना चाहिए। उन्हें अपने निजी जीवन में अपने तरीके से इबादत आदि करने की आज़ादी है लेकिन अपने समुदाय के लिए अलग कानूनी व्यवस्था की मांग करना सही नहीं है।

पश्चिमी देशों में मुसलमानों ने एक व्यावहारिक फार्मूला अपना रखा है। अलग कानून की माँग करने के बजाय वो मौजूदा कानूनों के साथ समायोजित होने के तरीके खोजते हैं। मिसाल के तौर पर पश्चिमी देशों में विरासत का कानून इस्लामी कानून से अलग है। इसके बावजूद जहां तक मुझे मालूम है इन देशों में रहने वाले मुसलमानों ने विरासत के बारे में अलग कानून की मांग कभी नहीं की। इसके बजाय उन लोगों ने अत्यंत व्यावहारिक समाधान को अपनाया है। विरासत को इस्लामी मानदंडों के मुताबिक सुनिश्चित करने के लिए वो वसीयत लिखने की परम्परा का पालन करते हैं।

कुरान के अनुसार इस्लाम के दो हिस्से हैः 1. दीन (धर्म) और 2. शरीयत। दीन में वो बुनियादी सिद्धांत शामिल हैं जो सार्वभौमिक रूप से लागू होने के लायक हैं। इसमें इख़लास या ईमानदारी, विश्वास, नैतिक मूल्यों और इबादत पर शिक्षाएं शामिल हैं जिनका हर मुसलमान को हर स्थिति में पालन करना चाहिए। ये शिक्षाएं प्रकृति में व्यक्तिगत हैं, इसलिए किसी भी समाज में दूसरों के लिए परेशानी पैदा किए बिना ही इनका पालन करने में कोई समस्या नहीं है।

दूसरी तरफ शरीयत का मतलब सामाजिक कानून हैं जो किसी विशेष समाज के हालात के सापेक्ष और उसके अधीन हैं।  मुसलमानों को इस पर पूर्ण अर्थों में पालन की ज़रूरत नहीं है। जितनी समाज इजाज़त दे उस हद तक मुसलमान शरीयत पर अमल कर सकते हैं। फतवा पर ​​सुप्रीम कोर्ट का निर्णय किसी भी इस्लामी सिद्धांत का विरोध नहीं करता है और भारतीय मुसलमानों को इस फैसले का सम्मान करना चाहिए।

मौलाना वहीदुद्दीन खान नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पीस एंड स्पिरिचुआलिटी के प्रमुख हैं।

स्रोत: http://www.tehelka.com/fatwas-are-opinions-not-laws

URL for English Article: https://newageislam.com/islamic-sharia-laws/fat-opinions,-laws/d/56225

URL for Urdu article: https://newageislam.com/urdu-section/fat-opinions,-laws-/d/66268

URL for this article: https://newageislam.com/hindi-section/fat-opinions,-laws-/d/66285


 

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