फरीद जकारिया
08 सितम्बर, 2014
दो अमेरिकियों की जघन्य हत्या के वीडियो देखते हुए मुझे वैसा ही महसूस हुआ, मेरे भीतर वैसी ही भावनाएं पैदा हुईं जैसी न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रैड सेंटर पर हुए हमले के वीडियो देखने के बाद पैदा हुई थीं। बर्बरता इसीलिए दिखाई जाती है कि उससे गुस्सा भड़के और यह बर्बरता अपने इस मकसद में कामयाब हुई, लेकिन सितंबर 2001 के आतंकी हमले के बाद मैं एक सवाल पूछने पर भी मजबूर हुआ था, ‘वे अमेरिकियों से नफरत क्यों करते हैं?’ मैंने खुद से पूछे इस सवाल का जवाब देने में 7000 शब्द लगा दिए थे। यह लेख न्यूज़वीक में प्रकाशित हुआ था। इस लेख को पाठकों ने पसंद किया और वे इसकी मूल भावना से सहमत थे। मैंने उस लेख को फिर एक बार पढ़ा (http://ow.ly/B6g2V), मैं यह देखना चाहता था कि मैं कहां सही था तथा कहां गलती पर था और पिछले 13 वर्षों में मैंने क्या सीखा।
बात सिर्फ आतंकवादी संगठन अल कायदा से शुरू नहीं होती और न इसके साथ खत्म हो जाती है। मैंने इस तथ्य पर गौर करने से शुरुआत की कि इस्लामी आतंकवाद कुछ मुट्ठीभर, अलग-थलग पड़े अराजकतावादियों के व्यवहार का नतीजा नहीं है। एक वृहद संस्कृति है, जिसकी इसके साथ मिलीभगत भले ही न हो, लेकिन वह इससे लड़ने, इसका विरोध करने के लिए इच्छुक नहीं है। सामने से देखने पर स्थिति में बदलाव तो दिखाई देता है पर यह परिवर्तन काफी नहीं है। उतनी गहराई लिए नहीं है।
यह इस्लाम की समस्या नहीं है, बल्कि यह अरब विश्व की समस्या है। 2000 के दशक की शुरुआत में इंडोनेशिया, अमेरिकियों की चिंता का सबसे बड़ा कारण था, क्योंकि वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमले के बाद वहां आतंकवादी हमलों की एक शृंखला चल पड़ी थी। काफी खून-खराबा हुआ। हालांकि, पिछले दशक के दौरान जेहादियों और यहां तक कि इस्लामी कट्टरपंथियों का इंडोनेशिया में प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है। उनका समर्थन घटा है। इंडोनेशिया दुनिया का सबसे बड़ा मुस्लिम राष्ट्र है। इराक, सीरिया, मिस्र, लीबिया और खाड़ी के देशों के योग से भी बड़ा।
इसी दृष्टिकोण से भारत को देखिए। यह अयमान अल जवाहिरी के मुख्यालय के ठीक पड़ोस में ही है पर इसकी 16.50 करोड़ मुस्लिम आबादी के बहुत थोड़े लोग अल कायदा के सदस्य हैं। अपनी हताशा में जवाहिरी ने भारतीय मुस्लिमों को भर्ती करने के दुस्साहसी प्रयास की घोषणा की है, लेकिन मुझे भरोसा है कि यह नाकाम ही होगा।
सब कुछ खत्म कर देने की जेहादी समस्या अरब विश्व के राजनीतिक क्षरण का नतीजा है। मेरे उस लेख का केंद्रीय बिंदु यह था कि राजनीतिक ठहराव की वजह से अरब विश्व कट्टरवाद और जेहाद को जन्म देता है। 2001 आते-आते दुनिया के लगभग हर हिस्से में महत्वपूर्ण ढंग से राजनीतिक तरक्की दिखाई दी है। पूर्वी यूरोप, एशिया, लैटिन अमेरिका और यहां तक कि अफ्रीका तक में कई स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हुए हैं, लेकिन अरब विश्व इस मामले में मरुस्थल ही बना हुआ है। वहां लोकतंत्र का कोई संकेत नहीं है। 2001 में ज्यादातर अरबवासियों को उससे कम आजादी है, जो उन्हें 1951 में हासिल थी।
जीवन का एक पहलु ऐसा था, जिस पर अरब क्षेत्र के तानाशाह पाबंदी नहीं लगा पाए और वह था मज़हब, इसलिए इस्लाम राजनीतिक विरोध की भाषा बन गया, जरिया बन गया। जब अरब विश्व की पश्चिमी संस्कृति में ढली, धर्मनिरपेक्ष तानाशाही राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्तर पर बुरी तरह नाकाम हुई तो कट्टरपंथियों ने लोगों से कहा, ‘इस्लाम के पास इसका समाधान है।’
नतीजा यह हुआ कि अरब विश्व में एक तरफ तो तानाशाही थी और दूसरी तरफ अनुदार विपक्षी गुट थे। एकदम अतिवादी विकल्प। यानी होस्नी मुबारक या अल कायदा, और कोई विकल्प नहीं। सत्ता जितनी अतिवादी, विपक्ष भी उतना हिंसक। मैंने जितना सोचा था, यह कैंसर उससे कहीं ज्यादा गहराई लिए और विनाशक था। इराक से सद्दाम हुसैन को हटाने और अरब दुनिया के वसंत के बावजूद तानाशाहों और जेहादियों के बीच का यह संबंध नहीं टूटा।
सीरिया को देखिए, जहां अभी हाल तक बशर अल असद आईएसआईएस के नाम से पहचाने जाने वाले अतिवादी गुट इस्लामी स्टेट से तेल और गैस खरीदकर उसकी मदद कर रहे थे। वे इसके विरोधियों यानी फ्री सीरियन अार्मी, पर उस वक्त गोले भी बरसा रहे थे, जब दोनों संघर्ष में उलझे थे। असद दो ध्रुवों वाला विकल्प देकर पुराने तानाशाहों का खेल खेल रहे थे कि या तो मैं या अतिवादी गुट इस्लामी स्टेट यानी आईएसआईएस। और कई सीरियाइयों (मसलन, ईसाई अल्पसंख्यक) ने उन्हें चुना।
मिस्र में सबसे बड़ा झटका लगा, जहां अहिंसक इस्लामी आंदोलन सत्ता में आया था, लेकिन अतिमहत्वाकांक्षा के चलते इस आंदोलन ने मौके को बर्बाद कर दिया। मुस्लिम ब्रदरहुड की चुनावी नाकामी से संतुष्ट न होकर, सेना ने बलपूर्वक इसे हटाया और फिर सत्ता में आ गई। अब मिस्र में मुबारक के दिनों की तुलना में अधिक बर्बर पुलिसिया राज स्थापित हो गया है। मुस्लिम ब्रदरहुड पर प्रतिबंध लगा दिया गया, इसके सदस्यों की या तो हत्या कर दी गई या उन्हें जेल में डाल दिया गया। शेष भूमिगत हो गए। हम उम्मीद ही कर सकते हैं कि अब से 10 साल बाद हम मिस्र में आईएसआईएस जैसे कट्टरपंथी गुट के उदय के कारणों पर बहस करते न पाए जाए।
उस 13 साल पहले वाले लेख में मैं क्या चूक गया था? मेरी नजर से, मेरे विश्लेषण से क्या बात छूट गई थी? वह बात थी इन देशों की नाजुक दशा। मैं यह नहीं पहचान पाया था कि यदि तानाशाही लड़खड़ाई तो राज्य का पतन भी हो सकता है। सत्ता के नीचे कोई नागरिक समाज नहीं है और सही बात तो यह है कि कोई राष्ट्र ही नहीं है। मध्य पूर्व में अराजकता पैदा होते ही लोग इराकी, सीरियाई जैसी अपनी राष्ट्रीय पहचान के लिए नहीं, बल्कि इससे कहीं ज्यादा पुरानी पहचान, शिया, सुन्नी, कुर्द और अरब के लिए खड़े हो गए। जाहिर है राष्ट्रीयता का बोध उतना गहरा नहीं था।
मुझे ग्रेजुएट स्कूल में अपने मेंटर सेमुअल हटिंगटन की बात पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए था। मशहूर है कि उन्होंने एक बार कहा था कि अमेरिकियों को यह कभी ख्याल ही नहीं आया कि विकासशील दुनिया में कुंजी यह नहीं है कि सरकार कम्युनिस्ट, पूंजीवादी, लोकतांत्रिक है या तानाशाही बल्कि कुंजी इस बात में है कि सरकार में कोई चीज शुरू और खत्म करने की कितनी क्षमता है। लीबिया से इराक, वहां से सीरिया तक वैसी सरकार का अभाव ही हम इन दिनों वहां देख रहे हैं। हिंसा इसीलिए है।
स्रोतः http://www.bhaskar.com/news/ABH-bhaskar-editorial-on-violence-in-the-arab-4737753-NOR.html
URL: https://newageislam.com/hindi-section/political-stagnation-violence-arab-/d/98972