फरीद ज़कारिया
10 नवम्बर, 2014
इस हफ्ते के चुनावी नतीजों के बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के पास अगले दो साल में बड़ी चीजें करने की गुंजाइश है और वक्त भी। लेकिन ये चीजें वॉशिंगटन के परे, शेष दुनिया में होंगी। अगले हफ्ते होने वाली एशिया की यात्रा अच्छी शुरुआत हो सकती है। वास्तव में यह अजीब सी बात है कि ओबामा ने विदेश नीति पर पहले ही ज्यादा समय, ऊर्जा और ध्यान नहीं लगाया है। अब इस वक्त तो यह साफ हो ही गया है कि प्रमुख घरेलू मुद्दों को लेकर रिपब्लिकन पार्टी के साथ काम करने की ज्यादा संभावना नहीं है। इसे कोई भी मुश्किल से ही अभूतपूर्व कहेगा, क्योंकि ऐसा तो होता आया है। अमेरिका में राष्ट्रपति का प्रशासन प्राय: अपने अंतिम वर्ष अंतरराष्ट्रीय मसलों पर लगाता रहा है। यह ऐसा क्षेत्र है, जहां राष्ट्रपति को एकतरफा कार्रवाई की आजादी है।
यदि ओबामा अपने अंतिम वर्षों में विदेश नीति में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल करना चाहते हैं, तो उन्हें सबसे पहले उस विषय की जरूरत होगी, जिसके साथ उन्होंने राष्ट्रपति पद पर अपने कार्यकाल की शुरुआत की थी। सीरियाई और इराक में क्रमिक रूप से बढ़ता हस्तक्षेपवाद और यदि यह जारी रहा तो यह व्हाइट हाउस का पूरा ध्यान, जनता की रुचि और देश के सैन्य संसाधनों को अपनी ओर खींच लेगा। यह सफल भी नहीं होगा। यदि हमारे लिए सफलता का अर्थ सीरियाई गृह-युद्ध में लोकतांत्रिक ताकतों की जीत से है।
ओबामा की विदेश नीति में सबसे पहले एशिया पर केंद्रित होनी चाहिए, जो बहुत शक्तिशाली, बुद्धिमानीपूर्ण लेकिन अधूरी रही है। विश्व शांति और समृद्धि को सबसे बड़ा खतरा
सीरिया के हत्यारों के झुंड से नहीं बल्कि चीन के उदय और जिस तरह से वह एशिया व विश्व की भू-राजनीति को आकार देगा, उससे है। यदि वॉशिंगटन एशिया में संतुलन और आश्वासन दे सके तो इससे इस महाद्वीप को एक और शीतयुद्ध का ज्वलंत क्षेत्र बनने से बचाया जा सकेगा।
हालांकि, अब तक तो यह केंद्र बिंदु कोई वास्तविक आकार लेने की बजाय कूटनीतिक आलाप ही ज्यादा रहा है। फिलीपीन्स, सिंगापुर और ऑस्ट्रेलिया में अमेरिका की और अधिक सैन्य मौजूदगी का वादा करने के बाद जमीनी स्तर पर इसके कोई ज्यादा सबूत नहीं दिखाई देते। यह आश्वासन मिलने के बाद भी कि अमेरिका कूटनीतिक स्तर पर सक्रिय व ऊर्जावान होगा, एशियाई राजनयिक शिकायत करते हैं कि क्षेत्रीय शिखर सम्मेलनों में चीन अमेरिका को प्रतिनिधिमंडल के आकार व प्रदर्शन में पीछे छोड़ देता है। इसके अलावा यह भी उल्लेखनीय है कि पिछले चार वर्षों में ओबामा ने दो बार एशिया की यात्राएं रद्द की है।
एशिया को केंद्र बिंदु बनाने का सबसे महत्वाकांक्षी तत्व है प्रशांत महासागर के आर-पार साझेदारी। आइडिया बहुत सरल है। उन 12 बड़ी प्रशांत महासागरीय अर्थव्यवस्थाओं में व्यापार संबंधी प्रतिबंध और अन्य बाधाएं घटाएं, जो वैश्विक जीडीपी का 40 फीसदी है। इससे वैश्विक आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहन मिलेगा, लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इससे खुले बाजार के सिद्धांत व उसके व्यवहार को बल मिलेगा और एक ऐसे समय में अर्थव्यवस्था को खोलने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा जब सरकारी पूंजीवाद ताकत हासिल कर रहा है और राष्ट्रवादी पाबंदियां हर कहीं सिर उठा रही हैं।
अच्छी खबर यह है कि द्विवार्षिक चुनावों में रिपब्लिकन पार्टी की जीत वास्तव में प्रशांत क्षेत्र में व्यापार के बढ़ावे को संभव बना सकती है। व्यापार उन थोड़े से मुद्दों में से है, जिन पर रिपब्लिकन पार्टी राष्ट्रपति से इत्तेफाक रखती है। ओबामा की समस्याएं मोटेतौर पर उनकी अपनी पार्टी में ही है, जिसने पराजयवादी और संरक्षणवादी नजरिया अपना लिया है। यानी उन्होंने टिप्पणीकार पैट बुकानन के लिए फ्रेंकलीन रूजवेल्ट अौर जॉन केनेडी की परंपरा को त्याग दिया है। अब तक तो ओबामा चुनौती लेने के प्रति उदासीन रहे हैं। खुद को इस संघर्ष में झोंकने की बजाय वे प्रशांत क्षेत्र के आर-पार व्यापार के लिए समर्थन का सिर्फ संकेत ही करते रहे हैं।
ओबामा को विदेश नीति के मोर्चे पर एक और महत्वपूर्ण पहल करनी होगी और वह है ईरान के साथ परमाणु मुद्दे पर बातचीत। फिर से यहां भी आधारभूत रणनीति तो चतुराईपूर्ण है, लेकिन इसे राष्ट्रपति की ओर से पर्याप्त तवज्जो और फोकस नहीं मिला है। यह अब भी अस्पष्ट ही है कि ईरान अमेरिका और पश्चिमी दुनिया के साथ शांति स्थापित करना चाहता है अथवा नहीं, लेकिन यदि यह ऐसा करना चाहता है तो ओबामा को वॉशिंगटन और दुनिया के सामने यह समझौता प्रस्तुत करना चाहिए। हालांकि, कोई भी समझौता क्यों न हो, रिपब्लिकन पार्टी तत्काल उसे राजद्रोह बताकर खारिज कर देगी और इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू उस पर हमले करेंगे।
इससे भी जटिल राजनयिक चुनौती अमेरिका के लंबे सहयोगी सऊदी अरब और खाड़ी के अन्य देशों के गले यह समझौता उतारने की होगी। हालांकि, सऊदी अरब के शाही घराने के एक वरिष्ठ सदस्य ने मुझे संकेत दिया है कि उनका देश यह बात समझता है कि किसी न किसी बिंदु पर जाकर ईरान के साथ संबंधों को सामान्य बनाने की शुरुआत तो करनी ही होगी। वॉशिंगटन की मध्यस्थता से सऊदी-ईरान मेल-मिलाप मध्य-पूर्व में वास्तविक नाटकीय बदलाव अा सकता है। इससे मध्य-पूर्व का परिदृश्य ही बदल जाएगा, तनाव घट जाएगा और जेहादी आतंक के खिलाफ सामूहिक रूप से ध्यान केंद्रित होगा।
अभी दुनिया अस्त-व्यस्त नजर आ रही है और ओबामा प्रशासन बचाव की मुद्रा में है, लेकिन उस दुनिया को याद कीजिए जब रिचर्ड निक्सन और हेनरी किसिंजर विदेश नीति चला रहे थे। अमेरिका एशिया में युद्ध हार रहा था, जहां इसने 5 लाख सैनिक तैनात कर रखे हैं। सोवियत संघ आगे बढ़ रहा था। घरेलू विरोध और संकट बढ़ रहा था। निक्सन व किसिंजर को सैनिक वापस लेकर कष्टदायक शांति समझौता स्वीकार करना पड़ा। पर जैसा कि अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि रॉबर्ट जोएलिक ने ध्यान दिलाया है, उन्होंने पीछे हटने के साथ साहसिक, सकारात्मक कदम उठाए- सोवियत संघ के साथ शस्त्र नियंत्रण संधि, चीन के साथ संबंधों की शुरुआत और मध्यपूर्व में शटल डिप्लोमैसी। नतीजा यह हुआ कि 1973 आते-आते लोग अमेरिकी विदेश नीति की ऊर्जा और मौलिकता से चौंधिया गए। इतिहासकार जॉन गैडिस ने इसे आधुनिक इतिहास में अमेरिकी विदेश नीति का सबसे सफल उलटफेर बताया है। यदि ओबामा इस तरह की विरासत छोड़कर जाना चाहते हैं तो ओबामा के लिए वक्त आ गया है कि वे विदेश नीति वाले राष्ट्रपति बनें।
स्रोतः http://www.bhaskar.com/news/ABH-obama-should-concentrate-in-asia-4801925-NOR.html