डाक्टर ग़ज़ाला आफ़ाक़ क़ाज़ी
(उर्दू से हिंदी अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
पाकिस्तान के उर्दू अखबारों को आप पढ़ें तो यक़ीन नही आता कि ये एक ही देश से प्रकाशित होते हैं। उर्दू के अखबारों में खबरों से लेकर पत्रों और कालमों में एक ही तरह की भाषा मिलती है और वो है भड़काने वाली भाषा। उर्दू अखबारों के कालमों और पत्रों में भी बर्दाश्त न हो सकने वाली सीमा तक भेदभाव और पक्षपात से भरा रवैय्या मिलता है। दूसरी ओर आप अंग्रेज़ी के अखबार उठा के देखिए, तो औरतों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों से लेकर उन तत्वों पर भी खुली आलोचना मिल जायेगी जो धार्मिक भेदभाव को पाकिस्तानी राष्ट्र का हिस्सा बनाना चाहते हैं। उर्दू मीडिया में ऐसे लेखों की तादाद आटे में नमक के बराबर है। यही हालत उर्दू के टीवी प्रोग्रामों की है। उर्दू मीडिया में जब किसी दूसरे देश की आलोचना की जाती है, या उसकी विदेश नीति पर बात की जाती है तो बड़े आराम से उस देश के रहने वालों को जानवरों से भी बदतर उपाधि से नवाज़ा जाता है, उनकी औरतो और मर्दों के रहन सहन को, खासतौर से उनके यौन जीवन पर खुलेआम आलोचना की जाती है। ऐसे में ये जानना नामुमकिन हो जाता है कि लिखने वाला आखिर किस बात पर गुस्सा है। मैंने उर्दू के मश्हूर अखबारों में ऐसे कालम भी पढ़ें है, जिसमें लिखा गया है कि इस मरदूद की खाल में भूसा भर देना चाहिए। या फिर फलाँ औरत हमारे देश में होती तो संगसार कर दी जाती। किसी के मरने पर ऐसा भी कहा गया कि वो आखिरकार जहन्नुम में चला गया। इंग्लिश मीडिया में आपको इस्लाम के इतिहास और हिंदुस्तान के इतिहास पर सकारत्मक और नकारत्मक पहलुओं पर बहस भी नज़र आएगी, मगर उर्दू मीडिया में कुछ बातों पर ही आलोचनात्मक लेख मिलेंगें। उर्दू मीडिया में आपको अपने पड़ोसी देश हिंदुस्तान के किसी अच्छे पहलू पर कम ही कोई लेख नज़र आएगा। अगर कोई लिखने की कोशिश करता है तो पाकिस्तान का दुशमन करार दिया जाता है, इसी तरह अगर कोई पश्चिम के समाज की अच्छी बात अपनाने की बात करता है तो उसे पश्चिम के प्रभाव वाला व्यक्ति करार दे दिया जाता है, और अगर कोई अल्पसंख्यकों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार की हिदायत देता है तो उसे इस्लाम का दुश्मन करार दिया जाता है। मलऊन, मरदूद और मुरतद जैसे शब्दों का इस्तेमाल खुले तौर पर किया जाता है, और कुफ्र और कत्ल के फतवों का सिलसिला मस्जिदों से निकल कर अखबारों और टीवी पर आ गया है, ये ज़्यादातर उर्दू मीडिया में ही नज़र आता है। ऐसे लोगों के लिए ज़मीर जाफ़री का शेर थोड़ी सी तारीफ के साथ हाज़िर हैः
जो इंसा नूहे इंसानी का जब क़त्ल करते हैं
निहायत मज़हबी अलफ़ाज़ इस्तेमाल करते हैं
आज के उर्दू मीडिया में तंगनज़री, भड़काने वाले और भेदभावपूर्ण व्यवहार में तीव्रता आ गयी है। आप अल्लामा इक़बाल के उर्दू और अंग्रेज़ी में लिखे लेखों को देखें तो आपको स्पष्ट हो जायेगा कि अल्लामा बहुत आसासनी से हिंदुस्तान के उलमा की आलोचना करते हैं, वो तुर्की में होने वाले सुधार, खासतौर से अरबी छोड़कर के तुर्की भाषा अपनाने वाले सुधार की तारीफ़ जिस तरह अंग्रेज़ी में करते हैं वो शायद उर्दू में न कर सकते हों। हकीकत ये है कि इस्लामी देशों में एक तुर्की ही है, जिसने अपने आपको कट्टर विश्वास की गहरी नींद से जगा कर खुद आगाही की मंज़िल को पाया है। अल्लामा ने उर्दू शायरी में तो मुसलमानों की तंग नज़री वाली सोच की आलोचना की है, लेकिन जो कुछ उन्होंने उपरोक्त किताब में इंग्लिश में लिखा है वो उर्दू नस्र (पद्य) में नहीं लिखा है। दिलचस्प बात ये है कि पंजाबी में लिखी क्लासिकल शायरी में भी खुले आम धर्म के आधार पर तंग-नज़री (संकीर्णता) का विरोध किया गया है। उर्दू शायरी और अफसानों में इस पर दबी ज़बान में विऱोध मिलता है, लेकिन पंजाबी शायरी की तरह डंके की चोट पर किया गया विरोध नहीं मिलता है। मैं सिंधी, पश्तो और बलोची साहित्य से परिचित नहीं हूँ, इसलिए उस पर अपना विचार नहीं बयान कर सकती हूँ। सोचने की बात ये है कि उर्दू मीडिया में वो लेख क्यों प्रकाशित नहीं होते जो इंग्लिश मीडिया में छपते हैं। क्या उर्दू मीडिया वाले इस बात से डरे हुए हैं कि अगर वो धार्मिक सहिष्णुता (रवादारी) और शांति की बात करेंगे तो उनका अखबार और टीवी चैनल नहीं चलेगा? या वो समझते हैं कि ऐसी बातें लिखने पर उनके मीडिया के बिज़नेस को मज़हब और देश के ठेकेदार अपनी हिंसा का निशाना बना लेंगे? या फिर वो समझते हैं कि उर्दू पढ़ने वाले धार्मिक सहिष्णुता और भेदभाव से पाक समाज में रहना नहीं चाहते? उर्दू पढ़ने वालों की बड़ी संख्या उर्दू मीडियम स्कूलों में पढ़ती है, जहां पाठ्यक्रम की किताबों के अलावा कोई और किताब मुश्किल से ही मिलती है। इन स्कूलों में सवाल करने वालों को सज़ा मिलती है और आउट आफ बाक्स (अलग सोचने वाले) सोचने वालों के हौसले को पस्त किया जाता है। उनको शब्दों के अर्थ बताने के बजाय रटने पर मजबूर किया जाता है। अफसोसनाक बात ये है कि हमारे देश की बड़ी आबादी ऐसे ही स्कूलों में पढ़ती है और इस पर रही सही कसर उर्दू मीडिया पूरी कर देता है, और उनकी सोच पर अपनी तंगनज़री की सोच का ठप्पा लगा देता है। इनको एक खास तरह की सोच दी जाती है, जिसकी मंज़िल तंगनज़री है। इन सारी बातों को सामने रखते हुए ये बात ज़ाहिर होती है कि अगर हमारा समाज इस वक्त संकीर्णता और भेदभाव का शिकार है तो कुसूर किसका है? वो अगर छोटी छोटी बातों पर विरोधी का सिर कलम करने की बात करते हैं तो उनकी ये ट्रेनिंग किसने की है? उर्दू मीडिया की मौजूदा मजबूरी को समझा जा सकता है कि वो एक हद तक ही कुछ विषयों पर कलम उठा सकते हैं, लेकिन वो इतना तो कर सकते हैं कि सस्ती लोकप्रियता के लिए जनता को भड़काने के बजाय एक नर्म लहजा अख्तियार करें। अपने अखबारों का एक स्टैण्डर्ड तय करें जिसमें लोगों के ग़म और ग़ुस्से को भड़काने के बजाय ऐसे विषयों पर संजीदगी से अपने ख्यालात का इज़हार करें। उर्दू मीडिया की अगर ये परम्परा नहीं है तो इसे अपनाने का वक्त है, ताकि उर्दू मीडिया भी सभ्य समाज का हिस्सा बनकर समाज के ज़ख्मों पर मरहम लगाने का काम कर सके।
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