महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए मुसलमानों को अधिक
स्कूल और कॉलेज स्थापित करने चाहिए
प्रमुख बिंदु:
1. अडुपी में 40 मुस्लिम लड़कियां परीक्षा में शामिल नहीं हो रही हैं
2. उन्हें हिजाब पहनकर परीक्षा हॉल में प्रवेश करने से
रोका गया
3. ज्यादातर लड़कियां हिजाब की तुलना में परीक्षा पसंद
करती हैं
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न्यू एज इस्लाम स्टाफ राइटर
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
31 मार्च 2022
(Photo:
OneIndia for Representative Purpose)
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कर्नाटक में हिजाब विवाद ने उन 40 मुस्लिम लड़कियों की शैक्षिक भविष्य को नुकसान पहुंचाया है जिन्होंने शिक्षा पर हिजाब को प्राथमिकता दी है। जब उन्हें हिजाब पहनकर परीक्षा हॉल में प्रवेश नहीं करने दिया गया तो उन्होंने परीक्षा छोड़ दी।
इन लड़कियों के बड़े बड़े सपने थे और वे डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, वकील, जज या फैशन डिजाइनर बनना चाहती थीं लेकिन अब उनके भविष्य का कोई ठिकाना नहीं है। पर्दे के बारे में उन्हें जो शिक्षा मिली, उससे उनका रवैया सख्त हो गया है।
युवा मुस्लिम लड़कियों में पर्दे या हिजाब का चलन बहुत पुराना नहीं है। आज से बीस साल पहले भी मुस्लिम लड़कियां बिना हिजाब के स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी जाती थीं। वह सिर्फ एक सभ्य पोशाक का ख्याल रखती थीं। माता-पिता को भी कोई परेशानी नहीं होती थी। मुस्लिम धार्मिक नेतृत्व ने कभी भी लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहित नहीं किया, इसलिए मदरसे केवल लड़कों के लिए खोले गए और लड़कियों को घर पर पढ़ाया गया।
भारत के हर शहर में लड़कों और लड़कियों दोनों के लिए स्कूल उलमा द्वारा नहीं बल्कि सामाजिक कार्यकर्ताओं और शिक्षकों द्वारा स्थापित किए गए थे जो शिक्षा के महत्व को जानते और समझते थे। इसका जीता-जागता उदाहरण सर सैयद अहमद खान हैं। उलमा ने मदरसे केवल लड़कों के लिए ही खोले हैं। हालाँकि उन्होंने औपचारिक रूप से कहा कि शिक्षा पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन वे कभी भी मुखलिस नहीं थे। उनका विचार था कि महिलाओं को केवल अपने घर के कामों को ही देखना चाहिए। वे पुरुषों के साथ कार्यालयों में काम नहीं कर सकती हैं और उनकी कमाई उनके परिवारों द्वारा स्वीकार नहीं की जा सकती है। इस संबंध में दारुल उलूम देवबंद का फतवा बहुत प्रसिद्ध है।
इसलिए, जो लड़कियां आज उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहती हैं, वे उलमा से प्रभावित नहीं हैं क्योंकि उलमा ने उन्हें कभी भी स्कूलों या कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया है। लेकिन दुख की बात है कि उलमा की मर्जी के खिलाफ कॉलेज जाने वाली लड़कियां बेवजह उलेमाओं के हिजाब या पर्दे पर विचारों से प्रभावित होती हैं। परीक्षा उत्तीर्ण करने और कॉलेजों से स्नातक होने के बाद, ये लड़कियां उच्च शिक्षा के लिए बाहर जाएंगी और स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर के तौर पर नौकरी तलाश करेंगी जहां उन्हें पुरुष प्रोफेसरों या शिक्षकों के साथ काम करना होगा। अगर वह डॉक्टर बन जाती है, तो उन्हें पुरुष डॉक्टरों के साथ काम करना होगा और इलाज के लिए हर तरह के पुरुष मरीजों को देखना होगा। अगर वह इंजीनियर बन जाती है, तो उन्हें उसी दुविधा का सामना करना पड़ेगा। और जब वह महीने के अंत में अपना वेतन घर ले कर आएंगी, तो उनका परिवार इसे स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि यह उनके लिए हराम होगा।
वर्तमान में, न केवल भारत में बल्कि अधिकांश इस्लामी देशों में, महिलाएं जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ काम कर रही हैं। देवबंद के फतवे की किसी को परवाह नहीं है। जब देवबंद में इस्लामिया इंटर कॉलेज ने 1995 में लड़कियों को पढ़ने की अनुमति दी, तो मौलवियों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई, लेकिन माता-पिता अपनी बेटियों को कॉलेज भेजने के लिए तैयार हो गए। माता-पिता ने उलमा की आपत्तियों को गंभीरता से नहीं लिया।
बीस साल पहले, यह महिला छात्रों के लिए कोई समस्या नहीं थी। कर्नाटक में लड़कियों की स्थिति ऐसी इसलिए है क्यों कि वहां धर्म की चरमपंथी व्याख्याएं लोकप्रिय हो रही हैं। अफसोस की बात है कि अफगानिस्तान में महिलाओं को बुर्का पहनने के लिए मजबूर किया जाता है और भारत में लड़कियां जबरदस्ती अपने उपर हिजाब मुसल्लत कर रही हैं।
यह केवल भारत के भीतर मुसलमानों के बीच बढ़ती पहचान-आधारित धार्मिकता का परिणाम है। कुछ कट्टरपंथी और रूढ़िवादी उलमा दाहिनी आंख के सामने एक छेद को छोड़कर चेहरे के पूरे पर्दे की बात करते हैं, हालांकि कुरआन या हदीस में इस तरह के पर्दे के लिए कोई प्रावधान नहीं है। एक बहुसांस्कृतिक समाज में जहां मुस्लिम महिलाएं दूसरे धर्मों की महिलाओं के बराबर होना चाहती हैं, वे खुद पर इतनी सख्ती नहीं ला सकतीं कि वे खुद को समाज से छिपा लें। महिलाओं को छुपाकर रखने के चक्कर में उन्होंने इन महिलाओं को सबके सामने बेनकाब कर दिया है, जिससे उनके लिए मुश्किलें खड़ी हो गई हैं।
रिपोर्ट्स के मुताबिक, आरएन शेट्टी पीयू कॉलेज की 28 में से 13 छात्राओं ने परीक्षा में हिस्सा लिया था. उडुपी भंडारकर कॉलेज की 5 में से 4 लड़कियों ने परीक्षा में भाग लिया। परीक्षा में शारदा कॉलेज की सभी मुस्लिम लड़कियों ने भाग लिया। दो अन्य कॉलेजों में, 10 या 8 में से केवल 2 छात्र परीक्षा में शामिल हुए।
जाहिर है कुछ लड़कियों के लिए उनका भविष्य और करियर हिजाब से ज्यादा महत्वपूर्ण था। कुछ गर्ल्स कॉलेज हैं जहां लड़कियों को बिना हिजाब के परीक्षा में बैठने में कोई परेशानी नहीं होती है।
हिजाब पर प्रतिबंध के कारण परीक्षा से बाहर होने वाली लड़कियों से पहले कुछ मुस्लिम महिलाओं ने भी अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया क्योंकि वे हिजाब नहीं छोड़ सकती थीं। यदि वे बहुसांस्कृतिक समाज में हिजाब की इतनी सख्त अवधारणा का पालन करना जारी रखते हैं, तो निश्चित रूप से इन लड़कियों को अभी नहीं तो भविष्य में इसी तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ेगा।
मुस्लिम लड़कियों के भीतर मौजूदा सांस्कृतिक उथल-पुथल के लिए मुस्लिम बुद्धिजीवी भी जिम्मेदार हैं। हालाँकि उन्हें लड़कियों की शिक्षा के महत्व को भले ही देर से समझा, लेकिन उन्होंने लड़कियों के लिए स्कूल और कॉलेज की स्थापना पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। उन्होंने बस अपनी बेटियों को हिजाब पहनने और अपनी धार्मिक पहचान बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित किया, लेकिन अब वे अपनी बेटियों को गैर-मुस्लिम स्कूलों और कॉलेजों में भेजने के लिए मजबूर हैं। अगर वे चाहते हैं कि उनकी लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त करें, तो उन्हें हर शहर में लड़कियों के लिए स्कूल और कॉलेज खोलने चाहिए। वास्तव में, लड़कियों के स्कूल अब मुस्लिम समाज का अभिन्न अंग बन जाना चाहिए।
हिजाब पर इस मौजूदा विवाद से अब मुस्लिम समाज की सामूहिक चेतना को जागृत हो जाना चाहिए। रचनात्मक दृष्टिकोण का काम सभी प्रकार के संकटों में अवसर तलाशना है। और हिजाब के मौजूदा संकट में भी मुसलमानों के लिए एक मौका है. मुसलमानों को लड़कियों के लिए स्कूल, कॉलेज और व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करने की लंबी अवधि की नीति बनानी चाहिए जहां मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा मिल सके और उन्हें हिजाब हटाने के लिए मजबूर न किया जाए। यदि कोई समुदाय अपनी धार्मिक पहचान और अपनी महिलाओं के बारे में इतना चिंतित है, तो उसे अपनी महिलाओं को दूसरों की दया पर नहीं छोड़ना चाहिए और न ही किसी से विशेषाधिकार प्राप्त करना चाहिए।
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