मोहम्मद यूनुस, न्यू एज इस्लाम
१७ अगस्त २०२०
(Essential Message of Islam, Amana Publications, USA, 2009.m)
इस किताब के साझा लेखक जनाब मोहम्मद यूनुस साहब और अशफाकुल्लाह सैयद साहब हैं
८ अगस्त को जनाब फीरोज़ मीठी बोर वाला का लेख छपा था, निम्नलिखित लेख उसी का उत्तर या अनुबंध है।
कुछ संवेदनशील धार्मिक मामलों से संबंधित मुस्लिम समाज के प्रतिक्रिया में पाई जाने वाली मुनाफिकत और लेख में दोहरे मानदंड का हवाला दिया गया है और साथ ही इसके खतरनाक परिणाम भी दिए गए हैं और लेख इस मांग के साथ समाप्त होता है कि इस तरह के मुद्दों पर एक प्रारंभिक सार्वजनिक बहस होनी चाहिए, जिसमें भारतीय मुस्लिम कौम और धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील हलकों के लोग शामिल हों, ताकि एक गंभीर और ईमानदार समाधान खोजा जा सके।
इस उत्तर या पूरक की आवश्यकता क्यों है?
सीधे शब्दों में कहें तो यह लेख कुछ चरमपंथी मुस्लिम विद्वानों और कट्टर मौलवियों के दोहरे मानकों का वर्णन करता है क्योंकि वे दावा करते हैं कि पूजा स्थलों का निर्माण करने, सार्वजनिक रूप से नमाज़ पढ़ने और तबलीग करने, स्वर्ग में प्रवेश करने और गैर-मुस्लिमों को इन सभी अधिकारों से वंचित करने के अधिकार पर उनका एकाधिकार है ।
सोचने का यह तरीका दोहरे मानकों से परे है और मानसिक मंदता और अव्यवस्था का संकेत है, और सोचने के तरीके में एक खुला विरोधाभास है जो एक व्यक्ति को उस बिंदु तक ले जाता है जहां वह अपने स्वयं के अकीदों और मूल्यों के खिलाफ खड़ा हो सकता है और विचार और तर्क का विरोध करने लगता है। चूंकि यह उस समय के कई उलमा और इस्लाम के प्रसिद्ध प्रचारकों (जैसे डॉ जाकिर नाइक) के खिलाफ एक गंभीर आरोप है, इसलिए इसके स्पष्टीकरण की अधिक आवश्यकता है।
(१) अल्लाह के बारे में यह अवधारणा कि वह अत्यंत दयालु, बहुत रहम वाला, बहुत बुद्धिमान, और बेहतरीन निर्णय करने वाला है जो सारे गैर मुस्लिमों को जहन्नम में डालेगा जो हजारों नहीं तो सैंकड़ों विभिन्न भाषाएँ बोलते हैं, लेकिन कुरआन या इस्लाम से गाफिल हैं (लेकिन इसमें उनका कोई दोष नहीं है) सरासर बेबुनियाद है और जो इस तरह कि अवधारणा रखता है वह अवश्य मानसिक विकार का शिकार है।
(२) खानकाहों, गिरजाघरों, इबादत खानों और मस्जिदों में नियमित रूप से खुदा को याद किये जाने को कुरआन स्वीकार करता है और उनके ढाए जाने की निंदा करता है। (सुरह अल हज, आयत नंबर ४०) इसलिए एक मानसिक विकार का शिकार आलिम ही गैर मुस्लिमों को इबादतगाहों के निर्माण से रोक सकता है।
(३) इबादत इंसान को अता की गई एक पैदाइशी जिबिल्लत है जिसके माध्यम से वह खुदा या अपने अकीदे के माबूद से रिश्ता पैदा करता है। इसलिए कुरआन मुसलमानों को दुसरे अकीदे के माबूदों को गाली देने से अमना करता है और कहता है इस मामले को अल्लाह पर छोड़ दिया जाए।
وَلَا تَسُبُّواْ ٱلَّذِينَ يَدْعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ فَيَسُبُّواْ ٱللَّهَ عَدْوًبِغَيْرِعِلْمٍ كَذَٰلِكَ زَيَّنَّا لِكُلِّ أُمَّةٍ عَمَلَهُمْ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّهِم مَّرْجِعُهُمْ فَيُنَبِّئُهُم بِمَا كَانُواْ يَعْمَلُونَ (सुरह अल अनआम, आयत नंबर १०८)
अनुवाद: और ये (मुशरेकीन) जिन की अल्लाह के सिवा (ख़ुदा समझ कर) इबादत करते हैं उन्हें तुम बुरा न कहा करो वरना ये लोग भी ख़ुदा को बिना समझें अदावत से बुरा (भला) कह बैठें (और लोग उनकी ख्वाहिश नफसानी के) इस तरह पाबन्द हुए कि गोया हमने ख़ुद हर गिरोह के आमाल उनको सॅवाकर अच्छे कर दिखाए फिर उन्हें तो (आख़िरकार) अपने परवरदिगार की तरफ लौट कर जाना है तब जो कुछ दुनिया में कर रहे थे ख़ुदा उन्हें बता देगा।
इसलिए एक मानसिक विकार का शिकार आलिम ही गैर मुस्लिमों को खुले आम इबादत से रोकेगा।
(४) अगर कोई यह कतई तौर पर दावा करता है कि गैर मुस्लिम जन्नत में नहीं जाएंगे तो असल में वह अपने अह्कमुल हाकेमीन होने का दावा कर रहा है जबकि यह सिफत केवल अल्लाह के साथ विशेष है। इसके लिए अगर कोई तर्क करे कि कुरआन में मुशरेकीन के खिलाफ सख्त और कसरत से वईदें आई हैं तो यह तर्क निराधार होगा क्योंकि कयामत के दिन मुशरेकीन के बारे में फैसला करने का हक़ केवल खुदा को है। (सुरह अल हज, आयत नंबर १७) और उन्हें मुआफ करने का हक़ भी अल्लाह ही को है अगर अल्लाह चाहे। यह जन्नत का सर्टिफिकेट बांटने वाला रवय्या ज़मीन पर खुदा का खेल खेलने जैसा है, यह सरासर दिमागी फितूर है।
(५) कुछ अधर्मी या असाधारण मुस्लिम प्रचारक सूरह अल-मायदा के आयत संख्या 4 के बीच के इस वाक्यांश को दोहराते हैं ، الیوم اکملت لکم دینکم رضیت لک الاسلام دینا ، अर्थात: मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म पूरा कर दिया है और मैंने तुम पर अपनी कृपा पूरी कर दी है और मैंने तुम्हारे लिए इस्लाम को धर्म के रूप में चुना है और उनका तर्क है कि चूंकि कुरआन मुकम्मल बनाया गया है, इसका मतलब यह होना चाहिए कि अन्य सभी आसमानी सहीफे अधूरे थे, इसलिए यदि कोई इस पूर्ण आदेश में विश्वास नहीं करता है, तो वह नरक में जाएगा, और इस प्रकार केवल मुसलमान ही स्वर्ग के हकदार होंगे। यह एक बहुत ही व्यर्थ धारणा है, अगर यह कुरआन के संदेश की विकृति नहीं है, तो यह निश्चित रूप से गंभीर मानसिक विकार का संकेत है, क्योंकि
(क) सुरह मायदा की लंबी आयत (सुरह मायदा आयत नंबर ३) में से उपर्युक्त को छोड़ कर पुरी आयत गिजाई नियम व कायदे से संबंधित है।
(ख) उदाहरण के तौर पर मौलाना अबुल कलाम, मौलाना अबुल आला मौदूदी, मौलाना मोहम्मद शफीअ, अब्दुल्लाह यूसुफ अली और मोहम्मद असद जैसे उस दौर के प्रख्यात तफ़सीर लिखने वालों में से किसी ने भी इस वाक्यांश को अपवादीय धार्मिक योजना से नहीं जोड़ा है।
(ग) यदि जन्नत केवल मुसलमानों के लिए आरक्षित है, तो कुरआन की सभी घोषणाएं और सभी बहुलवादी आयतें अमान्य हो जाएंगे और कुरआन के इस दावे का भी खंडन करेंगे कि कुरआन ज्ञान की पुस्तक है (सुरह यूनुस, आयत नंबर १, सुरह लुकमान आयत नंबर २, सुरह अल ज़ुखरुफ़, आयत नंबर ४, सुरह अल दुखान, आयत नंबर ४) और यह कि कुरआन अल्लाह पर यकीन रखने वालों के लिए रहमत है (सुरह अल आराफ़, आयत नंबर ५२ अल नहल आयत नंब ६४, सुरः अल नमल आयत नंबर ७७) और जन्नत को केवल मुसलमानों के लिए विशेष करने से रह्मतुल्लिल आलमीन पैगम्बर की भी नफी होती है (सुरह अंबिया, आयत नंबर १०७)
(घ) अमली तौर पर तमाम उलमा मजकुरा को कुरआन मजीद की तकमील की पेशनगोई करार देते हैं जो नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफात के साथ लगभग तीन महीने बाद पुरी हुई।
(ङ) अमली तौर पर तमाम उल्लेखित उलमा वाक्यांश को कुरआन मजीद की तकमील की पेशनगोई करार देते हैं जो नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफात के साथ लगभग तीन महीने बाद पुरी हुई।
(च) मौलाना अबुल कलाम आज़ाद इस वाक्यांश को इसके बाद वाले वाक्यांश से जोड़ कर देखते हैं अर्थात "فَمَنِ اضْطُر فِى مخمصۃ غیر مجانف لاثم ، فان اللہ غفور رحیم अनुवाद: फिर जो कोई भूख से बेताब हो जाए लेकिन गुनाह पर राज़ी ना हो तो अल्लाह मुआफ करने वाला मेहरबान है” और कहते हैं कि हलाल और हराम का मसला चूँकि विवादित था इसलिए आयत के आखरी लाइन में कुरआन इसकी वजाहत फरमाता है कि “अगर कोई आदमी भूख से मर रहा हो, और हलाल चीज मुयस्सर ना आए तो हराम चीज कहा कर अपनी जान बचा सकता है”
(६) बहुत सारे विद्वान और उलमा सुरह आले इमरान की आयत नंबर ८३ से ८५ से कुछ हिस्सा नकल करते हैं और दावा करते हैं कि “और जो कोई इस्लाम के सिवा किसी और दीन को चाहेगा तो उससे हरगिज़ कुबूल नहीं किया जाएगा, और वह आखिरत में नुक्सान उठाने वालों में से होगा” (सुरह आले इमरान, आयत नंबर ८५)
लेकिन यह लोग इससे पहले की दो आयतों को छोड़ देते हैं जो कि इस आयत (८५) के फरमान की पेशगी शर्त हैं और इसके आफाकी जेहत को नुमाया करती हैं: أَفَغَيْرَ دِينِ ٱللَّهِ يَبْغُونَ وَلَهُۥٓ أَسْلَمَ مَن فِى ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلْأَرْضِ طَوْعًا وَكَرْهًا وَإِلَيْهِ يُرْجَعُونَ (सुरह आले इमरान आयत नंबर ८३)
अनुवाद:
क्या यह अल्लाह के दीन के सिवा कोई और दीन चाहते हैं और जो कोई भी आसमानों और ज़मीन में है इसने ख़ुशी से या लाचारी से उसी की फ़रमांबरदारी इख्तियार की है और सब उसी की तरफ लौट जाएंगे।
قُلْ آمَنَّا بِاللَّهِ وَمَا أُنزِلَ عَلَيْنَا وَمَا أُنزِلَ عَلَىٰ إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ وَإِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ وَالْأَسْبَاطِ وَمَا أُوتِيَ مُوسَىٰ وَعِيسَىٰ وَالنَّبِيُّونَ مِن رَّبِّهِمْ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ أَحَدٍ مِّنْهُمْ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ ( سورہ آل عمران آیت نمبر ۸۴)
अनुवाद: आप फरमाएं: हम अल्लाह पर ईमान लाए हैं और जो कुछ हम पर उतारा गया है और जो कुछ इब्राहीम और इस्माइल और इसहाक और याकूब (अलैहिमुस्सलाम) और उनकी औलाद पर उतारा गया है और जो कुछ मूसा और ईसा और जूमला अंबिया (अलैहिमुस्सलाम) को उनके रब की तरफ से अता किया गया है (सब पर ईमान लाए हैं), हम उनमें से किसी पर भी ईमान में फर्क करते और हम उसी के ताबे फरमान हैं।
किसी वाक्यांश के कुछ भाग को नक़ल कर के और शब्द इस्लाम के तक्सीरी मफहूम (जिसकी तबलीग सारे अंबिया ने की है) को अनदेखा कर के ला गैरियत और इस्तिस्नाइयत का दावा करना अगर मानसिक विकार नहीं तो कुरआन के पैगाम की सरीह गलत बयानी है।
(७) कुरआन ने अपने बराहे रास्त गैर मोमिन मुखातेबीन अर्थात (मुशरेकीन, मुनाफेकीन और अहले किताब) के खिलाफ बार बार सख्त वईदें जारी करके अपने सारे गैर मोमिन मुखातेबीन को जुबानी तौर पर डराया है। निम्न में दी गई कुरआन की कुछ आयतों से इसकी मजीद वजाहत होगी। हमेशा इस तरह की आयतों का मिसदाक केवल मुशरेकीन और गैर मुस्लेमीन होते हैं और इसमें मुनाफेकीन शामिल नहीं हैं जो कि मुसलमान थे और उनके खिलाफ भी इसी तरह की वईदें जारी की गईं हैं, ऐसा समझना कुरआनी पैगाम की मुकम्मल तहरीफ़ है जो मानसिक विकार की निशानी है।
وَعَدَ اللَّهُ الْمُنَافِقِينَ وَالْمُنَافِقَاتِ وَالْكُفَّارَ نَارَ جَهَنَّمَ خَالِدِينَ فِيهَا هِيَ حَسْبُهُمْ وَلَعَنَهُمُ اللَّهُ وَلَهُمْ عَذَابٌ مُّقِيمٌ (سورہ التوبہ آیت نمبر ۶۸)
अनुवाद: मुनाफिक़ मर्द और मुनाफिक़ औरतें और काफिरों से ख़ुदा ने जहन्नुम की आग का वायदा तो कर लिया है कि ये लोग हमेशा उसी में रहेगें और यही उन के लिए काफ़ी है और ख़ुदा ने उन पर लानत की है और उन्हीं के लिए दाइमी (हमेशा रहने वाला) अज़ाब है।
اِسْتَغْفِرْ لَهُمْ اَوْ لَا تَسْتَغْفِرْ لَهُمْ-اِنْ تَسْتَغْفِرْ لَهُمْ سَبْعِیْنَ مَرَّةً فَلَنْ یَّغْفِرَ اللّٰهُ لَهُمْ ذٰلِكَ بِاَنَّهُمْ كَفَرُوْا بِاللّٰهِ وَ رَسُوْلِهٖؕ-وَ اللّٰهُ لَا یَهْدِی الْقَوْمَ الْفٰسِقِیْنَ۠ (سورہ التوبہ آیت نمبر ۸۰
(ऐ रसूल) ख्वाह तुम उन (मुनाफिक़ों) के लिए मग़फिरत की दुआ मॉगों या उनके लिए मग़फिरत की दुआ न मॉगों (उनके लिए बराबर है) तुम उनके लिए सत्तर बार भी बख्शिस की दुआ मांगोगे तो भी ख़ुदा उनको हरगिज़ न बख्शेगा ये (सज़ा) इस सबब से है कि उन लोगों ने ख़ुदा और उसके रसूल के साथ कुफ्र किया और ख़ुदा बदकार लोगों को मंज़िलें मकसूद तक नहीं पहुँचाया करता।
وَ لَا تُصَلِّ عَلٰۤى اَحَدٍ مِّنْهُمْ مَّاتَ اَبَدًا وَّ لَا تَقُمْ عَلٰى قَبْرِهٖ، اِنَّهُمْ كَفَرُوْا بِاللّٰهِ وَ رَسُوْلِهٖ وَ مَاتُوْا وَ هُمْ فٰسِقُوْنَ (سورہ التوبہ آیت نمبر ۸۴)
और (ऐ रसूल) उन मुनाफिक़ीन में से जो मर जाए तो कभी ना किसी पर नमाजे ज़नाज़ा पढ़ना और न उसकी क़ब्र पर (जाकर) खडे होना इन लोगों ने यक़ीनन ख़ुदा और उसके रसूल के साथ कुफ़्र किया और बदकारी की हालत में मर (भी) गए।
لِّیُعَذِّبَ اللّٰهُ الْمُنٰفِقِیْنَ وَ الْمُنٰفِقٰتِ وَ الْمُشْرِكِیْنَ وَ الْمُشْرِكٰتِ وَ یَتُوْبَ اللّٰهُ عَلَى الْمُؤْمِنِیْنَ وَ الْمُؤْمِنٰتِؕ-وَ كَانَ اللّٰهُ غَفُوْرًا رَّحِیْمًا۠(سورہ الاحزاب، آیت نمبر ۷۳)
इसका नतीजा यह हुआ कि खुदा मुनाफिक़ मर्दों और मुनाफिक़ औरतों और मुशरिक मर्दों और मुशरिक औरतों को (उनके किए की) सज़ा देगा और ईमानदार मर्दों और ईमानदार औरतों की (तक़सीर अमानत की) तौबा क़ुबूल फरमाएगा और खुदा तो बड़ा बख़शने वाला मेहरबान है।
وَيُعَذِّبَ الۡمُنٰفِقِيۡنَ وَالۡمُنٰفِقٰتِ وَالۡمُشۡرِكِيۡنَ وَ الۡمُشۡرِكٰتِ الظَّآنِّيۡنَ بِاللّٰهِ ظَنَّ السَّوۡءِ، عَلَيۡهِمۡ دَآٮِٕرَةُ السَّوۡءِ ، وَ غَضِبَ اللّٰهُ عَلَيۡهِمۡ وَلَعَنَهُمۡ وَاَعَدَّ لَهُمۡ جَهَنَّمَوَسَآءَتۡ مَصِيۡرًا (سورہ الفتح آیت نمبر ۶)
और मुनाफिक़ मर्द और मुनाफ़िक़ औरतों और मुशरिक मर्द और मुशरिक औरतों पर जो ख़ुदा के हक़ में बुरे बुरे ख्याल रखते हैं अज़ाब नाज़िल करे उन पर (मुसीबत की) बड़ी गर्दिश है (और ख़ुदा) उन पर ग़ज़बनाक है और उसने उस पर लानत की है और उनके लिए जहन्नुम को तैयार कर रखा है और वह (क्या) बुरी जगह है।
اتَّخَذُوا أَيْمَانَهُمْ جُنَّةً فَصَدُّوا عَن سَبِيلِ اللَّهِ فَلَهُمْ عَذَابٌ مُّهِينٌ (سورہ المجادلہ آیت نمبر ۱۶)
उन लोगों ने अपनी क़समों को सिपर बना लिया है और (लोगों को) ख़ुदा की राह से रोक दिया तो उनके लिए रूसवा करने वाला अज़ाब है।
(८) कुरआन किसी मुसलमान को अपने मुर्दा या ज़िंदा वालिदैन के लिए दुआ करने से मना नहीं करता है, कुरआन में है واخفض لهما جناح الذل من الرحمة وقل ربي ارحمهما كما ربياني صغيرا(سورہ الاسراء، آیت نمبر ۲۴) अनुवाद: और उनके सामने नियाज़ (रहमत) से ख़ाकसारी का पहलू झुकाए रखो और उनके हक़ में दुआ करो कि मेरे पालने वाले जिस तरह इन दोनों ने मेरे छोटेपन में मेरी मेरी परवरिश की है। कुरआन में इसकी भी शहादत मौजूद है कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने अपने उन अनुयायियों के लिए दुआ मांगी थी जिन्होंने उनका और उनकी मां का इनकार कर के शिर्क किया था। हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के यह अलफ़ाज़ थे: إِن تُعَذِّبْهُمْ فَإِنَّهُمْ عِبَادُكَ وَإِن تَغْفِرْ لَهُمْ فَإِنَّكَ أَنتَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ(سورہ المائدہ آیت نمبر ۱۱۸) अनुवाद: तू अगर उन पर अज़ाब करेगा तो (तू मालिक है) ये तेरे बन्दे हैं और अगर उन्हें बख्श देगा तो (कोई तेरा हाथ नहीं पकड़ सकता क्योंकि) बेशक तू ज़बरदस्त हिकमत वाला है।
इसलिए, एक मुसलमान को उन मृतकों के लिए दुआ करने से मना करना जो मुशरिक थे (जो उसके माता-पिता भी हो सकते हैं) अल्लाह की असीम रहमत को सीमित करना होगा। और इसे मानसिक विकार का परिणाम कहा जाएगा।
इसलिए वर्तमान युग में श्रेष्ठता की भावना से ग्रसित उपदेशक उलमा के साथ समस्या न केवल दोयम दर्जे की है, बल्कि समस्या कहीं अधिक गंभीर है, अर्थात् मानसिक विकार और फितूर का है।
आज की बहुलवादी दुनिया में जहां मुसलमान ज्यादातर देशों में अल्पसंख्यक के रूप में रह रहे हैं और उनके साथ दैनिक आधार पर "दूसरों" की तरह व्यवहार किया जा रहा है, यह श्रेष्ठता की भावना है जो जिम्मेदार लोगों को विभाजित करती है। हां, जो कुरआन द्वारा समर्थित नहीं है। मुस्लिम विद्वानों को कुरआन के संदर्भ में इस तरह के विचारों का तर्कसंगत रूप से जवाब देने की आवश्यकता है। यह लेख भी कुछ ऐसा ही प्रयास है। हम इस तरह के विचारधाराओं के समर्थकों को यह खुली छुट नहीं दे सकते हैं कि वह अपने विचारों की तबलीग और तरवीज के लिए कुरआन की आयतों और मध्यकालीन धार्मिक किताबों को उनके संदर्भ से हटा कर प्रयोग करते रहें, या फिर केवल अपने मतलब के फिकरों का ही प्रयोग करें।
हम इस लेख को एक संक्षिप्त दुआ के साथ समाप्त करते हैं कि, ऐ अल्लाह, आधुनिक समय के कट्टर और श्रेष्ठता की भावना के शिकार उलमा और विद्वानों को थोड़ा ज्ञान दें, वे शरीअत और कुरआनी ज्ञान के विशेषज्ञ हो सकते हैं लेकिन उनमें बुद्धि की कमी है। कोई आलिम चाहे कितना भी सुशिक्षित क्यों न हो, बिना हिकमत के अपने विषय को पूरी तरह से समझने में अक्षम है। शायद यह कुरआन के बारे में कुछ अधिक ही सच है क्योंकि जब तक इसे तर्क और हिकमत से नहीं समझा जाता है, तब तक विभिन्न व्याख्याएं संभव हैं।
إِنَّ شَرَّ الدَّوَابَّ عِندَ اللّهِ الصُّمُّ الْبُکْمُ الَّذینَ لاَ یَعْقِلُونَ(سورہ الانفال آیت نمبر ۲۲)
इसमें शक़ नहीं कि ज़मीन पर चलने वाले तमाम हैवानात से बदतर ख़ुदा के नज़दीक वह बहरे गूँगे (कुफ्फार) हैं जो कुछ नहीं समझते
يُؤْتِي الْحِكْمَةَ مَن يَشَاءُ، وَمَن يُؤْتَ الْحِكْمَةَ فَقَدْ أُوتِيَ خَيْرًا كَثِيرًا، وَمَا يَذَّكَّرُ إِلَّا أُولُو الْأَلْبَابِ۔ (سورہ البقرہ آیت نمبر ۲۶۹)
वह जिसको चाहता है हिकमत अता फ़रमाता है और जिसको (ख़ुदा की तरफ) से हिकमत अता की
गई तो इसमें शक नहीं कि उसे ख़ूबियों से बड़ी दौलत हाथ लगी और अक्लमन्दों के सिवा कोई
नसीहत मानता ही नहीं
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मुहम्मद यूनुस ने आईआईटी में केमिकल इंजीनियरिंग का अध्ययन किया और कॉर्पोरेट कार्यकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए और 1990 के बाद से कुरआन का गहराई से अध्ययन करने और इसके वास्तविक संदेश को समझने की कोशिश कर रहे हैं। इस्लाम का बुनियादी पैगाम नामक किताब के साझा लेखक हैं, इस किताब को 2002 में अल-अजहर अल-शरीफ, काहिरा द्वारा अनुमोदित किया गया था और इसमें यूसीएलए के डॉक्टर खालिद अबु फज़ल का समर्थन है और मोहम्मद युनुस की किताब इस्लाम का असल पैगाम आमिना पब्लिकेशन, मेरी लैंड, अमेरिका ने, २००९ में प्रकाशित किया।
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