अभिजीत, न्यु एज इस्लाम
21 मई, 2014
मुसलमानों का सबसे बड़ा दुर्भाग्य ये है कि उन्हें इस मुल्क हिन्दुस्तान में सिर्फ वोट बैंक समझा जाता रहा है। आजादी के बाद से एक सुनियोजित प्रयास चलाया गया ताकि मुसलमान इस देश की मुख्यधारा से कट जायें, आधुनिक और रोजगारपरक तालीम हासिल न कर सके, अपने चार विवाह के हक जैसे अधिकारों को बचाने में ही लगें रहें और हमेशा संघ परिवार के खौफ के साये में रहे ताकि इन्हें कभी ये सोचने का मौका ही न मिले कि मेरा सच्चा हितचिंतक कौन है और कौन सिर्फ मेरा इस्तेमाल करने वाला और मेरे वोटों का खरीदार हैं। इस तरह की साजिशों ने आज मुसलमानों को ऐसी बंद गली में लाकर फंसा दिया है कि उन्हें इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता ही नजर नहीं आ रहा। इन सबके बाबजूद एक मशाल थी जो मुस्लिम समाज को इस बंद गली से बाहर निकालने का रास्ता दिखा सकती थी। ये मशाल थी मुस्लिम समाज के बीच का अटूट भाईचारा, जो मुस्लिम समाज के किसी भी समस्या पर मिल-बैठकर समाधान तलाशता था। मगर मुस्लिम वोटों के लालचियों ने ऐसी योजनायें बनाई कि उनकी इस मशाल को भी उनसे छीन लिया। मुसलमानों को मजहबी आरक्षण का लालच दिखाया गया और आरक्षण की ललक ने न सिर्फ इस्लाम की बुनियादों पर चोट की बल्कि मुस्लिम समाज को भी विभाजित कर दिया। इस आरक्षण के बहकाबे में मुस्लिम समाज ऐसा भ्रमित हुआ कि जो चीज उसके लिये सबसे बड़ी समस्या बनने वाली थी वही उसे सबसे बड़ा समाधान दिखने लगा। मुसलमान ये भूल गये कि मुसलमानों के लिये अलग मुल्क बनाकर मुस्लिम एकता को कुंद करने वाला हथियार ये मजहबी आरक्षण ही था। वोट बैंक के सौदागरों ने पहले मुसलमानों में एक वर्ग बिशेष को आरक्षण का झांसा दिया फिर पूरे मुस्लिम समाज को ही आरक्षण का अफीम देने की कोशिश शुरु कर दी।
हाल में राजेंद्र सच्चर और रंगनाथ मिश्रा के द्वारा मुसमलानों की बदहाली पर रिर्पोट पेश किये जाने के बाद से ये मुद्दा और गरमा गया है। इन रिर्पोटों में मुस्लिमों को अत्यंत पिछड़ा बताकर उनका अपमान तो किया ही गया है साथ ही साथ इसमें ऐसी बातें भी हैं जो मुसलमानों को नीचा दिखाने वाली तो है ही साथ ही इस्लाम के लिये भी अपमानजनक है।
क्या मुसलमानों के साथ भेदभाव होता है ?
सच्चर समिति ने अपनी रिर्पोट में बार-2 ये कहा कि भारत में सरकारी सेवाओं में मुसलमानों का कम प्रतिशत उनके साथ होने वाले भेदभाव के कारण है जबकि सच्चाई इसके इतर है। सरकारी सेवाओं के लिये आयोजित होने वाली एक भी परीक्षा ऐसी नहीं है जिसमें बैठने से मुसलमानों को रोका जाता है। परंतु अगर लिखित परीक्षाओं में ही मुस्लिम सफल नहीं हो पा रहा है तो फिर उनको नौकरी कैसे मिल सकती है? सरकारी सेवाओं में मुसलमानों की कम संख्या उनको मिलने वाली अवसर की कमी की वजह से नहीं है वरन् कमी उनमें योग्यता की है। सरकारी सेवा में अच्छे पदों पर प्रतिष्ठित मुसलमान अधिकारी भी इस भेदभाव की बात से इंकार करतें हैं। बी0बी0सी0 के साथ वार्ता में विदेश सेवा में बरिष्ठतम अधिकारी तलजीम अहमद ने बात से इंकार किया कि भारत में मुसलमानों के साथ नौकरियों में भेदभाव होता है। उन्होनें कहा कि मुझे सरकारी सेवा में 32 साल हो गये पर कभी भी ये नहीं लगा कि मेरे साथ भेदभाव हो रहा है। अगर भेदभाव ही होता तो कोई मुस्लिम सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद को कैसे सुशोभित करते? बैंकों में ,रेलवे में और बाकी दूसरी नौकरियों में भी कई मुसलमान हैं जो बरिष्ठ पदों को सुशोभित करतें हैं। इन आरोपों में भी कोई दम नहीं है कि सेना, गुप्तचर विभाग आदि सेवाओं में मुसलमानों को नहीं लिया जाता। इन सेवाओं में इनकी कम संख्या का कारण इनकी धार्मिकता है। इंटेलिजेन्स ब्यूरो में संयुक्त निदेशक रहे मलय कृष्ण धर के मुताबिक जब उन्होंने कुछ मुसलमान अधिकारियों से बात कर के जानना चाहा कि आप लोग भारतीय गुप्तचर सेवा में क्यों नहीं आना चाहते तो उनलोगों ने कहा कि हमारे मजहब के बड़े नेता हमें मना करतें हैं। यही हाल रक्षा सेवाओं को लेकर भी है, मुसलमान युवकों को उनके मौलवी हतोत्साहित करतें हैं कि सेना में मत जाओ क्योंकि अगर पाकिस्तान से जंग हुई तो फिर तुम्हें एक मोमिन का खून बहाना पड़ेगा जबकि शरीयत में किसी मुसलमान के लिये ये हराम ठहराया गया है कि वो किसी मुसलमान का खून बहाये। अगर सेना आदि में अल्पसंख्यकों को उचित स्थान नहीं दिया जाता तो फिर ऐसा कैसे हैं कि दूसरे अल्पसंख्यक पारसियों और सिखों ने सेना में अति उच्च पदों को सुशोभित किया ? इस देश का संविधान मुसलमानों को इस देश के बाकी संप्रदायों की तरह हर वो अधिकार देता है जिसका वो हकदार है पर ये उनकी अपनी कमी है कि वो इन अवसरों को अपने हक में इस्तेमाल नहीं कर पाते।
मुसलमान पिछड़े क्यों?
सवाल ये भी है कि जब आजाद भारत में मुसलमानों के साथ किसी भी तरह का भेदभाव या दोहरा व्यवहार नहीं होता और तकरीबन हजार बरस तक उनके हममजहब ही सत्तासीन रहे पर इसके बाबजूद भी वो पिछड़े क्यों रह गयें ? इसका सबसे बड़ा कारण है कि इनके मजहब को मानने वाले बादशाहों ने और तथाकथित ठेकेदारों ने रोजगारपरक और आधुनिक शिक्षा का महत्त्व कभी समझा ही नहीं। जब इस देश में मुस्लिमों का शासन था तब भी इन बादशाहों का सारा ध्यान मकबरे और इमारतें तामीर करने में था। इतिहास में न तो किसी मुस्लिम बादशाह द्वारा किसी बड़े और प्रतिष्ठित शैक्षणिक इदारे कीे स्थापना का कोई इतिहास मिलता है और न ही शिक्षा के क्षेत्र में इनके द्वारा कुछ करने का संकेत मिलता है। 1835 में मैकाले शिक्षा पद्वति लाई गई पर मौलवियों के बहकाबे में आकर मुसलमान शिक्षा प्राप्ति के इस अवसर का लाभ उठाने से भी वंचित रह गये। उस समय के इस्लाम के दो बड़े फिरके (बरेलवी और देबबंदी) के सबसे प्रमुख उलेमाओं ने मुसलमानों के लिये सिर्फ मजहबी तालीम हासिल करने का फतवा दिया। परिणामतः मुसलमान न तो विज्ञान की शिक्षा ही पा सके और न ही अंग्रेजी आदि रोजगारपरक भाषाओं को सीख सके और धीरे-2 मुख्यधारा से पिछड़ते चले गये। सर सैयद जैसे चंद लोगों ने जिन्होनें आधुनिक शिक्षा और महिला अधिकार के हक में कुछ करना चाहा उन्हें यहूदी, काफिर और मुरतद कहा गया। आजादी के बाद भी यही हुआ। पहले मुसलमान केवल मुल्ला-मौलवियों के बहकाबे में आने के कारण पीछे रह जाते थे, अब उन्हें पीछे करने में वोट बैंक के सौदागर भी शामिल हो गये। इन सौदागरों ने उन्हें संध परिवार का डर दिखाया और ये समझाने में कामयाब हो गये कि तुम्हारे लिये आधुनिक और रोजगारपरक शिक्षा करने से ज्यादा जरुरी ये है कि चार शादी करने का तुम्हारा अधिकार कायम रहे, तुम्हारे मदरसों पर कोई लगाम न लगाई जाये, अधिक बच्चा पैदा करने पर रोक जैसे कानून न बन जाये, कोई हिंदूवादी पार्टी सत्ता में न चली आये और तुम्हारे मदरसों की स्वायत्तता बरकरार रहे। मतलब ये कि मुल्ला-मौलवी तो उन्हें 20 वीं सदी में भी 14 वीं सदी में रखना चाहते थे पर इन हुक्मरानों ने उन्हें 10वीं सदी में पहुँचा दिया।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 27 अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा तथा उनको अपनी इच्छानुसार शैक्षणिक संस्थानों को स्थापित करने व चलाने का अधिकार देती है। यह अनुच्छेद सरकार को भी यह निर्देश देता है कि अनुदान देने में अल्पसंख्यक संस्थानों के साथ कोई भेदभाव न किया जाये। इसी आधार पर देश के तमाम अल्पसंख्यक वर्ग अपने समुदाय वालों के लिये धार्मिक शिक्षण संस्थानें स्थापित करतें हैं पर जहां दूसरे समुदाय वाले अपने धार्मिक शिक्षा संस्थानों में धार्मिक शिक्षा के अलावे रोजगारोन्मुखी और रोजगारपरक हुनर भी सिखातें हैं वहीं मुस्लिम मदरसों की शिक्षा केवल दीनी तालीम देने तक सीमित रह जाती है। रंगनाथ मिश्रा ने अपनी रिर्पोट में पारसी समुदाय की शैक्षणिक व्यवस्था का उदाहरण देते हुये कहा है कि उनकी व्यवस्था अत्यंत सुढृढ़ है जिसके कारण उनके समुदाय का शैक्षणिक स्तर काफी बेहतर है। संविधान में धार्मिक वर्गों को अलग संस्थान खोलने का अधिकार देने की संवैधानिक व्यवस्था को अपनाकर धड़ाधड़ मदरसे तो खोले गये पर वहां सिर्फ मजहबी तालीम दी गई जिससे रोजगार और विकास की दौड़ में मुस्लिम समाज पिछड़ता चला गया। इनके पिछड़ेपन की एक और बड़ी वजह रंगनाथ मिश्रा ने ही बताई। रंगनाथ मिश्रा समिति ने तो अपनी रिर्पोट में ये भी कहा कि अल्पसंख्यक समुदायों में मुस्लिमों में प्रजनन दर सबसे ज्यादा है और ये गर्भनिरोधकों का भी इस्तेमाल कम करतें हैं इस कारण मुस्लिमों का परिवार औसतन बड़ा होता है। इस रिर्पोट में यह भी आया कि मुस्लिम महिलाओं की कार्य सहभागिता दर भी काफी कम है। सिर्फ मिश्रा ने ही नहीं राजेन्द्र सच्चर ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है कि मुस्लिमों का एक बड़ा तबका आधुनिकीकरण के खिलाफ है क्योंकि उनके अंदर ये भय है कि आधुनिकीकरण के नाम पर उनके मदरसों की स्वतंत्रता में खलल डाला जायेगा। सच्चर की रिर्पोट में बताया गया है कि 14 ऐसे राज्य जहां मुसलमानों की आबादी अधिक हैं वहां वो रोजगार में पिछड़े हुयें हैं पर जेलों में उनकी आबादी 30 से लेकर 40 प्रतिशत तक है।
क्या ये आंकड़े मुसलमानों को आत्मचिंतन के लिये प्रेरित नहीं करते ?
भारतबर्ष में मुस्लिमों के लिये अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग किया गया है जबकि इनकी तादाद भारत में हिंदुओं के बाद सबसे अधिक है। 2001 की जनगणना के मुताबित इनकी आबादी 13 करोड़ से भी अधिक है जो बांग्लादेश और पाकिस्तान की कुल जनसंख्या के बराबर है। विश्व में मुस्लिम जनसंख्या के मामले में केवल इंडोनेशिया ही भारत से आगे है। इतनी बड़ी आबादी वाले समुदाय को किसी खौफ या असुरक्षा में जीने की जरुरत ही नहीं थी पर वोट बैंक के ठेकेदारों में चक्कर में इस समुदाय को ऐसी अफीम में मुब्तला कर दिया गया कि यह अपने समाज की तरक्की के बारे में सोचना ही भूल गया।
क्या अब इस्लाम खतरे में नहीं है?
पैगंबर (सल्ल0) ने अपनी उम्मत के बारे में एक भबिष्यवाणी की थी कि आने वाले जमाने में मेरी उम्मत 73 फिरकों में बंट जायेगी। पैगंबर (सल्ल0) की पेशीनगोई के मुताबिक आज इस्लाम 73 फिरकों में बंट चुका है और हर फिरके वाले दूसरे फिरके वाले से प्रायः हर दीनी और दुनियवी मुद्दे पर मतभेद रखता है। मगर भारतबर्ष में जबसे धर्म आधारित आरक्षण की बात शुरु हुई है हर फिरके का इमाम इसके समर्थन में आ खड़ा हुआ है। अपवादस्वरुप ही कुछ उलेमा हैं जो इस आरक्षण को गैर-इस्लामी और शरीयत विरुद्ध बता रहें हैं। स्थिति ये हो गई है कि इन उलेमाओं की मजलिसों में दीन से मुतल्लिक बातें कम और दुनियवी बातें ज्यादा हो रहीं हैं। वो अपने सम्मेलन बुलातें हैं जिसमें ये चर्चा होती है कि फ्लां पार्टी इतने प्रतिशत आरक्षण के वादे कर रही है और फ्लां पार्टी इतने।
जबकि कई बातें ऐसीं हैं जो साबित करतीं हैं कि आरक्षण एक गैर-इस्लामी व्यवस्था है जो इस्लाम के जड़ों पर चोट करने वाली है और इस्लाम के बुनियादी सिद्धांतों के विरुद्ध है। आरक्षण पर मस्जिदों में बैठकें करना और हिसाब-किताब लगाना कि हमारे इतने वोट हैं जिसका इस्तेमाल हम किसी राजनीतिक पार्टी को रिझाने में कर सकतें हैं, रसूल (सल्ल0) की एक और पेशीनगोई की याद दिलाती है। बैहकी की एक रिवायत में आता है (जो शाबुल ईमान में आती है) कि रसूल (सल्ल0) ने इर्शाद फरमाया कि आगे जमाने में कुछ लोग ऐसे होंगें जिनके दुनिया से मुतल्लिक बातें उनकी मस्जिदों में हुआ करेंगी। तुम ऐसे लोगों के पास न बैठना क्योंकि खुदा को उनकी कोई जरुरत नहीं हैं।
सवाल ये है कि इस्लाम की बुनियादों में मट्ठा डालने के काम का समर्थन करने से क्या इस्लाम खतरे में नहीं आता? क्या आरक्षण के समर्थन में ये उलेमा कुरान या हदीस से कुछ साबित कर सकतें हैं ? आरक्षण की मांग करते हुये क्या इन तथ्यों की अनदेखी की जा सकती है कि-
1. यह आरक्षण कुरान सम्मत नहीं है।
कुरान की पहली आयत थी 'इकरा' यानि पढ़ो। पढ़ो, उस रब के नाम से जिसने तुम्हें पैदा किया। कुरान ने ये नहीं कहा कि पढ़ो उन सेकुलरों के नाम से जिसने तुम्हें किसी का हक छीन कर आरक्षण दिया। कुरान ने ये भी नहीं कहा कि कम पढ़ाई करो और अपने वोट का इस्तेमाल करके उनका हक छीन लो जिन्होंनें अच्छी तालीम हासिल करने के लिये रात-दिन एक कर दिये। अपने दांव-पेंच से ऐसी चालें चलो और राजनेताओं को ललचाओ कि वो उस विधार्थी का हक छीन कर तुम्हें दें दें जिसे पढ़ाने के लिये उसकी मां ने अपने जेवरात बेच दिये और दूसरों के धरों के जूठे बर्तन मांजे। पवित्र कुरान की अनेकों आयतें इंसाफ की बात करती है और ये भी कहती है कि तुम आपस में एक दूसरे का माल अवैध रुप से न खाओ और न ही इसे अधिकारी व्यक्ति के आगे इस गरज से इसे पेश करो कि तुम्हें दूसरों के माल को कोई हिस्सा जानबूझकर अन्यायपूर्ण तरीके से खाने को मिल जाये। (सूरह बकरह, आयात-188) क्या यह आयत यह स्पष्ट नहीं करती कि अपनी किसी चीज का लालच हाकिमों को देकर उसका अनुचित लाभ उठाना हराम है ? वोट के लालची नेताओं से अपने वोट का सौदा करना या उसका लालच देकर किसी के हक को छीनने की कोशिश करना क्या पवित्र कुरान के इस आयत की अवज्ञा नहीं है? अगर है तो फिर कुरान की इस आज्ञा का इंकार क्यों? जानबूझकर कुरान की आयतों की अवज्ञा करने से बड़ा गुनाह भी कोई है क्या? क्या कुरान की अवज्ञा करने वाला भी मोमिन रह सकता है? दीन-रात अपनी मस्जिदों और मज्लिसों में रसूल (सल्ल0) के पैरोकार और कुरान के अनुगामी होने का दम भरने वाले उलेमा कुरान की मुखालफत कर क्या अपने दीन को दुनिया के बदले बेच नहीं रहे? कुरान ने तो मोमिनों को हर हाल में इंसाफ करने की नसीहत की थी। कुरान ने तो यह भी कहा है कि तुम किसी आला मुकाम पर पहुँचना चाहते हो तो अपने इल्म में बढ़ोतरी करो। सूरह ताहा की 114 वीं आयत है- हे रब मेरे ज्ञान में और अधिकता कर।
इन सबके अलावा भी कुरान में एक ऐसी आयत भी है जो आरक्षण की मांग करने का आधार ही खत्म कर देती है। सूरह नज्म की आयत में आता है, 'मनुष्य के लिये उतना ही है जितने के लिये उसने कोशिश की।' इस आयत की तफ्सीर में मौलाना मौदूदी ने लिखा है कि कुरान की इस आयत से तीन निष्कर्ष निकलतें हैं-
1- That every person will get only the fruit of his own deeds.
2. That the fruit of one man’s deeds cannot be given to another unless he has a share in that deed.
3. That none can attain anything without striving for it.
जब पवित्र कुरान कह रहा है कि मनुष्य बस उतना ही पाने का हकदार है जिसके लिये उसने जतन किया तो फिर आरक्षण जैसे बातों की गुंजाईश ही कहा बचती है? अपनी कोशिश के बगैर हासिल करने का जतन क्या पवित्र कुरान की खुली अवज्ञा नहीं है?
2. आरक्षण रसूल (सल्ल0) की सुन्नत के खिलाफ है।
बीबी आएशा (रजि0) से किसी ने एक बार पूछा था कि कुरान को समझना हो तो क्या करना चाहिये ? बीबी आएशा (रजि0) ने फरमाया, अपने रसूल (सल्ल0) की सीरत को देख लो।
रसूल (सल्ल0) ने तो हमेशा अपनी जिंदगी में इंसाफ की तराजू को थामे रखा। रसूल (सल्ल0) के जीवनकाल में उनके सामने ऐसे भी मसले पेश आये थे जब किसी मुकदमें का फैसला मुसलमान और यहूदी के बीच करना था पर रसूल (सल्ल0) ने इंसाफ का साथ दिया और उस यहूदी के हक में फैसला सुनाया। एक हदीस में रसूल (सल्ल0) ने फरमाया था कि काजी (जज) के पास अगर कोई आदमी फरियाद करते हुये आये कि फ्लां आदमी ने मेरी आंखें निकाल ली है। यदि उस फरियादी की आंखें निकाली हुई दिख भी रही है तो भी काजी को जोश में नहीं आना चाहिये और जिसके खिलाफ आरोप है उसे सजा नहीं सुना देनी चाहिये वरन् उसे भी बुलाकर ये देखना चाहिये कि कहीं फरियादी ने उसकी दोनों आंखें तो नहीं निकाल ली। ऐसे इंसाफ पसंद रसूल (सल्ल0) के पास अगर कयामत के दिन भारत का कोई हिंदू खड़ा होकर ये शिकायत करे कि आपने तो तमाम उम्र अपनी उम्मत को इंसाफ की ही तालीम दी फिर कैसे आपके ही उम्मतियों ने अपने वोट का सौदा करके पहले किसी अच्छे संस्थान में मेरे दाखिले का हक छीन लिया और जब नौकरी करने की बारी आई तो फिर से मेरी जगह अपने वोट को बेचकर जगह इसने ले ली और मैं मेरे परिवार की परवरिश सही तरीके से नहीं कर पाया। तो यकीनन रसूल (सल्ल0) उस फरियादी के हक में अपने उस उम्मती के खिलाफ खड़े होेंगें क्योंकि एक हदीस में उन्होंनें फरमाया है कि कियामत के दिन मैं खुद उसके खिलाफ गवाही दूंगा जिसने किसी गैर-मुस्लिम पड़ोसी का नाहक दिल दुखाया। आश्चर्य तो ये है कि इंसाफ के इतने बड़े पैरोकार नबी (सल्ल0) की उम्मत इंसाफ के सिद्वांत को ही भूल गई। और इतना ही नहीं बेशर्मी से ये भी ऐलान कर रही है कि हमारी मांग जायज है।
3. आरक्षण की मांग रसूल (सल्ल0) का दिल दुःखाना है।
रसूल (सल्ल0) ने तो अपने हदीस में यही फरमाया था कि इल्म हासिल करो भले इसके लिये चीन जाना पड़े। यहां हदीस का यह मतलब नहीं था कि इल्म चीन से ही हासिल करो। चीन तो उस समय शिक्षा का कोई बड़ा मशहूर केंद्र भी नहीं था। उनके कहने का मतलब था कि इल्म हासिल करने में लिये चाहे कितनी भी मुश्किलात आये पर रुको नहीं। इसी तरह एक और हदीस है जिसमें रसूल (सल्ल0) ने फरमाया कि आगे जाकर मेरी उम्मत में ऐसे लोग भी आयेंगें कि इल्म चाहे सितारे सुरैया पर भी चला जायेगा तो भी वो उसे उतार कर ले आयेंगें। यहां भी उनके कहने का भाव यही था कि मेरी उम्मत में इल्म हासिल करने की ललक रखने वाले ऐसे लोग आयेंगें जो इल्म पाने के लिये तमाम कष्टों को भी झेल जायेंगें। स्पष्ट है कि रसूल (सल्ल0) ने इल्म हासिल करने के लिये जद्दोजहद करने की बात कही, ये नहीं कहा कि इल्म हासिल करो भले इसके लिये किसी का हक मारना पड़े, उन्होंनें यह सलाह नहीं दी कि इल्म हासिल करो भले इसके लिये तुम्हें अपने वोट बेचने पड़े। रसूल (सल्ल0) के आज्ञाकारी होने का दावा करने वाले उलेमाओं और दुनियादार मुसलमानों से बेहतर तो आई0ए0एस0 की परीक्षा में टाॅप करने वाले कश्मीर के डॉक्टर शाह फैसल हैं जिसने आरक्षण रुपी वैशाखी के बिना वो कर दिखाया जो हर किसी का सपना रहता है। योग्यता और अच्छी तालीम ही हर समस्या का समाधान है। आरक्षण व्यवस्था तो इल्म हासिल करने की ललक को कम करती है। इस वैशाखी पर चलने वाला यही सोचता है कि जब कम पढ़े बिना भी रोजगार मिल रहा है तो ज्यादा पढ़ने और इसके लिये जी-तोड़ मेहनत करने की जरुरत क्या है? रसूल (सल्ल0) आलिमों का महत्त्व समझते थे तभी तो उन्होंनें अपनी मुबारक जुबान से फरमाया था कि 'आलिम के कलम की रौशनाई एक शहीद के खून से अफजल है।' रसूल (सल्ल0) ये कभी भी नहीं चाहते थे कि उनके उम्मती किसी के रहमो-करम पर रोजी हासिल करे।
4. आरक्षण दीने-इस्लाम में कपटचारियों (मुनाफिकों) को आमंत्रण देना है।
अगर धर्म के आधार पर आरक्षण मिलने लगे तो वो हिंदू जो हिंदू धर्म में रहते हुये आरक्षण के लाभ से वंचित हैं और न ही इतनी योग्यता रखतें हैं कि सामान्य वर्ग में संधर्ष कर वो रोजगार हासिल कर सके इस लालच में धर्म परिवर्तन करना शुरु कर देंगें जिससे इस्लाम में मुनाफिकों की संख्या बढ़ेगी। ऐसे लोग जो हिंदू धर्म में उस श्रेणी में आतें हैं जिन्हें आरक्षण का लाभ प्राप्त नहीं है तो क्या वो हिंदू धर्म में कष्ट झेलने के लिये बने रखेगें? यकीनन ऐसे लोगों का एक बड़ा वर्ग मतांतरित होगा जो इस्लाम में मुनाफिकून की हैसियत में होंगें। कुरान अवतरण के जमाने में हजरत मोहम्मद (सल्ल0) का सामना दो तरह के गिरोहों से हुआ था काफिर और मुनाफिकुन। काफिर वो लोग थे जिन्होंनें हजरत मोहम्मद (सल्ल0) द्वारा दी गई दीन की दावत को ठुकरा दिया था और उनसे खुलेआम जाहिर में दुश्मनी रखते थे। दूसरी तरफ मुनाफिकुन वो लोग थे जिन्होनें जाहिरन इस्लाम तो स्वीकार कर लिया था पर वास्तव में ये कपटचारी थे और हजरत मोहम्मद से दुश्मनी रखते थे। इन कपटचारियों के ऊपर बाकायदा कुरान में एक सूरह भी नाजिल हुई थी। इस सूरह के अवतरण का सार यही था कि ईमानवालों को यह बताया जाये कि अगर दीने-इस्लाम में मुनाफिक शामिल हो जातें हैं तो वो इस्लाम को कितना नुकसान पहुँचा सकतें हैं। अतीत में भी इन मुनाफिकों ने इस्लाम को संकट में डाला था और आज भी अगर धर्म आधारित आरक्षण व्यवस्था लागू हो जाती है तो ऐसा ही होता हुआ दिखेगा। इस्लाम में ऐसे कपटचारी धुस जायेंगें जिनका न तो तौहीद में यकीन होगा और न ही हजरत मोहम्मद (सल्ल0) की रिसालत में। इस्लामी तारीख बताती है कि ऐसे कपटचारियों (मुनाफिकों) से इस्लाम को कितना खतरा रहा है। अल्लाह ने तो इस बाबत एक सूरह भी नाजिल फरमा दी थी जिसमें मोमिनों को ये आगाह किया गया था कि ऐसे कपटचारियों से सावधान रहें और उनसे दूर रहें। पर आज ऐसे कपटचारियों को आमंत्रित करने के काम का आगाज मुस्लिमों द्वारा ही किया जा रहा है।
5. आरक्षण इस्लाम की तालीमात का अपमान है।
इस्लाम धर्म की सबसे बड़ी बिशेषता क्या है? ये ऐसा प्रश्न का जिसका उत्तर इस्लाम के बारे में थोड़ी सी भी जानकारी रखने वाला दे सकता है। कोटा आवंटन भेदभाव का एक रुप है जो इस्लाम के समानता के सिद्वांत के खिलाफ है। 9 मार्च 2005 को देश के मुस्लिम समुदाय की समस्याओं को जानने और उनके निपटने हेतू योजनायें और नीतियां बनाने के लिये एक न्यायमूर्ति राजेंद्र सच्चर के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया। जिसका उद्देश्य अगर सीधे लब्जों में कहा जाये तो ये था कि इससे मुसलमानों के पिछड़ेपन का आकलन किया जायेगा।
सिर्फ आर्थिक आधार ही है जिसपर मुसलमानों को आरक्षण दिया जाना कुछ हद तक इस्लाम विरोधी नहीं है। वरना चाहे वो धार्मिक आधार हो या सामाजिक, ये दोनों ही आधार इस्लाम विरुद्ध हैं और मुसलमानों को नीचा दिखलाने वालें हैं। बात अगर भारतीय परिपेक्ष्य में हो तो इस देश में आरक्षण का आधार जाति है और जाति केवल और केवल हिंदू धर्म की सच्चाई है। इस देश में रहने वाले दूसरे धर्म के अनुयायी अगर आरक्षण चाहतें हैं तो फिर उन्हें ये भी धोषणा करनी होगी कि उनका धर्म भी जातिप्रथा से बंधा हुआ है और जाति के जाल से बाहर आने के लिये जिन लोगों ने भी समानता के धर्म इस्लाम को अपनाया वो ठगे गये क्योंकि इस्लाम भी उन्हें जातिभेद से अलग नहीं उठा पाया।
इस्लाम हर विभेदों को दूर करने के लिये शुरु हुआ आंदोलन था मगर सिर्फ लालच के लिये ये लोग इस्लाम में भी वही सारे चीजे धुसेड़ रहें हैं जिसे वो दूसरे (बिशेषततः हिंदू धर्म) धर्म की सबसे बड़ी बुराई बतातें हैं। रसूल (सल्ल0) ने ऐसे ही नहीं फरमाया था कि मेरी उम्मत में ऐसे लोग आयेंगें जो दीन को दुनिया के आगे बेच देंगें। सच्चे मुसलमान होने और इस्लाम पर चलने का दम भरने वाले इन मुसलमानों से बेहतर तो कोट-पतलून पहनने वाले मोहम्मद अली जिन्ना थे। पाकिस्तान के जनक मोहम्मद अली जिन्ना इस्लाम के समानता और न्याय सिद्धांत को मानने वाले थे। 1913 में लोक सेवा आयोग की परीक्षा के संबंध में जब अंग्रेज लाॅर्ड इस्लिंगटन ने जिन्ना से ये कहा कि मुसलमानों को अगर इस परीक्षा में आरक्षण न दिया जाये तो फिर एक सी परीक्षा में वो हिंदुओं का मुकाबला नहीं कर पायेंगे और मुसलमानों की नुमाइंदगी कमजोर पड़ जायेगी। जिन्ना ने कहा कि 'मुझे इस बात पर कोई ऐतराज नहीं है कि इस परीक्षा के माध्यम से चुनकर किसी खास समुदाय के लोग ज्यादा आ जायेंगें बशर्ते वो योग्य और काबिल हों। इस पर लार्ड इस्लिंगटन ने पूछा, तो क्या आप किसी मुस्लिम बहुल क्षेत्र में हिंदू प्रशासक को स्वीकार करेंगें? जिन्ना ने जबाब दिया, ऐसी स्थिति में अगर आप उस क्षेत्र में किसी मुसलमान को भेजतें हैं तो आप उस हिंदू प्रशासक के प्रति नाइंसाफी करेंगें जिसने ज्यादा अंक प्राप्त कियें हैं।
6. आरक्षण यानि मुस्लिम समाज में विधटन का बीज
जब से मुसलमानों को आरक्षण का ख्बाब दिखाया गया है, मुस्लिम समाज में विधटन भी आरंभ हो गया है। सरकार ने पहले आरक्षण देने के नाम पर मुसलमानों को अगड़े-पिछड़ों में बांट दिया और पिछड़े तबकों के मुस्लिमों को समझाया कि इन ऊँचे तबकों वाले शेख और सैयदों ने तुमको हमेशा पिछड़ा रखा ताकि तुम्हारा इस्तेमाल किया जा सके। इन बातों का परिणाम ये हुआ कि पिछड़े मुसलमानों के संगठन वजूद में आने शुरु हो गये, पिछड़े और वंचित मुस्लिमो के लिये पसमांदा शब्द चलन में आ गया और इन्होनें अपने पिछड़ेपन का जिम्मेदार अपने ही हममजहब शेख और सैयदों को मानना शुरु कर दिया और उनके खिलाफ मोर्चा खोल दी। मुसलमानों के इन पिछड़े संगठन वालों ने कुछ इस तरह के आंकड़ें जैसे, शिक्षा और सियासत में हमेशा अशराफ (अगड़े) ही क्यों आगे रहे? या फिर पसमांदाओं की आबादी 85 फीसदी रहने के बाबजूद संसद या विधानसभाओं में अधिकांशतः अगड़े मुस्लिम ही क्यों जाते रहे हैं ? आदि जमा करने शुरु कर दिये और 1998 में बिहार में 'आॅल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज' अस्तित्व में आ गया। इन सबके कारण ये हुआ कि आज तक मुस्लिमों के जितने भी अधिवेशन होते रहें हैं वो केवल मुस्लिम सम्मेलन/अधिवेशन कहलाते रहें हैं मगर जब से आरक्षण की हवा चली और मुस्लिम समाज का अगड़े-पिछड़े में विभाजन किया गया है, ऐसे सम्मेलनों के बैनरों पर पिछड़ा मुस्लिम, पसमांदा मुस्लिम, अक्लियत मुस्लिम, बैकबर्ड मुस्लिम आदि शब्द जुड़ने लगे हैं। इन अधिवेशनों के बैनरों में मुस्लिम के आगे लगने वाले ऐसे उपसर्ग सामान्य धटना नहीं है वरन् यह राजनीतिज्ञों द्वारा देश के मुस्लिम समाज को बांटते रहने की निरंतर प्रक्रिया का प्रतिफल है जो मुस्लिम समाज में विभेद और विभाजन की नींव डाल चुकी है। अब तो इन पिछड़े मुस्लिमों की तरफ से ये नारे भी लगने लगें हैं जिसमें ये कहा जाता है हिंदू हो या मुसलमान, दलित-पिछड़ा एक समान'। इतिहास में पहले ऐसा कभी नहीं हुआ कि मुसलमानों ने सरकार से कोई मांग की हो जो महज कुछ खास फिरकों या तबकों के हक के लिये रही हो। अतीत से लेकर अल्पसंख्यक आरक्षण की मांग के उठने के पहले तक मुसलमानों ने अपनी कोई भी मांग समस्त मुस्लिम समाज के हित को सामने रखकर ही किया था मगर अब ये मांग वर्गीकृत हो चुका है। पिछड़े होने का बैनर टांगने वाले मुसलमान अब सरकार से कह रहें हैं कि सच्चर आदि सिफारिशों को रद्दी की टोकड़ी में डालिये क्योंकि आरक्षण कि जरुरत सिर्फ हम पिछड़ें मुसलमानों को है और आरक्षण के दायरे में सारे मुसलमानों को शामिल करना हमारा हकों पर डाका डालने की तरह है। वहीं खुद को शेख और सैयद कहने वाले ये मांग कर रहें हैं कि आरक्षण की वैशाखी हमें भी पकड़नी है। मुसलमानों के इस आंतरिक झगड़ों को अपने हक में भुनाने के लिये राजनीतिक दल भी आगे आ गयें हैं। मुसलमानों के इस आपसी कलह का परिणाम ये हुआ है कि पहले जब राजनीतिक दलों द्वारा जब चुनावों के समय वोटों का गुणा-भाग किया जाता था तब वो समूचे मुस्लिम समाज को एक माना करते थे और इस बात को ध्यान में रखकर वो ऐसे प्रलोभन या चुनावी वादें करतें थे जो सारे मुस्लिम समाज को फायदा पहुँचाने वाला हो पर अगड़े-पिछड़े के नाम पर मुसलमानों को बंटता देखकर अब वो भी ऐसे प्रलोभन देतें हैं जिससे मुस्लिमों के उस वर्ग का ज्यादा वोट मिल सके जिनके वोट अधिक है। 2012 में हुये विधानसभा के चुनावों में ये दिखा भी कि पिछड़े मुस्लिमों ने अपने उम्मीदवारो का ही समर्थन किया। ये संकट केवल इतना ही नहीं है आरक्षण के बिषय पर भी अगड़े और पिछड़े में जंग छिड़ चुकी है जो फतवेबाजी और नारेबाजी से आगे निकल कर तलवारे खिंचने तक पहुँच चुकी है। आन्ध्र की सरकार ने जब पसमांदा मुसलमानों को आरक्षण देने का प्रस्ताव लेकर आई तो मजलिस के विधायकों ने ही इसका विरोध कर दिया और तो और वहां के एक मौलवी ने पसमांदाओं को आरक्षण दिये जाने की बात को हराम ठहरा दिया।
इन सारी कवायदों में मुस्लिम एकता आखिरी सांसे ले रही है जिसे नवजीवन देने का कोई रास्ता नजर नहीं आता।
7. एक और पाकिस्तान की आहट
किसी भी देश की एकात्मता तभी तक बनी रहती है जब वहां के नागरिक देशहित को अपने व्यक्तिगत हित, पंथ ,जाति और भाषा से ऊपर रखतें हैं। इस भाव का खंडित होना ही विभाजन का बीजारोपण करता है। 1906 में पहली बार हिंदू-मुस्लिम एकता के जड़ों में आरक्षण रुपी मट्ठा डाला गया था जब लार्ड मिंटो ने नगरपालिका और जिला-परिषदों में मुसलमानों को आरक्षण दिये जाने की बात की थी। इस पर लाॅर्ड चेम्सफोर्ड ने कहा था कि "धर्म और वर्गों के आधार पर आरक्षण दिया जाना एक दूसरे के विरुद्ध विभिन्न राजनीतिक गुटों का निर्माण है और यह लोगों को बिशिष्ट संप्रदाय के नाते सोचना सिखाती है न कि देश के नागरिक की तरह। और यह सिद्धांत इतनी खूबी के साथ काम करता है कि एक बार पूरी तरह स्थापित हो जाने पर सांप्रदायिकता की खाई इतनी गहरी हो जाती है कि कोई चाहकर भी उसे मिटा नहीं सकता।" चेम्सॅफोर्ड की चेतावनी हकीकत में बदल गई और पाकिस्तान रुप में उसकी परिणति हुई। आज आरक्षण के उस बिषबेल को (जिसने पाकिस्तान बनाया) उखाड़ फेंकने की बजाये सिंचित करने की कोशिश हो रही है जो एक और विभाजन की आहट सुना रही है। इतिहास से सबक न लेना कितना मंहगा पड़ सकता है, इसका अंदेशा लगाने की फुर्सत भी किसी भी राजनेता में नहीं है।
नबी (सल्ल0) का तरीका
एक बार एक अंसारी युवक रसूल (सल्ल0) की खिदमत में आया और आकर कहा, हे नबी (सल्ल0) ! मैं निहायत जरुरतमंद आदमी हूँ, मुझे कुछ खैरात दीजिये। आपने फरमाया, ऐ नौजवान! तुम तो जवान, तंदरुस्त और मजबूत हो, तुम अपने हाथ से कमा कर रोजी हासिल कर सकते हो। अतः खैरात तुम्हारे लिये मुनासिब नहीं है। जाओ, तुम्हारे धर में अगर बेचने लायक कोई सामान हो तो मेरे पास लेकर आओ। नौजवान ने कहा, मेरे धर में एक फटा हुआ कंबल है, जो आधा मेरे ओढ़ने के और आधा बिछाने के काम आता है और एक प्याला है जिससे मैं पानी पीता हूँ, बस मेरे पास यही कुछ है। नबी (सल्ल0) ने कहा, उन दोनों चीजों को मेरे पास ले आओ। नौजवान दोनों चीजें लेकर नबी (सल्ल0) की खिदमत में आया। नबी (सल्ल0) ने उसके सामान को हाथ में लेकर कहा, इसे कौन खरीदेगा? एक तरफ से आवाज आई, मैं चार आने में दोनों को खरीदने को तैयार हूँ, दूसरी आवाज आई, मैं इसे आठ आने में खरीदूंगा। नबी ने 8 आने में उसके सामान को बेच दिया और पैसा उस नौजवान अंसारी को देते हुये कहा, जाओ और जाकर 4 पैसों का अनाज खरीदकर धर में रख दो और बची चवन्नी से बाजार से एक कुल्हाड़ी खरीद लाओ। नौजवान ने उनकी बात पर अमल किया और कुल्हाड़ी खरीदकर नबी (सल्ल0) के पास आया। रसूल (सल्ल0) ने उसके हाथ में कुल्हाड़ी पकड़ाते हुये कहा, जाओ, जंगल जाकर लकड़ियाँ काटो और उसे बेचो फिर 15 दिन बाद मुझे अपने हाल से आगाह करना। वह नौजवान 15 दिनों तक ऐसा ही करता रहा और अपने भोजन-पानी और कपड़ों से निश्चिंत हो गया। 15 दिन बाद जब उसने नबी (सल्ल0) के पास आकर सारा हाल कह सुनाया तो नबी (सल्ल0) बेहद खुश हुये और फरमाया, ऐ नौजवान! यह अपने हाथ की कमाई भीख मांगने या याचना करने से बेहतर है क्योंकि भीख मांगना ऐसी जिल्लत है जो कियामत के दिन भी नहीं मिटेगी। भीख मांगने वाले के चेहेरे पर यह लिखा होगा कि यह दुनिया में भीख मांगा करता था।
अफसोस की बात है कि आज भारत का मुसलमान अपने मेहनत की कमाई खाने के बजाये आरक्षण रुपी भीख की मांग ज्यादा कर रहा है।
सबसे बेहतरीन उम्मत की सबसे बदतरीन चाहत
मुस्लिम आरक्षण पर हो रही राजनीति इस्लाम की कितनी बड़ी तौहीन कर रही है इसका अंदाजा शायद मुस्लिम समाज के रहनुमाओं को भी नहीं है या फिर अगर है भी तो हराम मेें और बगैर प्रयास के मिलने वाली सुविधाओं का लालच शायद इतना बड़ा है जिसके आगे उन्हें इस्लाम या मुसलमानों के सम्मान की कोई चिंता नहीं है। हम मुसलमानों के सबसे बड़े हितचिंतक हैं ऐसा दिखाने के लिये कांग्रेस ने राजेंद्र सच्चर और रंगनाथ मि़श्रा की अध्यक्षता में एक समिति गठित की। इस समिति के सुझावों को सुनकर मुस्लिम रहनुमाओं को बांछें खिल गई और बगैर किसी कोशिश के मिलने वाली आरक्षण की खुशी में वो ये भी भूल गये कि इन समितियों का गठन करने वालों ने और समिति के सदस्यों ने उनके मजहब की कितनी बड़ी तौहीन कर दी है । इस समिति का गठन क्यों किया? इसका जबाब कोई भी यही देगा ताकि भारतीय मुसलमानों के पिछड़ेपन का अध्ययन किया जा सके। यानि इन समितियों को बनाने वाले ये मानतें है कि मुसलमान पिछड़े हुयें हैं! रंगनाथ मिश्रा आयोग ने अपनी रिर्पोट में कहा कि मुस्लिमों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति प्रायः हिंदू दलितों की तरह ही हैं अथवा उससे भी बदतर ही है। सारे मुसलमानों को दलितों और वंचितों से भी बदतर बताना क्या मुसलमानों का अपमान नहीं है?
राजेंद्र सच्चर, रंगनाथ मिश्रा और उन्हें इस काम में नियुक्त करने वालों ने इस्लाम धर्म और मुसलमानों का कितना बड़ा अपमान किया है इसे एक काल्पनिक उदाहरण से समझा जा सकता है।
मान लीजिये कि कि किसी मोहल्ले में दो परिवार आस-पास रहतें है। एक परिवार के मुखिया का नाम रामचंद्र है और दूसरे परिवार के मुखिया का नाम है रहीम खान। दोनों ही परिवारों में आमदनी करने वाले केवल एक है जो उन परिवारों के मुखिया है और संयोग से दोनों किसी विभाग में एक ही पद पर हैं। पूर्वजों से प्राप्त संपत्ति भी दोनों परिवारों की तकरीबन बराबर है और दोनों ही परिवारों में एक-2 बेरोजगार युवा लड़का है (जिसकी शैक्षणिक योग्यता भी तकरीबन समान है) जो सरकारी नौकरी पाने के लिये संधर्षरत है। सीधे शब्दों में कहा जाये तो दोनों ही परिवारों की आर्थिक और सामाजिक हैसियत बराबर है। अब सरकार एक समिति का गठन करती है जिसका उद्देश्य लोगों के पिछड़ेपन का अध्ययन करना है। यह समिति एक पैमाना बनाती है जिसके आधार पर जरुरतमंद व पिछड़े परिवारों की पहचान की जानी है। इस पैमाने पर परिवार की पृष्ठभूमि, परिवारिक व्यवसाय, योग्यता आदि के लिये कुछ अंक निर्धारित किये गयें हैं। इसका बिश्लेषण एक चार्ट के रुप में इस तरह आता है-
आधार प्राप्तांक रामचंद्र के बेटे को मिला अंक रहीम के बेटे को मिला अंक
योग्यता के आधार पर अंक 60 40 40
धरेलू आय के आधार पर 13 10 10
क्षेत्र जहां व्यक्ति ने पढ़ाई क 13 10 10
धर्म के आधार पर 14 14 0 (?)
कुल अंक 100 74 60
इस चार्ट के आधार पर रामचंद्र और रहीम खान के बेटों के बीच ये तय किया जाना है कि इन दोनों में अधिक पिछड़ा हुआ कौन है? जिसे भी योग्यता मूल्यांकन निर्धारक इस चार्ट के निर्धारक बिंदुओं में कम अंक प्राप्त होंगें वो पिछड़ा माना जायेगा और आरक्षण आदि सरकारी बैसाखियों का हकदार समझा जायेगा। इस पैमाने के आधार पर अगर तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाये तो स्पष्ट होता है कि रामचंद्र और रहीम दोनों के ही बेटों को हर निर्धारक बिंदुओं में समान अंक प्राप्त हुआ है पर जब धर्म के आधार पर मूल्यांकन की बात आई तो रहीम खान का बेटा पिछड़ गया। इसका सीधा मतलब ये हुआ कि दो लोग या दो परिवार सामाजिक/ आर्थिक आदि सभी हैसियतों से समान हैं उनमें से एक पिछड़ा और कमतर इसलिये माना जायेगा क्योंकि वह मुसलमान है। इस्लाम धर्म की इससे बड़ी और तौहीन क्या होगी कि नबी (सल्ल0) ने अपने जिन उम्मतियों को जन्नत का हकदार बताया था, जिन उम्मतियों के मुतल्लिक वो गर्व से फरमातें थे कि कयामत के रोज अपने उम्मतियों के सबसे बड़े (रुतबे में) होंने के कारण बुलंद मकाम पर होंगें, उनकी उस उम्मत को मुस्लिम होने की वजह से पिछड़ा कहा गया और इतना पिछड़ा कि बिना आरक्षण की वैशाखी पकड़े वो आगे बढ़ नहीं सकता। रसूल (सल्ल0) की सुन्नत की परचम का दम भरने वाले मौलवियों को अपने इस्लाम की और उम्मतियों की ऐसी बेइज्जती देखने के बाबजूद नींद कैसे आ रही है? और तो और वो भी इनके सुर में सुर मिलाकर ये कह रहेें हैं कि तुम जितना बता रहे हो हम उतने पिछड़े नहीं है बल्कि और भी ज्यादा पिछड़ें हैं, इतने ज्यादा कि सदियों से शोषित हो रहे अनुसूचित वर्ग वाले भी हमसे बेहतर है । ये मौलवी जिनके ऊपर उम्मत का नाम ऊँचा रखने की जिम्मेदारी थी वो ही अपने मजहब को बदनाम करने में सबसे आगे खड़ें हैं। एक मौलवी ने तो मुस्लिम आरक्षण की मांग करते-2 ये तक कह दिया कि मुसलमानों का पिछड़ा होना सिर्फ हमारी समस्या नहीं है वरन् यह एक अंतराष्ट्रीय समस्या है। यानि मुस्लिम होना ही पिछड़ेपन की निशानी है चाहे माहौल कोई भी, हुकूमत किसी की हो या शासनतंत्र कोई भी हो। चाहे वो कोई भी फिरका हो, उसके इमाम एक सुर में ये कह रहें हैं कि हम पिछड़ें हैं और किसी को भी इसमें इस्लाम की कमतरी करने का एहसास नहीं होता।
मुझे अपनी उम्मत के मुतल्ल्कि गुमराह करने वाले लीडरों का खौफ है। हजरत मोहम्मद (सल्ल0) की ये पेशीनगोई भारत में मुसलमानों के हितचिंतक बने मौलवियों पर लागू की जाये तो गलत नहीं होगा। जमाते-इस्लामी के अमीर मौलाना जलालुद्दीन उमरी ने मांग की कि सरकार सारे मुसलमानों को पिछड़ा धोषित कर दे। वहीं चौथी दुनिया उर्दू की संपादक वसीम रशीद के साथ बातचीत में जमीयत-उलेमा-ए-हिंद के मौलाना असद मदनी ने तो कुरान की इस आयत को लांछित कर दिया जिसमें मुसलमानों को सबसे बेहतरीन उम्मत बताया गया है। मदनी ने न सिर्फ कुरान की इस आयत को नीचा दिखाया वरन् इस्लाम की कई बुनियादी बातों पर भी चोट की। इस वार्ता में मदनी ने कहा कि भारत के मुसलमान आर्थिक, समाजिक और शैक्षणिक सभी तरह से यहां के अन्य समुदायों की तुलना में बहुत ज्यादा पिछड़े हुये हैं। मतलब ऐसा एक भी बुनियाद नहीं है जिसमें हम हिंदू धर्म के सबसे पिछड़ों से बेहतर हो। अब अगर कोई इस पर ये टिप्पणी कर दे कि जब आप हिंदू धर्म के सबसे वंचित वर्ग से भी बदतर है तो फिर सवर्ण हिंदू के मुकाबले में तो आप कहीं ठहर ही नहीं सकते, तो क्या ज्यादती होगी?
इस्लाम का उदय और महज 1400 बर्षों में इसका जर्बदस्त विस्तार हुआ था तो इसकी सबसे बड़ी वजह थी कि इसके सभी अनुयायियों के बीच किसी तरह का भेदभाव नहीं था। पर जैसे-2 समय बीतता गया स्वार्थियों का इस्लाम हजरत मोहम्मद के इस्लाम से बहुत दूर चला गया। और भारत में जहां दुर्भाग्यवश मुसलमान सिर्फ वोट बैंक है वहां तो इस्लाम को मानने वाले स्वार्थियों की जमात महज नाम के मुस्लिम हैं जिन्होंनें वोट के सौदागरों के प्रलोभन में आकर इस्लाम की मूल शिक्षा को ही भूला दिया है।
मुस्लिम समाज के तथाकथित रहनुमा आरक्षण बेशक मांगे पर इन सवालों का जबाब हर मौलवी से अपेक्षित रहेगा कि -
1. इस्लाम जिस न्याय व्यवस्था कि बात करता है, क्या वह न्याय व्यवस्था इस आरक्षण के कारण लांछित नहीं होगी ?
2. क्या आरक्षण की मांग करना कुरान की आयत जिसमें कहा गया है 'मनुष्य के लिये वही है जिसके लिये उसने कोशिश की' की अवज्ञा नहीं है?
3. क्या यह आरक्षण व्यवस्था मुसलमानों को बाकी संप्रदायों की तुलना में कमतर होने का एहसास नहीं दिलायेगा?
4. एक यहूदी और मुसलमान के झगड़े में हक पर रहने के कारण यहूदी के पक्ष में फैसला देने वाले रसूल (सल्ल0) के समक्ष अगर कयामत के दिन कोई गैर मुस्लिम खड़ा होकर ये गुहार लगाये कि फ्लां मुसलमान ने सियायतदानों के साथ अपने वोट का सौदा करके मेरा हक छीन लिया तो क्या रसूल (सल्ल0) उस गैर-मुस्लिम की पुकार अनसुनी कर देंगें?
5. कुरान ने कहा है कि दीन को मत बांटो फिर आज आरक्षण के लालच में जो मुस्लिम समाज का वर्गीकरण कर रहें हैं वों क्या कुरान के इस आज्ञा की मुखालफत नहीं कर रहे?
6. इस्लाम में कपटचारियों को बढ़ावा देने वाले कामों पर मौलवियों का न सिर्फ खामोशी की चादर ओढ़ लेना बल्कि उसके समर्थन में खड़ा होना क्या इस्लाम की परिभाषा में गुनाह नहीं हैं?
7. ये समितियां मुसलमानों को इस्लाम कबूलने से पहले की जाति याद दिला रही है। क्या यह मुस्लिम समुदाय में विभेद को और अधिक बढ़ावा नहीं देगा या इस धारणा को बल नहीं देगा कि इस्लाम स्वीकारना भी जातिवाद से मुक्त नहीं कर सकता।
8. आमतौर पर तो हजरत मोहम्मद (सल्ल0) के सारे ही उम्मती एक हैं पर आरक्षण के लिये अगड़ा और पिछड़ा मुस्लिम जैसे वर्ग बनाये जा रहें हैं। क्या इस्लाम में मुसलमानों को अगड़े-पिछड़े में बांटना न्यायसंगत है ?
9. हजरत मोहम्मद (सल्ल0) ने तो हजरत बिलाल और हजरत जैद जैसे गुलाम और अबूबक्र (रजि0) जैसे बड़े व्यापारी और प्रतिष्ठित सरदार में कोई विभेद नहीं किया क्योंकि वो मुस्लिम थे फिर ये मौलाना अगड़े-पिछड़े में बाँटने जैसी विभेदक नीति पर खुश कैसे हैं?
10. 'कोई बोझ उठाने वाला दूसरे का बोझ नहीं उठायेगा। हर इंसान अपने कर्म का खुद जिम्मेदार है। एक व्यक्ति की जिम्मेदारी दूसरे पर नहीं डाली जा सकती।' ये पवित्र कुरान की आयत हैै। अगर मुसलमान अपनी बदहाली के लिये स्वयं जिम्मेदार हैं तो फिर अपनी इस बदहाली का बोझ वो दूसरे पर क्यों डाल रहें हैं?
11. रसूल (सल्ल0) का कहना था कि 'इल्म हासिल करना हर मुसलमान पर फर्ज है' पर क्या मौलवियों ने इस वाक्य को 'आरक्षण हासिल करना हर मुसलमानों का अधिकार है' में नहीं बदल दिया?
12. आरक्षण का लाभ तो सरकारी सेवाओं में मिलेगा अगर आने वाले समय में बैंक, रेलवे आदि सेवाओं का (जिसमें रोजगार की सर्वाधिक संभवनायें हैं) निजीकरण कर दिया तो फिर अर्धतालीमयाफ्ता और आरक्षण के भरोसे दिन काट रहे मुसलमान कहाँ जायेंगें। क्या इन उलेमाओं को बजाए आरक्षण मुस्लिम समाज के शैक्षणिक बेहतरी की मांग नहीं करनी चाहिये?
13. जकात व्यवस्था इस्लाम के पांच बुनियादी अरकानों में एक है। इस व्यवस्था कि उद्देश्य था कि मुस्लिम समाज में कोई मुहताज न हो। हर मुसलमान का ये फर्ज था कि वो अपने हममजहबों की आर्थिक विपन्नता को दूर करे। इस्लाम के इस बुनियादी अरकान को भुला कर आरक्षण की मांग करना क्या यह नहीं दर्शाता की जकात व्यवस्था उलेमाओं की नजर में अप्रासंगिक हो चुका है?
14. क्या ये आरक्षण व्यवस्था शरीयत के लिहाज से दुरुस्त है? क्या शरीयत इसकी इजाजत देती है?
15. मुस्लिम समाज का अगड़े-पिछड़े के रुप में हो रहे विभाजन को रोकने की जिम्मेदारी क्या मौलानाओं की नहीं है?
16. आरक्षण छोटेपन का एहसास कराती है, ये ऐसी हकीकत है जिससे किसी का इंकार नहीं है तो क्या ये व्यवस्था मुस्लिमों के प्रतिष्ठा पर आधात नहीं है?
17. हम बिना आरक्षण सामान्य वर्ग के छात्रों से मुकाबला नहीं करते, ऐसा कहना क्या उन बच्चों का अपमान नहीं है जो कुरान की 6666 आयतें 7 या 8 बर्ष की उम्र में ही याद करने की प्रतिभा रखतें हैं? इसका अर्थ ये है आरक्षण का समर्थन करने वालों के लिये जन्मजात प्रतिभा, और उसका विकास करने की कोशिश करना कोई मायने नहीं रखता।
18. आज मुसलमान अपने पूर्व के हिंदू धर्म (जिसे वो सकड़ों बर्ष पूर्व छोड़ चुका है) में अपनी जाति की जड़े तलाशते हुये ये मांग कर रहा है कि मै भी उसी जाति का हूँ जिसके तहत इस जाति वाले को हिंदू धर्म में आरक्षण मिल रहा है। यानि अगर इस्लाम पूर्व वो हिंदू धर्म में एस0 सी0, एस0 टी0 वर्ग में था तो अब उसे भी एस0 सी0, एस0 टी0 जैसे आरक्षण चाहिये। इस्लाम स्वीकारने के बाबजूद अपने पूर्व के धर्म में अपनी जड़ें तलाशना क्या इस्लाम की बुनियादें कमजोर नहीं करता? और क्या आश्चर्य कि एक बार जड़े तलाश तलाश लेने के बाद वो वही परंपरायें और पूजा-पद्धति भी अपना लें? रसूल (सल्ल0) ने तो कहा ही था कि कयामत तब तक नहीं आयेगी जबतक मेरी उम्मत अपने बाप-दादाओं की तरह बुतों को पूजना न शुरु कर दे।
19. रसूल (सल्ल0) ने तो अपनी उम्मतियों को हलाल कमाई का हुक्म दिया था फिर किसी का दिल दुखा कर या उसकी हकमारी कर मिलने वाली नौकरी और उससे होने वाली आय क्या हलाल मानी जायेगी?
20. लोभी की क्षुधा कभी शांत नहीं होती और यह अंदेशा गलत नहीं है कि आने वाले दिनों में यह विधटनकारी मांग और बढ़ेगी जो न सिर्फ मुस्लिमों में बल्कि देश के विभिन्न संप्रदायों के बीच भी वैमनस्य का बीज बोयेगी। क्या देश में अमन कायम रखने की जिम्मेदारी मौलानाओं की नहीं हैं?
21. मुस्लिम धर्म प्रचारक अब तक ये कहते रहें हैं कि इंसानी बराबरी सिर्फ इस्लाम दे सकता है और इसके अलावा इंसानी बराबरी किसी और तरीके से नहीं हासिल की जा सकती। तो क्या अब वो इस बात को मानेंगें कि इंसानी बराबरी का एक और तरीका आरक्षण भी है जो इस्लाम अपनाने से ज्यादा कारगर है।
22. सूरह बकरह की 188 वीं आयत जिसका सार ये ये है कि अपने रसूख, माल या किसी चीज का इस्तेमाल कर फैसले अपने हक में करवाना हराम है तो फिर अपने वोटों का लालच देकर आरक्षण का हक मांगना एक तरह की रिश्वतखोरी और कुरान की इस आयत की मुखालफत नहीं है?
भारत का संविधान देश के समस्त वर्गों को साथ लेकर चलने की गारंटी देता है। तुष्टिकरण और आरक्षण किसी समस्या का समाधान नहीं है बल्कि पंडित नेहरु के शब्दों में कहें तो इसमें तबाही के बीज छुपे हुयें हैं। जिन मुसलमानों को बड़े दिन का खौफ है वो तो इस शरीयत विरुद्ध कृत्य का पुरजोर विरोध कर रहें हैं (जैसे बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटि के जफरयाब जिलानी ने मुस्लिम आरक्षण की मांग का विरोध करते हुये कहा कि ये कदम शरीयत के खिलाफ है) पर वो लोग अपने राजनीतिक फायदे देखतें हैं और अपने मुस्लिम होने के एजाज का इस्तेमाल खुदा और रसूल (सल्ल0) का सामीप्य पाने और मुस्लिम मआशरे में इस्लाह करने की बजाये इस्लाम को लांछित करने में लगा रहें हैं, उनके लिये निःसंदेह कयामत का दिन भारी गुजरेगा।
अभिजीत मुज़फ्फरपुर (बिहार) में जन्मे और परवरिश पाये और स्थानीय लंगट सिंह महाविद्यालय से गणित विषय में स्नातक हैं। ज्योतिष-शास्त्र, ग़ज़ल, समाज-सेवा और विभिन्न धर्मों के धर्मग्रंथों का अध्ययन, उनकी तुलना तथा उनके विशलेषण में रूचि रखते हैं! कई राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में ज्योतिष विषयों पर इनके आलेख प्रकाशित और कई ज्योतिष संस्थाओं के द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता की कोशिशों के लिए कटिबद्ध हैं तथा ऐसे विषयों पर आलेख 'कांति' आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इस्लामी समाज के अंदर के तथा भारत में हिन्दू- मुस्लिम रिश्तों के ज्वलंत सवालों का समाधान क़ुरान और हदीस की रौशनी में तलाशने में रूचि रखते हैं।
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