गुलाम गौस सिद्दीकी, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
31 दिसंबर, 2021
आइएसआइएस की कानूनी इकाई जिसकी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा अविश्वसनीय
है।
प्रमुख बिंदु:
केवल प्रमाण पत्र प्राप्त करने और विशेषज्ञता का दावा करने से
ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
इस्लामी शिक्षाओं की सही समझ हासिल करने के लिए उपयुक्त तरीकों
और सिद्धांतों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
ज्ञान उन्हीं से प्राप्त करना चाहिए जिनकी योग्यताएँ पूर्ण हैं,
जिनकी ईमानदारी,
ज्ञान और हिकमत स्पष्ट
हो, और जिन्होंने मारफत प्राप्त
कर ली हो।
आइएसआइएस केवल उन गतिविधियों में शामिल होना जानता है जो इस्लाम
में सख्त वर्जित हैं।
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Representational Photo/ISIS
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वर्तमान जिहादी संगठनों विशेष रूप से आइएसआइएस की अवधारणा में तीसरी कमी वह है जिसे वह मुख्य धारा के इस्लामी विशेषज्ञों और ज्ञानियों के जवाब में कहते हैं:
“चूँकि आपके लिए आम तौर पर ज्ञानियों से ज्ञान प्राप्त करना आम बात है, इसलिए हमारे फतवे, घोषणाएं, निर्णय और आदेश सभी एक स्वीकार्य कानूनी संस्था से जारी किये जाते हैं। यह संस्था धार्मिक ज्ञान के विशेषज्ञों और छात्रों के एक समूह [पर आधारित है जिन्होंने प्रख्यात धार्मिक संस्थाओं, कालेजों और युनिवर्सिटियों के प्रसिद्ध उलमा से ज्ञान प्राप्त किया है। आपको पता होना चाहिए कि उनमें से कुछ इस्लामी कानून में महत्वपूर्ण योग्यता और प्रमाण भी रखते हैं। इन कारणों के आधार पर हमारे फतावा और अक्वाल को केवल इसलिए अनदेखा नहीं किया जा सकता कि वह आपके स्थिति का खंडन करते हैं। (खुलासा और अरबी से अनुवाद किया हुआ, शुबहात तंजीम अल दौलातुल इस्लामिया, डॉक्टर इमादुद्दीन खैती, दूसरा एडिशन, प्रकाशन श्रृंखला 27, इस्लामिक मूवमेंट सीरिया, पेज 27)
आइएसआइएस को जवाब
केवल शेखों और इस्लामी उलूम के विशेषज्ञों के पास जाना, या केवल उनकी मजलिसों में बैठना और उनसे कुछ ज्ञान प्राप्त करना, या विश्वविद्यालयों और संस्थाओं में पढ़ना, यह सब चीजें इंसान को साहबे इल्म व फतावा नहीं बना सकतीं।
केवल शिक्षकों के सामने बैठने, विभिन्न दर्सगाहों में जाने, विभिन्न पुस्तकें पढ़ने, स्कूलों या कालेजों के हास्टलों में कुछ साल गुज़ारने या सर्टिफिकेट प्राप्त करने से प्राप्त नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके लिए आवश्यक तरीकों और सहीह समझ की प्राप्ति और बौद्धिक अंतर्दृष्टि को बरक़रार रखने वाले लोकप्रिय सिद्धांतों को लागू करके ही प्राप्त किया जा सकता है।
इस संबंध में कोई व्यक्ति इल्म वालों और बुद्धि वालों के कतार में उस समय तक शामिल होने का हकदार नहीं होता जब तक कि उसकी इल्मी योग्यता उलमा से अनुमोदन प्राप्त करके सम्मान, दयानत, अखंडता और इल्मी तौर पर लोकप्रियता प्राप्त न कर ले और जब तक वह उस स्थान पर न पहुंच जाए जहां से उसे हिदायत की राह से भटकना असंभव हो जाए।
इसी तरह, सिर्फ इसलिए कि एक इस्लामी आलिम ने एक छात्र को कुछ क्षेत्रों में प्रशिक्षित किया है, इसका मतलब यह नहीं है कि छात्र हर जगह या हमेशा के लिए परिपूर्ण हो गया है। इसका मतलब यह नहीं है कि छात्र जो कुछ भी कह रहा है वह सहीह है। अन्यथा, वह मासूम माना जाएगा, जबकि फरिश्तों और नबियों के अलावा कोई भी मासूम नहीं है।
इस्लामी उलमा और शैखों की तरबियत और तजकिया के बाद, इस्लाम का छात्र इस्लाम के लोकप्रिय उलमा की सफ में शामिल होने का अहल है। फिर उसके कथनी और करनी का जायज़ा लिया जाएगा और अगर वह हक़ के साथ पुर्णतः अनुकूल हुए तो वह उसकी तरफ से स्वीकार किये जाएंगे। दूसरी सूरत में, उसका दावा चाहे वह कुछ भी हो, रद्द कर दिया जाएगा, ख़ास तौर पर अगर वह इस्लामी अहकाम की सहीह व्यख्या से हट कर हो।
आलिम या इस्लामी विद्वान होने के नाते, उनके इस्लाम विरोधी बयानों को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है। इस्लामी कानून के उद्देश्य का उल्लंघन करने वालों को निकाल दिया जाएगा। चरमपंथी समूहों की कानूनी कार्यवाही, फतवे और फैसलों से परिचित कोई भी व्यक्ति सोचता है कि सुन्नत के तरीके का पालन करने वाला कोई भी मुजतहिद या इस्लामी विद्वान आइएसआइएस के व्यवहार को सही नहीं ठहरा सकता है।
आइएसआइएस के दावे को भी नकारा नहीं जा सकता है क्योंकि इसके कानूनी निकाय और सदस्य जो इस्लामी विद्वानों और शेखों के तत्वावधान में या शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षित हुए हैं, मुख्य रूप से ये शेख [इस्लामी विद्वान] और उन शैक्षिक संस्थानों, जिनसे उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया है दोनों का विरोध किया है। वह शेखों की प्रक्रिया या फतवे से सहमत नहीं हो सके। उन्होंने उसकी निंदा की और एक ऐसा तरीका अपनाया जो शेखों को स्वीकार्य नहीं था। नतीजतन, इस मामले में उनकी कोई वैधता नहीं है।
इमाम शात्बी, जो एक प्रसिद्ध क्लासिकी इस्लामी विद्वान हैं, अपनी एक शानदार प्रकाशन “अल मुवाफकात” में लिखते हैं:
“आलिम जो इल्म में माहिर (मुतहक्कक) है उसकी कुछ विशेषताएं और निशानियाँ होती हैं जो उसके आगे वाले से संबंध रखती हैं चाहे अपनी तहकीक में उनके खिलाफ ही क्यों न हों।
वह तीन बातें यह हैं:
“पहला: उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है उस पर अमल करना ताकि उसके कौल व फेल में समानता हो जाए। अगर उसके कौल व फेल में समानता नहीं तो वह उस्ताद होने का अहल नहीं है जिससे ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और न ही उसके इल्म के हवाले से उसकी पैरवी की जा सकती है।
“दूसरा: वह ऐसा आलिम हो जिसे संबंधित क्षेत्र में शेखों ने उसे प्रशिक्षित किया हो। उसने उनसे ज्ञान प्राप्त किया हो और उनकी सोहबत से लाभान्वित भी हुआ हो। ऐसा व्यक्ति अधिक योग्य है कि वह उन खूबियों से मंसूब किया जाए जो उस्तादों के पास हैं। यही मामला बुजुर्गों का भी था। इस तरह सोहबत की पहली मिसाल रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सहाबा और आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अक्वाल व अफआल से इल्म हासिल कर के इस पर पूरा भरोसा करते हुए इस पर अमल करने की है जो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तरफ से किसी भी रूप में पहुंचाना चाहे उसके नतीजे कुछ भी हों।
“उन्होंने आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मर्ज़ी को समझ लिया था कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मुराद क्या थी और क्या नहीं, इस हद तक कि वह जान चुके थे और उन्हें यकीन था कि आपका कौल एक नाकाबिले तरदीद सच्चाई है, एक मुस्लिम हिकमत है जीसके नियमों को तोड़ा नहीं जा सकता और न ही उसमें किसी कमी का कोई इमकान हो सकता है। यह सब अधिकतर साथ में रहने और उनकी इस्तेकामत में शिद्दत का परिणाम था। हुदैबिया में जंग बंदी के दौरान हज़रत उमर बिन खत्ताब रज़ीअल्लाहु अन्हु के घटना पर गौर करें कि जब उन्होंने कहा था कि या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम क्या हम हक़ पर नहीं और यह लोग बातिल पर? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जवाब दिया यकीनन। फरमाया: क्या यह सहीह नहीं कि हमारे मकतूल जन्नत में जाएंगे और उनके मकतूल जहन्नम में जाएंगे? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने जवाब दिया, “यकीनन” । तो हज़रत उमर ने फरमाया: “फिर हम अपने दीन के लिए यह रुसवाई क्यों बर्दाश्त करें और वापस लौटें जब कि अल्लाह पाक ने उनके और हमारे बीच कोई हुक्म नहीं दिया है। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: ऐ इब्ने ख़त्ताब, मैं अल्लाह का रसूल हूँ, अल्लाह पाक मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ेगा। हज़रत उमर रज़ीअल्लाहु अन्हु चले गए, लेकिन सब्र न हुआ और गुस्से की हालत में हज़रत अबूबकर रज़ीअल्लाहु अन्हु के पास आए और उनसे कुछ ऐसा ही कहा। हज़रत अबू बकर रज़ीअल्लाहु अन्हु ने जवाब दिया कि वह अल्लाह के रसूल हैं और अल्लाह पाक आपको कभी अकेला नहीं छोड़ेगा। रावी कहते हैं कि उसी वक्त रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर वही नाज़िल हुई जिसमें फतह का पैगाम आ पहुंचा। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रत उमर को बुलवाया और इसे पढ़ कर सुनाया। उमर रज़ीअल्लाहु अन्हु ने अर्ज़ किया या रसूलुल्लाह क्या फिर फतह हमारे लिए है? रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलहि वसल्लम ने फरमाया: यकीनन। हज़रत उमर रज़ीअल्लाहु अन्हु खुश हुए और अपने पहले के मोअकफ़ से हट गए।
“यह सोहबत का लाभ है, उलमा के सामने झुकना, और अस्पष्टता के मौके पर सब्र का प्रदर्शन करना यहाँ तक कि सुबूत सामने आ जाए। ऐसे में सहल बिन हनीफ ने जंगे सिफ्फीन के दौरान कहा था कि, ऐ लोगों! अल्लाह की कसम अबू जंदल के दिन मेरी राय थी और अगर मैं इस पर क़ादिर होता तो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के हुक्म की खिलाफवर्जी करता। उन्हें ने यह बात उस समय कही जब वह कुछ अस्पष्टता का शिकार थे, लेकिन फिर उलझन की शिद्दत और तरतीब के अस्पष्टता की वजह से उनके अफसुर्दा होने के बाद सुरह फातेहा नाज़िल हुई। इसके बावजूद उन्होंने कुरआन के नाज़िल होने तक सरे तस्लीम ख़म कर दिया और अपना मोअकफ़ तर्क कर दिया। उनकी उलझने और दुश्वारियां दूर हो गईं।
इस तरह के घटना उनके बाद आने वालों के लिए बुनियादी सिद्धांत बन गए। सहाबा के ताबईन ने सहाबा के साथ वही रवय्या इख्तियार किया जो उन्होंने रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ इख्तियार किया था और उसी की बदौलत वह शरई उलूम में कमाल की मेअराज पर फाएज़ हुए। इस उसूल की तौसीक के लिए यही काफी है कि आपको कोई ऐसा आलिम नहीं मिलेगा जिसकी तालीमात लोगों में मशहूर हुई और उसका ऐसा कोई मिसाली उस्ताद न हो जो अपने जमाने में मशहूर था। हर मुन्हरिफ फिरका और हर सुन्नत की मुखालिफत करने वाला इस साफ से आरी पाया जाएगा। यही वजह है कि इब्ने हज़म अल ज़ाहिरी को हकीर समझा जाता था क्योंकि वह उस्ताद की इताअत और उनकी हिदायत पर अमल करने को आवश्यक समझते थे। इसके बिलकुल उलट चारो फिकही इमाम और उनसे मिलते जुलते बड़े बड़े इल्म और फन के माहिर का दृष्टिकोण था।
तीसरा: उन लोगों की तकलीद जिनसे उसने इल्म हासिल किया और उनका तरीका इख्तियार किया। यह बिलकुल उसी तरह है जिस तरह सहाबा रज़ीअल्लाहु अन्हुम अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पैरवी करते थे और सहाबा के ताबईन सहाबा की पैरवी करते थे। हर नस्ल के लोग ऐसा ही करते थे। मालिक अपने जैसे लोगों में मुमताज़ है, अर्थात इस सिफत को बड़ी शिद्दत के साथ ज़ाहिर करने में, वरना यह सिफत बाक़ी सबमें मौजूद थी, लेकिन मालिक मुबालगा आराई की हद तक इस सिफत को अपनाने में मशहूर हुए। जब इस गुण को छोड़ दिया जाता है तो इससे कई प्रकार की बिदअतें जन्म लेती हैं। इसकी वजह यह है कि तकलीद को तर्क करना किसी नई चीज का सुबूत है उसका प्रतिबद्ध करने वाला व्यक्ति ले कर आया है, और उसकी बुनियाद ख्वाहिशों का हुसूल है। (इमाम शातबी, अल मुवाफकात, जिल्द 1, पेज 46-47, गार्नेट पब्लिशिंग)
इसलिए केवल एक ही चीज जिस पर एक इस्लामी आलिम पर भरोसा किया जा सकता है वह यह है कि उसने सहीह इल्म हासिल किया हो, ज़ोह्द व तकवा का हामिल हो और इल्म पर अमल भी करता हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह किस पड़ पर है, उसके कितने अनुयायी हैं, उसने कितनी किताबें लिखी हैं, या उसके पास कितनी डिग्रियां हैं।
आइएसआइएस की तरफ से एक और दावा यह किया गया है कि उसके उलमा कायदीन और जज साहेबान ने काबिल मशाइख से शिक्षा प्राप्त की है। यह यकीनी तौर पर गलत है। इसके विपरीत यह साबित हो चुका है कि उनमें से अधिकतर ने अपनी शिक्षा किसी मारुफ़ इस्लामी शैख़ से हासिल नहीं की है।
यह बात साबित है कि हर वह व्यक्ति जो इस्लामी इल्म में महारत का दावा करे उसे कुबूल नहीं किया जाएगा, बल्कि केवल वही लोग कुबूल किये जाएंगे जिनके दावों की ताईद इस्लामी उलूम के माहेरीन और मुस्तनद हज़रात करते हैं और वह फतवा जारी करने की अहलियत रखते हैं।
इमाम नव्वी रहमतुल्लाह अलैह ने फरमाया: केवल वही लोग इल्म हासिल कर सकते हैं जिनकी सलाहियतें कामिल हों, जिनकी दयानत ज़ाहिर हो, जिसका इल्म व हिकमत अयां हो, और जिन्होंने मारफत हासिल कर ली हो।“ यह दीन का इल्म है, इसलिए तुम्हें मालुम होना चाहिए कि तुम अपना दीन किस से हासिल कर रहे हो, “सल्फ़ का कौल है, जैसा कि इमाम मोहम्मद बिन सीरीन और मालिक इब्ने अनस आदि ने नकल किया है।
अबू ज़ीनाद कहते हैं, “मैंने मदीना में विभिन्न उलमा व फुकहा से मुलाक़ात की। वह सब मामून थे जिसका मतलब है कि वह झूट बोलने के लिए मशहूर नहीं थे। इसके बावजूद उनसे कोई हदीस नहीं ली गई और यह करार दिया गया कि वह ऐसे लोग नहीं हैं जिन पर अख्ज़ ए हदीस का एतिबार किया जा सकता है।“ क्योंकि उनके पास सनद नहीं थीं। [इमाम मुस्लिम ने अपनी सहीह के मुकद्दमा में रिवायत की है, बाब “असनाद इस्लाम मज़हब का एक हिस्सा हैं”, 1/15]
इस बयान से ज़ाहिर होता है कि हदीस बयान करते समय किस कदर एहतियात बरती गई थी, क्योंकि हदीसें उन उलमा से भी नहीं ली गईं जिनकी दयानत और अमानत मशहूर थी। अगर ऐसा है तो, आइएसआइएस के मेम्बर या तथाकथित कानूनी इदारे जिसकी बे इमानी बहुत मशहूर है, उनकी कही हुई बात पर कोई कैसे यकीन कर सकता है?
जब फितना शुरू हुआ तो इब्ने सीरीन कहते हैं कि किसी भी हदीस की रिवायत की सनद की अच्छी तरह तहकीक की जाती थी और यह कि हदीस को केवल उस वक्त कुबूल किया जाता था जब यह साबित हो जाता कि इसे अहले सुन्नत के मोतबर पैरुकारों ने नकल किया है, बजाए इसके कि जब यह मालुम हो कि यह हदीस गैर मोतबर लोगों ने रिवायत की थी।
इमाम मालिक बिन अनस फरमाते थे कि इल्म उन लोगों से हासिल किया जाए जिन्हें यह अपने पहले वालों से विरासत में मिला है और हर किसी की बात यूँही न कुबूल कर ली जाए। [खतीब बगदादी, अल किफाया फिल उलूमिल राविया, पेज 159)
अब तक की बहस से मालुम हुआ है कि आइएसआइएस के तथाकथित कानूनी माहेरीन ऐसे लोगों के समूह से तैयार किये गए हैं जिनकी महारत, दयानत और मोतबर नामालुम और नाकाबिले एतिबार है। इस्लामी उलूम की किसी भी प्रमाणिक और माहिर व्यक्ति ने अभी तक उनके दावों के समर्थन में कोई गवाही पेश नहीं की। इसलिए, आइएसआइएस के उन सदस्यों के पास किसी भी इस्लामी समस्या पर फतवा देने या फैसला देने की न तो सलाहियत है और न उन्हें इसका इख्तियार है। वह केवल खून बहाना, माल पर कब्ज़ा करना, मुसलमानों की तकफीर करना, और उनके कत्ले आम पर झूटी दलील देना जानते हैं। अर्थात वह केवल उन गतिविधियों में लिप्त होना जानते हैं जिनकी इस्लाम में सख्ती से मनाही है।
First Part of
the Article: Refuting ISIS Concept of Caliph and Caliphate [Khalifa and Khilafah] –
Part 1
Second Part
of the Article: Debunking Jihad of ISIS and Its False Theory That ‘Non-Jihadists Can’t
Issue Fatwas on Jihad and Mujahid’ - Part 2
Third Part of this Article: Debunking ISIS Concept That Their Fatwas and Commands Are Issued By a
Recognised Legal Body – Part 3
Urdu Article: Refuting ISIS Concept of Caliph and Caliphate [Khalifa and Khilafah] –
Part 1 خلیفہ اور خلافت پر داعش
کے تصور کی تردید
Hindi
Article: Refuting ISIS Concept of Caliph and Caliphate
[Khalifa and Khilafah] – Part 1 खलीफा और खिलाफत पर आइएसआइएस के अवधारणा का रद्द
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