फ़रहाद साहब अस्सलामो अलैकुम
आपने एक बार पहले भी मेरे सवाल का जवाब दिया था अब भी उम्मीद करता हूँ कि आप जवाब देंगे। क्योंकि हमारी अक़ल काम नहीं करती हम क़दम क़दम पर सोचते हैं, फूंक फूंक कर कदम रखते हैं कि हम से कहीं गलती न हो जाए इसलिए हम बाल आपके कोर्ट में फेंक देते हैं। कि अंगारा जाने लोहार जाने।
हज़रत अब्दुल्ला बिन मुबारक रहमतुल्लाह अलैहि फरमाते हैं कि असनाद (का बयान करना) धर्म का हिस्सा है और अगर असनाद न होती तो जिसका जो दिल चाहता वो कहता फिरता। हज़रत अब्दुल्लाह रहमतुल्लाह अलैहि बिन मुबारक फरमाते हैं कि हमारे और लोगों के बीच कवायम हैं यानी असनाद।
हज़रत अबु इस्हाक़ इब्राहिम बिन ईसा अलताल्क़ानी रहमतुल्लाह अलैहि फरमाते हैं कि मैंने अब्दुल्ला रहमतुल्लाह अलैहि बिन मुबारक से कहा कि ऐ अबु अब्दुर्रहमान! ये हदीस कैसी है जो हुज़ूर अलैहिस्सलाम से जिसकी रवायत है (इसका दर्जा क्या है कि आप सल्लल्हू अलैहि वसल्लम ने फरमाया, ''ऊपर तले की नेकी ये है कि तुम अपनी नमाज़ के साथ अपने स्वर्गीय) माँ बाप के लिए भी नमाज़ पढ़ो और अपने रोज़े के साथ उनके वास्ते भी रोज़े रखो।'' तो अब्दुल्ला बिन मुबारक ने उनसे फरमाया, ऐ अबु इस्हाक़! ये हदीस किससे रवायत है? मैंने कहा ये तो शहाब बिन खराश की हदीस है। उन्होंने फरमाया कि विश्वसनीय है। उन्होंने किससे रवायत की? मैंने कहा हज्जाज बिन दीनार से। फरमाया कि विश्वसनीय है, उन्होंने किससे रवायत की? मैंने अर्ज़ किया कि उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम से नकल की तो इब्ने मुबारक रहमतुल्लाह अलैहि ने फरमाया, ऐ अबु इस्हाक़! हज्जाज बिन दीनार और हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के बीच बड़े लंबे रेगिस्तान और जंगल हैं जिनके अंदर ऊंटों की गर्दनें थक कर खत्म हो जाती हैं। अलबत्ता (मृतक के सवाब के लिए) दान देने में किसी का मतभेद नहीं है। हज़रत अब्दुल्ला बिन मुबारक रहमतुल्लाह अलैहि आम तौर पर ये कहा करते थे कि उमर बिन साबित की हदीसों को छोड़ दो क्योंकि ये व्यक्ति सलफ सालेहीन को बुरा भला कहा करता था। (मुस्लिम, जिल्द एक, हदीस 31, पेज 164)
इस हदीस के बारे में आपकी राय चाहिए, क्या हम नेक कामों को माँ बाप के खाते में दर्ज कर सकते हैं? और मैं अपने पिता के लिए कौन सा अमल करूँ जो उन्हें फायदेमंद हो। क्योंकि मेरे पिता ने मेरे लिए बहुत कुछ किया है।
मोहम्मद अशरफ खान
पापे नाड़, तहसील- तराड़ खुल, आज़ाद कश्मीर
मोहम्मद अशरफ साहब अल्लाह के प्रदान किये गये ज्ञान और समझ के अनुसार जवाब हाज़िर है।
अल्लाह के यहाँ किसी भी व्यक्ति के नेक काम का इनाम और बुरे काम की सज़ा लिखी नहीं जाती बल्कि उसके अच्छे या बुरे काम और बातें दर्ज की जाती हैं यानी किरामन कातेबीन हमारे कामों को नोट करते हैं। उनका इनाम या सज़ा नहीं लिखा करते क्योंकि सज़ा या इनाम का फैसला तो क़यामत के बाद हश्र के दिन सुनाया जाएगा।
इस लिहाज़ से ग़ौर करें तो, ''ऐसाले सवाब'' का सिद्धांत ही सिरे से बेबुनियाद क़रार पाता है। अगर ऐसाले सवाब (मृतक की भलाई के लिए दुआ) के सिद्धांत में ज़रा भी सच्चाई होती तो उसे ऐसाले सवाब नहीं बल्कि ''ऐसाले अमल'' कहा जाता क्योंकि काम ही दर्ज किए जाते हैं। इसकी सज़ा या इनाम दर्ज नहीं किया जाता। लेकिन कोई व्यक्ति भी नहीं कहता कि वो ''ऐसाले अमल'' कर रहा है जो लोग ''ऐसाले सवाब'' के मर्ज़ के शिकार हैं। उन्होंने कभी भी किसी जीवित को अपने सवाब ऐसाल नहीं किये और न वो खुद इस बात के क़ायल हैं कि उनके अच्छे काम दूसरे ज़रूरतमंद भाइयों या बुज़ुर्गों को स्थानांतरित होते हैं। जैसे ''ऐसाल'' सिर्फ मुर्दों के साथ विशिष्ट हो और जीवित इसका हक़दार नहीं लेकिन अगर कोई व्यक्ति ये समझता है कि ''ऐसाल'' अगर सम्भव है तो वो ज़िन्दों लिए भी हो सकता है तो हमारी दरख्वास्त है कि वो अपने ऐसे सभी अच्छे काम जो उन्होने विशुद्ध रूप से अल्लाह के लिए किए हों हमें ऐसाल कर दें लेकिन अगर वो ये मानते हैं कि ज़िन्दा लोगों का अमल सिर्फ मुर्दों को ही पहुंच सकता है, ज़िन्दा लोगों को नहीं। तो वो अपने दुश्मनों और बुरा चाहने वाले मुर्दों को अपने गुनाह और अज़ाब (पीड़ाएं) ऐसाल क्यों नहीं कर दिया करते?
अगर किसी के गुनाह का बदला दूसरे को नहीं पहुंचाया जा सकता और ऐसाले अज़ाब मुमकिन नहीं, तो फिर अपने किसी अच्छे अमल का इनाम भी दूसरे को किस तरह पहुंच सकता है और 'ऐसाल सवाब'' फिर क्यों सम्भव है?
समझदार लोगों के लिए यही बहुत है कि वो अपने अमल की मोहलत का भरपूर फायदा उठाकर खुद अपने लिए ज़्यादा से ज़्यादा अच्छे काम का भंडार करें ताकि कल हश्र (निर्णय) के दिन ये उनके काम आ सकें, ऐसा न हो कि वहाँ लोगों के अच्छे कामों का इनाम तो उनके मुर्दे ले उड़ें और वो खुद वहां खाली हाथ मलते और अफसोस करते रह जाएं।
हालांकि अल्लाह ने इस निराधार विश्वास के खिलाफ स्पष्ट रूप से आगाह फरमा दिया है कि, "और यह कि प्रत्येक व्यक्ति जो कुछ कमाता है, उसका फल वही भोगेगा; कोई बोझ उठाने वाला किसी दूसरे का बोझ नहीं उठाएगा।'' (सूरे अनआम: 164)
ये भी फरमायाः ''ऐ लोगों! अपने रब का डर रखो और उस दिन से डरो जब न कोई बाप अपनी औलाद की ओर से बदला देगा और न कोई औलाद ही अपने बाप की ओर से बदला देने वाली होगी। (सूरे लुक़्मान: 33)
इसके अलावा सूरे फ़ातिर में बताया गया है कि: ''कोई बोझ उठानेवाला किसी दूसरे का बोझ न उठाएगा। और यदि कोई कोई से दबा हुआ व्यक्ति अपना बोझ उठाने के लिए पुकारे तो उसमें से कुछ भी न उठाया, यद्यपि वह निकट का सम्बन्धी ही क्यों न हो। (सूरे फातिरः 18)
इस तथ्य के बावजूद ईरानी और अजमियों की शिक्षाओं के प्रभाव में हिंदुस्तान पाकिस्तान के ज्यादातर लोग इस रोग से ग्रस्त हैं और वो अपने परिजनों को चाहे वो खुद अपने जीवन में कितने ही गुनहगार रहे हों और अपने बुरे कामों के सबब अज़ाब के हक़दार ही क्यों न बन चुके हों लेकिन उन्हें सवाबों के पार्सल भेज कर अज़ाब से बचाया जा सकता है और ये सब तमाशा इस्लाम के नाम पर इस्लाम से धोखा और फरेब है। जिसे इस्लाम दुश्मनों ने प्रचलित किया था मगर आज इस्लाम के नाम लेवा यही सब गद्दारियां बड़े ठाट से अंजाम दे रहे हैं और खुश हैं कि उन्होंने आखिरत का मामला भी खुद अपने हाथ में ले लिया है कि जिसका चाहे अज़ाब घटा दें और जिसको चाहें सवाब स्थानांतरित कर दें।
जनवरी, 2014 सधन्यवाद: मासिक सौतुल हक़, कराची
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