डॉ. शकील अहमद खान
कुफ्र और इस्लाम इस बात को समझने के लिए सबसे पहले आपको ये जानना चाहिए कि कुफ्र क्या है और इस्लाम क्या है। कुफ़्र ये है कि आदमी अल्लाह की फरमाबरदारी से इंकार कर दे। और इस्लाम ये है कि आदमी सिर्फ अल्लाह का फरमाबरदार हो और हर ऐसे तरीके, कानून या हुक्म को मानने से इंकार कर दे जो अल्लाह के भेजे हुए मार्गदर्शन के खिलाफ हो। इस्लाम और कुफ्र का ये फर्क कुरान में साफ साफ बयान कर दिया गया है। इसलिए इरशाद है। ''वमन लम यहकुम बेमा अनज़लल्लाहो फउलायेका हुमुल काफेरून (5: 44) अलज़ालेमून (5: 45) अलफासेक़ून (5: 47) जो शख्स अल्लाह की नाज़िल की हुई किताब के मुताबिक फैसला (हकम) न करे तो ऐसे ही लोग काफिर, ज़ालिम और फ़ासिक़ हैं। ये तीनों आयतें सूरे मायदा की हैं। इन तीनों आयतों में बहुत ज़ोर देकर ये बात स्पष्ट कर दी गई है कि जो लोग अल्लाह के नाज़िल किये गये क़ानूनों के अनुसार हुकूमत नहीं चलाते वो काफिर, ज़ालिम और फ़ासिक़ हैं। हर वो देश जो खुदा के कानून से दूरी बना कर, अपने बनाये कानूनों के मुताबिक हुकूमत चलाएगा, उस देश में कुफ्र, ज़ुल्म और फस्क़ तीनों स्थितियाँ पाई जाएंगी। यही है बुनियाद एक मुस्लिम की।
फैसला करने का ये मतलब नहीं है कि अदालत में जो मामला जाए बस उसी का फैसला अल्लाह की किताब के अनुसार हो। बल्कि वास्तव में इसका मतलब वो फैसला है जो हर व्यक्ति अपने जीवन में हर समय करता है। हर मौक़े पर आपके सामने ये सवाल आता है कि अमुक काम किया जाए या न किया जाए? अमुक बात इस तरह की जाए या उस तरह की जाए? अमुक मामले में ये तरीका अपनाया जाए या वो तरीका अपनाया जाए? सभी ऐसे मौकों पर एक तरीका अल्लाह की किताब और दूसरा तरीका इंसान की अपने नफ्स (आत्मा) की इच्छाओं या बाप दादा की रस्में या इंसानों के बनाए हुए कानून बताते हैं। अब जो व्यक्ति अल्लाह के तरीके को छोड़कर किसी दूसरे तरीके के अनुसार काम करने का फैसला करता है वो वास्तव में कुफ्र का तरीका अपनाता है।
अगर किसी ने सारी ज़िंदगी के लिए यही ढंग अपनाया है, तो वो पूरा काफिर है। अगर वो कुछ मामलों में तो अल्लाह के मार्गदर्शन को मानता हो और कुछ में अपने नफ्स की इच्छाओं को या रीति रिवाजों को या इंसानों के कानून को अल्लाह के कानून पर प्राथमिकता देता हो, तो जितना भी वो अल्लाह के कानून से बग़ावत करता है उतना ही कुफ्र से ग्रस्त है। कोई आधा काफिर है, कोई चौथाई काफिर है किसी में दसवां हिस्सा कुफ्र का है और किसी में बीसवाँ हिस्सा। यानि जितना अल्लाह के कानून से बग़ावत है उतना ही कुफ्र भी है। इस्लाम के सिवा कुछ नहीं है कि आदमी सिर्फ अल्लाह का बंदा हो। नफ्स का बंदा न बाप दादा का बंदा, परिवार और क़बीले का बंदा, न मौलवी साहब और पीर का बंदा, न ज़मींदार साहब और तहसीलदार साहब और मजिस्ट्रेट साहब का बंदा, न अल्लाह के सिवा किसी और साहब का बंदा।
अल्लाह का इरशाद है। ''कहो, "ऐ किताब वालो! आओ एक ऐसी बात की ओर जिसे हमारे और तुम्हारे बीच समान मान्यता प्राप्त है; यह कि हम अल्लाह के अतिरिक्त किसी की बन्दगी न करें और न उसके साथ किसी चीज़ को साझी ठहराएँ और न परस्पर हम में से कोई एक-दूसरे को अल्लाह से हटकर रब बनाए।" फिर यदि वे मुँह मोड़े तो कह दो, "गवाह रहो, हम तो मुस्लिम (आज्ञाकारी) है।" (3: 64)
'अब क्या इन लोगों को अल्लाह के दीन (धर्म) के सिवा किसी और दीन की तलब है, हालाँकि आकाशों और धरती में जो कोई भी है, स्वेच्छापूर्वक या विवश होकर उसी के आगे झुका हुआ है। और उसी की ओर सबको लौटना है?'' (3: 83) इन दोनों आयतों में एक ही बात बयान की गयी है। यानि कि वास्तविक धर्म अल्लाह की आज्ञाकारिता और फरमाबरदारी है। अल्लाह की इबादत का अर्थ ये नहीं है कि बस पांच वक्त उसके आगे सज्दा कर लो। बल्कि उसकी इबादत का अर्थ ये हैं कि रात दिन में हर समय उसकी आज्ञाओं का पालन करो। जिस चीज़ से उसने मना किया है उससे रुक जाओ, जिस चीज़ का उसने हुक्म दिया है, उस पर अमल करो। हर मामले में ये देखो कि अल्लाह का हुक्म क्या है। ये न देखो कि तुम्हारा अपना दिल क्या कहता है, तुम्हारी बुद्धि क्या कहती है, बाप दादा क्या कह गये हैं। अगर तुमने अल्लाह के हुक्म को छोड़कर किसी की बात भी मानी तो खुदाई में किसी को साझा किया। उसको वो दर्जा दिया जो सिर्फ अल्लाह का दर्जा है। हुक्म देने वाला तो सिर्फ अल्लाह है। इन्नल हुक्मो इलल्लाह। (5: 57)
बंदगी के लायक तो वो है जिसने तुम्हें पैदा किया और जिसके बल बूते पर तुम ज़िंदा हो। ज़मीन और आसमान की हर चीज़ उसी की फरमाबरदारी कर रही है। कोई पत्थर किसी पत्थर की फरमाबरदारी नहीं करता है। कोई जानवर किसी जानवर की फरमाबरदारी नहीं करता। फिर क्या तुम जानवर, पेड़ों और पत्थरों से भी गए गुज़रे हो गए कि वो तो सिर्फ अल्लाह की फरमाबरदारी करें और तुम अल्लाह को छोड़कर इंसानों की फरमाबरदारी करो? ये वो बात है जो कुरान की इन दोनों आयतों में बयान की गई है।
गुमराही के रास्ते- कुफ्र और गुमराही दरअसल निकलते कहाँ से हैं। कुरान हमको बताता है कि उसके आने के तीन रास्ते हैं।
(1) नफ्स की बंदगी, पहला रास्ता इंसान के अपने नफ्स की इच्छाएं हैं। ''और उस व्यक्ति से बढ़कर भटका हुआ कौन होगा जो अल्लाह की ओर से किसी मार्गदर्शन के बिना अपनी इच्छा पर चले? निश्चय ही अल्लाह ज़ालिम लोगों को मार्ग नहीं दिखाता।'' (28: 50)
मतलब ये है कि सबसे बढ़कर इंसान को गुमराह करने वाली चीज़ इंसान के अपने नफ्स की इच्छाएं हैं। जो व्यक्ति इच्छाओं का दास बन गया उसके लिए अल्लाह का बंदा बनना मुमकिन ही नहीं। वो तो हर समय ये देखेगा कि मुझे रुपये किस काम में मिलता है, मेरा सम्मान और प्रतिष्ठा किस काम में होती है। मुझे खुशी और आनंद किस काम में मिलता है, मुझे आराम किस काम में मिलता है। बस ये चीज़े जिस काम में होंगी उसी को वो अपनाएगा, चाहे अल्लाह उससे मना करे। और ये चीज़ जिस काम में न हों उसको वो हरगिज़ नहीं करेगा, चाहे अल्लाह इसका हुक्म दे। तो ऐसे व्यक्ति का खुदा अल्लाह न हुआ, उसका अपना नफ्स ही उसका अल्लाह हो गया। उसको मार्गदर्शन कैसे मिल सकता है? इसी बात को दूसरी जगह क़ुरान में इस तरह बयान किया गया है।
''क्या तुमने उसको भी देखा, जिसने अपना प्रभु अपनी (तुच्छ) इच्छा को बना रखा है? तो क्या तुम उसका ज़िम्मा ले सकते हो। या तुम समझते हो कि उनमें अधिकतर सुनते और समझते है? वे तो बस चौपायों की तरह हैं, बल्कि उनसे भी अधिक पथभ्रष्ट! (25: 43, 44)
नफ्स के दास का जानवरों से बदतर हो ऐसी बात है जिसमें किसी शक की गुंजाइश ही नहीं है। कोई जानवर आपको ऐसा नहीं मिलेगा जो अल्लाह की निर्धारित की हुई सीमा से आगे बढ़ता हो। हर जानवर वही चीज़ खाता है जो अल्लाह ने उसके लिए निर्धारित किया है। उतनी ही खाता है जितने उसके लिए निर्धारित किया गया है और जितने काम जिस जानवर के लिए निर्धारित हैं बस उतने ही करता है। लेकिन ये इंसान ऐसा जानवर है कि जब ये अपनी इच्छा का दास बनता है तो वो हरकतें कर गुज़रता है कि शैतान भी पनाह मांगे।
बाप दादा की अंधी पैरवी ये तो गुमराही के आने का पहला रास्ता है। दूसरा रास्ता ये है कि बाप दादा से जो रस्मो रिवाज, जो विश्वास और विचार, जो रंग ढंग चले आ रहे हों, आदमी उनका ग़ुलाम बन जाए और अल्लाह के हुक्म से बढ़कर उन्हें समझे, और अगर उनके खिलाफ अल्लाह का हुक्म उसके सामने पेश किया जाए तो कहे कि मैं तो वही करूंगा जो मेरे बाप दादा करते थे और मेरे परिवार और क़बीले का रिवाज है। जो व्यक्ति इस बीमारी से ग्रस्त है वो अल्लाह का बंदा कब हुआ। उसके तो अल्लाह उसके पिता और परिवार और क़बीले के लोग हैं। उसे ये झूठा दावा करने का अधिकार है कि मैं मुसलमान हूँ? कुरान में इस पर भी सख्ती के साथ चेतावनी दी गई है। ''और जब उनसे कहा जाता है, "अल्लाह ने जो कुछ उतारा है उसका अनुसरण करो।" तो कहते है, "नहीं बल्कि हम तो उसका अनुसरण करेंगे जिस पर हमने अपने बाप-दादा को पाया है।" क्या उस दशा में भी जबकि उनके बाप-दादा कुछ भी बुद्धि से काम न लेते रहे हों और न सीधे मार्ग पर रहे हों?'' (2: 170)
दूसरी जगह फरमायाः ''और जब उनसे कहा जाता है कि उस चीज़ की ओर आओ जो अल्लाह ने अवतरित की है और रसूल की ओर, तो वे कहते है, "हमारे लिए तो वही काफ़ी है, जिस पर हमने अपने बाप-दादा को पाया है।" क्या यद्यपि उनके बापृ-दादा कुछ भी न जानते रहे हों और न सीधे मार्ग पर रहे हो? ऐ ईमान लानेवालो! तुमपर अपनी चिन्ता अनिवार्य है, जब तुम रास्ते पर हो, तो जो कोई भटक जाए वह तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। अल्लाह की ओर तुम सबको लौटकर जाना है। फिर वह तुम्हें बता देगा, जो कुछ तुम करते रहे होगे।'' (5: 104, 105)
ये ऐसी गुमराही जिसमें लगभग हर दौर के जाहिल लोग पीड़ित रहे हैं, और हमेशा अल्लाह के रसूलों के निर्देश को मानने से यही चीज़ इंसान को रोकती है। मूसा अलैहिस्सलाम ने जब लोगों को अल्लाह की तरफ बुलाया था, उस वक्त भी लोगों ने यही कहा था: ''क्या तुम हमें उस रास्ते से हटाना चाहते हो जिस पर हमने अपने बाप दादा को पाया है।'' (10: 78) इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने जब अपने क़बीले वालों को शिर्क से रोका तो उन्होंने भी यही कहा था। ''हमने अपने बाप दादा को उन्हीं खुदाओं की बंदगी करते हुए देखा है।'' (21: 53) यानि इसी तरह हर नबी के मुक़ाबले में लोगों ने यही वजह पेश की है कि तुम जो कहते हो ये हमारे बाप दादा के तरीके के खिलाफ है इसलिए हम इसे नहीं मानते।
इसलिए कुरान में है: ''इसी प्रकार हमने जिस किसी बस्ती में तुमसे पहले कोई सावधान करने वाला भेजा तो वहाँ के सम्पन्न लोगों ने बस यही कहा कि "हमने तो अपने बाप-दादा को एक तरीक़े पर पाया और हम उन्हीं के पद-चिन्हों पर है, उनका अनुसरण कर रहे है।" उसने कहा, "क्या यदि मैं उससे उत्तम मार्गदर्शन लेकर आया हूँ, जिस पर तूने अपने बाप-दादा को पाया है, तब भी (तुम अपने बाप-दादा के पद-चिह्मों का ही अनुसरण करोगं)?" उन्होंने कहा, "तुम्हें जो कुछ देकर भेजा गया है, हम तो उसका इंकार करते है।" अन्ततः हमने उनसे बदला लिया। तो देख लो कि झुठलाने वालों का कैसा परिणाम हुआ?'' (43: 23, 25)
ये सब कुछ बयान करने के बाद अल्लाह फरमाते हैं कि या तो बाप दादा की पैरवी कर लो या फिर हमारे ही हुक्म की पैरवी करो। ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। मुसलमान होना चाहते हो तो सबको छोड़कर सिर्फ उसकी बात मानो जो हमने बताई है।
''अब जब उनसे कहा जाता है कि "उस चीज़ का अनुसरण करो जो अल्लाह न उतारी है," तो कहते है, "नहीं, बल्कि हम तो उस चीज़ का अनुसरण करेंगे जिसपर हमने अपने बाप-दादा को पाया है।" क्या यद्यपि शैतान उनको भड़कती आग की यातना की ओर बुला रहा हो तो भी? जो कोई आज्ञाकारिता के साथ अपना रुख़ अल्लाह की ओर करे, और वह उत्तमकर भी हो तो उसने मज़बूत सहारा थाम लिया। सारे मामलों की परिणति अल्लाह ही की ओर है (31: 21, 23)
गैर अल्लाह की फरमाबरदारी ये गुमराही के आने का दूसरा रास्ता था। तीसरा रास्ता कुरान ने ये बताया कि इंसान जब अल्लाह के हुक्म को छोड़कर दूसरे लोगों के आदेशों को मानने लगता है और ये ख़याल करता है कि अमुक व्यक्ति बड़ा आदमी है, उसकी बात सच्ची होगी, या अमुक व्यक्ति के हाथ में मेरी रोज़ी है इसलिए उसकी बात सुननी चाहिए, या अमुक व्यक्ति बड़ी सत्ता वाला है इसलिए उसकी फरमाबरदारी करनी चाहिए, या अमुक साहब अपनी बद्दुआ से मुझे तबाह करेंगे या अपने साथ जन्नत में ले जाएंगे। ''वमन लम यहकुम बेमा अनज़लल्लाहो फउलायेका हुमुल काफ्रून (5: 44) अलज़ालेमून (5: 45) अलफासेक़ून (5: 47) जो शख्स अल्लाह की नाज़िल की हुई किताब के मुताबिक फैसला (हकम) न करे तो ऐसे ही लोग काफिर, ज़ालिम और फ़ासिक़ हैं। ये तीनों आयतें सूरे मायदा की हैं। इन तीनों आयतों में बहुत ज़ोर देकर ये बात स्पष्ट कर दी गई है कि जो लोग अल्लाह के नाज़िल किये गये क़ानूनों के अनुसार हुकूमत नहीं चलाते वो काफिर, ज़ालिम और फ़ासिक़ हैं। हर वो देश जो खुदा के कानून से दूर बना कर, अपने बनाये कानूनों के मुताबिक हुकूमत चलाएगा, उस देश में कुफ्र, ज़ुल्म और फस्क़ तीनों हालतें पाई जाएंगी। यही है बुनियाद एक मुस्लिम की। जो वो कहें वही सही है, या अमुक देश बड़ी प्रगति कर रहा है, इसके तरीके अपनाने चाहिए, तो ऐसे व्यक्ति पर अल्लाह की हिदायत का रास्ता बंद हो जाता है। तूने उन बहुत से लोगों की फरमाबरदारी की जो ज़मीन में रहते हैं तो वो तुझको अल्लाह के रास्ते से भटका देंगे।'' (6: 116) यानि आदमी सीधे रास्ते पर उस वक्त हो सकता है जब उसका एक अल्लाह हो। सैकड़ों और हज़ारों अल्लाह जिसने बना लिए हों, और जो कभी उस अल्लाह के कहे पर कभी उस अल्लाह के कहे पर चलता हो, वो रास्ता कहाँ पा सकता है? अब आपको मालूम हो गया होगा कि गुमराही के तीन बड़े कारण हैं।
एक नफ्स की बंदगी, दूसरे बाप दादा, परिवार और क़बीले के रिवाजों की बंदगी, तीसरे, आमतौर पर दुनिया के लोगों की बंदगी जिसमें धनी लोग और सत्ताधारी लोग और बनावटी पेशवा और गुमराह कौमें सभी शामिल हैं।
ये तीन बड़े बड़े बुत हैं जो खुदाई के दावेदार बने हुए हैं। जो व्यक्ति मुसलमान बनना चाहता हो उसको सबसे पहले इन तीनों बुतों को तोड़ना चाहिए। फिर वो वास्तव में मुसलमान हो जाएगा। वरना जिसने ये तीनों बुत अपने दिल में बिठा रखे हों उसका अल्लाह का बंदा होना मुश्किल है। वो दिन में पचास वक्त की नमाज़ें पढ़ कर और दिखावे के रोज़े रख कर और मुसलमानों के जैसी शक्ल बनाकर इंसानों को धोखा दे सकता है, खुद अपने नफ्स को धोखा दे सकता है कि मैं पक्का मुसलमान हूँ, लेकिन अल्लाह को धोखा नहीं दे सकता। इन तीनों बुतों की बंदगी असल शिर्क है। आप ने पत्थर के बुत तोड़ दिए। ईंट और चूने से बने बुतखाने ढहा दिए। मगर सीनों में जो बुतखाने बने हुए हैं उनकी तरफ कम ध्यान दिया। सबसे महत्वपूर्ण, बल्कि मुसलमान होने के लिए पहली शर्त इन बुतों को तोड़ना है। मुझे विश्वास है कि सारी दुनिया में मुसलमान जिस कदर नुकसान उठा रहे हैं वो इन्हीं तीन बुतों की पूजा का नतीजा है।
अध्ययन का सबक़- ये कि जिसका जितना अमल कुरान पर है उतना ही वो मुसलमान है।
जनवरी, 2014 सधन्यवाद: सौतुल हक़, कराची
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