तारिक़ फतेह
20 मई, 2014
इस्लामी जिहादी संगठन बोको हराम के द्वारा ईसाई स्कूली छात्राओं को गुलाम बनाये जाने के बाद मुस्लिम बुद्धीजीवी अपना आत्मावलोकन करने के बजाय डैमेज कण्ट्रोल करने में लगे हुए हैं।
टोरंटो स्टार से लेकर दि इंडीपेन्डेंट, लंदन और सीएनएन डॉट काम तक पर मेरे सहधर्मी लेखकों के द्वारा लिखे गये लेख में शरई कानून के किसी भी संदर्भ से बचा गया है जिसमें गैरमुस्लिम महिला युद्धबंदियों को सेक्स के लिए गुलाम बनाने की इजाज़त दी गई है।
दरअसल तथ्य ये है कि पूरे इतिहास में मुस्लिम सेना को इस्लामी कानून के तहत गैर मुस्लिम कैदियों को सेक्स के लिए गुलाम बनाने की इजाज़त दी गई है।
कुरान की सूरे 33 और आयत 50 इस प्रकार है:
"ऐ नबी! हमने तुम्हारे लिए तुम्हारी वो पत्नियों वैध कर दी है जिनके महेर तुम दे चुके हो, और उन स्त्रियों को भी जो तुम्हारी मिल्कियत में आई, जिन्हें अल्लाह ने ग़नीमत के रूप में तुम्हें दी।"
इस मामले पर स्पष्टीकरण मांगने पर सऊदी आलिम ने सेक्स के लिए गुलामी की इजाज़त पर एक फतवा जारी किया।
सऊदी आलिम ने कहा: "इबादत सिर्फ अल्लाह के लिए है, इस्लाम मुसलमानों को चाहे उनकी बीवी या बीवियाँ हों या वो अविवाहित हो गुलाम औरतों से संभोग करने की इजाज़त देता है........ हमारे पैगम्बर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने भी ऐसा किया था और जैसा सहाबा और विद्वानों ने भी किया था।"
आठवीं शताब्दी में जब अरबी सेना ने हिंदुस्तान पर हमला किया तो वो वापसी में हज़ारों महिलाओं को गुलामों के रूप में दमिश्क में खलीफा वलीद के पास ले गए जिन्होंने नए उभरते अरब कुलीन वर्ग के बीच इन गुलाम महिलाओं को उपहार के रूप में बाँट दिया।
नौवीं सदी के फारसी इतिहासकार अलबलाज़री अपनी किताब The Origins of the Islamic State में लिखते हैं कि जब अरब जनरल मोहम्मद बिन क़ासिम ने 711 ई. में भारत पर हमला किया तो गैर मुस्लिम कैदियों को मौत या गुलामी में से किसी एक को चुनने का विकल्प दिया गया था।
रूर शहर में साठ हज़ार कैदियों को गुलाम बनाया गया था जिनमें से "तीस महिलाएं शाही परिवार" की थीं और लूट का पांचवा हिस्सा और गुलाम खलीफा के खजाने में जमा कराने के लिए दमिश्क भेज दिया गया था और शेष को "इस्लामी सेना" के बीच बाँट दिया गया।
उन्नीसवीं सदी के भारतीय इस्लामी विद्वान अब्दुल्ला यूसुफ अली जिनका क़ुरान का अनुवाद बहुत प्रामाणिक माना जाता है उन्होंने उपरोक्त उल्लिखित कुरानी आयत पर फुट नोट (हाशिया) लगाते हुए ईमानदारी दिखाने की हिम्मत की: "अब ये मामला पैदा नहीं होता क्योंकि हालात और युद्ध की घटनाएं परिवर्तित हो गयी हैं और अंतर्राष्ट्रीय समझौते के द्वारा गुलामी को समाप्त कर दिया गया है।"
लेकिन आज मुसलमानों में हक़ीकत का सामना करने की हिम्मत बहुत कम है। मैंने दि टोरंटो स्टार और दि इंडिपेंडेन्ट के क़ालम लिखने वालों से सवाल किया कि उन्होंने उस क़ुरानी आयत पर चर्चा क्यों नहीं किया जो मुसलमानों को गुलाम रखने की इजाज़त देता है। उन्होंने इसका कोई जवाब नहीं दिया।
मैंने एक महिला को लिखा जिसने सीएनएन की क्रिस्टीना अमनपोर को ये बताया था कि ''बोको हराम को इस्लाम की समझ नहीं है।'' मैंने उस महिला से पूछा कि उसने शरई कानून के बारे में बात क्यों नहीं की, जो मुसलमानों को गैरमुस्लिम महिलाओं को सेक्स के लिए गुलाम बनाने की इजाज़त देता है। इस महिला ने भी कोई जवाब नहीं दिया।
आज हम मुसलमान इस समस्या में उलझ गये हैं। अगर अरबी जनरल मोहम्मद बिन कासिम आठवीं शताब्दी में भारतीय गैरमुस्लिम महिलाओं को गुलाम बनाने के लिए हमारा हीरो है तो फिर आज नाइजीरिया में वैसा ही काम करने के लिए बोकोहराम को गलत कैसे ठहराया जा सकता है?
आज हम सभी मुसलमानों को अब्दुल्ला यूसुफ अली की आवाज़ को ये कहते हुए बुलंद करने की ज़रूरत है कि ''सातवीं शताब्दी में जिस चीज़ की इजाज़त दी गयी थी वो इक्कीसवीं सदी में लागू नहीं हो सकती है।" लेकिन अफसोस की बात है कि न तो ईमानदारी और न ही हिम्मत आसानी से आती है।
स्रोत: http://www.torontosun.com/2014/05/20/muslims-must-be-honest-about-quran
URL for English article: https://newageislam.com/islamic-society/muslims-be-honest-qur’an/d/87136
URL for Urdu article: https://newageislam.com/urdu-section/muslims-be-honest-qur’an-/d/87197
URL for this article: https://newageislam.com/hindi-section/muslims-be-honest-qur-an/d/87217