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Hindi Section ( 24 Apr 2014, NewAgeIslam.Com)

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True Concept of Kufr and Kafir or Shirk and Jihad कुफ्र और काफिर या शिर्क और जेहाद की वास्तविक अवधारणा

 

 

 

 

 

अभिजीत, न्यु एज इस्लाम

23 अप्रैल, 2014

कुरआन और हदीस में काफिर, शिर्क, जेहाद, कुफ्र आदि कुछ ऐसे शब्द मौजूद हैं जिनके अर्थ और व्याख्या को लेकर लोगों में मन में शंकायें भी है और जिज्ञासायें भी। इन शब्दों का वास्तविक अर्थ क्या है इसको लेकर मुस्लिम समाज में कभी भी  एक जैसी राय नहीं रही। कुछ लोग हैं जिनकी नजर में जेहाद का अर्थ अल्लाह के राज्य का विस्तार और गैर-मुस्लिमों से जंग करना है तो वहीं कुछ लोग हैं जिनकी मान्यता है कि जेहाद फसाद और आतंक नहीं हो सकता। यही कुछ कुफ्र और काफिर को लेकर भी है, मुस्लिमों में कुछ हैं जिनका मानना है कि काफिर का अर्थ इस्लाम को न मानने वाला है वहीं कुछ लोगों का मत है कि काफिर ईश्वर को न मानने वालों के लिये प्रयुक्त हुआ है। दुर्भाग्य की बात है इन शब्दों की सार्थक और स्पष्ट व्याख्या मुस्लिम समाज की ओर से नहीं की जाती जिस कारण लोगों में इस शब्द को लेकर भ्रम बरकरार है।

यहाँ ये सोचने की बात है जिस ग्रंथ को ईश्वर ने सारी मानव जाति के मार्गदर्शन के लिये उतारा, जिस ग्रंथ की कई आयतें पूरे मानव समाज को संबोधित करती है, जिस ग्रंथ को लाने वाले सारे मानव जाति के लिये रहमत बना कर भेजे गये थे, उस ग्रंथ को भेजने वाला ईश्वर अपने बंदों के बीच नाइंसाफी करते हुये उन्हें मारने और उनसे नफरत करने का हुक्म कैसे सकता है और वो भी महज इसलिये कि उन्होंनें इस्लाम को बतौर दीन अपने लिये पसंद नहीं किया? आज सारा विश्व इन शब्दों की गलत और मनमाफिक व्याख्या करने वालों के कृत्यों से परेशान है जिसके नतीजे में गैर-मुस्लिमों के मन में इस्लाम और मुसलमानो के खिलाफ नफरत जन्म ले रही है ! इन शब्दों की सही और स्पष्ट व्याख्या कुरान और हदीस की रौशनी में हो इस चीज की आज सबसे अधिक जरुरत है।

कुफ्र और काफिर की अवधारणा :-

काफिर और कुफ्र को लेकर अलकायदा और तालिबान की परिभाषा अगर मानी जाये तो फिर काफिर का मतलब हर उस इंसान से है जो इस्लाम को नहीं मानता। इनकी स्वधोषित परिभाषा मे ऐसे काफिरों को दीने-इस्लाम की तरफ बुलाना हर मुसलमान पर फर्ज हैं और वो इस्लाम को बतौर दीन स्वीकार करने को तैयार न हो तो उनका कत्ल कर देना जायज है। इसी सोच ने 9/11 की धटना को अंजाम दिया। दुनिया में इनके द्वारा कुफ्र और काफिर की जो अवधारणा फैलाई गई है उसने गैर-मुस्लिमों के मन में यह बात डाल दी है कि इन शब्दों का इस्तेमाल मुसलमान हमें अपमानित करने के लिये करतें हैं। परंतु अगर कुरान और हदीस की रौशनी में कुफ्र और काफिर शब्द का अर्थ देखा जाये तो पता चलता है कि वहां कुफ्र या काफिर उन अर्थों में प्रयुक्त नहीं हुआ है जैसी इसकी व्याख्या तालिबान या अलकायदा करता है बल्कि कुरआन में इन शब्दों की परिभाषा तो इन लब्जों को बड़ा व्यापक आयाम देती है जो केवल गैर-मुस्लिमों को संबोधित करने से काफी इतर है।

पवित्र कुरआन और हदीसों में कुफ्र और काफिर शब्द कई मर्तबा आया है जिसका कोई एक अर्थ नहीं है वरन् अवसर के अनुरुप उसके अर्थ परिवर्तित हो जातें हैं। कुफ्र या काफिर मूल अरबी शब्द 'कफर' से बना है जिसका अर्थ है छिपा लेना या ढंकना । कुफ्र करने वाले को ही काफिर कहा जाता हैं। कुरआन में यह शब्द अलग-2 जगहों पर अलग-2 अर्थों में आया है जैसे छिपाने या इंकार करने के अर्थ में, ठुकराने के अर्थ में, अवज्ञा के अर्थ में। मसलन सूर्य की किरणें अंधकार को छिपा लेती हैं तो इस अर्थ मे सूर्य किरणों ने भी कुफ्र किया क्योंकि उसने अंधकार को छिपा लिया। इसी तरह रात भी काफिर है जो रौशनी को छिपा लेती है। यह शब्द अपमानजनक भी नहीं है क्योंकि हदीसों के अनुसार एक मुसलमान भी काफिर की श्रेणी में आ सकता है। अगर धार्मिक नजरिये से देखा जाये तो इस शब्द का अर्थ प्रायः वही है जिसे नास्तिक के रुप में हिंदू ईश्वर को न मानने वालों के लिये इस्तेमाल करतें हैं।

मुसलमान भी काफिर हो सकता है:-

पवित्र कुरआन और हदीस की गहरी जानकारी न होने के कारण मुसलमान सामान्य प्रयोगों में गैर-मुस्लिमों को काफिर कह देतें हैं पर हदीसों के अनुसार कई स्थितियों में एक मुसलमान भी काफिर हो सकता है। उदाहरणार्थ, -और जो लोग अल्लाह के उतारे हुये कानून के अनुसार फैसला न करें वही काफिर हैं। (सूरह माइदह, 5:44) इस आयत के अनुसार अगर कोई मुस्लिम बादशाह, अमीर या शासक अल्लाह के उतारे किताबों के अनुसार राज्य नहीं चलाता तो वह काफिर की श्रेणी में आता है। नीचे की कुछ आयतें भी उनलोगों को काफिर और कुफ्र करने वाला कह रही है जिन्होंनें इस्लाम तो स्वीकार कर लिया था पर उनका आचरण इसके अनुरुप नहीं था। उदा0 -

- अल्लाह उन लोगों को कैसे मार्ग दिखायेगा जिन्होनें ईमान के बाद कुफ्र किया? (सूरह आले-इमरान, 3: 86,87)

- रहे वो लोग जिन्होंनें अपने ईमान के बाद कुफ्र किया और फिर कुफ्र में बढ़ते गये, उनकी तौबा कदापि स्वीकार नहीं होगी। बस यही राह से भटके हुये लोग हैं। सूरह आले-इमरान, 3:90)

- जिस दिन कितने ही चेहरे उज्ज्वल होंगें और कितने ही चेहरे काले पड़ जायेंगें (उनसे कहा जायेगा) क्या अपने ईमान के बाद तुमने कुफ्र किया? तो जो कुफ्र तुम करते थे, उसके बदले में यातना का मजा चखो। (सूरह आले-इमरान, 3:106)

- ये लोग अल्लाह की कसमें खातें हैं कि हमने नहीं कहा, हालांकि इन्होंनें निश्चय ही कुफ्र की बात कही है और अपने इस्लाम के पश्चात् कुफ्र किया है। (सूरह तौबा, आयत-74)

- यह इस कारण है कि ये ईमान लाये फिर कुफ्र किया तो इनके दिलों पर ठप्पा लगा दिया गया अब ये समझते नहीं। (सूरह अल-मुनाफिकून, आयत-3)

-जो व्यक्ति ईमान लाने के बाद इंकार करे। (वह अगर) मजबूर किया गया और दिल उसका ईमान पर संतुष्ट हो (तब तो ठीक है) मगर जिसने दिल की रजामंदी से कुफ्र को स्वीकार कर लिया उसपर अल्लाह का गजब है और ऐसे सब लोगों के लिये बड़ा अजाब है। (सूरह नहल, आयत-106) {यह आयत मुसलमानों के बारे में है}

- एक हदीस में नबी (सल्ल0) ने फर्माया था "जिसने जानबूझकर नमाज छोड़ी उसने कुफ्र किया।" एक अन्य हदीस में फर्माया, "मोमिन और काफिर के बीच सिर्फ नमाज का फर्क है।"

- हजरत अब्दुल्ला बिन उमर रिवायत करतें हैं कि रसूल (सल्ल0) ने इर्शाद फरमाया, "जिस शख्स ने अपने मुसलमान भाई को काफिर कहा तो कुफ्र उन दोनों मे से किसी एक की तरफ जरुर लौटेगा।" (मुस्लिम)

- हजरत अबूजर से रिवायत है कि उन्होंनें रसूल0 (सल्ल0) को इर्शाद फरमाते सुना, "जिसने किसी शख्स को काफिर या अल्लाह का दुश्मन कहा, हालांकि वह ऐसा नहीं है तो उसका कहा हुआ खुद उस पर लौट आयेगा।" (मुस्लिम)

गैर-मुस्लिमों में सभी काफिर नहीं -

काफिर का अर्थ गैर-मुस्लिम होना इस लिहाज से भी गलत है क्योंकि पवित्र कुरआन स्पष्ट कर देता है कि गैर-मुस्लिमों में से हर किसी को काफिर नहीं कहा जा सकता। अगर काफिर से मुराद इस्लाम के न मानने वालों के लिये ही किया जाये तो भी कुरआन इसकी अनुमति नहीं देता क्योंकि पवित्र कुरआन ने यहूदी और ईसाईयों में से भी सभी को इकट्ठे काफिर कभी नहीं कहा। उदाहरणार्थ इस आयत में कुरआन कह रहा है कि यहूदियों में से जो काफिर हैं यानि हर यहूदी काफिर नहीं है।

- उनमें (यहूदी) से जो काफिर हैं, हमने उनके लिये दुःखदायक यातना तैयार कर रखी है। (सूरह निसा, आयत-161)

कुफ्र: इंकार के अर्थ में:-

पवित्र कुरआन में कुफ्र शब्द इंकार या ठुकराने के अर्थ में भी आया है:-

-जिसने तागूत को ठुकरा (कुफ्र) दिया और अल्लाह पर ईमान लाया उसने मजबूत सहारा थाम लिया।  (सूरह बकरह, आयत-256) इस आयत में कुफ्र शब्द का इस्तेमाल झूठे खुदाओं की परस्तिश ठुकराने के अर्थ में आया है।

- और सच्चा वादा करीब आ गया तो क्या देखतें हैं कि उन लोगों की निगाहें फटी हुई हैं जिन्होंनें इंकार (कुफ्र) किया था। (अल अंबिया, आयत-97)

- जिन लोगों ने अल्लाह की आयतों का और उनसे मिलने का इंकार (कुफ्र) किया, वे मेरी दयालुता से निराश हो चुकें हैं। और उनके लिये दुःखदायिनी यातना है। (सूरह अनकबूत, आयत-97)

- पहले तो ये उसका इंकार (कुफ्र) कर चुके हैं। और दूर से बिन देखे फेंकते रहें हैं। (सूरह सबा, आयत-53)

- पहले तो वो उसका इंकार (कुफ्र) कर चुके हैं। (सूरह सबा, आयत-53)

- परंतु (जब वह आ गया तो इन्होंनें उसका इंकार (कुफ्र) कर दिया। (कुरान, 37:170)

- जिन लोगों ने अल्लाह की आयतों का इंकार (कुफ्र) किया। (सूरह अनकबूत, आयत- 23)

कुफ्र छिपाने के अर्थ मे:-

पवित्र कुरान में कुफ्र किसान के लिये भी प्रयुक्त हुआ है। एक किसान धरती में बीज को बोकर उसे छिपाता है, इसलिये उसके लिये भी कुरआन ने काफिर शब्द का इस्तेमाल किया है। सूरह हदीद की आयत में हैं, जान जो कि यह सांसारिक जीवन मात्र एक खेल और तमाशा है और सजावट, और तुम्हारा एक-दूसरे पर बड़ाई जताना और माल और औलाद में ज्यादा से ज्यादा बढ़ने की लालसा, बर्षा की मिसाल की तरह जिसकी वनस्पति ने काफिरों का दिल लुभा लिया हो। (सूरह हदीद, आयत- 20)

कुफ्र: कृतध्नता के अर्थ मे:-

कुरआन में कुफ्र शब्द कृतज्ञता, नाशुक्री के अर्थ में भी आया है। जैसे एक आयत में आया, तुम मुझे याद रखो, मैं तुम्हे याद रहूंगा। और मेरा कृतज्ञ बनना और मेरे प्रति कुफ्र (कृतध्नता) न दिखाना। (सूरह बकरह, आयत-152) {यहां कुफ्र शब्द का इस्तेमाल खुदा ने स्वयम् अपने लिये किया है}

- यदि कभी हम मनुष्य को अपनी दयालुता का रसास्वादन कराने के पश्चात् फिर इसको उससे छीन लेतें हैं तो वह और अकृतज्ञ (काफिर) हो जाता है। (सूरह हूदः 9)

-निःसंदेह फिजूलखर्ची करने वाले शैतान के भाई हैं और शैतान अपने रब का कृतध्न (काफिर) है। (सूरह हूद, आयत- 27)

- और यदि जब समुद्र में तुमपर कोई तकलीफ पहुँचती है तो उस एक अल्लाह के सिवा वे सब जिन्हें तुम पुकारते हो, गुम हो जातें हैं परंतु जब वह तुम्हें बचा कर स्थल पर पहुंचा देता है तो तुम किनारा खींच लेते हो, मनुष्य बड़ा ही कृतध्न (काफिर) करने वाला है। (सूरह इसरा,आयत-67)

- निःसंदेह अल्लाह किसी विश्वासधाती, कृतध्न (काफिर) को पसंद नहीं करता। (सूरह नम्न, आयत-38)

- निश्चय ही मनुष्य बड़ा कृतध्न (काफिर) है। (सूरह हज्ज, आयत-66)

-यह बदला दिया हमने उन्हें इसलिये कि उन्होंनें कुफ्र किया और हम भरपूर सजा अकृतज्ञ को ही देतें हैं। (सुरह सबा: आयत-17)

काफिर की आपत्तियों का जबाब:-

कुरान ने कहीं भी अपनी अनुयायियों को ये हुक्म नही दिया कि वो जोर-जबर के साथ किसी को इस्लाम की तरफ बुलायें। कुरान की परिभाषा से वो लोग जो धार्मिक लिहाज से इंकारी है उनके लिये कुरान कहीं भी मार-काट की इजाजत नहीं देता। कुरान एक मुसलमान से ये अपेक्षा करता है कि वो काफिरों की तमाम आपत्तियों और शंकाओं का समाधान करे। कई जगह आया है जब काफिरों द्वारा किये गये आपत्तियों का जबाब पवित्र कुरआन देता है। इसका अर्थ ये है कि इस्लाम पर आपत्ति करने वालों के लिये भी अल्लाह ने यह प्रावधान रखा है कि उनकी आपत्तियों का जबाब दिया जाना चाहिये।

- और जिन लोगों ने कुफ्र किया वे कहतें हैं, इस पर पूरा कुरआन एक ही बार में क्यों न उतार दिया गया? ऐसा इसलिये किया गया ताकि इनके द्वारा तुम्हारे दिल को जमाव पैदा करें, और हमने इसे उचित क्रम में रखा।  (सूरह फुरकान, आयत-32) सूरह अल-नम्न की 40 वीं आयत में यह कृतध्नता के अर्थ में इस्तेमाल हुआ है।

- और वे (काफिर) कहतें हैं-यह धमकी (कियामत) कब पूरी होगी यदि तुम सच्चे हो? कहो, जिस यातना की तुम जल्दी मचा रहे हो बहुत संभव है कि उसका एक भाग तुम्हारे एक भाग तुम्हारे पीछे ही लग चुका हो। (अल नम्न, आयत- 72)

काफिरों के साथ व्यवहार:-

कुरान एक मुसलमान को काफिरों के तमाम आपत्तियों का जबाब देने का हुक्म देता ही है साथ ही साथ ये भी फरमाता है कि काफिर चाहे जो भी व्यवहार करें उनका मामला केवल और केवल अल्लाह के हवाले करना चाहिये। कुरआन की आयत है-

- और काफिरों और मुनाफिकों का कहना न मानो। और उन्हें सताने दो और अल्लाह पर भरोसा रखो। अल्लाह इसके लिये बहुत है कि अपना मामला उसे सौंप दिया जाये। (सूरह अहजाब, आयत: 48)

शिर्क की अवधारणा:-

शिर्क अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है शरीक करना या साझी ठहराना। इस्लाम के नजरिये से सामान्य अर्थों में शिर्क खुदा के साथ इबादत में किसी और को शरीक करने के अर्थ में आता है और शिर्क करने वालों को मुशरिक कहा जाता है। शिर्क करने वालो की भी कई श्रेणियां है जिसमें गैर-मुस्लिम के साथ-2 मुसलमान भी आ सकतें हैं। खुदा के साथ किसी और को अपनी इबादत में शरीक करने वालों के संबंध में पवित्र कुरान में कई आयतें आई हैं-

- और जो कोई अल्लाह के साथ किसी और पूज्य को पुकारे, जिसके लिये उसके पास कोई और प्रमाण नहीं, तो इसका हिसाब उसके रब के पास है। ऐसे इंकार करने वाले काफिर कभी सफलता प्राप्त नहीं कर सकते। (सूरह माइदह, 23:117)

मुसलमान भी मुशरिक (कुफ्र करने वाले) हो सकतें हैं :-

कुरआन शरीफ में कई आयतें हैं तो बतलाती हैं कि कुफ्र करने वालों में मुसलमान और गैर-मुसलमान दोनों हो सकतें हैं -

- यकीनन जिन लोगों ने कुफ्र किया है किताब वालों और मुशरिक में से वे जहन्नम की आग में होंगें। जहाँ वे सदा रहेंगें। यही दुष्टतम प्राणी हैं।

- इंसान पर जब कोई विपत्ति आती है तो वह अपने रब की ओर रुजु करके उसे पुकारता है। फिर उसका रब जब उसे अपनी नेअमत प्रदान कर देता है तो वह उन मुसीबतों को भूल जाता है जिसपर वह पहले पुकार रहा था और दूसरो को अल्लाह का समकक्ष ठहराता है ताकि उसके राह ये भटका दे। (अज जुमर, आयत-39) {इस आयत में इंसान लब्ज आया है, यानि कोई भी इंसान भले ही वो मुसलमान धर में पैदा हुआ हो, खुदा के साथ किसी को शरीक कर सकता है}

नबी (सल्ल0) की ये हदीसें बतला रहीं है कि दिखलावे के लिये नमाज पढ़ने वाला और रोजे रखने वाला भी शिर्क करता है।

- हजरत शद्दाद्द बिन औस फरमातें हैं कि मैनें रसूलुल्लाह को यह इर्शाद फर्माते हुये सुनाः जिसने दिखलाने के लिये नमाज पढ़ी उसने शिर्क किया, जिसने दिखलाने के लिये रोजा रखा उसने शिर्क किया और जिसने दिखलाने के लिये सदका किया उसने शिर्क किया। (मस्नदे-अहमद)

- हजरत अबू सईद रिवायत करतें हैं कि नबी करीम(सल्ल0) (अपने मुबारक हुजरे से निकलकर) हमारे पास तशरीफ लाये, उस वक्त हमलोग आपस में मसीह दज्जाल का जिक्र से भी ज्यादा खतरनाक है? हमने अर्ज किया, या रसुलूल्लाह (सल्ल0)!

जरुर इर्शाद फरमाईये। आपने इर्शाद फर्माया, यह शिर्के खफी है (जिसकी एक मिसाल यह है कि) आदमी नमाज पढ़ने के लिये खड़ा हुआ और नमाज को संवार कर इसलिये पढ़े कि कोई दूसरा उसको नमाज पढ़ते देख रहा है। (इब्ने माझा)

 - हजरत शद्दाद्द बिन औस के बारे में बयान किया गया है कि एक बार वह रोने लगे। लोगों ने उनसे रोने की वजह पूछी, तो उन्होंनें जबाब दिया कि मुझे एक बात याद आ गई जो मैंनें रसूल (सल्ल0) को इर्शाद फर्माते सुनी था और उस बात ने मुझे रुला दिया। मैनें आपको यह इर्शाद फरमाते हुये सुना कि मुझे अपनी उम्मत के बारे में शिर्क और शहवते खफीया का डर है। हजरत शद्दाद्द फरमातें हैं कि मैनें अर्ज कियाः या रसूल (सल्ल0)! क्या आपके बाद आपकी उम्मत शिर्क में मुब्तला हो जायेगी? आप ने इर्शाद फरमाया, हां! मगर वह न तो सूरज और चांद की इबादत करेगी और न किसी पथ्थर और बुत की, बल्कि अपने आमाल में रियाकारी करेगी। शहवते खफीया यह है कि कोई शख्स तुममें से सुबह रोजेदार हो, फिर उसके सामने कोई ऐसी चीज आ जाये जो उसको पसंद हो, जिसकी वजह से वह अपना रोजा तोड़ डाले (और इस तरह अपनी ख्वाहिश पूरी कर ले) (मस्नदे-अहमद)

- रसूल (सल्ल0) से एक सहाबी ने अर्ज किया, या रसूल (सल्ल0) मैं कभी-2 किसी नेक काम के लिये खड़ा होता हूँ और मेरा इरादा उसमें अल्लाह ही की रजा होती है और उसके साथ दिल में यह ख्वाहिश भी होती है कि लोग मेरे अमल को देखे। आपने यह सुनकर खामोशी अख्तियार कर ली। यहां तक कि यह आयत नाजिल हुई (जो शख्स अपने रब से मिलने की आरजू रखता हो और उसका महबूब बनना चाहता हो उस चाहिये कि वह नेक काम करता रहे और अपने रब की इबादत में किसी को शरीक न करे) (तफ्सीर इब्ने कसीर) इस आयत में जिस शिर्क से मना किया गया है वह रियाकारी है। और इस बात से भी मना किया गया है कि अगरचे अल्लाह तआला के लिये ही हो मगर उनके साथ कोई नफ्सानी गरज भी शामिल हो तो यह भी एक किस्म का शिर्क है जो इंसान के अमल को जाया कर देती है।

हजरत उमर बिन खत्ताब से रिवायत है, एक दिन मस्जिदे-नबबी तशरीफ ले गया तो देखा कि हजरत मुआज रसूल (सल्ल0) की कब्र मुबारक के पास बैठे रो रहें हैं। हजरत उमर ने पूछा, आप रो क्यों रहें हैं? उन्होंनें कहा, मुझे एक बात याद आने से रोना आ गया जो रसूल (सल्ल0) ने फर्माया था। आपने इर्शाद फर्माया था, थोड़ा सा दिखावा भी शिर्क है।

जिहाद की अवधारणा:-

जब से दुनिया में राजनीतिक इस्लाम का वर्चस्व बढ़ा है , यह शब्द भी तभी से बदनाम हैं क्योंकि इस्लाम का नाम लेकर अपने स्वार्थ साधने वालों ने जिहाद शब्द को गैर-मुस्लिमों के खिलाफ जंग में धर्मयुद्ध कहकर परोसा और मुसलमानों को हिंसा और दहशतगर्दी फैलाने पर उभारा। यह जिहाद लब्ज अरबी मूल लब्ज जहदसे बना है जिसका अर्थ है जद्दोजहद करना या जी तोड़ कोशिश करना। वास्तविकता तो ये है कि शिर्क की तरह ही जिहाद भी कुरआन में कई जगहों पर और कई अलग-2 अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। उन आयतों संख्या बहुत कम हैं जिनमें जिहाद अल्लाह की राह में जंग के अर्थ में आया है।

जिहाद कई अर्थों में:-

कुरआन में जिहाद शब्द कई अलग-2 अर्थो में प्रयुक्त हुआ हैः-

-जिन लोगों की स्थिति यह है कि जब (इस्लाम को मानने के कारण) वो सताए गये तो उन्होंनें धर-बार छोड़ दिया, हिजरत की, ईश्वरीय मार्ग में जिहाद किया (कष्ट उठाये) और धैर्य से काम लिया, उनके लिये इन बातों के बाद निःसंदेह तेरा प्रभु क्षमाशील और दयावान है। (सूरह नहल, आयत-110) इस आयत में उनलोगों को भी जेहादी कहा गया है जो खुदा और उनके रसूल पर ईमान लाने के कारण सताये गये और उन्हे अपने धर और मालो-दौलत छोड़कर हिजरत करनी पड़ी।

-जो व्यक्ति प्रयास (जिहाद) करेगा वह तो स्वयम् अपने ही भले के लिये प्रयास करेगा। (कुरआन, 29:6) अपने आत्मसुधार के लिये की गई कोशिश भी जिहाद ही है। उदाहरणार्थ अगर किसी इंसान को नशे की लत लगी हुई और वह उसे छोड़ने के लिये कोशिश कर रहा है तो उसकी यह कोशिश भी जिहाद कहलायेगी।

- वो लोग जिन्होंनें हमारे मार्ग में जी-तोड़ (जिहाद) कोशिश की उन्हें हम जरुर अपने मार्ग दिखायेंगें। (अनकबूत, आयत-69)

- एक हदीस में रसूल (सल्ल0) ने फर्माया, सबसे बड़ा जिहाद अपने नफ्स पर काबू पाना है। इंसान का दिल जुआ, शराब लूट-मार आदि चीजों की तरह जाने लगे और वो अपने अपने आपको इससे रोक ले तो ये भी जिहाद है। सुबह की मीठी नींद को तोड़कर खुदा की इबादत के लिये उठना भी जिहाद है।

- जिहाद की एक किस्म अल्लाह जिहाद-बिल-कलम है। यानि अपने कलम से समाज को सुधारने, अनाचारी बादशाहों या शासकों के खिलाफ जागरण करने का प्रयास भी जिहाद ही है। जिहाद-बिल-कलम का दर्जा जिहाद-बिल-सैफ से कहीं आला है क्योंकि रसूल (सल्ल0) ने अपनी एक हदीस में फरमाया है, आलिम के कलम की रौशनाई एक शहीद के खून से अफजल है।

गैर-मुस्लिम भी जिहाद कर सकतें है:-

जिहाद के बारे में एक तथ्य जिससे प्रायः अधिकांश मुसलमान भी अनभिज्ञ हैं वो ये है कि एक गैर-मुस्लिम भी जिहाद कर सकता है। कुरान की एक आयत में आता है, हमने इंसान को ताकीद की कि अपने माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करें। लेकिन अगर वो तुझपर जोर डालें कि तू मेरे साथ किसी ऐसे उपास्य को भागीदार ठहराये जिन्हें तू नहीं जानता तो उनका कहना न मानना। (29:8) And We have enjoined on man goodness to parents, but if they jahadaka (do jihad against you) to make you associate [a god] with Me, of which you have no knowledge [being a god], do not obey them. इस आयत मे जिहाद शब्द जोर डालने के अर्थ में आया है। यानि कोई माँ-बाप अगर अपने औलाद को खुदा के साथ किसी और को शरीक करने की चेष्टा कर रहें हैं तो उनकी यह कोशिश भी जिहाद ही है। इसी तरह की एक आयत और है, लेकिन अगर वो तुझपर दबाब डालें कि तू मेरे साथ किसी ऐसे उपास्य को भागीदार ठहराये जिन्हें तू नहीं जानता तो उनका कहना न मानना। (कुरान, 31:15) And if they jahadak a (do jihad against you) to make you associate [a god] with Me, of which you have no knowledge [being a god], do not obey them. इस आयत मे भी जिहाद शब्द एक गैर-मुस्लिम द्वारा दबाब डालने के अर्थ में आया है। इन आयतों से स्पष्ट है कि गैर-मुस्लिम किसी को इस्लाम का पालन करने से रोके या शिर्क करने पर मजबूर करे तो वो भी जिहाद कर रहा है।

क्या जिहाद का अर्थ धर्म युद्ध है?

जिहाद का अर्थ प्रायः धर्मयुद्ध किया जाता है जो सरासर गलत है। जिहाद का अर्थ न तो धर्मयुद्ध है और न ही कोई जंग अया फसाद। लड़ाई या जंग के लिये कुरान में प्रयुक्त शब्द किताल है। जहां भी मुश्रिकों से जंग की बात आई है, अधिकांश जगह कुरान ने किताल शब्द का इस्तेमाल किया है। मुसलमानों अल्लाह के मार्ग में युद्ध करो। (सूरह बकरह, आयत-244) And qatilu (fight) [O y ou who believ e!] in the way of Allah. blh rjg ,d nwljh vk;r esa vk;k gS] And whoever yuqatil (fights) in the way of Allah so he gets killed or turns victorious, We shall grant him a great reward (4.74).

जिहाद न तो धर्मयुद्ध है और न ही फसाद या दहशतगर्दी। क्योंकि अरबी में धर्मयुद्ध के लिये हरबू-मुकद्दसा और दहशतगर्दी के लिये अरहाब शब्द का प्रयोग हुआ है। हरबू-मुकद्दसा शब्द कुरआन या हदीस में कहीं भी नहीं आया है।

जिहाद की कई किस्मों में एक बेशक जिहाद-फी-सबीलिल्लाह या जिहाद-बिल-सैफ (तलवार से जिहाद) भी है पर इसका दर्जा अलग है। किसी भी मुसलमान के द्वारा कभी भी और किसी के खिलाफ शुरु किया गया जंग जिहाद नहीं हो सकता। अल्लाह की राह में जिहाद करने का हुक्म भी सबको नहीं है बल्कि इसका हुक्म केवल इस्लामी हुकूमत दे सकता है। जिहाद का उद्देश्य अपनी दुनियावी जरुरतों को पूरा करने या किसी ऐसी चीज को हासिल को हासिल करना भी नहीं है जो खुदा के लिये न हो। इस तथ्य की पुष्टि कुरआन और हदीस दोनों करती हैः-

- हजरत मुआज बिन जबल से रिवायत है कि रसूल0 (सल्ल0) ने इर्शाद फर्माया, जिहाद में निकलना दो किस्म पर है: जिसने जिहाद के लिये निकलने में अल्लाह की खुश्नूदी को मकसद बनाया, अमीर की फरमाबरदारी की, अपने उम्दा माल को खर्च किया, साथी के साथ नर्मी का मामला किया और हर किस्म के फसाद से बचा, तो ऐसे शख्स का सोना, जागना सबका सब सबाब है और जो जिहाद में फ्रक और दिखलाने और लोगों में अपने चर्चे कराने के लिये निकला, अमीर की बात न मानी और जमीन में फसाद फैलाया, तो वह जिहाद से खसारे (धाटे) के साथ लौटेगा। (अबू दाऊद)

- हजरत अबू हुरैरा फरमातें हैं कि एक शख्स ने दरयाफ्त किया, या रसूल0 (सल्ल0)! एक आदमी अल्लाह तआला के रास्ते में जिहाद के लिये इस नीयत से निकालता है कि उसे दुनिया का कुछ सामान मिल जाये तो क्या उसो इस जिहाद का सबाब मिलेगा? रसूल0 (सल्ल0) ने फर्माया, उसे कोई सबाब नहीं मिलेगा। लोगों ने इसे बहुत बड़ी समझा और उस आदमी से कहा कि तुम इस बात को रसूल0 (सल्ल0) से दुबारा पूछो, शायद तुम अपनी बात उनको नहीं समझा सके। उस शख्स ने दोबारा अर्ज किया फिर आप (सल्ल0) ने वही बात फरमाई कि उसे कोई सबाब नहीं मिलेगा। लोगों ने उस शख्स ने कहा, अपना सवाल फिर से दुहराओ, चुनांचे उस शख्स ने तीसरी मर्तबा पूछा, आपने तीसरी मर्तबा भी उससे यही फर्माया कि उसे कोई सबाब नहीं मिलेगा। (अबू दाऊद)

ये जिहाद है या फसाद ?:

आज दुनिया भर में कई आतंकवादी संगठन और सरकारें अपनी आतंक और फसाद की गतिविधियों को जिहाद कहकर अपना मतलब पूरा कर रही हैं और जिहाद की वास्तविकता से अनजान मुसलमानों को भ्रमित कर रही हैं। पाकिस्तान ने कश्मीर के नाम पर भारत में जो दहशतगर्दी फैला रखी है उसका नाम भी उसने जिहाद रखा है जबकि रसूल (सल्ल0) ने अपनी मुबारक जुबान से फरमा दिया था कि जिसने भी अपनी दुनियवी जरुरतों को पूरा करने या कुछ हासिल करने की गरज से जिहाद किया होगा तो अल्लाह उसे जहन्नम में डाल देगा। जिहाद के नाम पर मासूमों का कत्ल करने वाले, बेबाओ का सुहाग उजाड़ने वाले, माताओं की गोद सूनी करने वाले और शहर तबाह करने वाले सिर्फ शैतान हो सकतें हैं नबी करीम के उम्मती कदापि नहीं। नबी करीम की सीरत दुश्मनों से भी मुहब्बत करने और उनके लिये दुआ करने की गाथाओं से भरी पड़ी है।

- हजरत अबू हुरैरा फरमातें हैं कि रसूल(सल्ल0) से मुश्किरीन के लिये बद्दुआ करने की दरख्वास्त की गई। आप ने इर्शाद फरमाया, मुझे लानत करने वाला बनाकर नहीं भेजा गया, मुझे सिर्फ रहतम बना कर भेजा गया है। (मुस्लिम)

- हजरत जाबिर फरमातें हैं कि सहाबा ने अर्ज किया, या रसूल (सल्ल0)! कबीला सकीफ के तीरों ने तो हमें हलाक कर दिया। आप उनके लिये बद्दुआ फरमा दीजिये। आपने इर्शाद फरमाया, ऐ अल्लाह! कबीला सकीफ को हिदायत अता फरमा दीजिये। (तिर्मिजी)

- हजरत उमर बिन खत्ताब फरमातें हैं कि मैनें रसूल (सल्ल0) को यह इर्शाद फरमाते हुये सुना कि सारे आमाल का दारोमदार नीयत ही पर है और आदमी को वही मिलेगा जिसकी उसने नीयत की होगी। (बुखारी)

जिहाद-फी-सबीलिल्लाह मगर किसके साथ?

जिहाद की एक किस्म जिहाद-फी-सबीलिल्लाह भी बेशक है मगर ये जानना जरुरी है यह जिहाद किसके साथ की जानी है। पवित्र कुरआन में आता है, जिन लोगों ने तुमसें दीन के बारे में जंग नहीं कि, न तुमको तुम्हारे धरों से निकाला,उनके साथ इंसाफ का सुलूक करने से खुदा तुमको मना नहीं करता। खुदा तो इंसाफ करने वालों को दोस्त रखता है। (सूरह मुम्तहना, आयत- 8)

सबसे बेहतरीन जिहाद

- नबी (सल्ल0) से एक बार बीबी आएशा (रजि0) ने पूछा कि क्या हम भी आप लोगों के साथ जिहाद में भाग ले सकतें हैं? आप (सल्ल0) ने फर्माया, तुम लोगों के लिये सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्तम जिहाद हज्जे-मबरुर हैं। (बुखारी)

- एक बार बीबी आएशा ने अल्लाह के रसूल से अर्ज किया, मुझे पवित्र कुरआन में जिहाद से उत्तम कोई अन्य कार्य नहीं दिख पड़ता। फिर हम भी आप (सल्ल0) के साथ जिहाद में क्यों न जायें? आप (सल्ल0) ने फर्माया, नहीं! तुम लोगों के लिये हज्जे-मकरुर सर्वोत्तम जिहाद है।

- अबू हुरैरा से रिवायत एक हदीस है जिसमें वो फर्माते हैं, बूढ़े, बच्चे, कमजोर और औरत का जिहाद हज और उमरा है। (नसई)

- तो काफिरो का कहा न मानना और इस कुरआन से उनसे बड़ा जिहाद करो। (कुरआन, 25:52)

- और जिसने जिहाद (कष्ट) किया वह अपने ही लिये कष्ट (जिहाद) करेगा, निःसंदेह अल्लाह सारे संसार से अपेक्षारहित है।

- सबसे बेहतरीन जिहाद वो है जो इंसान अपने नफ्स के साथ करता है।

- एक बार नबी करीम (सल्ल0) एक गज्वे में जाने की तैयारी कर रहे थे, तभी उनके पास एक आदमी आया और उनसे कहा कि मैं भी आपके साथ जिहाद में शरीक होना चाहता हूँ। नबी करीम (सल्ल0) को मालूम था कि उसके धर में इसके बूढ़े माँ-बाप हैं जो पूरी तरह इसपर निर्भर है। आपने उस आदमी से कहा, अपने धर जाओ और जाकर अपने माँ-बाप की खिदमत करो, ये तुम्हारे लिये सर्वोतम जिहाद है।

जिहाद अपने भीतर कई व्यापक अर्थों को समेटे हुये है उसके अर्थ को केवल काफिरों के खिलाफ जंग बताना इसकी व्यापकता को सीमित करना होगा। न्यू ऐज इस्लाम के एडीटर और इस्लामी विद्वान सुल्तान शाहीन ने सही कहा है कि जिहादवाद ने जिहाद फी सबिल्लिलाह की खूबसूरत अवधारणाओं को विकृत कर दिया।कुरान में जिहाद शब्द 41 बार आया है जबकि रहम शब्द विभिन्न अर्थों में 335 बार आया है। इंसाफ और इसके अर्थों में प्रयुक्त शब्द 244 बार आया है। परंतु इस्लाम का अपने स्वार्थों के लिये इस्तेमाल करने वालों ने महज 41 बार (वो भी अलग-2 अर्थों में) आये शब्द को कुरआनी शिक्षा का सार बना दिया। मुसलमानों की कोशिश होनी चाहिये कि इस्लाम कभी भी ऐसे लोगों के लिये पनाहगाह के रुप में न दिखे जो फसाद को जिहाद का नाम देतें हैं। ऐसे लोगों को जो अपने गैर-इस्लामिक कृत्यों को इस्लामिक बता कर इस्लाम का अपमान करतें हैं। साथ ही हर मुसलमान को ये जरुर सोचना चाहिये कि जिस दीन का नाम अल्लाह ने अमन रखा, जिसके मानने वाले किसी अजनबी से मिलने पर सबसे पहले उसे अमन और सलामती की दुआ देतें हैं वो क्या इतने बर्बर और नाहक खून बहाने वालो को अपने दामन में समेट कर रख सकता है? क्या इस पवित्र शब्द का इस्तेमाल महिलाओं को बेबा बनाने, बच्चों को अनाथ करने, माताओं की गोद उजाड़ने, किसी की अस्मत लूटने, मासूम और निदोर्षों का कत्लेआम करने में हो सकता है?

मुसलमानों की जिम्मेदारी

ये मुसलमानो की जिम्मेदारी है कि जिहाद का नाम लेकर अपने स्वार्थों को पूरा करने वालों के मंसूबो को नाकाम करें, उनसे कहें कि तुम्हें हरगिज ये हक नहीं है कि मेरे नबी (सल्ल0) के दीन और उनके पवित्र नाम को अपने नापाक कृत्य से बदनाम करो और अपने फसाद को जिहाद का नाम दो। अगर मुसलमान अपनी जिम्मेदारी से भागते हैं तो फिर अजाब अल्लाह का अजाब उनके लिये भी आयेगा। नबी करीम (सल्ल0) ने अपनी कौम की ज्यादतियों पर खामोश रहने वालों और उन्हें जुल्म और ज्यादती से न रोकने वालों के लिये अपनी मुबारक जुबान से फरमा दिया था:-

- हजरत अबू सईद फरमातें हैं कि मैनें रसूल0 (सल्ल0) को यह इर्शाद फरमाते सुना, जो शख्स तुममें से किसी बुराई को देखे तो उसको चाहिये कि अपने हाथ से बदल दे, अगर हाथ (से बदलने) की ताकत न हो तो जबान से उसे बदल दे और अगर उसकी भी ताकत न हो तो दिल से उसे बुरा जाने यानि इस बुराई का दिल में गम हो और यह ईमान का सबसे कमजोर दर्जा है।

- तुम जरुर नेकी का हुक्म करो और बुराई से रोको, जालिम को जुल्म से रोकते रहो और उनको हक बात की तरह खींच कर लाते रहो और उसे हक पर रोके रखो। (अबू दाऊद)

- हजरत अबूबकर ने फर्माया, मैंने रसूल (सल्ल0) को यह इर्शाद फरमाते हुये सुना कि जब लोग जालिम को जुल्म करते हुये देखे और उसे जुल्म से न रोके तो वह वक्त दूर नहीं कि अल्लाह उन सबको अपने उमूमी अजाब में मुब्तला फरमा दे। (तिर्मिजी)

- हजरत जाबिर ने इर्शाद फरमाया, अल्लाह ने जिब्रील को हुक्म दिया कि फ्लां शहर को शहर वालों समेट उलट दो। हजरत जिब्रील ने अर्ज किया , ऐ मेरे रब! इस शहर में आपका फ्लां बंदा भी है, जिसने एक लम्हा भी आपकी नाफरमानी नहीं की। रसूल0 (सल्ल0) फर्मातें हैं, अल्लाह ने जिब्रील से फरमाया, तुम उस शख्स समेत शहर को उस शख्स समेत उलट दो क्योंकि शहरा वालों को मेरी नाफरमानी करता हुआ देखकर भी उस शख्स के चेहरे का रंग एक धड़ी के लिये नहीं बदला। (मिश्कातुलमसाबीह) जो लोग गुमराह है उनका फैसला खुदा ने अपने पास रखा हुआ है। कुरआन की आयत है, तो जिन लोगों ने कुफ्र किया उन्हें दुनिया और आखिरत में कड़ी यातना में कड़ी यातना दूंगा, और उनका कोई सहायक न होगा। (सूरह आले-इमरान, 56) ये आयत स्पष्ट करती है गुमराहों के तकदीर का फैसला खुदा ने अपने पास रखा हुआ है, ऐसा में किसी इंसान को यह हक नहीं है कि वह खुदा के काम को खुद करना शुरु कर दे।

कबीर एक मुजाहिद:-

जिहाद करने वाला मुजाहिद कहलाता है। हमारे प्यारे वतन हिंद की तारीख भी एक ऐसे ही मुजाहिद पर गौरवान्वित होती है जिसका सारा जीवन मजहबी एकता को समर्पित था। एक बार शेख रिजकुल्लह मुस्तकी ने अपने वालिद शेख सादुल्लाह से पूछा, क्या कबीर जो इतने प्रसिद्ध हैं, जिनके गीतों का प्रत्येक व्यक्ति उच्चारण करता है एक मुसलमान थे या काफिर थे? उनके वालिद ने उत्तर दिया, वह एक मुजाहिद थे। बेटे ने फिर पूछा, क्या एक मुजाहिद एक मुसलमान या काफिर से अलग है? वालिद ने फरमाया, यह एक गुह्य बात है जिसकी व्याख्या करना कठिन है। तुम धीरे-2 इसे सीख जाओगे।

इस्लाम की मान्यता के अनुसार खुदा ने मनुष्य को दुनिया में अपना खलीफा नियुक्त किया है और उससे उम्मीद की है वो उनकी दी गई नेअमतों के  प्रति शुक्रगुजार बने और उसकी इबादत करे। अपनी कृतनध्ता में मनुष्य जब खुदा की इबादत न करे और उसे मानने से इंकार कर दे तो ऐसे लोगों को खुदा काफिर की श्रेणी में रखता है क्योंकि उसने ईश्वर की तमाम नेअमतों को देखते हुये भी उसे ठुकरा दिया और उनकी इबादत से इंकार कर दिया। खुदा के नाफरमानों का इंसाफ करने का हक केवल और खुदा को है, किसी इंसान को ये हक नहीं है कि वो खुदा के इंसाफ में दखल दे। हिंदू या मुसलमान कोई अपने में ऊँचा या नीचा नहीं है। किसी का मजहब उसको ऊँचा या नहीं नहीं बना सकता ना ही कोई किसी के ईमान का फैसला कर सकता है और न ही उनके जन्नती और जहन्नमी होने की गारंटी ले सकता है। धार्मिक अर्थों में काफिर ईश्वर का इंकार करने वालों के लिये प्रयुक्त किया जाता है। दुनिया में नास्तिकों के वर्ग को छोड़कर हर जाति, मस्लक, मजहब, संस्कृति के मानने वाले किसी न किसी रुप में उस ईश्वर की ही इबादत करतें हैं बस उसे पुकारने के लिये अलग नाम इस्तेमाल करतें है या इबादत का अलग तरीका अख्तियार करतें हैं। इनकी परिभाषा के अनुसार अगर कोई ईश्वर को बिष्णु कहने से काफिर हो जायेगा तो फिर खुदा कहने वाले मुसलमान भी काफिर ही ठहरेंगें क्योंकि खुदा शब्द न तो अरबी भाषा में है और न ही कुरान में। ये बात कुरान और हदीस से साबित है कि ईश्वर ने दुनिया के हर हिस्से में अपने नबी भेजे तो जाहिर है उन्होंनें अपनी उम्मत को इबादत के जो तरीके बताये होंगें, वो उसी तरीके से अपने माबूद को तलाशती है, गंतव्य एक ही हो तो रास्तों को लेकर मतभेद नहीं होना चाहिये जैसा पवित्र वेद ने भी कहा है कि गंतव्य एक है रथ अनेक।

हर किसी को अपने अकीदे के नजर से देखने के नतीजे में आज मुसलमानो के अंदर हर फिरके के मानने वालों ने अपने अलावा तमाम दूसरे फिरके वाले को काफिर और मुश्रिक धोषित कर रखा है। पाकिस्तान में तो कानून बनाकर अहमदियों को काफिर, मुरतद करार दे दिया गया तो शिया को काफिर धोषित किये ने की तैयारी की जा रही है। अहमदी और शिया तो एक अल्लाह को मानने वाले और मुहम्मद (सल्ल0) के पवित्र नाम का कलमा पढ़ने वालें हैं फिर उन्हें क्यों काफिर और मुर्तद करार दिया जा रहा है? क्या वो लोग काफिर नहीं है जिन्होंनें 1400 साल पहले नबी (सल्ल0) के प्यारे नवासे को उनके परिवारजनों के साथ कर्बला के मैदान में शहीद कर दिया, क्या वो काफिर नहीं हैं जो मक्का, मदीना और अरब के दूसरे शहरों से रसूल (सल्ल0) और सहाबियों से जुड़े पवित्र स्थलों को जमींदोज कर रहें है और उस पर शौचालय और होटलें बना रहें हैं, नबी करीम के रौजा पाक को तोड़ने की तैयारी में जुटें लोग क्या काफिर नहीं हैं, क्या वो काफिर नहीं है जिन्होंने हाल ही में सीरिया में एक सहाबी के कब्र को खोद दिया ? इन सवालों के जबाब भी मुसलमानों से अपेक्षित है। ये सारी चीजें केवल मेरा रास्ता और तरीका सही बाकी तमाम तरीके और रास्ते गलत की संकुलित सोच के नतीजे में जन्मी है।

आज सारी दुनिया जिहाद, कुफ्र, काफिर और शिर्क की सही और तथ्यपरक अवधारणा से अवगत होना चाहती है, इस्लाम के उस चेहरे को देखना चाहती है जो मुहब्बत, अमन और, इंसानियत की खुश्बू लिये हुये हो। इस्लाम की बदनामी भी इन शब्दों की गलत व्याख्याओं के कारण ही हो रही है। ऐसे में मुसलमानों की जिम्मेदारी है कि वो गैर-मुस्लिमों को यह स्पष्ट करें कि कुरान या हदीस कहीं भी सभी काफिरों से जंग करने की अनुमति नहीं देता बल्कि किताल का हुक्म केवल उनके खिलाफ है जो मुसलमानों के साथ जंग करतें हैं और उन्हें उनके मजहबी अकीदों के पालन से रोकतें हैं। अल्लाह की राह में जंग करने के अर्थ में बेशक जिहाद किया जा सकता है पर ऐसे जिहाद का हुक्म केवल अल्लाह की राह में युद्ध जैसे खास मौकों के लिये ही है क्योंकि ऐसा कभी नहीं हो सकता कि इंसान सारी जिंदगी जंग ही करता रहे। जिहाद की तमाम कई ऐसी किस्में भी है जिसे इंसान हर रोज और हर वक्त कर सकता है जो खुद उस इंसान और उसके समाज के लिये भी फायदेमंद होगी। अपने नफ्स के साथ किया गया जेहाद, कलम के साथ किया गया जिहाद और कुरआन के साथ किया गया जिहाद, जिहाद की अजीमतर श्रेणियों में हैं जो इस शब्द को और अधिक प्रतिष्ठा देगा। इन बातों को मुस्लिम और उनके धर्मगुरु समझे तथा समादर भाव के साथ सभी इंसानों का सम्मान करें यही विश्व शांति का आधार होगा। खुदा का शुक्र है कि इस्लाम के अंदर से जिहाद का नाम लेकर फसाद फैलाने वालों के खिलाफ स्वर मुखर होने लगें हैं और इनके जिहाद को फसाद कहने की शुरुआत हो चुकी है। पवित्र कुरान की आयत है, “खुदा के बंदे तो वो हैं जो जमीन पर आहिस्तगी से चलतें हैं और जब जाहिल लोग उनसे (जाहिलाना) गुफ्तगू करतें हैं तो सलाम कहतें हैं !” (सूरह फुरकान, आयत-63)

अभिजीत मुज़फ्फरपुर (बिहार) में जन्मे और परवरिश पाये और स्थानीय लंगट सिंह महाविद्यालय से गणित विषय में स्नातक हैं। ज्योतिष-शास्त्र, ग़ज़ल, समाज-सेवा और विभिन्न धर्मों के धर्मग्रंथों का अध्ययन, उनकी तुलना तथा उनके विशलेषण में रूचि रखते हैं! कई राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में ज्योतिष विषयों पर इनके आलेख प्रकाशित और कई ज्योतिष संस्थाओं के द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता की कोशिशों के लिए कटिबद्ध हैं तथा ऐसे विषयों पर आलेख 'कांति' आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इस्लामी समाज के अंदर के तथा भारत में हिन्दू- मुस्लिम रिश्तों के ज्वलंत सवालों का समाधान क़ुरान और हदीस की रौशनी में तलाशने में रूचि रखते हैं।

URL: https://newageislam.com/hindi-section/true-concept-kufr-kafir-shirk/d/76712 

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