A letter to Editor of Monthly Sautul Haq
14 अप्रैल, 2014
फ़रहाद साहब अस्सलामो-अलैकुम
फ़रहाद साहब! कुछ साल पहले आपने एक लेख लिखा था कि ग़ारे हिरा में रवायत के मुताबिक़ जिब्रईल अमीन पहली वही किसी तख्ती पर लिख कर लाए होंगे। हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम से कहा इक़रा हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने जवाब दिया (मैं पढ़ने में सक्षम नहीं हूँ) जबकि उपमहाद्वीप के अनुवादक और टिप्पणीकार इस पर सहमत हैं कि जिब्रईल अलैहिस्सलाम ने ज़बानी कहा इक़रा......... क्या आज भी आप अपनी बात पर कायम हैं? और आपने ये भी लिखा था कि हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम अनपढ़ नहीं थे जबकि मौलाना मौदूदी साहब नबी उम्मी का अनुवाद अनपढ़ करते हैं। जवाब की प्रतीक्षा में,
पेश इमाम जामा मस्जिद मोहल्ला गड़ां वाला मंडी, भावलदीन
मोहतरम शम्सुद्दीन साहब! गलत बात कि एक आदमी कहे या उपमहाद्वीप या महाद्वीप के सभी लोग, वो गलत होगा। और सही बात अगर एक कहे और मुक़ाबले में लाख आदमी हों ये स्वीकार करना होगा, सही और गलत की कसौटी हमारे यहाँ क़ुरान है। रही आपकी बात की मौदूदी साहब ''उम्मी' का अनुवाद अनपढ़ करते हैं, हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को अनपढ़ मानते हैं तो इसका मतलब ये होगा कि हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम पढ़े लिखे थे मगर इतने नहीं जितने मौदूदी साहब थे। हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम व्यापारी थे। मिस्र, इराक, यमन और कहाँ कहाँ व्यापार का सामान लेकर जाया करते थे। इसी व्यापार में आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की अमानत और दयानत देखकर ख़दीजा रज़ियल्लाहू अन्हा बिंत खवालद ने आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम से शादी की थी। व्यापार की सफलता का दारोमदार पत्र व्यवहार पर होता है।
अक्सर दुकानदार कहते हैं कि दूसरे फेरे में आओ तो दो थान लट्ठे के और एक छींट का लेते आना। ऊँटों का सफर होता था दूसरे फेरे में चार छह महीने लग जाते थे, इसलिए दूसरों की Demand लिखनी पड़ती होगी। ये काम अनपढ़ आदमी के बस का न था। पहली वही से भी ये बात साबित है, मेरा पक्ष है। (जिब्रईल कोई लिखी हुई चीज़ लाये होंगे इसलिए हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम से कहा), इक़रा बिस्मे रब्बोकल्लज़ी ख़लक़ा (96: 1) हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने जवाब दिया कि मैं पढ़ने में सक्षम नहीं हूँ। शब्दकोश में इसका अनुवाद है To Read a book क़ुरान में ये शब्द तीन बार इसी रूप में आया है लेकिन इस माद्दा के तहत कई जगहों पर दोहराया गया है यहां तक कि क़ुरान का भी यही माद्दा है। इक़रा किताबोका कफा बेनफ्सेका अलयौमा अलैका हसीबा (17: 14) (कहा जाएगा कि) अपना लिखा खुद पढ़ ले आज अपना ही आत्मावलोकन काफी है। दूसरी जगह इरशाद हुआ- इक़ारा बिस्मे रब्बोकल्लज़ी ख़लक़ा (96: 1) पढ़ अपने पालने वाले के नाम से जो तुम्हारा खालिक़ (रचनाकार) है। तीसरी जगह इरशाद है- इक़रा वरब्बोकल अकरमल्लज़ी अल्लमा बिलकलमे (96: 3, 4) पढ़ और तुम्हारा रब करीम है जिसने तुम्हें कलम से लिखना सिखाया। अध्ययन कर ...... इक़रा ......... पढ़ ........अल्लज़ी अल्लमा बिलक़लमे –जो तुम्हें कलम से सिखाया गया है। यानी उस समय पढ़ी वो चीज़ जाती थी जो कलम से लिखी जाती थी। इन तीनों स्थानों से स्पष्ट है कि, उर्दू के पढ़ और अरबी के इक़रा में अंतर है। उर्दू के पढ़ का अर्थ ज़बानी बोलना भी है जैसे शायर अपनी ग़ज़ल या नात पढ़ रहा था, हालांकि वो अपनी स्मृति शक्ति से बोल रहा था कि (पढ़ नहीं रहा था) उसके सामने कोई लिखी तहरीर नहीं थी। और हैण्डबुक में देख कर ग़ज़ल सुनाने को उर्दू में पढ़ना कहते हैं।
जबकि अरबी में इक़रा का अर्थ है कोई लिखी हुई चीज़ पढ़ना और ज़बानी पढ़ने के लिए एआद, तकरार, मोकर्रर और क़ुल आदि शब्द भी प्रचलित हैं। तो जिब्रईल आयत बोलकर हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम से कहलवाना चाहते थे तो इक़रा Read न कहते। क्योंकि सामने जब कोई लिखी हुई चीज़ न हो तो वो सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम फरमाते What I Read, लेकिन दुहराना कोई मुश्किल काम नहीं था अगर कोई मुझे यहूदी शब्द दोहराने को कहे तो बिना परेशानी दुहरा दूँगा, ये कभी नहीं कहूंगा कि मैं पढ़ना लिखना नहीं जानता। क्या ये अल्लाह और जिब्रईल के संज्ञान में ये बात थी कि अनपढ़ से तीन बार कहा कि, ''इक़रा'' पढ़। हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम पढ़ना जानते होंगे तभी कहा गया कि पढ़।
जिब्रईल अमीन ज़रूर कोई लिखी हुई तख्ती आदि लाए होंगे। हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम से कहा पढ़, हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने उत्तर में कहा कि मैं पढ़ना नहीं जानता। अगर जिब्राईल अमीन ज़बानी कुछ कहते तो हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को उसके दुहराने में क्या मुश्किल पेश आई? इस सूरत में हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम कह ही नहीं सकते थे कि मैं पढ़ना नहीं जानता। क्योंकि जिब्रईल कुछ पढ़वा तो नहीं रहे थे, कहलवा रहे थे। ये पढ़ना नहीं दुहराना (Repetition) हुआ। दुहराने के लिए पढ़ा लिखा होना ज़रूरी नहीं। उर्दू में आप कह सकते हैं कि मेरा बेटा यूरोप में पढ़ता है। मगर अरबी में आप ये नहीं कह सकते कि अबनी यक़रा फिल रोबा- इसका अनुवाद होता है- My son is reading in Europe जो सरासर गलत है। दूसरा कहेगा अगर घर में जगह नहीं है तो छत पर जाकर पढ़ ले, यूरोप क्यों गया? इसी लिए अरबी में कहते हैं अबनी यक़रा फिल रोबा
मेरा बेटा यूरोप में शिक्षा प्राप्त कर रहा है। पढ़ या (इक़रा) नहीं कर रहा है। यही कारण है कि अरबी में अदालत के Reader को क़ारी (पाठक) कहते हैं। जबकि हमारे यहां क़ुरान को गाकर लहक लहक कर पढ़ने वाला क़ारी कहलाता है। अपनी अपनी ज़बान है इस मामले में हम अरबी का कुछ नहीं बिगाड़ सकते।
अल्लाह का फरमान है- हल यसतविल्लज़ीना यालमूना वल्लज़ीना लायालमून (39: 9) क्या ज्ञानी और अज्ञानी समान होते हैं? हल यसतविल आमा वलबसीरो अफला तफकोरून (6: 50) क्या अंधा और देखने वाले एक समान होते हैं, तुम इतना भी नहीं सोचते। साबित हुआ कि अल्लाह न जानने वाले पर जानने वाले आलिम को महत्व देता है। तो क्या नबी को अज्ञानियों में से चयन करता?
हम अपनी भाषा में ये कह सकते हैं कि कार पेट्रोल बहुत खाने लगी है। ये सही है। मगर अरबी में हम ये बिल्कुल नहीं कह सकते कि सयारती या कुल बेनज़ीन कसीर (मेरी गाड़ी खाती है पेट्रोल बहुत) अरबी में आप कहेंगे सयारती यसरफ बेनज़ीन कसीर- मेरी गाड़ी खर्च करती है पेट्रोल बहुत- हम तो वो लोग है कि सिगरेट भी पानी की तरह पीते हैं, हालांकि सिगरेट पीने की चीज नहीं है। कश लगाने की चीज़ है। तो हर भाषा का अपना अपना नियम और ढंग है। यही हाल फारस वालों का है- पूरी दुनिया रोटी खाती है और पानी पीती है, फारस वाले पानी खाते हैं। मन आब मी खूरम- मैं पानी खाता हूँ। उनके यहां पीने का शब्द ही नहीं। ये बिल्कुल ऐसा है जैसे हम उर्दू वाले सिगरेट पीते हैं हालांकि सिगरेट पिया नहीं जाता इसका कश् लगाया जाता है जैसे फारसी में है- 'मन सिगार नमी कश्म' अरबी में है (मादोख सजायर) मैं धुँआ नहीं खींचत। अंग्रेजी में I am not Smoking हमारे यहाँ इसका अच्छा अर्थ यही है कि मैं धूम्रपान नहीं करता।
निस्संदेह उर्दू में आसान शब्द अरबी भाषा के हैं, उनका सम्मान यही है कि हम उन्हें उसी अर्थ में लें जो अरब लेते हैं, हम अरबी को पाकिस्तानी छुरी से ज़बह नहीं करें तो बेहतर है। आश्चर्य है कि ये गलती आम आदमी के अलावा मौलवी हज़रात यानि अरबी जानने के दावेदार भी करते हैं। जैसे अरबी की इज़्ज़त और उर्दू की इज़्ज़त एकसमान नहीं है, इज़्ज़त अरबी शब्द है जिसका अर्थ है ग़ालिब, विजयी, शक्तिशाली, क़वी। दो आदमी कुश्ती लड़ रहे हों और ऊपर वाला इज़्ज़तमंद हुआ नीचे वाला अपमानित हुआ। जो उर्दू की इज़्ज़त है उसे अरबी में इकराम कहते हैं और इज़्ज़तदार को अरबी में मोकर्रम कहते हैं। देखें आयत- इन्ना अकरमाकुम इंदल्लाहे अतक़ाकुम (49: 13) अल्लाह के यहां तुम में सम्मान के लायक वो है जो परहेज़गार है। अगली आयत में फरमाया, वलाक़द कर्रमना बनी आदम (17: 70) मैंने हर बनी आदम को इज़्ज़तदार पैदा किया।
लेकिन क़ुरान की इस आयत- वतोइज़्ज़ो मन तशा वतो ज़िल्लो मन तशा (3: 26) का अनुवाद हमारे यहाँ ये किया जाता है कि- अल्लाह जिसे चाहे इज़्ज़त दे जिसे चाहे ज़िल्लत (अपमान) दे। अगर ज़ैद को अल्लाह ने इज़्ज़त दी है तो उसकी इज़्ज़त क्यों करूँ? अल्लाह मुझे इज़्ज़त दे देता- हामिद अगर अपराधी है, बदमाश है, तो मैं उससे नफरत क्यों करूँ? अल्लाह ने उसे इस रास्ते पर लगाया है। मैं तो ज़ैद की इज़्ज़त उस वक्त करूँगा अगर समाज में बेहतर भूमिका से उसने अपनी इज़्ज़त खुद कमाई हो और मेरे अनुसार हामिद नफरत के लायक तब होगा जब वो अपनी हालत का खुद ज़िम्मेदार होगा। अल्लाह के बारे में ऐसा सोचना भी गुनाह है कि वो खुदा किसी को तो गलत रास्ते पर लगा देता है और किसी को सही रास्ते पर। इस आयत का अर्थ ये है कि अल्लाह ने अंबिया अलैहिस्सलाम और किताबों के द्वारा मनुष्य को अच्छे और बुरे को समझा दिया है, वो आज़ाद है जो चाहे इज़्ज़त हासिल करे जो चाहे ज़िल्लत (अपमान) अपना ले। अपने अमल का नतीजा उसे मिलकर रहेगा।
मौलाना शम्सुद्दीन साहब! इस सारी बात का सार ये है कि अगर पहली वही में जिब्रईल अमीन आए और हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम से कहा कि इक़रा तो उनके हाथ में कोई लिखी हुई चीज़ होगी। लेकिन रवायत में लिखी हुई बात से इंकार किया गया है। रही ये बात तो कि हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को कुरान में उम्मी (अनपढ़) कहा गया है। तो कुछ लोग ये भी कहते हैं कि मक्का में क़ुरान से पहले कोई किताब नहीं थी, पहली किताब कुरान ही नाज़िल हुई इसलिए यहाँ वाले उम्मियून कहलाते थे।
लेकिन मेरा मानना है कि मक्का का नाम चूंकि 'उम्मुल क़ोरा'' था, बस्तियों की माँ- तो यहाँ वाले (उम्मी) कहलाते थे। चाहे वो पढ़े लिखे होते हों। रही ये बात कि हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने खुद जो फरमाया कि मैं पढ़ने में सक्षम नहीं, तो ये बात सही नहीं है। ईसाई ये साबित करना चाहते थे कि मुसलमानों के पैगम्बर की नबूवत भी हमारे दम से है अगर हमारे विद्वान वरक़ा बिन नोफल उन्हें (नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) न बताते तो उन्हें (नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम) तो पता ही नहीं था कि उन्हें नबूवत से नवाज़ा गया है। ईसाई भिक्षुओं ने आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को नबूवत मिलने पर बधाई दी। विचारणीय बात ये है कि वो ईसाई भिक्षु भी मुसलमान नहीं बना!
अल्लाह ने बताना उचित नहीं समझा, जिब्रईल ने भी ये बशारत न दी और जिन सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के सिर पर नबूवत का ताज रखा गया वो भी नहीं समझे अगर कुछ समझा तो अंधा ईसाई भिक्षु समझा। बल्कि इस रवायत के अनुसार तो आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को इस तजुर्बे की सही महत्ता का भी अनुमान नहीं था। वो तो खुदा भला करे हज़रत ख़दीजा रज़यल्लाहू अन्हा का कि वो आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को लेकर अपने चाचा ज़ाद भाई वरक़ा बिन नोफल के पास पहुंचीं जिन्होंने आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की ज़बानी घटना का विवरण जानने के बाद ये यक़ीन दिलाया कि हाज़ा अलनामूस अल्लज़ी नज़्ज़ला अला मूसा- कि ये वही फरिश्ता है जो हज़रत मूसा पर नाज़िल हुआ था। हमारे विचार में मोहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम को नबूवत की सनद प्रदान करने के लिए वरक़ा बिन नोफल की पुष्टि, कहानी की खूबसूरती से अधिक कुछ नहीं। अल्लाह ने नहीं बताया, जिब्रईल खामोश रहे, हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम भी न समझे कि नबूवत मिली है तो अगर वरक़ा बिन नोफल अंधा भी नहीं बताता तो शायद पूरे जीवन हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम न जान सकते कि वो नबी हो गये हैं? कुरान के नाज़िल होने की घटना के आसपास पौराणिक वातावरण को बनाने में इन रवायतों का बड़ा दखल है जिसे रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की जीवनी लिखने वाले कुछ लेखकों ने बिना शोध और विश्लेषण के अपनी रचनाओं में जगह दे दी और जिसने गुज़रते वक्त के साथ नकल दर नकल के चरण में प्रमाणीकृत होने का दर्जा हासिल कर लिया है। इन रवायतों पर अगर ऐतबार कर लिया जाए तो हुज़ूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की नबूवत ईसाईयों की कृतज्ञ है।
अप्रैल , 2014 स्रोत: सौतूल हक़, कराची
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