वर्षा शर्मा, न्यु एज इस्लाम
10 फरवरी, 2014
उपरोक्त शीर्षक के विषय में कुछ लिखने से पहले इस्लाम के बारे में कुछ वास्तविक तथ्य और मूल बातें बताना अत्यंत आवश्यक है। पहली बात यह कि इस्लाम मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का धर्म नहीं है। यानि ऐसा नहीं है कि इस्लाम का आरम्भ मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से हुआ बल्कि सभी पैग़म्बर और नबी यही धर्म लेकर आए। यह बात कुरान ने बड़े स्पष्ट रूप से बयान कर दी है:
"उसने तुम्हारे लिए वही धर्म निर्धारित किया जिसकी ताकीद उसने नूह को की थी। और वह (जीवन्त आदेश) जिसका ज्ञान हमने तुम्हें दिया है ह और वह जिसकी ताकीद हमने इब्राहीम और मूसा और ईसा को की थी यह है कि "धर्म को क़ायम करो और उसके विषय में अलग-अलग न हो जाओ।" बहुदेववादियों को वह चीज़ बहुत अप्रिय है, जिसकी ओर तुम उन्हें बुलाते हो। अल्लाह जिसे चाहता है अपनी ओर छाँट लेता है और अपना मार्ग उसी को दिखाता है जो उसकी ओर रुजू करता है" (42:13 )
इस आयत में यह बताया गया है कि पैगंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को वही धर्म दिया गया जो पहले हजरत नूह, हज़रत मूसा, हज़रत ईसा और हज़रत इब्राहीम अलैहिमुस्सलाम को अल्लाह ने दिया था। वह दीन, ईमान और नैतिकता की दावत थी। कुरान के अध्ययन से पता चलता है कि वह किसी ख़ास प्रणाली की दावत नहीं देता। अपितु वह इस बात की दावत देता है कि "ऐ लोगो! हमनें तुम्हें एक पुरुष और एक स्त्री से पैदा किया और तुम्हें बिरादरियों और क़बिलों का रूप दिया, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। वास्तव में अल्लाह के यहाँ तुममें सबसे अधिक प्रतिष्ठित वह है, जो तुममे सबसे अधिक डर रखता है। निश्चय ही अल्लाह सब कुछ जानने वाला, ख़बर रखने वाला है" (49:13)
यह दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई है जिसके बारे में ईश्वर के सभी पैग़म्बरों और दूतों ने दावत दी कि तुम्हें एक दिन अपने प्रभु के यहाँ जवाबदेह होना है, और इस जवाबदेही के लिए आवश्यक है कि अपने व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन को पवित्र बनाओ। यही इस्लाम का मूल विषय है। इस्लाम ने कोई अलग व्यवस्था नहीं दी बल्कि इसने एक शरीयत दी है। यानी एक कानून जिसकी रौशनी में मनुष्य अपनी बुद्धि इस्तेमाल करके अपने व्यतिगत और सामूहिक जीवन को सुधार सकता है। यही इस्लाम की दावत का मूल आधार है।
इस्लाम से पूर्व अरब
इस्लाम से पूर्व अरब के लोग आमतौर पर क़बीलों की आज़ाद ज़िंदगी गुज़ारते थे, उनमे जिहालत आम थी। बुतपरस्ती इसी जिहालत का नाम था। बुतपरस्ती ने उनके दिल व दिमाग पर क़ब्ज़ा करके उन्हें वहमपरस्त (शक्की) बना दिया था। दुनिया की हर चीज़ को चाहे वह फायदा देने वाली हो या नुकसान पहुँचाने वाली, उनके लिए माबूद (उपासना के लायक) बन गयी थी। इस तरह पत्थर, पेड़, चाँद, सूरज, पहाड़ दरिया आदि सभी की पूजा आम हो गयी थी। अरब के लोगों ने फरिश्तों, रूहों और अमूर्त ताक़तों के बुत बनाने के अलावा अपने बुज़ुर्गों के बुत भी गढ़ रखे थे, जिनकी वे पूजा किया करते थे।
अपनी इस बुतपरस्ती के बावजूद अरब के लोग इन बुतों को ही असल माबूद मानते थे, और उनका ये मानना था कि जिन बुतों को उन्होंने यादगार के तौर पर बनाया है आखिरत (परलोक) में वे हमारी हर ज़रूरत, मुराद और दरख्वास्त की सिफ़ारिश ख़ुदा के यहां कर सकते है। मरने के बाद की ज़िंदगी के बारे में उनका यह ख्य़ाल था कि उनकी रूहानी ताक़तें ख़ुदा से उनके गुनाहों को माफ़ कराएंगी।
मज़हब के बिगाड़ और अक़ीदों की खराबी के साथ-साथ आपस की लड़ाई उनके यहां आम बात थी। मामूली बातों पर लड़ाइयां ठन जातीं और फिर उनका सिलसिला पीढ़ियों तक चलता रहता। जुआ खेलना, शराब पीना इतना आम था कि शायद ही कोई क़ौम इस मामले में उनका मुक़ाबला कर सकती थी। शराब की तारीफ़ और उससे होने वाली बद कारियों के ज़िक्र से उनकी शायरी भरी पड़ी थी। इसके अलावा सूद का चलन आम था। लूट मार, चोरी, ख़ून ख़राबा, ज़िना (बलात्कार) और दूसरे गंदे कामों में उनको इंसानी शक्ल में जानवर बना दिया था। वे अपनी लड़कियों को ज़िंदा ही कब्रों में गाड़ दिया करते थे। बेशर्मी, नग्नता और बेहयाई का यह हाल था कि मर्द और औरत नंगे होकर क़ाबा का तवाफ़ करते थे और उसे एक धार्मिक कर्म समझते थे, मज़हब(धर्म), अक़ीदा(सिद्धांत), अख़लाक़(व्यवहार), रहन सहन, समाज आदि हर रूप से अरब के लोग अज्ञानता और अपमान की खाई में गिरे हुए थे।
दुनिया की हालत
इस्लाम से पूर्व अरब ही नही बल्कि पूरी दुनिया उन बुराइयों का शिकार थी, जिनके शिकार ख़ुद अरब थे।
ईरान और रोम उस वक़्त की सबसे बड़ी ताक़ते थीं। रूम में ईसाई धर्म के मानने वाले अधिक थे लेकिन अक़ीदे के लिहाज़ से वे अपने असल धर्म से बहुत दूर जा चुके थे। नैतिक रूप से भी वे भ्रष्ट थे।
ईरान में तो सितारों की पूजा आम थी। इसके अलावा वहां की जनता बादशाह और दरबारी सरदारों को ही ख़ुदा समझती थी, नैतिकता का अभाव वहां भी आम था।
खुद अपने देश भारत में देवताओं की तादाद बढ़ते बढ़ते ३३ करोड़ तक पहुंच चुकी थी। बद अख्लाकी आम बात थी। छूआ-छात और भेद भाव के कारण इंसान इंसानों का ख़ुदा बना बैठा था। पूरा समाज गिरावट का शिकार था। शराब, जुआ, व्यभिचार और ज़िना को धार्मिक रंग दे दिया गया था। आम तौर पर पूरी दुनिया इसी तरह की खराबियों का शिकार थी।
ऐसी हालत में पूरी दुनिया में सुधार लाने के लिए एक ऐसे पैग़ंबर को भेजा जाना ज़रूरी था जो पूरी दुनिया को हिदायत का रास्ता बताये।
इस्लाम की तब्लीग़
हीरा की ग़ार में पहली वही के नाज़िल होने के कुछ दिन बाद सुरह मुदस्सिर की शुरू की कुछ आयतें नाज़िल हुईं:
अनुवाद: "ऐ कमली ओढ़ने वाले! उठ (और लोगों को गुमराही के अंजाम से) डरा और अपने रब की बुजुर्गी और महानता बयान कर, और लिबास को पाक कर और बुतों से अलग रह और ज्यादा हासिल करने की नियत से किसी के साथ एहसान मत कर और अपने रब के मामले में (तक्लीफ़ और मुसीबत पर) धैर्य रख।”
इस आयत के अवतरित होने से ये सन्देश मिल गया कि उठो और भटकी हुई इंसानियत को उसकी कामयाबी और निजात का रास्ता दिखाओ और लोगों को ख़बरदार कर दो कि कामयाबी की राह सिर्फ एक ही है अर्थात एक ख़ुदा की बंदगी। जो कोई इस राह को अपनाएगा, वही कामयाब होगा और जो कोई इसके अलावा कोई और राह अपनाये, उसे आख़िरत के बुरे अंजाम से डराओ।
नुबूवत (पैगंबरी) के काम पर लगा दिए जाने के बाद सबसे पहला मरहला यह था कि सिर्फ एक ख़ुदा की बंदगी करने और बाक़ी सैकड़ों ख़ुदाओं का इंकार कर देने की दावत दी जाये। इसलिये हज़रत मुहम्मद सल्ललाहू अलैहि वसल्लम ने सबसे पहले उन लोगो को दावत के लिए चुना जो आप से अब तक बहुत क़रीब रहे थे और आप के मानवीय व्यवहार, आपकी सच्चाई और आपकी ईमानदारी को खूब अच्छी तरह जानते और समझते थे। इन लोगो को आप की ज़ात पर इतना यक़ीन था कि आपकी फ़रमायी हुई बात का आसानी से इंकार कर देना उनके लिए संभव न था।
इन लोगों में सबसे ज्यादा आपके अच्छे बुरे हर वक़्त की साथी हज़रत ख़दीजा थीं। फिर इसके बाद हज़रत अली, हज़रत ज़ैद और हज़रत अबूबक्र रज़ि० थे। आपने जब इन लोगों तक अपना पैग़ाम पहुंचाया तो इन लोगों ने इस तरह मान लिया, जैसे वे इंतज़ार में हों कि आप कहें और वे ईमान लाएं।
ख़ुफ़िया (गुप्त) दावत
हर क़बीले और हर क़ौम को उनके स्वभाव के अनुसार दावत देना नबी सल्ललाहु अलैहि वसल्लम का एक स्थायी और अथक काम था। अरब में उकाज और बुएना और ज़िलमजाज के मेले बहुत मशहूर थे। दूर दूर से लोग यहां आया करते थे। इसलिए आप हर मेले में जाते और जाकर लोगों को तौहीद (एकेश्वरवाद) की खूबी बताते और उन्हें बुतों, पत्थरों और पेड़ों की पूजा से रोकते। बेटियों को मार डालने और ज़िना करने से लोगों को मना करते और जुआ खेलने से उन्हें रोकते।
आप फ़रमाया करते कि अपने जिस्म की गंदगी से, कपड़ो को मैल कुचैल से, ज़ुबान को गन्दी बातों से, दिल को झूठे अक़ीदों से पाक व साफ रखें, वायदे और शपथ की सख्त पाबन्दी करें, लेन देन में किसी से धोख़ा धड़ी न करें, ख़ुदा की ज़ात को किसी कमी या खराबी से पाक समझें। इस बात का पक्का यक़ीन रखें कि ज़मीन, आसमान, चाँद और सूरज छोटे बड़े सुब ख़ुदा के पैदा किए हुए हैं, सब उसी के मुहताज है, दुआ का कुबूल करना, बीमार को सेहत व तंदरूस्ती देना, मुरादें पूरी करना खुदा की क़ुदरत में है। खुदा की मर्ज़ी के बग़ैर कोई कुछ भी नही कर सकता।
हब्शा की ओर हिजरत
जब मक्का वालों ने ज्यादा तकलीफ देना शुरू किया तो रसूल ने अपने कुछ साथियों आर सहाबियों को हब्शा की ओर हिजरत (प्रवास) करने का आदेश दिया। चाचा अबू तालिब की मौत के बाद लोगों ने आप की दावत के रास्ते में बड़ी रुकावटें पैदा कर दीं। एक सहीह हदीस है की जब आप नमाज़ अदा कर रहे थे तो पास ही ऊंट की ओझड़ी पड़ी हुई थी। अरब के एक मशहूर बुतपरस्त अकबह बिन अबु मुइत ने उसे उठाया और जब रसूल अल्लाह (स.अ.व.) सजदे में गए तो आप की पीठ मुबारक पर डाल दिया। जब आपकी बेटी फातिमा आईं तो उन्होंने इसे हटाया।
मदीना में इस्लाम:
रसूलल्लाह (स.अ.व.) ने हज के दिनों में मदीना के 6 व्यक्तियों को दावत दी। वह मुसलमान हो गए जिनकी दावत से मदीना में काफी लोग मुसलमान हुए। जब मदीना में इस्लाम का बोलबाला हो गया तो नबी (स.अ.व.) ने अपने साथियों को मदीना की ओर हिजरत करने का आदेश दे दिया।(बुखारी और मुस्लिम) ख़ुदा के आदेश से आप (स.अ.व.) ने मदीना का रुख किया। आपके साथ आपके सबसे क़रीबी दोस्त अबू बकर थे। दोनों "सौर" नामी एक गुफा में 3 दिन तक छिपे रहे। मदीना पहुंचने पर रसूलल्लाह (स.अ.व.) का जबरदस्त स्वागत किया गया जहां आप (स.अ.व.) ने मस्जिद और घर बनाया।
सुलह हुदैबिया:
सुलह हुदैबिया 6 हिजरी में उस समय हुई, जब रसूलल्लाह (स.अ.व.) अपने प्रिय साथियों के साथ उमरा के लिए मक्का जा रहे थे। हुदैबिया नामी एक स्थान पर मक्का वालों ने आपके साथ 10 साल के लिए शांति का समझौता (सुलह) किया और मुसलमानो को इस वर्ष उमरा करने से रोक दिया।
और रौशनी फैलने लगी
हुदैबिया के समझौते ने हर क़बीले के लिए इस्लाम क़ुबूल करने का दरवाज़ा खोल दिया, एक तरफ तो प्यारे नबी सल्ललाहु अलैहि वसल्लम की क़ुरान की शक्ल में दलील भरी बातें, दूसरी तरफ आप की पाक व अमली ज़िंदगी, तीसरी तरफ जाहिली ताक़त का खौफ़ दूर होना, ये सब ऐसी चीज़ें थीं, जिसने उनके दिल सच्चाई और नेकी के पैग़ाम के लिए रास्ते पूरी तरह खोल दिए। उन्होंने ख़ुद अपने अंदर से सच्चाई के इस मधुर संदेश की प्यास महसूस की, इस प्यास से बेताब होकर मदीने की तरफ लपके, वहाँ के जाम भर भर कर पिए और फिर जाकर अपने इलाकों और क़बीलों में लोगों के दिलों में ईमान की उस मिठास को उतार दिया, जिसे वे ख़ुद अपने भीतर महसूस कर रहे थे। इस प्रकार उजाला फैलता गया और अन्धेरे दूर होते चले गए।
वर्षा शर्मा, जामिया मिलिया इस्लामिया (नई दिल्ली) से धर्मों के तुलनात्मक अध्यन (Comparative Religions) में M. A. कर रही हैं, उन्होंने यह लेख न्यू एज इस्लाम के लिए लिखा है।
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