नीलोफर अहमद (अंग्रेज़ी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)
नबी करीम सल्लल्लाहू अलैहे वसल्ल्म (स.अ.व.) ने फरमाया कि, निकाह मेरी सुन्नत है’ इसका मतलब निकाह करना या शादी करना सिर्फ एक कानूनी औपचारिकता ही नही है बल्कि ये पैगम्बर मोहम्मद स.अ.व. की सुन्नत पर अमल करना भी है। ये वास्तविकता शादी करने की अहमियत को कम नहीं करती है, लेकिन स्पष्ट करती है कि अगर कोई व्यक्ति शादी करने के काबिल नहीं है, तो उसने कोई गुनाह नहीं किया है।
अरबी भाषा के शब्द निक्हुन का अर्थ एक साथ लाने और जज़्ब (अवशोषित) करने के हैं। अगर एक पुरुष और एक महिला आपस में एक होना चाहते हैं तो कम से कम ये शर्त होगी कि दोनो फरीक (पक्ष) निकाह के लिए राज़ी हों, जो दो लोगो को बाकी की ज़िंदगी के लिए पार्टनर (भागीदार) बना देगा। इसलिए दोनों के लिए ज़रूरी है कि वो शादी की शर्तों, अधिकारों और ज़िम्मेदारियों से परिचित हों।
इस्लाम में शादी दो लोगों के बीच कानूनी समझौता है जिसमें दोनों पार्टियाँ समझौतों की सभी शर्तों के लिए राज़ी होते हैं, जिसे एक मज़बूत सम्बंध कहा गया है (4:21)। निकाह की शर्तें कुछ भी हो सकती है। लेकिन ये शर्तें इस्लामी सिद्धांतों के खिलाफ न जाती हों। ये कोई पवित्र संस्कार नहीं है जो दो लोगों को हमेशा के लिए बंधन में बांधता है। इसका मतलब ये है कि कुरान की सूरे तलाक़, सूरे अल-बक़रा और सूरे अल-निसा में दर्ज विशेष शर्तों की बुनियाद पर समझौते को खत्म किया जा सकता है।
निकाह के वक्त औरत व मर्द दोनों से पूछा जाता है कि क्या उन्हें निकाह कुबूल है, इसका मतलब है कि बिना इनकी सहमति के निकाह अमान्य है। कुरान मोमिनों को हिदायत देता है कि वो औरतों से ज़बरदस्ती शादी न करें।
‘मोमिनो! तुमको जायज़ नहीं कि ज़बरदस्ती औरतों के वारिस बन जाओ (4:19)। यहाँ इशारा इस्लाम से पहले बेवाओं के वरसे में पाने की रस्म से है लेकिन व्यापक दृष्टिकोण से ये जबरन शादी की ओर भी इशारा करती है, जो कई मुस्लिम समाजों में आम हो गयी है।
निकाह चोरी छिपे नहीं किया जाना चाहिए बल्कि मेहमानों के सामने बाकायदा ऐलान के ज़रिए किया जाना चाहिए।
इस तरह सभी मेहमान गवाह रहेंगें और जो नेक अमल हो रहा है उसमें शामिल रहेंगे। मौलाना ओमैर अहमद उस्मानी के मुताबिक निकाह के वक्त दो गवाहों का होना लाज़मी है। ये दो मर्द या दो औरतें होनी चाहिए, जो मुसलमान हों और बालिग़ भी हों और साथ ही मुसलमान की शादी में क्या होता है इससे वाकिफ भी हों।
रिवाज के मुताबिक एक कानूनी वली (अभिवावक) मौजूद होना चाहिए। हन्फी विचारधारा शादी के लिए महिलाओं को अपनी पसंद का वकील चुनने की इजाज़त देता है, जो शादी के समय उसकी ओर से काम करेगा। शादी के ख्वाहिशमंद मर्द और औरत को बराबर दर्जे का होना चाहिए। आधुनिक मानदंडों के अनुसार ये दर्जा सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक हैसियत और उम्र के मामले में समानता से है। औरत को शौहर की मौत या तलाक के कारण इद्दत की मना की गयी अवधि में नहीं होना चाहिए।
शादी के समय दूल्हें की ओर से दुल्हन को दिया जाने वाला महेर या धन भी निकाह की शर्तो में से एक शर्त है और इस पर दोनों पक्षों को राज़ी होना चाहिए। जहाँ तक हो सके दुल्हन को पहले ही दिन महेर अदा किया जाना चाहिए। कई बार महेर दुल्हन के भाई या पिता के कब्ज़े में होता है और वो कभी उसे देख भी नहीं पाती है। ये बिकने का असर छोड़ता है। और वास्तव में ऐसा हो भी सकता है। महेर पर औरत का हक होता है किसी दूसरे का इस पर कोई हक नहीं होता है और औरत अगर आगे चलकर तलाक की मांग करती है तो उसे महेर वापिस करना चाहिए। (2:229)
जब औरत इजाज़त दे दे तो जो निकाह पढ़ा रहा है उसे चाहिए कि वो पहले निकाह का खुत्बा पढ़े और उसे अस्तग़्फार भी पढ़ना चाहिए। महेर की जिस रकम पर सहमति हुइ है उसका भी ऐलान किया जाना चाहिए। इसके बाद दूल्हे को स्पष्ट रूप से कहना चाहिए कि उसने निकाह कुबूल किया, और इसके बाद ही दूल्हा और दुल्हन कानूनी तौर पर मियाँ बीवी हो जाते हैं और उन्हें एक साथ ज़िंदगी गुज़ारने का अधिकार मिल जाता है, और मामूली कारणों से इसमें देरी भी नहीं करनी चाहिए।
पाकिस्तान में निकाह की एक और शर्त का ज़िक्र निकाहनामा में है जो असल में बताती है कि एक औरत को तलाक लेने का अमल शुरु करने का हक होगा, इस शर्त पर कि अगर शौहर इस पर राज़ी हो। ज़्यादातर परिवारों का मानना है कि निकाह के वक्त तलाक की बात करना बुरा शगुन है। कुछ काज़ी लोग भी इस शर्त को शरीअत के खिलाफ बताते हैं। इसके बावजूद अब ये कानून है, जो आदमी के राज़ी होने का खयाल किये बिना ही लागू होता है।
इसके अलावा निकाह की कुछ अलिखित शर्तें हैं जो मानी जाती हैः दूल्हा और दुल्हन शादी के लायक उम्र के होने चाहिए। बीवी की आर्थिक मदद करना शौहर का फर्ज़ है और किसी भी पक्ष को अपने माता पिता से सम्बंध तोड़ने के लिए मजबूर करने का अधिकार किसी को नहीं होगा।
कुरान में फरमाया गया है, ‘ऐ नबी स.अ.व. हमने तुम्हारी बीविया जायज़ बना दीं जिनके लिए तुमने महेर अदा किया’ (33:5)। अगर नबी करीम स.अ.व. को उन औरतों के लिए महेर अदा करना पड़ा जिनसे आप स.अ.व. ने निकाह का फैसला किया। इससे स्पष्ट होता है कि बिना महेर के शादी जायज़ नहीं है।
दक्षिण एशिया में अक्सर शादी के पक्षों के बीच महेर की बड़ी रकम को लेकर सहमति बनती है लेकिन वो कभी अदा नहीं की जाती है। कई बार औरतों को बिस्तरे मर्ग (मृत्यु शैय्या) या जनाज़े पर महेर माफ करने के लिए कहा जाता है। जबरन शादी की वकालत करने, नाबालिग लड़कियों की शादी काफी उम्र के आदमी से करने या उनके हवाले करने, महेर अदा न करने या दुल्हन से महेर वापिस लेने के गलत काम में जो लोग भी लगे हैं वो गौर करें ,क्योंकि वो पैगम्बर मोहम्मद स.अ.व. की तालिमात के खिलाफ अमल कर रहे हैं।
स्रोतः दि डॉन
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