New Age Islam
Wed May 31 2023, 12:18 AM

Hindi Section ( 16 Sept 2011, NewAgeIslam.Com)

Comment | Comment

Composite Culture Tradition and Reality मिली जुली संस्कृतिः परम्परा और हक़ीक़त भाग-2

प्रोफेसर अली अहमद फातमी (उर्दू से हिंदी अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम डाट काम)

       काले कोसों नज़र आती हैं घटाएं काली

     हिंद क्या सारी ख़ुदाई में बुतों का है अमल

     डूबने जाते हैं गंगा में बनारस वाले

     नौजवानों का सनीचर है ये बुढ़वा मंगल

इन कसीदों और मसनवियों को देखें। इनमें जिस तरह हिंदू तहज़ीब, अवामी रंग और हिंदुस्तान की मिली जुली संस्कृति रच बस गयी है वो महसूस करने लायक है। ये उर्दू शायरी का ऐसा ख़ज़ाना है  इस पर जिस क़दर फख्र किया जाये कम है।

इसी तरह से हाली की नज़्में , आज़ाद व शिबली की नज़्में, चकबस्त की कौमी नज़्में, सरवर जहाँ आबादी, इक़बाल, जोश, फिराक़ की नज़्में-ग़ज़लें। इन सब ने  इस संस्कृति में ऐसी रौनक़ और जगमगाहटें बख्शी कि उर्दू शायरी और मिली जुली संस्कृति एक ही तस्वीर के दो रुख हो गये। इक़बाल जो इस्लामी विचारधारा के शायर कहे जाते हैं इमामे हिंद के शीर्षक से भगवान राम पर उनकी अद्भुत नज़्म मिलती है। जोश ने तुलसीदास पर बेहतरीन नज़्म कही। फिराक़ ने अपनी रुबाईयों में प्रेम रस और श्रृंगार रस के ऐसे ऐसे जलवे बिखेरे हैं कि हिंदुस्तान की मिली जुली संस्कृति ने आम संस्कृति का रूप ले लिया। बेहतरीन परम्परा के असर के तहत तरक्की पसंद (प्रगतिशील) शायरों ने इसे इस क़दर दिल से कुबूल किया कि हिंदुस्तानी तहज़ीब (संस्कृति) निखर कर चाँद और सूरज की तरह चमकने और जगमगाने लगी। अब ग़ज़ल के कुछ शेर पेश करता हूँ।

      जोधा जगत के क्यों न डरें तुझसे ऐ सनम

      तरकश में तिझ नैन के हैं अर्जुन के बाण आज

                                            वली दक्कनी

      मीर के दीनो मज़हब को क्या पूछते हो, उनने तो

      क़श्क़ा खींचा, दैर में बैठा, कब का तर्के इस्लाम किया

                                                 मीर

      आतिशे इश्क ने रावण को जला कर मारा

      गरचा लंका में था उस देव का घर पानी में

                                         मीर

            जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा

      कुरेदते हो क्यों राख, जुस्तजू क्या है?

                                            ग़ालिब

      हिंदू हैं बुतपरस्त, मुसलमाँ खुदा परस्त

      पूजूँ मैं उस किसी को जो हो आश्ना परस्त

                                        सौदा

क़श्क़ा हिंदू मज़हब की अलामत (चिह्न) और जिस्म के जलाये जाने की रस्म भी हिंदू और हिंदुस्तानी है लेकिन किस क़दर सलीक़े से उर्दू शायरी में जज़्ब हुई है, इसी तरह बुत और ब्रह्मण का ज़िक्र। दैरो हरम के चर्चे उर्दू ग़ज़ल में तो भरे पड़े हैं, लेकिन उनको कारीगरी और इमेज की शक्ल दे देना ग़ैरमामूली फ़नकारी और अक़ीदतमंदी का हुनर है। फिराक़ के ये चंद शेर देखिएः

      हर लिया है किसी ने सीता को

      ज़िंदगी जैसे राम का बनबास

 

      जैसे तारों की चमक बहती हुई गंगा में

      अहले ग़म यूँ याद आओ कि कुछ रात कटे

 

      दिलों को तेरे तबस्सुम की याद यूँ आई

      कि जगमगा उठें जिस तरह मन्दिरों में चिराग़

 

      शिव का विषपान तो सुना होगा

      मैं भी ऐ दोस्त पी गया आंसू

फिराक़ तो खैर हिंदू थे, लेकिन उन्होंने अपना एक मुकम्मल दबिस्तान कायम किया, जिस का असर बाद के शायरों में दिखायी देता है, लेकिन मोमिन तो सिर्फ नाम के मामिन न थे लेकिन इंसान दोस्ती के हवाले से कहते हैः

      कैसा मोहन, कैसा काफिर, कौन है सूफी, कैसा रिंद

      बशर हैं सारे बंदे हक़ के, सारे झगड़े बशर के हैं

कुछ और शेर देखियेः

      हरम व दैर की गलियों में पड़े फिरते हैं

      बज़्में रिंदाँ में जो शामिल नहीं होने पाते

                                       फानी

      बुतों को देख कर सबने खुदा को पहचाना

      खुदा के घर तो कोई बन्दए खुदा न गया

                                        यगाना

      पहुँची यहाँ भी शेख व ब्रह्मण की कशमकश

      अब मैक़दा भी सैर के क़ाबिल नही रहा

                                         इक़बाल सुहैल

      मध् की कटोरियों में वो अमृत घुला हुआ

      जिसका है कामदेव भी प्यासा, ग़ज़ब ग़ज़ब

                                         असर लखनवी

      उजड़ी हुई हर आस लगे

      ज़िंदगी राम का बनबास लगे

                              जाँनिसार अख्तर  

अब मैं दो शेर आज के समय की मशहूर शायरा परवीन शाकिर के भी पेश करता हूँ।

      अब तो हिज्र के दुख में सारी उमर जलना है

      पहले क्या पनाहें थीं मेहरबाँ चिताओं में

      न सर को फोड़ के तू रो सका तो क्या शिकवा है

      वफा शुआर कहाँ मैं भी हीर जैसी थी

नई ग़ज़ल में इस तरह की इस्तेलाहें (शब्दावली) भरी पड़ी हैं और उर्दू शायरी हिंदू और हिंदुस्तानी तहज़ीब में इस क़दर रच बस और घुल मिल गयी है जैसे दूध में शक्कर। फिक्शन के मैदान में ये मिलावट और घुलावट कुछ इस अंदाज़ की है कि अंदाज़ा ही नहीं होता कि कौन सी तहज़ीब कहाँ से शुरु हुई है। हिंदुस्तान के मशहूर कहानीकार भीष्म साहनी ने एक जगह लिखा हैः

पिछले छः सात सौ बरसों में अवामी सतह पर  हमारी एक मिली जुली तहज़ीब उभरी है। उसकी बुनियाद हमारे भक्तों और सूफियों ने डाली है। उन्होंने एक साझा सोच दी, एक तहज़ीब दी। जो लोग गाँव देहात में सदियों से रह रहे हैं उनकी साझी ज़बान बन जाती है। हमारी आज की जो ज़बाने हैं वो सब उसी का हिस्सा हैं। ये मुल्क, ये तहज़ीब सब उसी का हिस्सा हैं। हम हर वक्त मन्दिर मस्जिद में तो बैठे नहीं रह सकते। हम समाज में मिलते जुलते रहते हैं, सारे काम काज मिल जुल कर करते हैं। ऐसा सारी दुनिया में होता आया है। आज तो सारी हदें टूट रही हैं, और कुछ लोग कहते हैं कि टूट जाओ, बँट जाओ- ये बिल्कुल नहीं हो सकता।

हिंदुस्तानी संस्कृति की वो परम्परा जिसने तेरहवीं सदी में  अमीर खुसरो के साथ जन्म लिया। भीष्म जी की तरह तमाम देशभक्त और इंसान दोस्त साहित्यकारों के कलम और दिमाग़ में रही और आज भी है लेकिन कुछ नासमझ और नादान लोग इसे तोड़ना चाहते हैं। सदियों की इस परम्परा और इस महान विरासत को बिखेरना चाहते हैं। अफसोस कि कुछ साहित्यकार कमलेश्वर के मुताबिक उनकी ऊपरी जेब में क़लम और अंदर की जेब में त्रिशूल होता है।

जहाँ सम्प्रदायिकता फासीवाद का रूप ले चुकी हो और बाजारवाद की संस्कृति ने चकाचौंध मचा रखी हो, बुरे भले और गलत सही का भेद मिट गया हो, खयालात और विचारों की गुंजाइश बहुत कम हो गयी हो, तर्क वितर्क खत्म हो गये हो, जहाँ साझा खूबसूरती का शाहकार ताजमहल और अजंता एलोरा भी कारोबार का हिस्सा बन चुके हों, ऐसे में मिली जुली संस्कृति को याद करना और भी ज़रूरी हो जाता है। सदियों की गंगा-जमुनी तहज़ीब और हिंदू मुस्लिम की मिली जुली विरासत को दुहराया जाना और भी लाज़िमी हो जाता है। कुछ लोग इस बात से सहमत न होगें, लेकिन मेरा मानना है कि अगर कबीर व नज़ीर, नानक और बुल्ले शाह की परम्परा को फिराक़ और निराला, टैगोर और इक़बाल की मिली जुली धारा को फिर से बहा दिया जाये, एकता और अनेकता के गीत गाये जायें, तो ये हिंदुस्तान भी बदलेगा और हिंदुस्तान में रहने वाला हर इंसान भी बदलेगा। हिंदी भी बदल जायेगी और उर्दू भी बदल जायेगी, हिंदू मुसलमान भी बदल जायेगा। इस साझा संस्कृति के ज़रिए किसी भी मुश्किल से लड़ सकते हैं। मन्दिर और मस्जिद के सवाल से भी, हिंदू मुस्लिम दंगों से भी, क्षेत्रियता और संप्रदायिकता से भी और इतिहास की घिसी पिटी कट्टरता से भी, कि हमें हाल में ज़िंदा तो रहना है, लेकिन इतिहास की परम्परा और संस्कृति की अनमोल विरासत से महरूम रह कर हम महज़ बाज़ार को शो-पीस होकर रह जायेंगें, जिसे कोई भी खरीद सकता है और कोई भी बेच सकता हैं।

प्रोफेसर अली अहमद फातमी, इलाहाबाद विश्विद्यालय में उर्दू विभाग के अध्यक्ष हैं।

URL for Urdu article:

http://www.newageislam.com/urdu-section/مشترکہ-تہذیب-روایت-اور-حقیقت-حصہ-۔دوئم/d/2884

URL: https://newageislam.com/hindi-section/composite-culture-tradition-reality-part-2/d/5491


Loading..

Loading..