नास्तिक दुर्रानी, न्यु एज इस्लाम
14 अप्रैल, 2013
मुस्लिम ब्रदरहुड के मरहूम फ़क़ीह शेख मोहम्मद अलगज़ाली कहते हैं: ‘इस्लाम की त्रासदी उसकी हुकुमतों की बहुतायत से इतना नहीं आई जिस क़दर सत्तारूढ़ वर्ग की हिमाक़तों, उनकी अयोग्यता और खिलाफ़त के मंसब का ऐसे हाथों में पड़ जाने के कारण से आया जो एक छोटा सा गांव या संस्था तक चलाने के योग्य नहीं थे’ (माएतः सवाल अनिल-इस्लाम, पेज 282)
अगर स्थिति सचमुच ऐसी ही है तो बीसवीं और इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में धर्म को राजनीति से जोड़ने के धार्मिक समूहों की आवाज़ के इतना बुलंद होने की क्या वजह है? वो क्या कारण हैं जिनके चलते ये आवाज़ें बीसवीं सदी की दूसरी छमाही में इतना बुलंद हो गईं कि जिसकी मिसाल अलवियों की उमवियों के साथ संघर्ष के बाद पूरे इस्लामी इतिहास में कहीं नहीं मिलती?
प्रतिगामी अर्थव्यवस्था:
इसके कई कारण हैं जिनमें इस्लामी समूहों के उद्भव का अरब दुनिया की खराब आर्थिक स्थिति के साथ सुसंगत होना है, हम देखते हैं कि अरब दुनिया में पहली इस्लामी जमात 1928 में सामने आई जो कि मुस्लिम ब्रदरहुड है। ये साल अरब दुनिया में आर्थिक बदहाली का साल था, अगले ही साल यानी 1929 ई. को सारी दुनिया को सबसे बुरे आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा, ऐसी खराब आर्थिक स्थिति में नई पैदा हुई इस्लामी जमात ने आकर अरब और इस्लामी दुनिया को “इस्लाम ही हल है” का पैग़ाम दिया और उन्हें खुश करने वाला सपना दिखाया कि इस्लाम ही भूखों को खाना और डरे हुए लोगों को शांति प्रदान कर सकता है।
इस्लामी पार्टियों का उत्पीड़न:
राजनीतिक इस्लाम के उद्भव का एक कारण अरब दुनिया में विशेष रूप से और इस्लामी दुनिया में आम तौर पर लोकतंत्रवादियों की तरफ से बीसवी सदी के दूसरे छमाही में इस्लामी जमातों पर किए जाने वाले अत्याचार हैं जिसकी वजह से जनमत में उनके लिए नरम रुख पैदा हो गया। जैसे 1955 में मुस्लिम ब्रदरहुड के नेतृत्व के सभी लोगों को फांसी दे दी गई। 1966 में सैय्यद कुतुब को फांसी के घाट उतार दिया गया। सालेह सुरैय्या को 1974, शुक्री मुस्तफा को 1977 जबकि इसी साल “अलजेहाद” नामक संगठन के मोहम्मद अब्दुल सलाम को फांसी दे दी गई और 1982 में सीरिया के शहर हलब और हमातः में मुस्लिम ब्रदरहुड के हज़ारों कार्यकर्ताओं को क़त्ल कर दिया गया।
1967 की हार
राजनीतिक इस्लाम के ताक़तवर रूप में सामने आने का एक प्रमुख कारण 1967 की हार है। इस हार ने कई बुरे राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक प्रभाव डाले और जमाल अब्दुल नासिर के सहयोगी परियोजना को खत्म कर दिया। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि बीसवीं सदी की दूसरी छमाही में इस्लामी आंदोलनों के परवान चढ़ने का मुख्य कारण सामाजिक है, क्योंकि ज्यादातर इस्लामी जमातों का सम्बंध गरीब वर्ग से है जो झोपड़ी पट्टियों में रहते हैं। ये वो लोग हैं जिन्होंने अपनी पढ़ाई कुछ ऐसे अच्छे नम्बरों से पास नहीं की, इसलिए उन्हें धार्मिक राजनीतिक काम के अलावा कोई काम नहीं मिला जो किसी हद तक उन्हें उनके खोए हुए सामाजिक मूल्य वापस दिलवा सकता था। आज भी वर्ग संघर्ष ने धार्मिक लबादा ओढ़ा हुआ है। दूसरी ओर धर्म को बतौर प्रोत्साहन देने के हथियार के इस्तेमाल को मध्यम वर्ग के हितों से अलग नहीं किया जा सकता जिनमें आंदोलन परवान चढ़ते हैं। ये महज़ संयोग नहीं है कि धार्मिक समूह अपनी ज़्यादातर ताक़त छोटे और मध्यम व्यापारियों से हासिल करते हैं। इनमें गरीब वर्ग के कुशल, बेरोज़गारी का सामना करने वाले छात्र आदि शामिल हैं, जिन्हें राजनीतिक और आर्थिक हितों की भेंट चढ़ा दिया जाता है। (देखें: जज़ूर अलअन्फ लदी अलजमात अलइस्लामिया पेज 111, और अलदीन वलसिल्ततः फिल मजतमा अलअरबी अलमोआसिर, पेज 84)। बीसवीं सदी की दूसरी छमाही में इस्लामी जमातों के उभरने की एक वजह ये भी है कि इस वक्त तक छात्रों, किसानों और मज़दूरों की सोच किसी अन्य सोच से विचलन का शिकार नहीं हुई थी और ना ही वो किसी दार्शनिक विचारधारा का शिकार हुए थे, वो अपने स्वाभाव पर थे। धर्म, उसके मूल्यों और पवित्रता पर गर्व करते और इसकी क़दर करते थे, इसके अलावा इस समूह के हित धार्मिक शिक्षाओं से टकराव का शिकार नहीं हुए थे, धर्म उनके लिए राजनीतिक और सामाजिक अत्याचार से छुटकारे का वादा था, ये समूह अभी तक पश्चिमी परंपराओं के प्रभाव से दूर था और उनके जीवन में पश्चिमी सभ्यता की आधुनिकता नहीं आई थी।
आर्थिक विद्रोह:
अरब दुनिया की खराब आर्थिक हालात और गरीबी के कारण उठने वाले विद्रोह ने राजनीतिक इस्लाम को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस सिलिसले का पहला विद्रह 1977 में मिस्र में हुआ, फिर 1982 को सूडान में फिर 1984 को ट्यूनीशिया और मोरक्को में, और 1989 को जॉर्डन में हुआ। 1993 के आंकड़ों के अनुसार गरीबी की रेखा के नीचे जीवन बिताने वाले अरब परिवार 34 फ़ीसद थे। कुछ अरब देशों में ये दर 60 प्रतिशत तक चली जाती है। कह सकते हैं कि अरब दुनिया की ज़्यादातर आबादी- तेल पैदा करने वाले देशों के अलावा - एक या दो डॉलर से अधिक नहीं कमाते, इन सारे विद्रोहों और समस्याओं का जवाब इस्लाम और इस्लामी अर्थशास्त्र के रूप में दिया गया। जिसके नतीजे में कुछ इस्लामी जमातों ने खासकर मिस्र में इस्लामी बैंकिंग और विभिन्न अरब देशों में इसका समर्थन शुरू कर दिया। ये सहयोगी अर्थशास्त्र का इस्लामी विकल्प था जिसने अरब परिवारों को बर्बाद कर दिया था। जैसा कि इस्लामी जमातों के साहित्य ने उस वक्त दावा किया, बड़े बड़े धार्मिक नेताओं की सहायता से इन इस्लामी बैंकों और वित्तीय संस्थानों ने इस्लाम के नाम पर खूब कारोबार किया। ये बात इन बैंकों के नामों से स्पष्ट थी जिनके नाम धर्म से प्रभावित होकर रखे गए थे जैसे अलबदर, अलहुदा, अलहलाल, अलनूर, अलरज़ा आदि। इस्लामी टच देने के लिए इन बैंकों ने अपने ददफतरदफतरदफतरदफ्तरों कार्यालयों को हरे रंग से सजा दिया और दावा किया कि उनका व्यापार सिर्फ इस्लामी सिद्धांतों और विशुद्ध इस्लामी शिक्षाओं की नींव पर आधारित है। लेकिन गरीब और सीमित आय वाले लोगों का पैसा लूटकर ये सारे बैंक और वित्तीय संस्थान दिवालिया हो गए। उनके कुछ मालिकों को जेलों में डाल दिया गया, और कुछ गरीबों से लूटी हुई करोड़ों की दौलत लेकर फरार हो गए, जैसे “शिरकतुल हलाल” का मालिक जो सौ मिलियन मिस्री जनिया लेकर अमेरिका फरार हो गया, इसी तरह “शिरकतुल सुफ़ा” और अलेक्ज़ेन्ड्रिया के चार दूसरे इस्लामी बैंकों के मालिक भी फरार होने में कामयाब हो गए। मिस्री शोधकर्ता मोहम्मद दीदार के अनुसार ये लोग सरकारी स्तर पर भ्रष्टाचार के कारण फरार होने में कामयाब हो गए (देखें: शिरकात तौज़ीफ़ुल अमवाल, पेज 141)।
सार्वजनिक प्रवास:
राजनीतिक इस्लाम की लोकप्रियता का एक कारण अब्दुल नासिर, सादात और हाफ़िज़ असद के दौर में लोकतंत्रवादियों के देश छोड़ने का रुझान है। सत्तर के दशक में देश छोड़ने का अमल ज़ोरों पर था और लोग बड़ी तादाद में पश्चिम जाकर बस रहे थे। अब्दुल नासिर अंदर ही अंदर पश्चिम से काफी प्रभावित थे लेकिन अपने राजनीतिक लड़ाईयों के कारण वो इसको व्यक्त न कर सके। इन लड़ाईयों में सबसे प्रमुख फ़िलिस्तीन था। ये कल्पना करना कि अगर इसराइल फिलिस्तीन की ज़मीन पर न बनता और “फ़िलिस्तीन” नामक कोई समस्या न होती तो अरब दुनिया की इस समय क्या हालत होती? इस बात की बेहतर समझ के लिए Counterfactual thinking सोच को समझने की ज़रूरत है। इसके अलावा इसके कई आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक पहलू भी हैं। विभिन्न कारकों के कारण जब धार्मिक चेतना मज़बूती पकड़ रही थी, इस चेतना का टकराव देश छोड़ने की प्रवृत्ति से हो गया जो धार्मिक चेतना के लिए तकलीफदेह था। इसका नतीजा ये निकला कि पश्चिम के बारे में अरब उदारवादी राजनीतिक दृष्टिकोण एक साथ पसंद और नफरत पर आधारित हो गया, पसंद सांस्कृतिक विकास से और नफरत औपनिवेशिकता से।
खाड़ी का तेल:
बीसवीं सदी की दूसरी छमाही में खाड़ी देशों में तेल का निकलना और 1974 के बाद के आर्थिक प्रभाव के सामने आने से जिससे जनता में ये धारणा पैदा हुई कि कुछ खाड़ी देशों में इस्लामी कानून के लागू होने की वजह से आसमान से दौलत बरसनी शुरु हो गई, ये भी राजनीतिक इस्लाम के फैलने की एक वजह है। इस वक्त ये धारणा आम थी कि इस्लामी सज़ाओं की प्रणाली के लागू होने की वजह से ही इन खाड़ी देशों को ये दौलत नसीब हुई और ज़मीन उपजाऊ हो गई। तेल के कारण खाड़ी देशों पर दौलत की जैसे बारिश हो गई जिसकी वजह से 1974 के बाद इस्लामी संगठनों ने इन देशों को “दारुल इस्लाम” समझ कर उनकी तरफ रुख करना शुरू कर दिया, जहां माल है और इस्लाम भी। कुछ खाड़ी देशों को इस्लाम का सही नमूना समझा, जो दौलत लेकर आया।
ख़ुमैनी इंक़लाब:
1979 को ईरान में खुमैनी की कामयाब क्रांति ने राजनीतिक इस्लाम के उद्भव पर सकारात्मक प्रभाव डाले। इस्लामी संगठनों को लगा कि ईरान की इस्लामी क्रांति को दूसरे इस्लामी व अरब देशों में दोहराया जा सकता है। कुछ ही साल बाद यानी 1982 में इसराइल ने लेबनान पर चढ़ाई कर दी और “हिज़्बुल्ला” को दक्षिण लेबनान की सीमा पर इसराइली सैनिकों से दो दो हाथ करने का मौका मिल गया जिसकी वजह से साल 2000 में इसराइल को लेबनान से निकलना पड़ा। फिलिस्तीन के अधिकृत क्षेत्रों में इस्लामी संगठनों खासकर “हमास” के नेतृत्व में “इन्तेफ़ादा” का आंदोलन शुरू हुआ। सभी के “मन” का मकसद ईरान के अनुभव को दोहराना था।
ताक़तवर फौज की तैय्यारी में नाकामी:
अरब देशों की सामूहिक या व्यक्तिगत स्तर पर ऐसी शक्तिशाली सेना तैयार न कर पाना जो इसराइल को हरा सके हालांकि अरबों का संख्या में भी अधिक होना और उनका सामूहिक रक्षा बजट इसराइल के रक्षा बजट से कहीं अधिक होना भी एक महत्वपूर्ण कारक है जिसने राजनीतिक इस्लाम के उद्भव में मदद की। आधी सदी से अधिक समय से फिलिस्तीन समस्या का तथावत बने रहना और अरबों का ऐसी फौज तैयार न कर सकना जो लड़ाई को आखरी अंजाम तक पहुंचा सके, भी राजनीतिक इस्लाम को मज़बूती देने वाला अहम कारण है। साल 2000 के आते ही इसराइली सेना मध्य पूर्व की सबसे शक्तिशाली सेना बन गई जिसके सामने अरब देश बेबस नज़र आते और सिवाय कांफ्रेंस करने और फ़िलिस्तीन में जारी इसराइली अत्याचारों पर विरोध प्रदर्शन करने, बयान देने के सिवा कुछ नहीं कर पाते। इसकी वजह से अधिकृत क्षेत्रों में इस्लामी संगठनों को बल मिला, और हमास और दक्षिण लेबनान में हिज़्बुल्ला को अरब इज़रायल संघर्ष में महत्वपूर्ण राजनीतिक भूमिका मिल गयी।
कमज़ोर राजनीतिक व्यवस्था:
इसमें शक नहीं कि विभिन्न अरब देश जैसे जॉर्डन और अल्जीरिया में इस्लामी दलों का विधान सभा, नगरपालिका, मज़दूर और ट्रेड यूनियनों के चुनाव में अप्रत्याशित सफलता ने राजनीतिक इस्लाम के शेयर में इज़ाफ़ा किया। ये उपलब्धियां कमज़ोर धर्मनिरपेक्ष ताक़तों के मुक़ाबले में हासिल की गयीं। ये ताकत़े अपने अस्तित्व के लिए आवश्यक सामाजिक और वैचारिक शक्ति एकत्रित करने में नाकाम रहीं। स्वच्छ राष्ट्रीय राजनीतिक शक्तियों को कुचला गया और उन्हें जेलों में डाल दिया गया या राजनीतिक मैदान से बाहर निकाल दिया गया या फिर निर्वासित कर दिया गया, बल्कि कुछ अरब देशों ने तो (जैसे सादात के दौर में) इस्लामी दलों का समर्थन किया और उनके साथ गठजोड़ किया ताकि वाम शक्तियों को कुचला जा सके। नतीजे के रूप में कुछ अरब और खाड़ी देशों में इस्लामी दल शिक्षा और मीडिया पर कब्जा जमा ले गये। इसलिए शैक्षिक पाठ्यक्रम और मीडिया को इस्लामी प्रोग्रामों से भर दिया गया और उन्हें बाहर से आयातित दार्शनिक विचारों से मुक्त कर दिया गया। धार्मिक कार्यक्रमों और पुस्तकों पर से प्रतिबंध हटा लिये गये। विशेष रूप से सैय्यद कुतुब और मौदूदी की किताबें, मस्जिदों के खतीबों को खुली ढूट दे दी गयी कि वो क्या कह रहे हैं। इस राजनीति ने इस्लामी जमातों को दूसरी राजनीतिक ताक़तों के अभाव में राजनीतिक स्थान को भरने का भरपूर मौका दिया।
अस्पष्ट विकल्प:
राजनीतिक इस्लाम के नारे बड़े दिल को लुभाने वाले और सुंदर थे, वो “जाहिलियत” की हुकूमत ख़त्म करके ज़मीन पर अल्लाह की हुकूमत खड़ी करने की दावत दे रहे थे लेकिन बिना किसी स्पष्ट और स्वीकार्य राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक कार्यक्रम के जिसे वो स्थापित व्यवस्था से बदल सकते। ये नारे- जैसे फर्ज फ़ोदा अपनी किताब “अलफरीज़तल ग़ायबः“ में कहते हैं - ये सिर्फ दावत (आमंत्रण) पर ही नहीं रुक रहे थे कि एक वास्तविक सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था कायम करना, एक पवित्र कर्तव्य है जिसके लिए हर मुसलमान मर्द व औरत को संघर्ष करना चाहिए। लेकिन इन इस्लामी जमातों के नेतृत्व में से कोई भी हमें ये बताने में असमर्थ था कि ऐसी व्यवस्था कैसे स्थापित की जा सकती है, क्योंकि इनमें से कोई भी ये नहीं जानता था कि ये कैसे होगा। (देखें: अलतहवेलातल जतमाइया वलएयदेवलूजियल इस्लामिया, पेज 160)
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