बदरुद्दूजा रज़वी मिस्बाही, न्यू एज इस्लाम
उर्दू से अनुवाद न्यू एज इस्लाम
भाग-15
(1) يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ حَرِّضِ الْمُؤْمِنِينَ عَلَى الْقِتَالِ إِن يَكُن مِّنكُمْ عِشْرُونَ صَابِرُونَ يَغْلِبُواْ مِئَتَيْنِ وَإِن يَكُن مِّنكُم مِّئَةٌ يَغْلِبُواْ أَلْفًا مِّنَ الَّذِينَ كَفَرُواْ بِأَنَّهُمْ قَوْمٌ لاَّ يَفْقَهُونَ(أنفال،65
ऐ गैब की खबरें बताने वाले मुसलमानों को जिहाद की तरगीब दो अगर तुम में के बीस सब्र वाले होंगे दो सौ पर ग़ालिब होंगे और अगर तुम में के सौ हों तो काफिरों के हज़ार पर ग़ालिब आएँगे इसलिए कि वह समझ नहीं रखते। (कंज़ुल ईमान)
(2) اَیُّهَا النَّبِیُّ جَاهِدِ الْكُفَّارَ وَ الْمُنٰفِقِیْنَ وَ اغْلُظْ عَلَیْهِمْؕ-وَ مَاْوٰىهُمْ جَهَنَّمُؕ-وَ بِئْسَ الْمَصِیْرُ(تحریم،۹
ऐ गैब बताने वाले (नबी) काफिरों पर और मुनाफिकों पर जिहाद करो उन पर सख्ती फरमाओ और उनका ठिकाना जहन्नम है और क्या ही बुरा अंजाम (कंज़ुल ईमान)
सुरह अनफ़ाल और तहरीम का नुज़ूल मदीना शरीफ में ऐसे हालात में हुआ जब कि कुफ्फार व मुशरिकीन ए मक्का की रेशा दवानियाँ किसी पहलु रुकने का नाम नहीं ले रही थीं। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अहले मक्का के इंसानियत सोज़ मज़ालिम से तंग आकर सहाबा के साथ मदीना हिजरत कर गए थे ताकि सुकून व इत्मीनान के साथ दावते हक़ का काम अंजाम दे सकें। लेकिन कुफ्फार व कुरैश ए मक्का की साज़िश से यहाँ भी आप महफूज़ नहीं रहे। कुरैश ने सबसे पहले अब्दुल्लाह बिन उबई और उसके उन लोगों को साज़ बाज़ करके अपना हमनवा बना लिया जो उस वक्त ईमान नहीं लाए थे। कुरैश ने उन्हें लिखा कि तुम ने हमारे जिस आदमी को अपने यहाँ पनाह दिया है उसे वहाँ से निकाल दो वरना हम तुम्हें तबाह व बर्बाद कर देंगे और तुम्हारा निशान तक मिटा देंगे। लेकिन अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के फहम व तदब्बुर और पैगम्बराना बसीरत से वह इसमें नाकाम हो गए। लेकिन कुरैश अपनी हरकत से बाज़ नहीं आए जब इब्ने उबई से काम नहीं चला तो उन्होंने मदीना के यहूदियों से पेंगें बढ़ाना शुरू कर दिया और उन्हें अपने साथ मिला लिया और उनके माध्यम से मुसलमानों को कहला भेजा कि मक्का से साफ़ बच निकल कर किसी खुश फहमी में मुब्तिला न हो जाना हम मदीना की जमीन भी तुम पर तंग कर देंगे और किसी हाल में तुम्हें नहीं छोड़ेंगे।
उनकी नापाक हरकतों से शुरू के दिनों में मदीना की सरज़मीन भी मुसलमानों के लिए शांतिपूर्ण नहीं रह गई हुज़ूर अलैहिस्स्लातु वस्सलाम सारी रात जाग जाग कर गुज़ार देते थे बुखारी शरीफ की एक रिवायत में है कि आपने फरमाया: आज कोई अच्छा आदमी पहरा देता! हज़रत साद बिन अबी वकास उठ खड़े हुए और सारी रात पहरा दिया तब जा कर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने आराम फरमाया। ऐसे मुश्किल हालात में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के लिए तीन रास्ते थे (1) हक़ और दावते इलल हक़ से दस्तबरदार हो जाएं (2) हक़ पर कायम रह कर ज़ुल्म तशद्दुद बर्दाश्त करें और सहाबा का क़त्ल होने दें (3) ज़ुल्म व तशद्दुद का जुरअत व हिम्मत के साथ मुकाबला करें और कुरैशे मक्का से पुरी कुव्वत के साथ अपना बचाव करें और नतीजा खुदा पर छोड़ दें। गौर करने के बाद आप ने तीसरी राह का चुनाव फरमाया नतीजा यह हुआ कि हक़ ग़ालिब आ गया और ज़ालिमों का हमेशा के लिए खात्मा हो गया।
आप रिसालत के जमाने की इस्लामी जंगों का अध्ययन करें चाहे वह गजवात की सूरत में हों या सराया की सूरत में तो आप पर यह हकीकत स्पष्ट हो जाएगी कि बद्र से ले कर तबूक तक सारी जंगें इस्लाम के पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने बचाव में लड़ी हैं इसलिए इस्लाम कभी भी नाहक किसी पर ज़ुल्म करने की इजाज़त नहीं देता है बल्कि अपने बचाव का हक़ हर किसी को हासिल है।
इसके कुछ सुबूत कुरआन पाक से देखें!
(1) وَقَاتِلُوا فِي سَبِيلِ اللَّهِ الَّذِينَ يُقَاتِلُونَكُمْ وَلَا تَعْتَدُوا ۚ (البقرہ،190
और अल्लाह की राह में लड़ो उनसे जो तुमसे लड़ते हैं और हद से न बढ़ो! (कंज़ुल ईमान)
(2) ٱدْعُ إِلَىٰ سَبِيلِ رَبِّكَ بِٱلْحِكْمَةِ وَٱلْمَوْعِظَةِ ٱلْحَسَنَةِ ۖ وَجَٰدِلْهُم بِٱلَّتِى هِىَ أَحْسَنُ ۚ
अपने रब की राह की तरफ बुलाओ पक्की तदबीर और अच्छी नसीहत से और उनसे उस तरीके पर बहस करो जो सबसे बेहतर हो (आयतों और दलीलों से दावत दें जंग व जिदाल से नहीं (कंज़ुल ईमान)
(3) فَإِن قَاتَلُوكُمْ فَاقْتُلُوهُمْ (البقرة،191
और अगर तुमसे लड़ें तो उन्हें क़त्ल करो! (कंज़ुल ईमान)
(4) وَإِنْ عَاقَبْتُمْ فَعَاقِبُوا بِمِثْلِ مَا عُوقِبْتُمْ بِهِ ۖ وَلَئِنْ صَبَرْتُمْ لَهُوَ خَيْرٌ لِلصَّابِرِينَ (النحل،126
और अगर तुम सज़ा दो तो वैसी ही सज़ा दो जैसी तकलीफ तुम्हें पहुंचाई थी और अगर तुम सब्र करो तो बेशक सब्र वालों को सब्र सबसे अच्छा है (कंज़ुल ईमान)
(5) وَإِن جَنَحُوا لِلسَّلْمِ فَاجْنَحْ لَهَا وَتَوَكَّلْ عَلَى اللَّهِ ۚ إِنَّهُ هُوَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ (انفال،61
और अगर वह सुलह की तरफ झुकें तो तुम भी झुको और अल्लाह पर भरोसा रखो बेशक वही है सुनता जानता। (कंज़ुल ईमान)
(6) وَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَنَآنُ قَوْمٍ عَلَىٰ أَلَّا تَعْدِلُوا ۚ اعْدِلُوا (المائدہ، 5
और तुमको किसी कौम की अदावत इस पर न उभारे कि इंसाफ न करो, इंसाफ करो! (कंज़ुल ईमान)
इन तमाम आयतों में मुसलमानों को हुक्म दिया गया है कि वह किसी भी कौम से जंग में पहल न करें बल्की अगर कोई तुमसे जंग पर कमरबस्ता हो तो तुम अपने बचाव में उससे जंग कर सकते हो लेकिन उस सूरत में भी इसकी ताकीद की गई है कि क़त्ल व किताल, हर्ब व ज़र्ब में किसी भी किस्म की ज़्यादती मुसलमानों की तरफ से न हो और हर हाल में अदल व इंसाफ के तकाजे पुरे किये जाएं यहाँ तक कि हुज़ूर अलैहिस्स्लातु वस्सलाम ने जंग में औरतों, बच्चों, बूढों और राहिबों के क़त्ल से सख्ती के साथ मना फरमाया है।
हज़रत इब्ने उमर रज़ीअल्लाहु अन्हुमा से मरवी है कि किसी जिहाद में एक औरत मकतूल पाई गई तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने औरतों और बच्चों के क़त्ल को बुरा गर्दाना (सहीह मुस्लिम, किताबुल जिहाद, बाब तहरीम कत्लुन्निसा वल सिब्यान) इसी तरह हज़रत इब्ने उमर रज़ीअल्लाहु अन्हु से यह हदीस भी मरवी है कि किसी जिहाद में एक औरत मकतूल पाई गई तो हुज़ूर अलैहिस्स्लातु वस्सलाम ने औरतों और बच्चों के क़त्ल से मना फरमाया। (एज़न) इसी तरह हजरत अनस रज़ीअल्लाहु अन्हु से मरवी यह हदीस है अल्लाह के रसूल फरमाते हैं: और बहुत बूढ़े को क़त्ल न करो और न बच्चे को और न औरत को (अबू दाउद जिल्द 1 पेज 351)
यहाँ तक कि हदीसों में दुश्मन से मुकाबले की तमन्ना से मना किया गया है। हज़रत अबू हुरैरा रज़ीअल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया: तुम दुश्मन से मुकाबला करने की तमन्ना न करो और जब उनसे मुकाबला हो तो साबित कदम रहो (सहीह मुस्लिम किताबुल जिहाद, باب کراھة تمنی لقاء العدو و الأمر بالصبر عند اللقاء)
इस किस्म की बहुत सी आयतें और हदीसें हैं जिनमें बेवजह क़त्ल व किताल, हर्ब व ज़र्ब और बेजा ज़ुल्म व तशद्दुद से मुसलमानों को मना किया गया है लेकिन इस्लाम दुश्मन अनासिर को यह सब आयतें और हदीसें दिखाई नहीं पड़ती हैं उन्हें केवल वही आयतें नज़र आती हैं जिनमें बजाहिर उनके लिए बारूद मौजूद है और सहीह मफहूम व माना को समझे बिना उन आयतों को सामने ला कर वह देश की फिज़ा को मस्मूम करना चाहते हैं और देश के भाइयों को मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ भड़काना चाहते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने वसीम रिज़वी की रिट खारिज कर के और उसकी सरज़िंश कर के बता दिया है कि किसी को भी देश की गंगा जमुनी तहज़ीब पर शबखून मारने की इजाज़त नहीं दी जाएगी जिसके लिए वह मुबारक बाद के काबिल है।
सुरह अनफ़ाल की आयत 65 और उससे पहले और उसके बाद की दूसरी आयतें और सुरह तहरीम की आयत 9 को भी उपर्युक्त संदर्भ में देखना और समझना चाहिए।
सन 2 हिजरी से इस्लाम पर एक नए दौर का आगाज़ हुआ मुसलमानों ने ज़ालिमों की रेशादवानियों से तंग आकर अपने सुरक्षा के लिए बहुत कम संख्या में होते हुए भी तलवार उठा लिया जिसके नतीजे में गजवा ए बद्र वकूअ पज़ीर हुआ लेकिन इस जंग में दोनों पक्षों के बीच ताकत का कोइ संतुलन नहीं था कुरैशे मक्का के साथ एक बड़ा लश्कर था जिसमें एक हज़ार पैदल सिपाह और सौ सवार थे और एक तरफ केवल तीन सौ तेरह की संख्या थी जिनमें साथ मुहाजेरीन बाकी अंसार थे (तारीखे इस्लाम) कुरैश साज़ो सामान और आलाते हर्ब व ज़र्ब से पुरी तरह लैस थे लेकिन मुसलमानों को अल्लाह की मदद पर भरोसा था ज़ाहिर सी बात है जब मुसलामानों को कुरैश के लश्कर की नकल व हरकत और उनकी भारी नफरी की खबर मिली तो उन्हें उनके मुकाबले में अपनी कम संख्या का एहसास हुआ होगा कहाँ तीन सौर तेरह! और कहा सामाने हर्ब व ज़र्ब से लैस एक हज़ार से बड़ा लश्कर? उसी मौके पर अल्लाह पाक ने अपने नबी को हुक्म फरमाया कि आप मुसलमानों को इस्तिकामत की तलकीन करें और उन्हें पुरी ताकत से दुश्मन से मुकाबला पर ब्रांगेखता करें और उन्हें बताएं कि वह दुश्मन की अधिक संख्या को देख कर न घबराएं बल्की पुरी जूरअत व हिम्मत और इमानी जज़्बे के साथ उनका मुकाबला करें और उनको यह बता दें कि अगर वह बीस की संख्या में होंगे तो वह सौ पर ग़ालिब होंगे और अगर वह सौ की संख्या में हों तो एक हजार दुश्नों पर ग़ालिब होंगे अर्थात एक मुसलमान दस काफिरों पर भारी होगा लेकिन शर्त यह है कि वह सब्र, हिम्मत और इस्तिकामत के साथ दुश्मन का मुकाबला करें!
अपने फौजियों में स्प्रीट पैदा करना, हौसला बढ़ाना, सब्र व तहम्मुल और इस्तिकामत के साथ दुश्मन के मुकाबले की तरगीब देना, कम और अधिक को किनारे रख कर दुश्मन से लड़ने का जज़्बा पैदा करना आज भी फ़ौजी जेनरलों का वतीरा है। क्या दुनिया की हुकूमतें यह गवारा करेंगी कि फ़ौजी अफसर सिपाहियों में बुज़दिली पैदा करे, दुश्मन से मुकाबले के वक्त हथियार डाल देने की तरगीब दे, बिना किसी मज़ाहेमत के खुदसुपुर्दगी कर दे? हरगिज़ नहीं बस इसी संदर्भ में सुरह अनफ़ाल की आयत 65 को भी समझना चाहिए।
बकरी चाराने वालों, ऊँटों की गल्लाबानी करने वालों को फरमां रवाई का हुनर हुज़ूर अलैहिस्स्लातु वस्सलाम की इसी तालीम ने दिया था जिसकी बदौलत वह बगुलों की तरह उठे और देखते ही देखते पुरी दुनिया पर छा गए।
सुरह तहरीम की आयत 9 का भी नुज़ूल मदीना में हिजरत के शुरू के दिनों में हुआ जब कि मुसलमानों को बाहरी और भीतरी दुश्मनों से बराबर का खतरा बना हुआ था एक तरफ मुसलमानों के खुले दुश्मन आए दिन अपनी नापाक हरकतों और तरह तरह की साजिशों से मुसलमानों का जीना हराम किये हुए थे और दूसरी तरफ उनके छिपे दुश्मन अब्दुल्लाह बिन उबई और उसके अनुयायी जो बज़ाहिर मुसलमानों के साथ थे और बातिन में वह कुरैशे मक्का के हमनवा और उनसे मिले हुए थे। मुसलमानों की राह में मुश्किलात पैदा करने का कोई भी मौक़ा हाथ से जाने नहीं देते थे। मुनाफिकों की साज़िशों का अंदाजा आप इस तरह कर सकते हैं कि जब उहद का मार्का पेश आया और हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने नौजवान सहाबा की बड़ी संख्या के मशवरे पर शहर से बाहर निकल कर दुश्मनों से मुकाबला करने का फैसला किया और जब आप इस्लामी लश्कर को ले कर मुकामे शर्त पर पहुंचे तो अब्दुल्लाह इब्ने उबई अपने तीन सौ आदमियों को ले कर फरार हो गया और उज्र यह पेश किया कि मेरी राय के मुताबिक़ मदीने में रह कर मुकाबला नहीं किया गया इसलिए मैं इस जंग में शरीक नहीं हो सकता। ऐन वक्त पर इब्ने उबई के पीठ दिखाने की वजह से मुसलमान जो पहले ही संख्या में कम थे अब वह और कम हो गए (केवल सात सौ
हासिल यह है कि हिजरत के शुरूआती महीने व साल में मुसलमानों को बाहरी और भीतरी दो मोर्चों पर दुश्मन से लड़ना पड़ता था इन हालात में अल्लाह पाक ने अपने पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को हुक्म फरमाया: कि जो खुले दुश्मन हैं और क़त्ल व किताल पर आमादा हैं उनसे आप *तलवार से जिहाद* करें और जो छुपे दुश्मन हैं अर्थात मुनाफेकीन उन्हें दलीलों के जरिये हक़ कुबूल करने पर आमादा करें या डांट फटकार कर उन्हें राहे रास्त पर लाएं या उनके राज़ को फाश कर के उनकी खबासत ए बातिनी को ज़ाहिर कर दें और दोनों के साथ बहुत सख्ती से पेश आएं ताकि उनका जोर टूट जाए और इस्लाम को गलबा व इक्तिदार हासिल हो जाए। (तफसीरे कबीर मा तहतुल आयह)
जारी----------
[To
be continued]
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मौलाना बदरुद्दूजा रज़वी मिस्बाही, मदरसा अरबिया अशरफिया ज़िया-उल-उलूम खैराबाद, ज़िला मऊनाथ भंजन, उत्तरप्रदेश, के प्रधानाचार्य, एक सूफी मिजाज आलिम-ए-दिन, बेहतरीन टीचर, अच्छे लेखक, कवि और प्रिय वक्ता हैं। उनकी कई किताबें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमे कुछ मशहूर यह हैं, 1) फजीलत-ए-रमज़ान, 2) जादूल हरमैन, 3) मुखज़िन-ए-तिब, 4) तौजीहात ए अहसन, 5) मुल्ला हसन की शरह, 6) तहज़ीब अल फराइज़, 7) अताईब अल तहानी फी हल्ले मुख़तसर अल मआनी, 8) साहिह मुस्लिम हदीस की शरह
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